विचार / लेख
ध्रुव गुप्त
भारतीय सिनेमा के महानतम संगीतकारों में एक नौशाद को सिनेमाई संगीत में भारतीय शास्त्रीय संगीत के सुर और रस घोलने के लिए बड़े एहतराम के साथ याद किया जाता है। हिंदी सिनेमा के सबसे ज्यादा मधुर और कालजयी गीत उनके ही दिए हुए हैं। ऐसे गीत जो सुकून देते हैं और इस अहसास को गहरा करते हैं कि जीवन में अभी बहुत कुछ सुंदर, शांत और कोमल बचा हुआ है।
लखनऊ के अकबरी गेट के कांधारी बाज़ार की गलियों से शुरू होकर 1940 में मुंबई पहुंचा उनका संगीत का सफर 1944 की फिल्म ‘रतन’ से उरूज़ पर पहुंचा था। उसके बाद जो हुआ वह आज इतिहास है। अपने छह दशक लंबे कैरियर में उन्होंने जिन धुनों की रचना की वे आज हमारी सांगीतिक विरासत का अनमोल हिस्सा हैं। नौशाद को संगीत की बारीकियों की ही नहीं, संगीत की नई प्रतिभाओं की भी पहचान थी।
मोहम्मद रफ़ी और सुरैया जैसे महान फनकारों को सामने लाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। अमीरबाई कर्नाटकी, निर्मलादेवी, उमा देवी उर्फ टुनटुन को गायन के क्षेत्र में उन्होंने ही उतारा था। नौशाद ही थे जिन्होंने उस्ताद बड़े गुलाम अली खां, उस्ताद अमीर खां और डीवी पलुस्कर जैसी शास्त्रीय संगीत की महान विभूतियों से भी उनकी अनिच्छा के बावजूद अपनी फिल्मों में गीत गवा लिए। उस दौर में जब राज कपूर के लिए मुकेश और दिलीप कुमार के लिए रफी की आवाज रूढ़ हो चली थी, नौशाद ने फिल्म ‘अंदाज’ में दिलीप कुमार के लिए मुकेश और राज कपूर के लिए रफ़ी की आवाज का पहली बार उपयोग कर सबको चौंका दिया था।
बहुत कम लोगों को पता है कि नौशाद एक अज़ीम शायर भी थे जिनका दीवान 'आठवां सुर' के नाम से प्रकाशित हुआ था। संगीतकार नौशाद ने शायर नौशाद को पृष्ठभूमि में ढकेल रखा है। आज मरहूम नौशाद को उनके जन्मदिन पर खिराज, उन्हीं की एक गज़़ल के चंद अशआर के साथ !
आबादियों में दश्त का मंजऱ भी आएगा
गुजऱोगे शहर से तो मिरा घर भी आएगा
अच्छी नहीं नज़ाकत-ए-एहसास इस क़दर
शीशा अगर बनोगे तो पत्थर भी आएगा
सैराब हो के शाद न हों रह-रवान-ए-शौक़
रस्ते में तिश्नगी का समंदर भी आएगा
बैठा हूं कब से कूचा-ए-क़ातिल में सर-निगूं
क़ातिल के हाथ में कभी खंजऱ भी आएगा