विचार / लेख
मल्टीप्लेक्स और ओ टी टी के इस दौर में यदि 80-90 के दशक की फिल्मों की बात करें तो पूरा नजारा एक कहानी की तरह आँखों के सामने से गुजर जाता है।
उस समय में फिल्में देखने जाना रोमांच जैसा था और अपने पसंदीदा कलाकार की फिल्म देखने जाना तो और भी मजेदार अहसास था।.
फिल्में देखने का शौक और जेब में सीमित पैसा
उस दौर में सिनेमा घरों में तीन ही क्लास हुआ करते थे।
लोवर क्लास 1 रुपये 35 पैसे
अपर क्लास 1 रूपये 60 पैसे
और बालकनी 3 रूपये 20 पैसे
अखबारों में एक पूरा पेज रायपुर बिलासपुर, रायगढ़, दुर्ग, भिलाई, राजनांदगाँव के सिनेमाघरों में लगे हुए फिल्मो के फोटो और उसके शो तथा उसमे आने वाली भीड़ के वर्णन से भरा रहता था।
मसलन ....
अपार भीड़ का दूसरा सप्ताह
राज एयर कूल्ड में शानदार 6 खेलों में देखिये
सम्पूर्ण परिवार के देखने योग्य
महिलाओं के विशेष मांग पर पुन:प्रदर्शित
एडवांस बुकिंग 1 घंटे पहले शुरू
अखबार मे सबसे पहले फिल्मों का पेज पढा जाना बहुत आम था, और ये सभी शब्द हमें बहुत रोमांचित करते थे।
कहीं-कहीं अपार गर्दी जैसे शब्दों का भी उपयोग होता था.. कहीँ कहीँ हीरो या खलनायक के सुपरहिट डायलॉग भी फिल्मों के फोटो के साथ लिखे होते थे।
जैसे...जली को आग कहते हैं बुझी को राख कहते है, जिस राख से बने बारूद उसे विश्वनाथ कहते हैं।
या
डॉन का इंतजार तो 11 मुल्कों की पुलिस कर रही है लेकिन डॉन को पकडऩा मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
या
पुष्पा आई हेट टीयर्स
यदि कहीं से 1 रुपये 35 पैसे का भी जुगाड़ हो जाए तो अपना काम बन जाता था, और 1 रुपये 60 पैसे हों तो फिर हम शहंशाह से कम नहीं।
दोस्त के साथ जाने पर भी अपना अपना पैसा देने की पारदर्शी प्रथा थी, किसी को बुरा भी नहीं लगता था, पैसे से अभाव वाला मित्र पहले ही अपने को किनारे कर लेता था।
हाँ, बालकनी में तभी जा पाते थे जब घर में कोई सम्पन्न रिश्तेदार आए और वो अपना रौब दिखाने सभी घरवालों को फिल्म दिखाने ले जाए, मसलन जीजाजी?
क्योंकि 3 रुपये 20 पैसे होने पर हमारे मन में दो फिल्में देखने का लड्डू फूटने लगता था। पहली देख के आने के बाद दूसरी की प्लानिंग शुरू
जेब में पैसे होने और फिल्म देखने की इच्छा होने के बावजूद घर वालों से अनुमति मिलना बहुत बड़ी उपलब्धि हुआ करती थी।.
स्कूल से भाग के या घर में बिना बताए फिल्म देखने जाना अत्यन्त रोमांचित करने वाला कदम होता था, और किसी को पता नहीं चलना किसी उपलब्धि से कम नहीं होता था। यह उपलब्धि हमे और रोमांच और खतरे से खेलने की प्रेरणा और हौसला देती थी।
आज के दौर में ऑनलाइन टिकट बुक कर फिल्म शुरू होने के 5 मिनट पहले पहुँचने वाले युवा शायद उस समय साइकिल से घर से सिनेमा हॉल तक की दूरी और मन में चल रहा द्वन्द कि टिकट मिलेगा या नहीं की कल्पना भी न कर सकें।
मोहल्ले के कुछ ‘भाई लोगों को’ भारी भीड़ में सिनेमा में टिकट लेने में महारत हासिल हुआ करती थी। ऐसे लोगों के साथ सिनेमा देखने जाने में एक विश्वास रहता था कि चाहे जो भी हो सिनेमा तो देखकर आयेंगे ही।
टिकट बुकिंग क्लर्क से पहचान होना या गेट कीपर से पहचान होना ऐसा कान्फिडेंस देता था। जैसे साक्षात फिल्म का हीरो मदद करने आ गया हो।
कभी-कभी लाइन में टिकट खरीदने में शर्ट का फट जाना या हवाई चप्पल का टूट जाना तो आम बात थी।
मुद्दा तो ये हुआ करता था कि टिकट मिला या नहीं।
एक छोटी सी बुकिंग खिडक़ी में गिनती के पैसे मुठ्ठी में बंद करके जिसमें पहले ही एक हाथ के घुसने की जगह में तीन-चार हाथों का घुसा होना।
और जब टिकट क्लर्क मु_ी को खोलकर पैसे को निकालता था तब चिल्ला कर कहना भैया
तीन टिकट...
टिकट मिलने पर अपना हुलिया ठीक करते हुए अपने साथियों को खोजना।
और फिर सिनेमा हाल के भीतर पहुँचकर पंखे के आसपास अपने लिए सीट हासिल करना।
सोचता हूँ कि जिस काम को जितने तन्मयता से किया जाए उसके पूर्ण होने पर उतनी अधिक खुशी होती है।
तब की फिल्मों की कहानी महीनों याद रहती थी अब इसके बिलकुल विपरीत है।
अब आप 24 घंटे पहले टिकट बुक कर लेते हैं तो रोमांच तो खत्म हो गया।
टिकट कन्फर्म है तो फिल्म देखने जाने पर सिनेमा हाल में भीड़ होगी या नहीं सिनेमा देख पायेंगे या नहीं वाला द्वन्द समाप्त हो गया।
टिकट घर से बुक हो चुका है तो लाइन में लगकर टिकट लेने पर
शर्ट फटने या हवाई चप्पल के टूट जाने की संभावना या आशंका भी खत्म हो गई।
सिनेमा रिलीज होने की संख्या इतनी हो गई है कि अब गाने तो दूर कहानी भी याद नहीं रहती।
सिनेमा अब सार्वजनिक स्थानों पर चर्चा का विषय भी नहीं रहा जो कि पहले हुआ करता था।
विज्ञान के आविष्कार ने हमें बहुत कुछ खोने को मजबूर कर दिया।
कुछ बातों का अहसास फिर से करने के लिए पुराने दौर पर लौट जाने की इच्छा होती है। और शायद इसलिए हर किसी को अपने पुराने और गुजरे हुए वक्त करना उस दौर की बार बार बातें करना बहुत अच्छा लगता है, जहां ना कपट था ना दिखावा सब कुछ सरल और स्वाभाविक।
वाकई बहुत ही कम पैसों में हमने बेहद खूबसूरत और यादगार बचपन और किशोरावस्था को जिया है, जिसकी आज के दौर के बच्चे कल्पना भी नहीं कर सकते।
एक गीत की पंक्ति उन यादों के मौसम के लिए बिल्कुल सही लगती है।
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन...
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