विचार / लेख

कटनी से गुजरते, माँ और पिता की स्मृति
10-Dec-2023 7:32 PM
कटनी से गुजरते, माँ और पिता की स्मृति

माता-पिता लक्ष्मीकांत शुक्ला और दुर्गा शुक्ला

- राजीव कुमार शुक्ला
आम तौर पर मुझसे जुड़े रहे लोग मेरे बारे में तरह-तरह की राय रखते हुए (जो स्वाभाविक है, होना ही है और लगभग सब के साथ होता है) एक आम धारणा यह रखते हैं कि मेरी याददाश्त ख़ासी अच्छी है और शायद जो तमाम अटरम-शटरम बातें मुझे याद बनी रहती रही हैं (गो अब कुछ धुंधलापन मंडराता पता चलता है) और जिनको मैं कई बार साथ में मौजूद लोगों के चाहे-अनचाहे बखानता रहता हूँ, वह सब इस धारणा को सत्यापित भी करता है।

पर एक विचित्र और मेरे लिए (और मेरी इस प्रसिद्धि के लिए) ख़ासा लज्जाजनक तथ्य यह है कि अपने पिता की मृत्यु की तारीख़ पर वह स्मृति बहुधा मेरे भीतर से जैसे धुल सी जाती है और फिर कभी अगले दिन, कभी दो-चार दिन बाद और कभी और भी ज़्यादा बाद में एक झटके से लौटती है। कई सालों तक एक विस्मयविमूढ़ पश्चाताप का आंतरिक कोड़ा उसके साथ लौटता था। अब चीजें ढलती जा रही हैं, तो पछतावा उतना तीखा नहीं होता, पर होता अब भी है। पिता का निधन 3 दिसम्बर, 1998 को हुआ था और इसलिए बीते 3 दिसम्बर को उनको गए 25 साल हो गए- चौथाई सदी। वे इक्कीसवीं सदी में साथ नहीं आ सके थे।

इक्कीसवीं सदी में माँ भी साथ नहीं आई थीं। पिताजी के देहावसान के ठीक चार दिन बाद 7 दिसम्बर, 1998 को उनकी भी देह छूट गई थी। मैं उस समय सतना में पिताजी की चिता से उनकी अस्थियाँ एकत्रित कर रहा था (कमाल की बात है कि इस प्रक्रिया को फूल चुनना भी कहा जाता है), जो 4 दिसम्बर को उनके दाह-संस्कार के तीन दिन बाद भी इतना ताप संजोए थी कि मेरी उंगलियाँ उस गर्म राख में थोड़ी-थोड़ी झुलसती जा रही थीं (मैं जीवित जो था)। तभी छोटे भाई सोनू श्मशान में बदहवास हाल में आए और बिलखते हुए जमीन पर लोटते-लोटते कहने लगे कि माँ भी नहीं रहीं। मुझे याद है कि जो पण्डित जी पुरोहिताई कर रहे थे, उन्होंने कहा, वाह, अद्भुत। कैसी सती नारी थीं। अब इसी चिता में उनका अंतिम संस्कार भी होगा। हुआ भी। यद्यपि इस ‘सती नारी’ के आख्यान में मेरी कोई आस्था न तब थी, न अब है, पर अपनी सामान्य आदत के अनुसार तब मैंने कोई लम्बा तर्क-वितर्क किया हो, ऐसा याद नहीं है। एक स्तब्ध सन्नाटा था, जिसने मुझे जकड़ लिया था, लेकिन पिता की मृत्यु के बाद की मेरी सूखी किरकती आंखों से आंसुओं की धार बह चली थी।

जन्म देने वाली मां सत्यवती शुक्ला

मुझे जन्म देने वाली माँ मेरी एक साल दस महीने की उम्र में ही चल बसी थीं। उनकी मेरे मन में छवि का आधार वे फोटो हैं, जिनमें अपने बाद वे दिखाई देती रहीं। जब हरदोई में होश संभाला था, तो मेरा घर स्त्रीविहीन घर था। पिता, मैं और एक पहाड़ी नौकर। तब छह साल का था, जब जून, 1963 में पिताजी के फिर विवाह के उपरांत वे माँ घर में आईं, जिन्होंने मुझे उसके बाद के जीवन में इस कदर और इतना सारा दुलार दिया कि मातृहीनता-बोध के वे शुरुआती वर्ष एक झीनी चादर में तहाकर भीतर के किसी तहख़ाने में रख दिए गए।

फिर भी, उन वर्षों ने एक विशेष काम कर दिया था। मेरी पीढ़ी तक उत्तर प्रदेश के अर्द्धसामंती सोच वाले मध्यवर्गीय समाज में पिता-पुत्र संवाद ही बहुत दुर्लभ हुआ करता था, अंतरंग बातचीत तो बहुधा असम्भव ही होती थी। पर मेरे शैशव और ठीक उसके बाद के वर्षों में पिता को मातापिता की जो दोहरी भूमिका निभानी पड़ी थी, उसने हमारे आपसी संबंधों में ऐसी गाढ़ी रागात्मकता सिरज दी थी कि अब तक की मेरी उम्र के आधे से अधिक काल तक वे मेरे सबसे घनिष्ठ और विश्वसनीय मित्र जैसे भी थे, इस हद तक कि यह कल्पना भी थर्रा देती थी कि कभी वे साथ नहीं रह जाएंगे। उनके बिना मैं कैसे जिऊँगा, समझ में नहीं आता था। पर वे अन्तत: चले ही तो गए और कयामत यह कि शानदार याददाश्त का तमग़ा लगाए फुदकने वाला और दुनिया-जहान की जानकारियों से लबालब रहने वाला मैं अक्सर ही उनके हमेशा के लिए बिछड़ जाने की तारीख़ उस दिन भूल जाता हूँ। कभी सोचता हूँ कि यह उस स्मृतिभ्रंश के सिलसिले का अगला चरण हो सकता है, जिसकी गिरफ्त में अपने पिता को उनके अंतिम वर्षों में जाते मैंने कातर निरुपायता के साथ देखा-जाना था। या शायद मेरे भीतर की गुंजलकों में बसने वाला कोई ‘डिफेंस मैकेनिज्म’ है। कौन जाने!

आज अभी मैं रेलगाड़ी यात्रा में हूँ दिल्ली से जबलपुर जाता हुआ। बर्थ पर आंखें बंद कर लेटा था कि अचानक याद आया कि आज 7 दिसम्बर है। माँ को गए 25 साल यानी चौथाई सदी पूरा होने की तारीख। कल सुबह कटनी से गुजरुंगा, जहाँ से कुछ ही दूर वह सतना है, जहाँ माँ और उसके चार दिन पूर्व पिता को पच्चीस साल पहले अंतिम विदा दी थी। सोचने लगा हूँ, तो माँ का स्नेहिल स्पर्श अपने सिर पर महसूस होने लगा है। और जैसे पापाजी की आवाज भी सुनाई देने लगी है।

और हाँ, माँ और पिता को याद करते हुए कुछ-कुछ उस जमाने में भी लौट रहा हूँ, जब घोर आस्तिकता से ओत-प्रोत वे दोनों मंदिरों और देवालयों के साथ-साथ उसी श्रद्धा भाव से मजारों और दरगाहों में भी जाते थे, अपनी उंगली पकड़ाकर मुझे भी ले जाते थे। उसे खोए यूं तो महज कुछ साल बीते हैं, पर लगता है जैसे न जाने कितनी चौथाई सदियाँ गुजर गईं। पर हमारे भीतर उजाला बिखेरती उस लौ को पनपाने के लिए माँ और पिता की स्मृति को सस्नेह अशेष आभार तथा नमन।

 

 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news