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कनक तिवारी लिखते हैं-किसके लेफ्टिनेंट?गवर्नर हैं क्या?
28-Mar-2023 2:44 PM
कनक तिवारी लिखते हैं-किसके लेफ्टिनेंट?गवर्नर हैं क्या?

 कनक तिवारी

आज दूसरी किस्त। 

 जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज कुमार सिन्हा ने गांधी की पढ़ाई को लेकर एक निहायत नाजायज, गैरजरूरी, और झूठी बात कही है। गांधी के मामलों के एक बड़े जानकार, देश के एक प्रमुख और चर्चित लेखक कनक तिवारी ने इतिहास के इस पहलू पर मेहनत से शोध करके यह लंबा लेख लिखा है। इसे अखबार के पन्नों पर एक दिन में छापना मुमकिन नहीं है, इसलिए हम इसे दो किस्तों में दे रहे हैं,  -संपादक

ब्रिटेन के छात्रों सहित बाहरी छात्रों को विश्वविद्यालय में नियमित पढऩे में कई तरह की कठिनाइयां महसूस हो रही थीं। अव्वल तो फीस और खर्च ज़्यादा होने से निम्न मध्यवर्ग के छात्र जाने की सोच नहीं सकते थे। फिर अन्य संस्थाओं/विधाओं के साथ कई तरह की बंदिशें और अतिरिक्त पढ़ाई भी होती थी। इन सब कारणों से जिन छात्रों को मुनासिब ज्ञान लेकर वकालत के पेशे में जाना होता था उनमें औपचारिक विश्वविद्यालयों के छात्रों का प्रतिशत बहुत ज्यादा नहीं था। 1828 में यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढ़ाई का पाठ्यक्रम शुरू किया गया था लेकिन वर्ष 1900 तक केवल 135 विद्यार्थी स्नातक परीक्षा पास कर पाए। यही वजह रही कि भारत सहित दुनिया के अन्य देषों के और अंगरेजी के भी होनहार छात्र विश्वविद्यालय के समानांतर कार्यरत इन इन्स में उसी गुुणवत्ता की पढ़ाई और ट्रेनिंग ले पाते थे। इनकी विश्वसनीयता दषकोंं बल्कि सदियों से व्यावहारिक, उपयोगी और प्रोन्नत होती रही थी। इन छात्रों को स्टूडेन्ट बैरिस्टर ही कहा जाता था। 

जानना चाहिए कि भारत के बहुत मषहूर वकील मोहम्मद अली जिन्ना भी  लिंकन इन्स के छात्र रहे थे। डॉ. शंकरदयाल षर्मा, जुल्फिकार अली भुट्टो और न जाने कितने! विष्व प्रसिद्ध जज लॉर्ड डेनिंग भी। दुनिया में ऐसे लाखों हजारों बैरिस्टर और वकील समय समय पर हुए जो इन्हीं इन्स में स्थानीय, सामाजिक और अकादेमिक कारणों से पढ़ते और प्रशिक्षण लेते रहे हैं। यह कहना कि गांधी के पास कोई कानून की कोई डिग्री नहीं थी, दुर्भावनापूर्ण वक्तव्य है। मनोज सिन्हा को समझाना चाहिए था गांधी 1888 में कानून की पढ़ाई करने इंग्लैंड गए। तब वहां समाज प्रतिष्ठित संस्थाएं इन्स ज्यादा वांछनीय होकर उपलब्ध थीं। उनमें वही पढ़ाई, वही ट्रेनिंग, और प्राप्त होने वाली सनद का ठीक वही महत्व था। उसे हासिल कर वकालत या बैरिस्टरी करनेे के लिए छात्र को काबिलियत और अधिकार पूरी तौर पर हासिल हो जाता था। इसी के तहत गांधी 6 नवंबर 1888 को इनर टेंपल की मानद सोसायटी के सदस्य बने। उन्हें 28 मई 1891 को वकालत की परीक्षा पास करने का प्रमाण मिला और 10 जून 1891 को उन्हें बैरिस्टरी और वकालत करने की अनुमति दी गई। गांधी 12 जून 1891 को वहां से भारत लौटे।

गांधी ने अपनी पढ़ाई बाबत ‘आत्मकथा’ में खुद लिखा है ‘‘बैरिस्टर बनने के लिए दो बातों की जरूरत थी। एक थी, ‘टर्म पूरी करना’ अर्थात् सत्र में उपस्थित रहना। वर्ष में चार सत्र होते थे। ऐसे बारह सत्रों में हाजिर रहना था। दूसरी चीज थी, कानून की परीक्षा देना। सत्रों में उपस्थिति का मतलब था, ‘दावतें खाना’, यानी हर एक सत्र मेंं लगभग चौबीस दावतें होती थीं, उनमें से छह में सम्मिलित होना। विद्यार्थियों के लिए एक प्रकार के भोजन की और ‘बेंचरों‘ (विद्या-मंदिर के बड़ों) के लिए अलग से अमीरी भोजन की व्यवस्था रहती थी। इस पुरानी प्रथा का बाद में कोई मतलब नहीं रह गया। फिर भी प्राचीनता के प्रेमी-धीमे-इंग्लैंड में वह बनी रही। कानून की पढ़ाई सरल थी। बैरिस्टर मजाक में ‘डिनर (भोज के) बैरिस्टर ही कहलाते थे। सब जानते थे कि परीक्षा का मूल्य नहीं के बराबर है। मेेरे समय में दो परीक्षायें होती थीं: रोमन लॉ की और इंग्लैंड के कानून की। परीक्षा वर्ष में एक बार नहीं, चार बार होती थी। ऐसी सुविधा वाली परीक्षा किसी के लिए बोझ रूप हो ही नहीं सकती थी। पर मैंने उसे बोझ बना लिया। मुझे लगा कि मुझे मूल पुस्तकें पढ़ ही लेनी चाहिये। न पढऩे में मुझे धोखेबाजी लगी। इसलिए मैंने मूल पुस्तकें खरीदने पर काफी खर्च किया। मैंने रोमन लॉ को लेटिन में पढ़ डालने का निश्चय किया। विलायत की मैट्रिक्युलेशन परीक्षा में मैंने लेटिन सीखी थी, वह यहां उपयोगी सिद्ध हुई। इंग्लैंड के कानून का अध्ययन मैं नौ महीनों में काफी मेहनत के बाद समाप्त कर सका। परीक्षायें पास करके मैं 10 जून, 1891 के दिन बैरिस्टर कहलाया। 11 जून को ढाई षिलिंग देकर इंग्लैंड के हाईकोर्ट में अपना नाम दर्ज कराया और 12 जून को हिन्दुस्तान के लिए रवाना हुआ।

यह कहना गलत है कि गांधी के पास केवल गुजरात से मैट्रिक पास करने का डिप्लोमा था। गांधी ने मैट्रिक की परीक्षा 1887 में पूरे इत्मीनान और अध्ययन से पास की थी। गांधी ने अंगरेजी, गुजराती, हिन्दी भाषाओंं सहित गणित और सामान्य ज्ञान की पढ़ाई भी की थी और सभी पर्चों में बैठे थे। उस मान्यता प्राप्त परीक्षा में पास होने से ही उन्हें लंदन में वकालत की पढ़ाई के लिए दाखिला मिला था। यह बताना महत्वपूर्ण के साथ साथ जरूरी भी है कि गांधी को वकालत की पढ़ाई सहज और सरल लगती थी कि उनके पास समय बचता था। तब उन्होंंने अपने एक मित्र की सलाह से लंदन में होने वाली मैट्रिक की परीक्षा भी अतिरिक्त रूप से पास की। इस तरह दो बार मैट्रिक की परीक्षा पास करने के साथ कानून की पढ़ाई करते रहे। उन्होंने लेटिन भाषा सीखी जबकि ऐसा करना ज़रूरी नहीं था। फ्रेंच में भी गांधी ने परीक्षा पास की। दरअसल उस वक्त के इंग्लैंड में 80 प्रतिशत से ज्यादा लोग तो इन्हीं इन्स में पढ़ते रहे क्योंकि वहां पढऩे की बेहतर सहूलियतें और सुविधाएं रही हैं और गुणवत्ता के साथ कोई समझौता भी नहीं होता था। वहां पढ़ाई और प्रमाणन की उतनी ही मान्यता थी जितनी तथाकथित रूप से लॉ की डिग्री जैसी कोई अकादेमिक प्रमाणन की बात हो सकती थी। जानना जरूरी है कि बार एसोसिएशन जैसी वकीलों की संस्थाएं औपचारिक यूनिवर्सिटी डिग्री को व्यावहारिक अनुभव सहित ट्रेनिंग और पढ़ाई के मुकाबले कमतर मानती थीं।

यह पूरी पृष्ठभूमि मनोज कुमार सिन्हा जी को मालूम रही है-ऐसा मुझे लगता है। इसे उन्होंने क्योंं छिपाया? उन्होंने छात्रों से कहा वे गांधी जी के बारे में बात कर रहे हैं, जो सत्य के बहुत बड़े प्रतीक हैं। इसलिए सच कह रहे हैं कि उनके पास कोई डिग्री नहीं थी। यह क्यों नहीं बताया कि गांधी को जो सनद मिली और हजारों छात्रों को भी जिनमें कई बड़े नाम हैं (वही तो लॉ की डिग्री समझी जाने से ये छात्र बैरिस्टरी करते गए)। ये सब भी तो इन्हीं चारों इन्स में से पढ़े हैं। तो वही तो लॉ डिग्री समझी और कही जाएगी। वह सदियों से व्यवहार में लागू रही है। शब्दों को इस तरह नहीं चबाना चाहिए जिससे पर्याय और अर्थ गायब हो जाएं और केवल छिलके की शैली की तरह दांतों में चिपके रहें। मैं मनोज सिन्हा से कहता हूं कि मनोज जी ने गांधी जी की उच्च शिक्षा को लेकर गलतबयानी की है। ऐसी उनसे उम्मीद नहीं थी। वे जिस वैचारिक यूनिवर्सिटी के छात्र हैं, वहां उनके पास तो अदृष्य और अजन्मी एंटायर पोलिटिकल साइंस की डिग्री भी होती है। कहां है मोदी जी की वह डिग्री जो अदालती रक्षा कवच के अंदर छिपी हुई है? उनके बारे में क्यों नहीं कहते? यदि गांधी के पास कानून की विश्वसनीय डिग्री नहीं होती तो दुनिया के सबसे बड़े जननेता के खिलाफ लोग चुप कैसे रह सकते थे। क्या यह नरेन्द्र मोदी को एंटायर पोलिटिकल साइंस की डिग्री के सवाल पूछने वालों से बचाने की कोई जुुगत है? या लेफ्टिनेंट गवर्नर मोदी की दृष्टि में अपने नंबर बढ़ाकर जम्मू कश्मीर से प्रोन्नत होकर अपनी रुखसती चाहते हैं।

कभी किसी महापुरुष के खिलाफ विशवमन नहीं करना चाहिए और न ही उसके चरित्र और लोकछवि पर थूकने की कोषिष करना चाहिए। ऐसा करने के पहले गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत याद रखना चाहिए कि आसमान की ओर देखकर थूकने से क्या हासिल होता है? कहना तो चाहिए था कि गांधी कानून और अंगरेजी गद्य के महारथी थे। उनके जैसा अंगरेजी गद्य तो भारत में बहुत कम लोग लिख पाए हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री आशीष नंदी ने कहा ही है कि गांधी की भाषा में बाइबिल जैसी सादगी और पवित्रता है। गांधी की स्तुति में तो बहुत कुछ कहा गया है। फिलवक्त उसकी जरूरत नहीं है। लेकिन संवैधानिक पद पर बैठा हुआ एक व्यक्ति जानबूझकर वक्तव्य देगा जिससे गांधी जैसे महामानव की अकादेमिक शिक्षा को लेकर भ्रम पैदा हो। क्या कहना चाहते हैं कि गांधी को मालूम था कि इनर टेम्पल की उनकी डिग्री बैरिस्टर बनने के लायक नहीं थी? फिर भी गांधी बैरिस्टर बन गए। अफवाहों और झूठ का बाजार तो भारत में एक सरगना के कारण महामारी की तरह फैल गया है। उस प्रदूषित कथानक में मनोज सिन्हा ने एक और कथा जोड़ दी। छात्रों ने उन्हें सुना। उनमें से कुछ के मन में सच के खिलाफ  झूठ का प्रदूषण इंजेक्ट हो गया होगा। बेचारे छात्रों ने मनोज कुमार सिन्हा का क्या बिगाड़ा था जो उनका जीवन बर्बाद करने उन्हें झूठ सुनने मजबूर कर गए।

असल में बोलने में षब्दार्थ पर निहितार्थ की पकड़ होती है। क्या यह कहने का अर्थ हो सकता है कि गांधी जी पढ़े लिखे तो थे नहीं, फिर भी जबरिया वकालत कर रहे थे?

जम्मू कश्मीर के आतंकवाद से जूझते लेफ्टिनेंट गवर्नर साहब! हम आपके उद्गारों को क्या कह सकते हैं झूठ का आतंकवाद!

पुनश्च: यदि गलती हो गई हो, तो क्षमा करेंगे क्योंकि गांधी यही कहने सपने में आए थे कि किसी को परेशान मत करो!

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