विचार / लेख
- चैतन्य नागर
विपश्यना शब्द संस्कृत का है और इसे पाली में विपस्सना कहते हैं। इसकी उत्पत्ति गौतम बुद्ध की एक देशना में ही ढूँढी गई है। एक युवक बुद्ध के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ और उसने उनसे पूछा- ‘आप मनुष्य हैं या देवता?’ बुद्ध ने जवाब दिया- ‘मैं सजग हूँ’। युवक ने पूछा कि इसका अर्थ क्या हुआ। इस पर बुद्ध ने कहा: ‘मैं जब दाहिने देखता हूँ तो मैं सजग रहता हूँ कि मैं दाहिने देख रहा हूँ; मैं जब बाएं देखता हूँ, तो सजग रहता हूँ कि मैं बाएं देख रहा हूँ’। इसके अर्थ को समझने की कोशिश करें तो यही समझ में आता है कि बुद्ध मन और देह की हर गतिविधि के प्रति सजग रहने की सलाह देते हैं। विपश्यना का अर्थ गहराई से देखना भी होता है। किसी भी शारीरिक या मानसिक हरकत तो देखना हो तो पूरी गहराई के साथ देखना। वह जैसी हैं, वैसी ही उसे देखना। यथा भूतं, जस का तस।
देश की कई हिस्सों में हज़ारों की संख्या में विपश्यना केंद्र खुले हुए हैं। ख़ास कर उन जगहों पर जहाँ विदेशी पर्यटक बड़ी संख्या में आते हैं। इस देश में वे गहरी आध्यात्मिकता की खोज में आते हैं, पर बदले में उन्हें क्या मिलता है, ये तो वही बता सकते हैं!
पूंजीवादी अक्सर ध्यान और विपश्यना जैसी विधियों का उपयोग करते हैं। इन विधियों के बारे में यह प्रचलित है कि इन्हें अपनाने से लोगों की एकाग्रता बढ़ती है, मन इधर उधर नहीं भटकता, लोग जम कर काम करते हैं। नियोक्ताओं को और क्या चाहिए! कर्मचारी मन लगाकर काम करें, ध्यान वगैरह करके अपनी मानसिक और आध्यात्मिक सेहत बनायें और उनका कारोबार बढ़ता रहे।
राजनीति में भी विपश्यना के कई लाभ हैं। आप गहराई तक देखना सीखते हैं। तो इसका उपयोग आप अपने मन की गहराइयों तक उतरने में भी कर सकते हैं और अपने विरोधियों के मन में भी। अक्सर नेता इस विधि का उपयोग अपने विरोधियों के मन की गहराइयों तक उतरने के लिए करते हैं। वे क्या सोच रहे हैं, उनकी अगली चाल कैसी होगी, वगैरह। कुछ नेता संकट की घड़ी में ऐसा एलान कर देते हैं कि वे विपश्यना के लिए जा रहे हैं। यदि आप विपक्ष में हैं और सत्तारूढ़ दल या सरकारी एजेंसियां आपको दबोचने के लिए तैयार हैं, तो ऐसे में उन्हें थोडा समय भी मिल जाता है अपनी अगली योजना बनाने का। भारत में धर्म निरपेक्षता हमेशा से पॉपुलर और फैशन में रही है। अब ऐसे नेता तो हैं नहीं जो खुले आम केदारनाथ या काशी विश्वनाथ मंदिर चले जाएँ और उन्हें अपने धर्मनिरपेक्ष न होने की परवाह ही न रहे। वर्त्तमान प्रधान मंत्री ने माहौल ही कुछ ऐसा बना दिया है कि नेताओं को खुल कर मजारों पर या मस्जिदों में जाने से पहले भी चार बार सोचना पड़ता है। सॉफ्ट हिंदुत्व के फायदों पर थोडा विचार करना पड़ता है। ऐसे में भी विपश्यना जैसे बौद्ध तरीके राजनीतिक दृष्टि से भी फायदेमंद होते हैं। धर्मनिरपेक्षता का सवाल सिर्फ दो धर्मों को लेकर ही उठता है। बौद्ध धर्म इसकी माया से दूर है।
सवाल यह उठता है कि अरविंद केजरीवाल विपश्यना के लिए बार-बार क्यों जाता है? इस महीने के आखिर में वह फिर से दस दिनों की विपश्यना के लिए जायेंगे। विपश्यना की विधि तो अहंकार के नाश के लिए बनी है। जब आप वर्त्तमान क्षण में रहते हैं, जैसा कि विपश्यना सिखाती है, तब उन क्षणों में आप अहंकार से मुक्त रहते हैं। पर राजनेता तो हमेशा भविष्य की योजना बनाता है। अतीत की गलतियों पर कराहता रहता है। उसे विपश्यना किस काम आती है? एक तरफ स्व से, अहम् वृत्तियों से मुक्ति की बात है, और दूसरी तरफ सियासत का अर्थ ही है आत्मविस्तार। आज दिल्ली, कल पंजाब, फिर गुजरात और फिर हरियाणा और फिर समूचा देश। मतलब आत्म-विस्तार की सीमा कहीं समाप्त नहीं होती राजनीति में। और ध्यान जैसी विधियाँ इंसान को शांत कर देती हैं, वह कम बोलता है, मीठा और सच बोलता है। जरूरत पडऩे पर ही बोलता है। राजनीति में तो जो जितना अधिक बोले, उतना ही बड़ा समझा जाता है। सच बोलना राजनेताओं के करियर के लिए खतरनाक होता है। सच के जाल में फंसने का डर होता है। झूठ का मार्ग सियासत में आसान होता है। सरल और सहज होता है।
एक है मुक्ति का मार्ग, और दूसरा, सांसारिक बंधनों की राह। बुद्ध ने राजनीति छोडी और तब उन्हें विपश्यना जैसे अद्भुत विधि का महत्त्व समझ में आया। महल में बैठे रहते तो कहाँ से ऐसी गहरी बातें उनके मन में आतीं। राजनेता और अपने महल की मरम्मत, उसे नया और खूबसूरत बनाने की फिक्र में ही लगा रहता है। कई तरह से देखें तो विपश्यना, ध्यान और राजनीति किसी मोड़ पर मिलते नहीं। दोनों का मार्ग ही अलग है। प्रारंभिक बिंदु भी अलग है, और गंतव्य भी अलग है। किसी नेता का विपश्यना के लिए जाना वैसा ही है जैसे कि किसी शंकराचार्य या किसी लामा का बीच-बीच में राजनीति में आ जाना और चुनाव लडऩा।
यह भी सवाल उठता है कि झूठ, फरेब और अशांति की दुनिया को बीच बीच में छोड़ कर निर्वाण के मार्ग पर, साल के आखिर में एक हफ्ते के लिए जाने की क्या जरूरत पड़ती होगी। क्या विपश्यना का कोई सियासती पहलू भी है जहाँ ख़ास कर सियासती खेल के गुर सिखाये जाते हैं? इस बात की थोड़ी तहकीकात करनी चाहिए। विपश्यना प्रेमी नेता अरविंद केजरीवाल ने 2014 में कहा था कि राजनीति से संन्यास लेने के बाद वे अपना जीवन विपश्यना के लिए समर्पित कर देंगे। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि निकट भविष्य में राजनीति को अलविदा कहने का उनका कोई इरादा नहीं। तो क्या कोई अचानक सुबह उठता है और निर्वानोंमुख हो जाता है। इस दिशा में जाने के कुछ लक्षण तो पहले से आपके बर्ताव, वाणी आदि में परिलक्षित होने चाहिए न? बरसों तक वादाखिलाफी, रायता फैलाने और बेतुकी बातें करने के बाद क्या कोई अचानक संबोधि का पात्र बन जाता है और अपना जीवन विपश्यना को समर्पित कर देता है? इसमें गहरा संदेह है।
शांति की खोज में वही रहता है जो अशांत हो। ध्यान की पनाह वही लेता है जो बेचैन हो। यदि बुद्ध से केजरीवाल मिलते तो बुद्ध शायद यही कहते- ‘शांति न ढूँढो। अशांति का कारण ढूँढो। विपश्यना से शांति नहीं मिलती। जब मन शांत होता है तो विपश्यना अपने आप घट जाती है’।