विचार / लेख
- हेमलता महिश्वर
आज भीमा कोरेगाँव शौर्य दिवस है और इधर हर बार मैं सुधा जी को भी याद करती हूँ।
सुधा भारद्वाज मेरी एक ऐसी मित्र हैं जिनको मैं हमेशा बहुत सम्मान के साथ याद करती हूँ। उनसे मेरी पहली मुलाक़ात प्रसिद्ध वक़ील, जाने- माने रचनाकार, गांधीवादी कनक तिवारी जी के घर पर हुई थी। उनके घर में बाहरी बड़ा सा कमरा उनका कार्यालय हुआ करता था। वे वहीं एक कुर्सी पर बैठी हुई थीं। कनक तिवारी जी ने हमारा परिचय करवाया था।
हम दोनों ने बातचीत की और वैचारिक तौर पर हमारी काफ़ी सहमति भी बनी। यही वजह थी कि अगली बार जब वो बिलासपुर आईं तो एक रात मेरे घर पर भी रुकीं। जब उन्हें पता चला कि मेरी बेटियां संगीत सीख रही हैं तो उन्होंने भी गोरख पांडे की कविता गाकर सुनाई। हाय.. वह आवाज़ आज भी वहीं अटकी हुई, लहरें ले रही है। क्या आवाज़ थी ... क्या पकड़ थी और क्या तो धैर्य था ... गज़़ब।
तभी उन्होंने बताया था कि वे किस माता-पिता की बेटी हैं। छ्वहृ में कृष्णा भारद्वाज के नाम पर व्याख्यान माला संचालित होती है। अब तो उनके शानदार परिवार और शिक्षा की जानकारी सबको हो चुकी है।
उसी रात उन्होंने एक दिलचस्प वाकय़ा सुनाया। वह यह था कि मज़दूरों की समस्याओं को सुलझाने के लिए उन्हें वकीलों के पास जाना पड़ता था। वकीलों के पास जाने-आने में, उनकी फ़ीस वग़ैरह में, सुनवाई की डेट लेने में और आवश्यकतानुसार दलील न रख पाना में धन और समय दोनों का ही अपव्यय बहुत होता था। मित्रों ने उन्हें सलाह दी कि क्यों न वे ख़ुद ही रुरुक्च कर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में अपनी वकालत शुरू कर दें। इससे वकीलों के पास जाने में जो समय लगता है, मिलने का समय लेना पड़ता है, किसी भी केस को समझाने में जो समय लगता है और इसके अलावा वक़ील का मेहनताना देने में जो पैसा लगता है, इन सबसे उनके वकालत शुरू करने पर राहत मिल जाएगी। कई बार तो कोर्ट जाने पर पता चलता कि आज केस पर बात नहीं हो पाएगी, डेट आगे बढ़ गई है। न्याय कब होगा, यह तो न्याय व्यवस्था पर निर्भर करता है।
सुधाजी को यह सलाह बहुत अच्छी लगी और उन्होने पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय में रुरुक्च करने के लिए आवेदन किया। पता चला कि उनका आवेदन स्वीकृत नहीं हो सकता क्योंकि उन्होंने रूस्ष्ट की है।उनके पास स्नातकोत्तर उपाधि है पर स्नातक की उपाधि नहीं है। रुरुक्च में प्रवेश के लिए स्नातक की उपाधि ही चाहिए। सुधाजी ने समझाया कि मैंने एकीकृत पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया था। इसमें लगातार पढ़ाई करते रहने पर स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त होती है और स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त होने का मतलब ये भी है कि स्नातक किया जा चुका है। पर व्यवस्था की जो ज़रूरत थी, वह इस बात को स्वीकार ही नहीं कर रही थी कि बग़ैर किसी स्नातक उपाधि के उन्हें स्नातक कैसे स्वीकार किया जा सके, चाहे उनके पास स्नातकोत्तर उपाधि थी। ख़ैर, उन्हें आईआईटी दिल्ली को भी समझाना पड़ा कि स्नातक उपाधि क्यों ज़रूरी है। जहां तक मुझे याद पड़ता है कि उन्हें स्नातक की उपाधि आईआईटी दिल्ली ने दे दी और वे एलएलबी में प्रवेश ले सकीं। कितने रोड़े होते हैं एक अच्छे काम को संपादित करने के लिए!
जब हमारी दोस्ती कुछ अनौपचारिक हो गई तो हम साथ खाना-पीना, सारा कुछ, घर-बाहर करने लगे। एक दिन मैंने अपनी इस्तेमाल की हुई वो साडिय़ाँ बाहर निकाल दी जिन्हें अब मैं नहीं पहन पाती थी। मैंने वो साडिय़ाँ सुधा जी को एक बैग में डालकर दे दी कि वे मज़दूर स्त्रियों के बीच उन्हें बांट देंगी। अगली बार जब वे मेरे घर आयीं तो वे उन्हीं साडिय़ों में से एक साड़ी पहने हुए थी। यह सिफऱ् महसूस सही किया जा सकता है के मुझे उस वक़्त कितनी शर्म आई अपने व्यवहार पर! मतलब मेरे पास शब्द नहीं है यह बताने के लिए कि मैं यह देखकर किस तरह से कट गई थी, यह तक उन्हें बता सकूँ। इतना बड़ा व्यक्तित्व और मेरी पहनकर छोड़ी हुई साड़ी इतनी सहजता से पहन ले, यह मुझे शर्मिंदा कर रहा था। लग रहा था कि मैंने ऐसे साड़ी उन्हें दी ही क्यों? उन्हें तो नई साड़ी दिया जाना चाहिए।
ऐसे ही एक बार मज़दूरों के ही किसी केस के लिए उन्हें दिल्ली आना था और उनके पास पैसे नहीं थे। उन्होंने मुझसे पैसे माँगे थे। मैंने तुरंत तो नहीं, दो-चार दिन बाद उन्हें दिए और यह सोचकर दिए कि ये पैसे मुझे वापस नहीं होंगे। पर लगभग एकाध महीने बाद वे घर आयी और उन्होंने मुझे पैसे दे दिए। एक बार फिर उनके का कार्य ने मुझे भी काटकर रख दिया था। पुन: शर्मिंदा हुई मैं। मैंने उनसे कहा भी कि ऐसी ज़रूरतों के लिए आप पैसे लिया करें, वापस न करें। उन्होंने कहा कि आप यहीं हैं। मानकर चलें कि पैसे यहीं हैं। कोई ऐसी ज़रूरत होगी तो आपसे साधिकार ले लेंगे।
जब मैं नौकरी के लिए दिल्ली आने लगी थी वह मुझ पर नाराज़ हुई थी। उन्होंने कहा कि दिल्ली में काम करने वालों की क्या कमी है। यहाँ से अच्छे लोग क्यों जाए? मैंने उन्हें अनसुना कर दिया था। मुझे लगता है कि वे आज तक मुझसे नाराज़ हैं। ऐसे संवेदनशील और कर्मठ लोगों की नाराजग़ी भी बिरले लोगों के हिस्से आती है। सुधाजी, सचमुच आप बहुत बहुत बड़ी हैं।