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नए चेहरों के हाथ में कमान, क्या चाहते हैं पीएम मोदी और अमित शाह
15-Dec-2023 4:02 PM
नए चेहरों के हाथ में कमान, क्या चाहते हैं  पीएम मोदी और अमित शाह

 प्रियंका झा

बीजेपी ने चौंकाने वाली पुरानी परंपरा को बरकरार रखते हुए मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में नए सीएम पदों के चेहरों का एलान कर दिया है।

शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह जैसे दिग्गज नेताओं को चुनने की बजाय पार्टी ने मोहन यादव, भजन लाल शर्मा और विष्णु देव साय को मुख्यमंत्री के पद दिए हैं।

बीजेपी ने सप्ताह भर से अधिक चले मंथन के बाद इन तीनों नामों पर मुहर लगाई। मध्य प्रदेश और राजस्थान में पार्टी ने दो-दो डिप्टी सीएम भी बनाए हैं।

बीजेपी के इन चुनावों को 2024 के लिए उसकी बड़ी रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है।

जानकारों का मानना है कि पार्टी ने इन पदों पर जो लोग चुने हैं उसके ज़रिए जातिगत समीकरणों को भी साधने की कोशिश की है, ताकि विपक्ष जाति को लोकसभा चुनाव में हथियार की तरह इस्तेमाल न कर सके।

इसके साथ ही ये अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के समय में चुने गए मुख्यमंत्रियों का दौर ख़त्म होने का भी संकेत देता है।

हालांकि, चुनावों के पहले ही तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों को बीजेपी ने ये संकेत देने शुरू कर दिए थे कि अब नए चेहरों को जि़म्मेदारी दी जाएगी।

जानकारों का मानना है कि पार्टी ने इन राज्यों के विधानसभा चुनाव मुख्यमंत्रियों के नाम पर नहीं लड़ा। बल्कि सारा अभियान पीएम मोदी और उनकी गारंटियों पर केंद्रित रहा।

दूसरा ये कि बीजेपी ने कई सांसदों को इन राज्यों का विधानसभा चुनाव लड़वाया, और नतीजों के बाद जीतने वालों से इस्तीफ़ा लिया।

ऐसे में ये सवाल उठता है कि बड़े नेताओं को साइडलाइन कर उनकी जगह नए चेहरों पर दांव लगाकर भारतीय जनता पार्टी क्या हासिल करना चाहती हैं और इससे क्या संकेत देने की कोशिश की जा रही है?

2024 चुनावों की तैयारी या फिर वजह कुछ और?

मध्य प्रदेश में बीजेपी की जीत में ओबीसी समुदाय के वोटरों की बड़ी भूमिका रही है। यहां कांग्रेस जातीय जनगणना और आरक्षण जैसे मुद्दों के सहारे ओबीसी को अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रही थी।

लेकिन 2018 की तुलना में बीजेपी अधिक ओबीसी वोट पाने में सफल रही। मोहन यादव के चुनाव को इसी का परिणाम माना गया।

वहीं, छत्तीसगढ़, राजस्थान और एमपी तीनों राज्यों में बीजेपी को इस बार आदिवासी इलाकों से अच्छी-खासी तादाद में लोगों ने वोट किया। पार्टी ने इन राज्यों की कुल 101 एसटी सीटों में से 56 फीसदी पर जीत हासिल की।

छत्तीसगढ़, जहां 90 में से 29 सीटें एसटी बहुल हैं, वहां पार्टी का असर सबसे अधिक रहा। 2018 में बीजेपी ने सिफऱ् 3 सीटें जीती थीं, जो इस बार 17 तक पहुंच गईं। पिछड़ी जनजातियां यानी एससी की देश में कुल आबादी करीब 9 फ़ीसदी है।

इसी को रेखांकित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार राधिका रामाशेषण सीएम पद के चेहरों के चुनाव पर बीजेपी की रणनीति को समझाते हुए कहती हैं, ‘पार्टी ये संदेश देना चाह रही है कि उन्हें इन तीन राज्यों में जो समर्थन मिला है, वह सिफऱ् मज़बूत न रहे बल्कि 2024 के चुनावों तक इसका विस्तार हो।’

ठीक ऐसे ही मध्य प्रदेश में यादव को लाने के पीछे का कारण बताते हुए वह कहती हैं, ‘इससे राज्य में जो संदेश जाएगा वो तो जाएगा ही लेकिन यूपी और बिहार के यादवों को भी बीजेपी एक संदेश देना चाहती थी।’

‘यूपी तो मध्य प्रदेश से सटा भी हुआ है। ऐसा नहीं कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी को यादवों का वोट नहीं मिलता, लेकिन ये अन्य ओबीसी समुदायों की तुलना में कम होता है। एमपी के ज़रिए बीजेपी ने यूपी और बिहार के यादवों को थोड़ा नरम करने की कोशिश ज़रूर की है।’

वहीं बीजेपी ने एक ब्राह्मण और एक अनुसूचित जाति के डिप्टी सीएम को नियुक्त कर संतुलन भी बैठाने की कोशिश की है। राजस्थान में भी पार्टी ने जाति समीकरण बैठाने की कोशिश की है।

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चौंकाने वाले नाम चुनना पुरानी रवायत

मुख्यमंत्री पद के लिए चुने गए सभी नाम ऐसे हैं, जिनकी दूर-दूर तक चर्चा नहीं थी। बल्कि मोहन यादव की तो सीएम के तौर पर नाम के एलान से पहले खींची एक तस्वीर भी काफ़ी वायरल हुई, जिसमें वे पीछे की पंक्ति में खड़े दिख रहे थे। वहीं, भजनलाल शर्मा तो विधायक ही पहली बार बने हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर किताब लिखने वाले निलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं कि अचानक से नए नाम को चुनने की ये रवायत नई नहीं है। बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भी ऐसा देखने को मिल चुका है।

वह प्रतिष्ठित कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण के एक चालीस साल पुराने कार्टून का जि़क्र करते हुए इसका उदाहरण देते हैं। ये कार्टून आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री के चुनाव से जुड़ा था।

एक कतार में कई नेता तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी के अभिवादन के लिए खड़े हैं, जिनमें से एक को चुनकर इंदिरा गांधी कहती हैं कि ‘अब आप नए मुख्यमंत्री हैं, आपका नाम क्या है?’

इस कार्टून के पृष्ठभूमि में साल 1982 में राजीव गांधी और आंध्र प्रदेश के तत्कालीन सीएम टी। अंजइया से जुड़ा वाकया था।

उस समय राजीव गांधी पार्टी के महासचिव होने के नाते हैदराबाद पहुंचे थे। टी। अंजइया ने यहां उनका ज़ोर-शोर से स्वागत किया। ये राजीव गांधी को बुरा लगा।

निलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘राजीव गांधी जब दिल्ली लौटे तो उन्होंने अपनी मां से टी। अंजइया को पद से हटाने के लिए कहा। इसके बाद टी। अंजइया को हटाया गया और लगातार दो बार ऐसे मुख्यमंत्री बने जिन्हें बहुत कम लोग जानते थे।’

टी. अंजइया ज़मीनी नेता थे, उन्हें हटाना कांग्रेस को भारी पड़ा। इसकी वजह से तेलुगु प्राइड आहत हुई और एनटी रामा राव ने इस भावना को बढ़ावा देकर तेलुगु देशम पार्टी बनाई और आखिरकार वह 1983 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए। काफी समय तक वहां कांग्रेस सरकार नहीं बना पाई।

निलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘ऐसी ही स्थिति कल भी देखने को मिली। मैं कम से कम सात-आठ ऐसे पत्रकारों को जानता हूं, जिन्होंने भजन लाल शर्मा के नाम का एलान होते ही गूगल पर सर्च करना शुरू कर दिया कि आखिर ये कौन हैं।’

वह कहते हैं, ‘यही मध्य प्रदेश में भी हुआ।’

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कार्यकर्ताओं को क्या संदेश देने की कोशिश?

निलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं कि दिखाया ये जा रहा है कि एकदम अनजान, बिना किसी बड़े ओहदे वाले, बिना बड़े समर्थन वाले नेताओं को मुख्यमंत्री बनाया गया।

वह कहते हैं कि 2014 के बाद जब झारखंड, हरियाणा और महाराष्ट्र में सरकारें बनीं तो मनोहर लाल खट्टर, देवेंद्र फडणवीस, रघुवर दास सीएम बने थे, जिन्हें अपने कार्यक्षेत्र के बाहर बहुत कम लोग जानते थे। इनकी राष्ट्रीय स्तर पर कोई छवि नहीं थी।

हालांकि, इसके पीछे की वजह गिनाते हुए वह कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा से उन चेहरों के साथ सहज रहे हैं, जिनका कोई ख़ास प्रोफ़ाइल नहीं है। क्योंकि वह किसी को भी संभावित प्रतिस्पर्धी के तौर पर उभरने नहीं देना चाहते।’

वह बताते हैं कि मोदी जब सीएम थे और 2011 से लेकर 2013 तक ये बहस हो रही थी कि बीजेपी का प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन होगा, तब उनके सामने शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे ऐसे नेता थे जिन्होंने इस पद तक जाने के लिए अपनी संभावनाएं भी दिखाईं।

मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘ये तो सब जानते हैं कि मोदी थोड़े ऐसे नेता हैं, जो न तो भूलते हैं और न माफ करते हैं। उनको ये चीजें याद रहती हैं।’

दूसरे स्तर पर है जातीय समीकरण। तीनों राज्यों में हर जाति के बीच पार्टी ने संतुलन बैठा लिया गया है। सीएम और डिप्टी सीएम में आदिवासी, ब्राह्मण, ओबीसी, राजपूत समुदाय का प्रतिनिधित्व भी है।

डिप्टी सीएम बनाकर भी ये इशारा दिया जा रहा है कि अगर आप लोगों ने सही काम नहीं किया, तो पीछे दो और लोग तैयार हो रहे हैं। ये संकेत दिया जा रहा है कि कोई अपने आप को बड़ा न समझे।

सिफऱ् मोदी और शाह ही होंगे पार्टी का चेहरा?

मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने लाडली बहना और लाडली लक्ष्मी जैसी अपनी योजनाओं का भी काफ़ी इस्तेमाल किया। इसका बीजेपी को फ़ायदा भी मिला। चर्चा ये भी हुई कि जीत का श्रेय किसको जाना चाहिए।

जानकारों के मुताबिक पार्टी ने चुनाव से पहले हर राज्य में पीएम मोदी के चेहरे को ही आगे रखा। जीत के बाद सभी प्रमुख नेता इसका श्रेय भी पीएम मोदी को ही देते दिखे।

तो क्या अब हर चुनाव में मोदी और शाह ही बीजेपी का चेहरा होंगे। इस सवाल पर राधिका रामाशेषण कहती हैं, ‘अगर आप आज नक्शे पर देखें तो गोवा, गुजरात, उत्तराखंड, हरियाणा, इन सभी राज्यों में सीएम दिल्ली से चुने गए हैं।’

तीनों मुख्यमंत्रियों में एक समानता ये भी है कि सभी बीजेपी के मार्गदर्शक माने जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करीबी रहे हैं। तो क्या अब बड़े पदों पर आरएसएस से जुड़े चेहरे ही दिखेंगे।

इस पर राधिका रामाशेषण कहती हैं कि मोदी-शाह के कार्यकाल में एबीवीपी (अखिल भारतीय छात्रसंघ) बहुत अहम हो गया है। मोदी खुद एबीवीपी से नहीं बल्कि आरएसएस से आए हैं, लेकिन एबीवीपी की स्थापना आरएसएस ने ही की।

पार्टी में केवल मोदी और शाह के फैसले मानने के चलन पर निलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘ये तो 2014 से ही हो रहा है। एक-दो मामले हटा दीजिए, जैसे 2017 में वे यूपी में मनोज सिन्हा को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन दूसरी जगह से दबाव की वजह से योगी को सीएम बनाया, मगर बाकी मामलों में धीरे-धीरे यही देखने को मिला है कि अब एक ही सम्राट हैं और उन्हीं की चलेगी।’ (bbc.com)

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