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कर्नाटक में कुर्सी की दौड़ में बीजेपी या कांग्रेस, कौन निकलेगा आगे?
29-Apr-2023 4:37 PM
कर्नाटक में कुर्सी की दौड़ में बीजेपी या कांग्रेस, कौन निकलेगा आगे?

 इमरान कुरैशी

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में अब दो सप्ताह से भी कम समय रह गया है। इस चुनाव के दो प्रमुख दावेदारों-भाजपा और कांग्रेस के सामने जो चुनौतियाँ हैं, वो एकदम अलग हैं। दोनों पार्टियों में से किसी की भी कोई गलती उनके लिए सांप और सीढ़ी का खेल बन सकती है।

चुनाव के तीसरे दावेदार जनता दल (सेक्युलर) भाजपा और कांग्रेस में से किसी के लडख़ड़ाने का इंतजार कर रही है ताकि वह ‘किंग न सही, किंगमेकर’ तो बन सके। जेडीएस की इच्छा पूर्ति इस बात पर निर्भर करती है कि राज्य की राजनीति के प्रमुख दावेदारों यानी कांग्रेस और बीजेपी अपनी चुनौतियों का सामना कैसे करते हैं।

यदि भाजपा या उसके विधायक एंटी-इन्कंबेंसी (सत्ता विरोधी लहर) का सामना कर रहे हैं, तो कांग्रेस ऐसी ज़मीन पर चल रही है, जो पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है। कुछ हफ्ते पहले राज्य के सामने जितने विवादित मामले थे, अब उतने मुद्दे नहीं बचे हैं।

उदाहरण के तौर पर, संशोधित आरक्षण नीति को अब ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर नाराजग़ी जताई थी। हालांकि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कई जगहों पर मुसलमानों के लिए आरक्षण हटाने को सही ठहराया और विवाद में फँसाने के लिए कांग्रेस के सामने चारा फेंके हैं।

अमित शाह ने एक जनसभा में यह भी कहा कि अगर कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार चुनी जाती है, तो राज्य में सांप्रदायिक दंगे होंगे। हालांकि, राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कर्नाटक में सांप्रदायिक मुद्दे अपने चरम पर पहुंच गए हैं।

शाह के अलावा बाक़ी नेताओं के नैरेटिव में अचानक बदलाव होना काफी महत्वपूर्ण है। इससे यह पता चलता है कि राज्य में तीनों दल बड़ी सावधानी से अपना काम कर रहे हैं।

ऐसे में इस स्टोरी में हम जानेंगे कि राज्य के 5.3 करोड़ वोटरों के दिल और दिमाग जीतने के लिए राजनीतिक दलों के सामने चुनौतियाँ क्या हैं?

10 मई को होने वाला मतदान ये तय करेगा कि अगले पांच साल तक कर्नाटक में कौन राज करेगा। यह याद रखना चाहिए कि 1985 के बाद यानी पिछले 38 सालों में कर्नाटक के मतदाताओं ने लगातार पांच साल से ज़्यादा किसी भी पार्टी को बर्दाश्त नहीं किया है।

‘ऑपरेशन कमल’ के जरिए जेडीएस-कांग्रेस सरकार गिराए जाने के एक साल बाद 2019 में बीजेपी सत्ता में आई थी। बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस बात की है कि सरकार का बचाव कैसे किया जाए।

भोपाल के जागरण लेकसाइड यूनिवर्सिटी के प्रो-वाइस चांसलर और राजनीतिक विश्लेषक प्रोसंदीप शास्त्री ने बीबीसी हिंदी को बताया, ‘शासन के अपने रिकॉर्ड का बचाव करने के लिए उन्हें जोर लगाना होगा। राज्य सरकार के प्रदर्शन पर बहुत कम ध्यान गया है।’

‘अब तक बीजेपी का चुनावी अभियान केंद्र सरकार की उपलब्धियों पर केंद्रित रहा है। आने वाले दो सप्ताह में पार्टी के कई केंद्रीय नेता प्रचार करने आएंगे। बीजेपी को उम्मीद है कि चुनाव के नतीजों को वह अपने पक्ष में कर सकती है। क्या वोटर राज्य के मुद्दों को तरजीह देंगे? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब ज़रूरी है।’

मैसूर विश्वविद्यालय के कला संकाय के डीन प्रो। मुजफ्फर असदी ने बीबीसी हिंदी को बताया, ‘तथ्य यह है कि कर्नाटक बीजेपी का नेतृत्व कमज़ोर है। यह पूरी तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पर निर्भर है। सत्ता में बैठी बीजेपी की असल चुनौती यह है कि वह कैसे अपने खिलाफ सत्ता विरोधी लहर से राज्य के स्तर और निजी स्तर पर निपटते हैं।’

उनके अनुसार, ‘दूसरा पहलू यह है कि बीजेपी कैसे भ्रष्टाचार, लिंगायत विरोधी और लिंगायत नेताओं को दरकिनार करने की छवि से निपट पाती है।’

पिछले साल कर्नाटक के ठेकेदारों की एसोसिएशन ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर बताया था कि राज्य 40 फीसदी कमिशन आम है और इसके बिना किसी सरकारी प्रोजेक्ट का ठेका नहीं मिलता।

राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार और पूर्व उप-मुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी के पार्टी छोडऩे के बाद, बीजेपी के अहम लिंगायत नेताओं ने लिंगायत वोट बैंक को लेकर बैठक की। निजी तौर पर बीजेपी के नेता स्वीकार करते हैं कि यह वोट बैंक अब बिखर गया है, खासतौर से उप-जातियों में।

प्रो मुजफ्फर असदी कहते हैं, ‘ऐसा लगता है कि बीएस येदियुरप्पा से कुछ उम्मीदें जगी थीं, लेकिन अमित शाह ने यह कहकर इस उम्मीद को ख़त्म कर दिया कि चुनाव से पहले किसी को मुख्यमंत्री नॉमिनेट नहीं किया जाएगा।’

प्रो संदीप शास्त्री भी पार्टी के लिंगायत नेताओं के बीच की अनिश्चितताओं को लेकर प्रो असदी की राय से सहमत हैं। लेकिन वह एक नया आयाम जोड़ते हैं।

वो कहते हैं, ‘सवाल यह है कि क्या बीजेपी किसी लिंगायत को मुख्यमंत्री बनाने की मांग का जवाब देगी। पार्टी ने मुख्यमंत्री पद के लिए किसी चेहरे का नाम नहीं बताया है, लेकिन पार्टी के भीतर के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देने की जरूरत है। सबसे जरूरी बात ये है कि पार्टी साफ तौर पर बैकफुट पर है। बीजेपी का अपना कोई एजेंडा नहीं है, वो केवल कांग्रेस के एजेंडे का जवाब दे रही है।’

बेलगावी के रानी चेन्नम्मा विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग की प्रोफेसर कमलाक्षी तदासद के मुताबिक, कर्नाटक के उत्तरी जिलों में बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दों को सबसे निराशाजनक मुद्दों के तौर पर उठाया जा रहा है।

प्रोफेसर कमलाक्षी एस तदासद ने कहा, ‘सेना में भर्ती की अग्रिवीर योजना से नाराज युवा वर्ग के बावजूद भाजपा हर जगह तीन से चार हजार नए मतदाताओं को टारगेट कर रही है। लिंगायत मठ के प्रमुखों पर गौर कीजिए, जिनसे अमित शाह ने कुछ दिन पहले मुलाकात की थी।’

कांग्रेस की चुनौतियाँ

प्रोफेसर असदी का मानना है कि कांग्रेस अभी सत्ता में वापसी को लेकर आश्वस्त दिख रही है और सबसे बड़ा कारक जो इसके खिलाफ जा सकता है, वो है- ‘आत्ममुग्धता’।

‘ओवर कॉन्फिडेंस कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती है। उनका विश्वास इस बात से भी बढ़ा हुआ है कि अन्य पार्टियों की तुलना में कांग्रेस में दावेदारों और बागियों की संख्या बहुत ज़्यादा है। पार्टी ओपिनियन पोल को ज़्यादा महत्व दे रही है। उनका नजरिया तब शायद संतुलित हो जाएगा, जब पीएम मोदी अपनी पार्टी के लिए प्रचार करना शुरू कर देंगे।’

प्रो.संदीप शास्त्री भाजपा की कार्यशैली के एक अहम पहलू की ओर इशारा करते हैं।

वो कहते हैं, ‘बीजेपी ने अतीत में कई बार हार के जबड़े से जीत हासिल की है। प्रचार के आखिरी हफ्ते में कांग्रेस के सामने यही चुनौती होगी। सवाल यह है कि क्या वह इस तरह के चुनावी हमले संभाल पाएगी, क्योंकि कांग्रेस में आत्ममुग्धता तेजी से बढ़ती है।’

कांग्रेस के लिए सकारात्मक पहलू ये है कि उसने कर्नाटक से जुड़े मुद्दों पर ध्यान केंद्रित रखा है और राष्ट्रीय मुद्दों को वो चुनाव में नहीं ला रही है।

प्रो.संदीप शास्त्री कहते हैं, ‘कांग्रेस राज्य के मुद्दों पर कब तक फोकस करेगी, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि पीएम और बाकी नेताओं की ओर से उठाए जाने वाले मुद्दों पर कांग्रेस विचलित कब होगी।’

‘राष्ट्रीय मुद्दों पर कर्नाटक कांग्रेस के रुख़ के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता कि वे कब क्या करेंगे। दूसरी चुनौती, सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार की गुटबाजी है। उम्मीदवारों की आखऱिी सूची की घोषणा के समय बने नाजुक संतुलन से यह जाहिर होता है। अगले दो हफ्तों के दौरान यह एकता कब तक बनी रहती है, इसे देखना अभी बाक़ी है।’

प्रो असदी और प्रो शास्त्री एक और फैक्टर की ओर इशारा करते हैं। केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने कांग्रेस को दो बार चुनावी जाल में फँसाने की कोशिश की। वे आरक्षण सूची से मुसलमानों को हटाने को जायज़ ठहराकर कांग्रेस को इस मुद्दे की तरफ खींचने की कोशिश कर रहे हैं।

प्रो.संदीप शास्त्री कहते हैं, ‘यह बहुत महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस इस पर कैसी प्रतिक्रिया देती है। अगर बीजेपी के उकसाने के बावजूद कांग्रेस कोई प्रतिक्रिया नहीं देती, तो यह बीजेपी पर उल्टी पड़ सकती है।’

प्रो कमलाक्षी भी प्रो असदी से सहमत हैं और कहती हैं कि कांग्रेस लिंगायत समुदाय के उप-जातियों के बीच से कुछ वोट हासिल करने का प्रयास कर रही है। इस प्रयास के लिए बीजेपी की प्रतिक्रिया पर ध्यान रखने की जरूरत है।’

जेडीएस के सामने चुनौतियाँ

जेडीएस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इतने सालों में वह कर्नाटक के उत्तरी जिलों तक अपनी पहुंच नहीं बना पाई है।

दक्षिणी कर्नाटक या पुराने मैसूर इलाके के वोक्कालिगा बहुल केवल आठ जिलों तक इसकी विकास सीमित रहा है। हालांकि बीजेपी और कांग्रेस से टिकट न पाने वाले असंतुष्ट उम्मीदवार जेडीएस से टिकट पाकर मैदान में उतरे हैं।

प्रो.असदी बताते हैं, ‘जेडीएस के प्रदर्शन पर पैनी नजर रहेगी। देखना है कि क्या जेडीएस अपनी जीती हुई सीटें बढ़ा सकती है। किसानों की पार्टी होने के दावे के वावजूद यह एक परिवार की पार्टी बनी हुई है। पार्टी के हालिया मतभेदों से उसे नुकसान हुआ है।’

हालांकि प्रो संदीप शास्त्री पारिवारिक झगड़े को अलग तरीके से रखते हैं।

वो कहते हैं, ‘इससे पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल काफी गिरा है। जब चुनाव की तैयारी शुरू हुई थी, तो माना जा रह था कि वो किसी तरह तीसरे स्थान पर रहेगी। लेकिन फिर कांग्रेस और भाजपा उम्मीदवारों के शामिल होने से अब यह सवाल खड़ा हुआ है कि क्या वो उत्तरी जिलों में अपना आधार बढ़ा पाएगी। यदि वो तीसरे जगह पर रहते हुए भी अच्छा प्रदर्शन करती है, तो इसका मतलब विधानसभा त्रिशंकु हो सकती है। यदि ऐसा नहीं होता है, तो इसका मतलब स्पष्ट जनादेश होगा।’ (bbc.com/hindi)

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