विचार / लेख
ध्रुव गुप्त
भारतीय साहित्य के हज़ारों साल के इतिहास में कुछ ही लोग हैं जो अपने विद्रोही स्वर, अनुभूतियों की अतल गहराईयों और सोच की असीम ऊंचाईयों के साथ भीड़ से अलग दिखते हैं। मिजऱ्ा ग़ालिब उनमें से एक हैं।
मनुष्यता और प्रेम की तलाश, शाश्वत तृष्णा, गहन प्यास, मासूम गुस्ताखियों, विलक्षण अनुभूतियों और परिस्थितियों से तल्ख़ झड़प के इस अनोखे शायर के अनुभव-संसार और सौंदर्यबोध से गुजऱना कविता के प्रेमियों के लिए हमेशा एक दुर्लभ अनुभव रहा है। लफ्ज़़ों में अनुभूतियों की परतें इतनी कि जितनी बार पढ़ो, उनके नए-नए अर्थ खुलते जाते हैं। वैसे तो हर शायर की कृतियां अपने समय का दस्तावेज़ होती हैं, लेकिन अपने समय की पीडाओं की नक्काशी का ग़ालिब का अंदाज़ भी अलग था और तेवर भी जुदा।
उनकी शायरी को फ़ारसी और उर्दू शायरी में परंपरागत विषयों से प्रस्थान के रूप में देखा जाता है, जहां कोई रूढ़ जीवन-मूल्य, बंधी-बंधाई जीवन-शैली या स्थापित जीवन-दर्शन नहीं है। रूढिय़ों का सायास अतिक्रमण ववहां जीवन-मूल्य है और आवारगी जीवन-दर्शन।
कभी पुरानी दिल्ली के गली क़ासिम जान स्थित ग़ालिब की हवेली जाईए तो वहां उस उदासी, तन्हाई, बेचैनी और अधूरेपन का गहरा अहसास होता है जिसने ग़ालिब को ग़ालिब बनाया। यह वह हवेली है जिसमें जि़न्दगी की दुश्वारियों से टकराते हुए उन्होंने वह सब दिया जिसपर उर्दू ही नहीं, विश्व साहित्य को गर्व है। हवेली के एक कमरे में उनके इस्तेमाल के कुछ सामान रखे हैं मगर उनमें जो चीज़ मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वह है उनका हुक्का। इसी में शायद अपने ग़म गुडग़ुड़ाते रहे होंगे ग़ालिब। चौतरफ़ा अतिक्रमण की शिकार मुगलकालीन शैली में बनी इस ऐतिहासिक हवेली को वर्ष 1999 में सरकार ने राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर?इसका जीर्णोद्धार कराय था। हवेली में ‘चंद तस्वीरे बुतां, चंद हसीनों के ख़तूत’ तो अब यादें बन चुकी हैं, लेकिन उनकी सीली-सीली ख़ुशबू हवेली में अब भी महसूस होती है।
आज उर्दू के इस सर्वकालीन महानतम शायर के यौमे पैदाईश पर खेराज़-ए-अक़ीदत, उन्हीं के एक शेर के साथ-होगा कोई ऐसा भी कि ‘ग़ालिब’ को न जाने/शाइर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है