विचार / लेख
पुष्य मित्र
कोई भी समूह क्या खाता है यह उसके परिवेश और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। जैसे बर्फीले मुल्क में मांसाहार और शराब आवश्यक है और बिहार-बंगाल जैसे नदियों के इलाके में मछलियां। इसलिए कश्मीर से लेकर नॉर्थ ईस्ट तक और बिहार बंगाल में ब्राह्मण जातियां भी मांसाहार करती रही हैं। उत्तर बिहार-बंगाल और असम में तो पूरा तीन महीने पूरा इलाका बाढ़ में डूबा रहता था, वे शाकाहार कैसे अफोर्ड करते।
कई इलाके के लोग दूध और डेयरी उत्पाद अधिक खाते हैं और कई इलाके के मसालेदार भोजन। एक ही इलाके में अलग-अलग समूह के लोगों के भी भोजन अलग तरह के होते हैं। जैसे बिहार में ही मुशहर चूहा खाते रहे हैं और निषाद जातीय समूह मछली के साथ-साथ केकड़े और घोघा आदि भी खाते हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों में कुत्ते और सांप आदि खाने की भी परंपरा है। बस्तर में और दूसरे आदिवासी इलाकों में चींटी की चटनी खाई जाती है।
खानपान की कोई परंपरा गलत नहीं कही जा सकती, क्योंकि ये सदियों से टेस्टेड परंपरा है। इन्हीं परंपराओं की वजह से भीषण गरीबी के बीच भी मुशहर, डोम और निषाद जैसी जातियों के लोग हृष्टपुष्ट होते आये हैं। इन्हें हरी सब्जी और दूध नसीब नहीं होता। मगर अपने परिवेश में उपलब्ध मुफ्त के मांसाहार से इन्हें प्रोटीन और वसा मिलती रहती है।
सिक्किम के मंदिरों में मुझे बीफ और पोर्क खाने वाले पुजारी मिले। उन्हें बिल्कुल हैरत नहीं होती थी कि वे पुजारी होकर मांसाहार क्यों कर रहे।
मेरे एक मित्र लाइफ स्टाइल रोग से पीडि़त थे। उन्हें डॉक्टर ने कहा कि आप वही खाइये, जो आपके दादा-परदादा खाते रहे हैं। जाहिर है, वे परंपरा से टेस्टेड भोजन के महत्व को समझते थे।
शाकाहार मूलत: पश्चिम भारत का प्रचलन है। जहां वैष्णव धर्म के मानने वाले अधिक हैं। राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में शाकाहार का चलन अधिक है। यूपी और मध्यप्रदेश में और दूसरे आसपास के राज्यों में ब्राह्मण शाकाहारी होते हैं। वहां की परिस्थितियों ने इस परंपरा का जो जन्म दिया होगा कि जीवों को बचाकर रखा जाए। ये खेती और दूध आदि देने में काम आते हैं।
इंसान जो खाता है, जो उसका प्रिय भोजन होता है, अपने ईश्वर को वही भोग के रूप में चढ़ा देता है। वैष्णव धर्मावलंबी शाकाहारी प्रसाद चढ़ाते हैं तो शक्ति के उपासक देवी को बली के रूप में जीव चढ़ाते हैं और फिर उसे खाते हैं। उत्तर बिहार के कुछ इलाकों में जहां लोग ज्वालामुखी की पूजा करते हैं, उन्हें मुर्गे की बलि दी जाती है। कई देवियों को तो मदिरा तक अर्पित की जाती है। हिंदुओं में भी आदिवासियों में भी यह परंपरा रही है। इसमें कुछ असहज नहीं है।
भोजन की परंपराओं का भी अतिक्रमण होता रहा है। बौद्ध और जैन परंपराएं तो पशु बलि के विरोध में ही अस्तित्व में आयीं। इसके बावजूद बुद्ध ने मांसाहार को पूरी तरह निषेध नहीं किया। उनका आखिरी आहार भी सूअर का मांस था। बाद में वज्रयानी और तंत्रयानी बौद्ध ने भी मांस और मदिरा के सहारे पूजन प्रक्रिया शुरू की। यही तांत्रिक परंपरा फिर हिंदुओं में भी शाक्त और तंत्र परंपरा के रूप में आयी और यहां भी मांस और मदिरा का भोग लगने लगा।
जैन परंपरा शाकाहार को लेकर रिजिड रहे और इसलिए जैन धर्म में अमूमन व्यवसायी वर्ग ने ही रुचि ली, जो शाकाहार करके जीवित रह सकते थे। जहां बौद्ध धर्म को अपनाने वाले हर जाति के लोग थे, जैनियों के साथ ऐसा नहीं हुआ।
माना जाता है कि बौद्ध औऱ जैन परंपराओं का हिंदुओं पर असर ये हुआ कि वे पशु बलि के बदले नर बलि(नर पशु बलि) देने लगे। क्योंकि नर पशु न दूध देते थे, न बच्चे। इसलिए आज भी नर बलि का जिक्र धर्मग्रंथों में होता है। जानकार नर बलि का अर्थ नर पशु बलि के रूप में लेते हैं।
फिर दूसरा संक्रमण वैष्णव संप्रदाय का हुआ, जिसके अगुआ चैतन्य महाप्रभु थे। फिर कबीर पंथ ने शाकाहार की परंपरा को आगे बढ़ाया। रामनामी संप्रदाय भी आया, जिसने लोगों को कंठी धारण करने के लिए प्रेरित किया।
खास कर कबीरपंथ और ऐसे मिलते जुलते संप्रदाय जो वैचारिक रूप से तो काफी प्रगतिशील थे, मगर उन्होंने समाज के गरीब और निचली श्रेणी के लोगों में शाकाहार का प्रचार कर उनका बड़ा नुकसान कर दिया। ऐसा मैं मानता हूं।
बचपन में हमने इन जातियों के लोगों को हृष्ट-पुष्ट और मेहनती पाया है। मगर इन्होंने मांसाहार छोड़ा तो इनकी बस्तियों में बच्चे कुपोषित होने लगे। चूहे, घोंघे, केकरे और मछलियों के रूप में सहज और लगभग मुफ्त मिलने वाले पोषक आहार से ये वंचित हो गये। बदले में हरी सब्जी और दूध पाने की इनकी हैसियत नहीं थी।
मगर वैष्णव होने को सम्मानित निगाह से देखा गया और इसका आकर्षण पैदा किया गया। चूहा, घोघा और केकड़ा खाने को हीन समझा गया।
इस मसले पर बात करते हुए कथाकार मधुकर की कहानी दुश्मन याद आती है। जिसमें डोम जाति का एक युवक एमएलए बनता है। जब उसके स्वागत में उसकी बस्ती के लोग सूअर का मांस पकाते हैं, तो वह उसे खाने से इनकार कर देता है। अपने गले की तुलसी की कंठी दिखाता है। उसके जाने के बाद उसकी बस्ती के लोग कहते हैं, अब यह हमारा नहीं रहा, यह दुश्मन हो गया। इस कथा में यह समझ आता है कि जैसे ही किसी का वर्ग बदलता है, वह शाकाहार को अपनाने के आकर्षण में घिर जाता है।
नया अभियान सनातनी हिंदुत्व से प्रेरित है। वह सभी हिंदुओं को वैष्णव बनाना चाहता है। क्योंकि इसकी राजनीति का केंद्र देश के वैष्णव इलाके में है। पिछले दिनों मैंने एक नक्शा पेश किया था। उस नक्शे को फिर से देखें। समझ आयेगा।
मगर भारत का हिंदुत्व और सनातन भी एकरूप नहीं है। इसमें अलग-अलग परंपराएं हैं। आप सभी परंपराओं को एकरूप नहीं कर सकते। इसलिए दरभंगा में जब श्यामा मंदिर में बलि प्रथा को बंद कराया जाता है तो उसके विरोध में दक्षिणपंथी औऱ हिंदुत्ववादी भी सक्रिय नजर आते हैं।
व्यक्तिगत रूप से मैं भी बलि प्रथा के विरोध में हूं। मगर यह मेरा व्यक्तिगत विचार है। मैं अपना यह आग्रह किसी पर थोपना नहीं चाहता। हिंदू धर्म में यह व्यवस्था है कि अगर आप पशुबलि बंद कराना चाहते हैं तो नारियल या कुम्हर की बलि दे सकते हैं। मगर यह व्यक्तिगत चयन है, अगर आपकी इच्छा है तो इसे अपना लें। इसके लिए सामूहिक और संस्थागत आदेश ठीक नहीं। क्योंकि अंतत: ये चीजें हमें दूसरी परंपराओं के भी निषेध करने की तरफ ले जाती है।
कुल मिलाकर यह सब भोजन की राजनीति है। हम अपना विचार थोपते हुए अक्सर दूसरों पर अपनी भोजन परंपरा को भी थोपने लगते हैं और दूसरों की भोजन परंपरा को कमतर बताने लगते हैं। जबकि इस दुनिया में हर जीव भोजन के लिए किसी न किसी जीव की हत्या तो करता ही है। चाहे शाकाहारी हो, मांसाहारी हो या वीगन हो। इसलिए भोजन के मामले में दखल देना भी एक खतरनाक तानाशाही है। इससे बचना चाहिए।
(ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं, इसका मेरी पत्रकारिता से लेना-देना नहीं है)