विचार / लेख
राज्य सभा में चर्चा के दौरान अपनी बात रखते अमित शाह
उमंग पोद्दार
भारतीय जनता पार्टी की सरकार की ओर से 2019 में अनुच्छेद-370 को हटाने के फ़ैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगा दी है।
सोमवार को सुप्रीम कोर्ट के पाँच जजों की पीठ ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को हटाने के फ़ैसले को बरकार रखा है। प्रधानमंत्री मोदी ने इस फ़ैसले का स्वागत किया है।
आइए यहाँ हम आपको अनुच्छेद-370 और इसे हटाने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया के बारे में बताते हैं।
यहाँ आप यह भी जान पाएंगे कि सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर करने वाले लोगों और सरकार की इसको लेकर दलीलें क्या हैं।
अनुच्छेद 370 क्या था?
अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान का एक प्रावधान था। यह जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देता था। यह भारतीय संविधान की उपयोगिता को राज्य में सीमित कर देता था।
संविधान के अनुच्छेद-1 के अलावा, जो कहता है कि भारत राज्यों का एक संघ है, कोई अन्य अनुच्छेद जम्मू और कश्मीर पर लागू नहीं होता था। जम्मू कश्मीर का अपना एक अलग संविधान था।
भारत के राष्ट्रपति के पास ज़रूरत पडऩे पर किसी भी बदलाव के साथ संविधान के किसी भी हिस्से को राज्य में लागू करने की ताक़त थी। हालाँकि इसके लिए राज्य सरकार की सहमति अनिवार्य थी।
इसमें यह भी कहा गया था कि भारतीय संसद के पास केवल विदेश मामलों, रक्षा और संचार के संबंध में राज्य में क़ानून बनाने की शक्तियां हैं।
इस अनुच्छेद में इस बात की भी सीमा थी कि इसमें संशोधन कैसे किया जा सकता है।
इसमें कहा गया था कि इस प्रावधान में राष्ट्रपति जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सहमति से ही संशोधन कर सकते हैं।
जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा का गठन 1951 में किया गया था। इसमें 75 सदस्य थे।
इसने जम्मू और कश्मीर के संविधान का मसौदा तैयार किया था। ठीक उसी तरह जैसे भारत की संविधान सभा ने भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया था।
राज्य के संविधान को अपनाने के बाद नवंबर 1956 में जम्मू-कश्मीर संविधान सभा का अस्तित्व ख़त्म हो गया था।
बीजेपी काफ़ी लंबे समय से इस अनुच्छेद को कश्मीर के भारत के साथ एकीकरण की दिशा में कांटा मान रही थी।उसने अपने घोषणापत्र में भी कहा था कि वह भारतीय संविधान से अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाएगी।
अनुच्छेद 35-ए को 1954 में संविधान में शामिल किया गया था। यह प्रावधान जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासियों को सरकारी रोजग़ार, राज्य में संपत्ति खऱीदने और राज्य में रहने के लिए विशेष अधिकार देता था।
इसे कैसे हटाया गया
इसे हटाने के लिए अपनाई गई क़ानूनी प्रक्रिया काफ़ी जटिल और पेचीदा थी।
2019 में पाँच अगस्त को राष्ट्रपति ने एक आदेश जारी किया। इससे संविधान में संशोधन हुआ। इसमें कहा गया कि राज्य की संविधान सभा के संदर्भ का अर्थ राज्य की विधानसभा होगा।
इसमें यह भी कहा गया था कि राज्य की सरकार राज्य के राज्यपाल के समकक्ष होगी।
यहां यह महत्वपूर्ण है क्योंकि जब संशोधन पारित हुआ, तो जम्मू कश्मीर में दिसंबर 2018 से राष्ट्रपति शासन लगा हुआ था।
जून 2018 में, भाजपा ने पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। इसके बाद राज्य 6 महीने तक राज्यपाल शासन और फिर राष्ट्रपति शासन के अधीन रहा।
सामान्य परिस्थितियों में इस संशोधन के लिए राष्ट्रपति को राज्य विधानमंडल की सहमति की ज़रूरत होती, लेकिन राष्ट्रपति शासन के कारण विधानमंडल की सहमति संभव नहीं थी।
इस आदेश ने राष्ट्रपति और केंद्र सरकार को अनुच्छेद 370 में जिस भी तरीक़े से सही लगे संशोधन करने की ताक़त दे दी।
इसके अगले दिन राष्ट्रपति ने एक और आदेश जारी किया। इसमें कहा गया कि भारतीय संविधान के सभी प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर लागू होंगे। इससे जम्मू कश्मीर को मिला विशेष दर्जा ख़त्म हो गया।
9 अगस्त को, संसद ने राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों: जम्मू और कश्मीर और लद्दाख में बाँटने वाला एक क़ानून पारित किया। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा होगी, लेकिन लद्दाख में नहीं होगी।
अनुच्छेद 370 हटने का परिणाम क्या हुआ?
जम्मू-कश्मीर में पाँच अगस्त से लॉकडाउन लगा दिया गया था। वहां कर्फ्यू लगा दिया गया था। टेलीफोन नेटवर्क और इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई थीं।
राजनीतिक दलों के नेताओं समेत हज़ारों लोगों को या तो हिरासत में ले लिया गया या गिरफ्तार किया गया या नजऱबंद कर दिया गया।
जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बल के कई लाख जवानों को तैनात किया गया।
2जी इंटरनेट को कुछ महीने बाद जनवरी 2020 में बहाल किया गया जबकि 4जी इंटरनेट को फऱवरी 2021 में बहाल किया गया।
अनुच्छेदों को हटाए जाने के तुरंत बाद इसे चुनौती देते हुए कई याचिकाएँ दायर की गईं।
अगस्त 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को पाँच जजों की बेंच के पास भेज दिया था। अदालत ने इस साल अगस्त में इस मामले की अंतिम दलीलें सुननी शुरू कीं।
किन लोगों ने दायर की हैं याचिकाएं?
इस मामले में कुल 23 याचिकाएं दायर की गई हैं। इस मामले के याचिकाकर्ताओं में नागरिक समाज संगठन, वकील, राजनेता, पत्रकार और कार्यकर्ता शामिल हैं।
इनमें से कुछ में जम्मू-कश्मीर पीपल्स कॉन्फ्रेंस, पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और सांसद मोहम्मद अकबर लोन और जम्मू और कश्मीर के पूर्व वार्ताकार राधा कुमार शामिल हैं।
याचिकाकर्ताओं की क्या दलील है?
अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद अलगाववादी नेता मीरवाइज उमर फारूक के नजरबंद कर दिया गया था। उन्हें इस साल सितंबर में रिहा किया गया है।
याचिकाकर्ताओं ने अदालत से अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँटने को रद्द करने की मांग की है।
याचिकाकर्ताओं के मुताबिक़ अनुच्छेद 370 एक स्थायी प्रावधान था। चूँकि इसमें किसी भी बदलाव के लिए राज्य की संविधान सभा के इजाजत की ज़रूरत होती थी, जिसे 1956 में भंग कर दिया गया था।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि 370 हटाना उस विलय पत्र के विरुद्ध था, जिसके ज़रिए जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा बना।
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह लोगों की इच्छा के ख़िलाफ़ जाने के लिए किया गया एक राजनीतिक कृत्य था।
उनकी दलील है कि संविधान सभा को विधानसभा से स्थानापन्न नहीं किया जा सकता क्योंकि वे अलग-अलग काम करती हैं।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि जब राज्य राष्ट्रपति शासन के अधीन था तो यह संशोधन नहीं हो सकता था।
राज्यपाल, जो केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त व्यक्ति है, उन्होंने संशोधन पारित करते समय और बाद में अनुच्छेद 370 को हटाते समय विधानसभा की जगह ले ली।
उन्होंने यह भी तर्क दिया कि केंद्र के पास किसी राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँटने की शक्ति नहीं है, क्योंकि इससे राज्य की स्वायत्तता कम हो जाती है और संघवाद पर असर पड़ता है।
ऐसा इसलिए है क्योंकि केंद्र शासित प्रदेश पर केंद्र सरकार का नियंत्रण होगा।
सरकार ने अपने फ़ैसले का बचाव कैसे किया?
सरकार का तर्क है कि अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान था। चूँकि संविधान सभा भंग हो गई थी, इसलिए विधानसभा को वह पद ग्रहण करना पड़ा। अगर ऐसा नहीं होता तो प्रावधान में कभी संशोधन नहीं हो सकता था।
सरकार की दलील है कि इस बदलाव ने जम्मू-कश्मीर को पूरी तरह से भारत में एकीकृत कर दिया। सरकार ने दलील दी कि राज्य के निवासियों के ख़िलाफ़ भेदभाव होता था क्योंकि वहाँ भारतीय संविधान पूरी तरह से लागू नहीं होता था।
इसके अलावा, सरकार ने कहा कि राष्ट्रपति शासन में उनके या राज्यपाल की ओर से पारित आदेश राज्य विधानमंडल की ओर से पारित आदेशों के बराबर हैं। इसलिए, राष्ट्रपति शासन में स्थिति बदलने से यह काम अवैध नहीं हो जाएगा।
सरकार का यह भी कहना था कि उसके पास राज्यों का पुनर्गठन करने की व्यापक शक्तियां हैं। वह किसी राज्य के नाम, क्षेत्र, सीमाओं को बदल सकती है और राज्य को केंद्र शासित प्रदेशों में भी बाँट सकती है।
इसके अलावा सरकार ने यह भी कहा कि क़ानून व्यवस्था की स्थिति सामान्य होने पर सरकार जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल कर देगी।
यह भी कहा गया कि विशेष दर्जा हटाने से राज्य में विकास, पर्यटन और कानून-व्यवस्था को बढ़ावा मिला। इसलिए, यह एक फ़ायदेमंद क़दम था। (bbc.com)