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न्यायपालिका की आजादी और सरकार के दबाव पर क्या बोले सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस कौल
03-Jan-2024 4:00 PM
न्यायपालिका की आजादी और सरकार के दबाव पर क्या बोले सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस कौल

उमंग पोद्दार

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस संजय किशन कौल ने कहा है कि देश में बहुमत की सरकारें न्यायपालिका पर दबाव बनाती हैं, लेकिन ऐसा वर्षों से होता रहा है।

बीबीसी के साथ विशेष बातचीत में उन्होंने कहा कि 1950 के बाद से ऐसा कई बार हुआ है।

उन्होंने इस दौरान 1975 से 1977 के दौर का भी जि़क्र किया और उस दौरान न्यायपालिका पर सवाल उठाए जाने की भी बात कही।

बोलने की आजादी के बारे में भी जस्टिस कौल ने कहा कि ये एक सामाजिक समस्या है। इस इंटरव्यू के दौरान उन्होंने स्वीकार किया कि समाज में इस तरह की दिक्कतें बढ़ी हैं।

बीबीसी के साथ इंटरव्यू में उन्होंने जजों की नियुक्ति, समलैंगिक विवाह और अनुच्छेद 370 पर आए फैसलों का भी बचाव किया।

न्यायपालिका तब और अब

सवाल - क्या आपको लगता है कि पहले न्यायाधीश जिस तरह के फ़ैसले दे सकते थे, या देते थे, आज के दिन भी वैसे ही निर्णय दे सकते हैं या उस पर कुछ असर पड़ा है?

जस्टिस कौल- ‘देखिए, ये एक प्रोसेस रहा है। अगर आप 1950 से देखेंगे तो ये प्रोसेस रहा है।

साल 1975 से 1977 के दौर में भी एक प्रोसेस रहा है। मैं ये कहूंगा कि हमेशा थोड़ी खींच-तान रहेगी, न्यायपालिका और कार्यपालिका में। वो अच्छा भी है कि थोड़ा सा टर्फ वॉर (खींच-तान) रहे।

न्यायपालिका का काम है, चेक एंड बैलेंस करना। जब हमारे पास इलेक्टोरल सिस्टम ऑफ डेमोक्रेसी है। उसमें जब गठबंधन सरकारें होती हैं तो न्यायपालिका का थोड़ा पुश बैक कम हो जाता है।

जब कोई ज़्यादा बहुमत से आए तो उन्हें लगता है कि हमें पब्लिक मैंडेट (जनता का समर्थन) है। तो वो परसीव (ऐसा लगता है) करते हैं कि न्यायपालिका हमारे काम में दखल क्यों दे रही है तो थोड़ा न्यायपालिका की तरफ पुशबैक ज़्यादा हो जाता है। ये थोड़ा तो खींच-तान रही है और रहेगी।’

सवाल- तो अभी पुश-बैक बढ़ा है?

जस्टिस कौल - ‘जब मेजोरिटी गवर्नमेंट (बहुमत वाली सरकार) होगी तो हमेशा पुश-बैक (दबाव) थोड़ा सा ज़्यादा होगा।’

सवाल - ये पुश-बैक किस तरह बढ़ता है?

जस्टिस कौल- ‘पुश-बैक इस तरह होता है कि एक लाइन है, उसके एक तरफ न्यायपालिका है और दूसरी ओर वो (कार्यपालिका) है।

मेरा मानना है कि जब-जब गठबंधन सरकारें आती हैं तो ये संभव है कि अदालत एक आध कदम उस लाइन के बाहर भी ले जाए। जब मेजोरिटी गवर्नमेंट (बहुमत वाली सरकारें) आती हैं तो वो (कोर्ट) पीछे आते हैं।

वो लार्जली (मोटे तौर पर) इस बात पर पीछे आते हैं कि मेजोरिटी गवर्नमेंट (बहुमत वाली सरकार) मानती है कि जो वो क़ानून ला रही है वो पब्लिक मैंडेट (जनमत) के साथ ला रही है। इसलिए उस पब्लिक मैंडेट (जनमत) का सम्मान करना चाहिए क्योंकि वो एक लोकतंत्र है।

कोर्ट की इसमें दखलअंदाजी कम होनी चाहिए। उसमें जब कोर्ट चैलेंज होता है और उसको हम देखते हैं तो उनको लगता है कि संसद ने तो (कानून) पास कर दिया है, हमारा काम है, कानून बनाना। आप इस चीज में क्यों दखलअंदाजी क्यों कर रहे हैं।

लेकिन कोर्ट की भूमिका का फुल एपरीसिएशन (पूरा महत्व) नहीं है। क्योंकि उसका काम ही है कि किस केस में दखलअंदाजी करना है, देखने के लिए। थोड़ा बहुत मतभेद रहे तो अच्छा ही है क्योंकि ये सिस्टम की वाइब्रेंसी दिखाता है।’

सवाल- आपको लगता है कि भारत में इस समय फ्री स्पीच (अभिव्यक्ति की आजादी) का जो स्टेटस है, आप जबसे जज बने हैं तब से आप इसमें किसी तरह का ट्रेंड देख रहे हैं। आपको लगता है कि अभिव्यक्ति की आजादी कम हुई है?

जस्टिस कौल - मेरा विचार ये है कि जो लिखता है, उसको लिखने दीजिए, जो पेंट कर रहा है, उसे पेंट करने दीजिए। मेरी अपनी सोच रही है कि हिंदुस्तानी सोसाइटी बहुत लिबरल (उदार) रही है। किसी धर्म का कुछ मानना है, किसी दूसरे धर्म का कुछ और मानना है।

अगर इतने डायवर्स देश (विविधताओं से भरे) को एक साथ रखना है और एक साथ रहना है तो एक दूसरे को टॉलरेट (सहना) करना तो सीखना पड़ेगा। मैं एक मज़बूत विश्वास रखता हूँ कि हर आदमी को अपनी जि़ंदगी को अपनी तरह जीने का हक है।

सवाल-क्या आपको लग रहा है कि अभी इस दौर में इस पर असर पड़ा है, जैसे अगर हम देखें तो इंडिया की प्रेस फ्रीडम इंडेक्स रेटिंग काफी गिर रही है। कितने पत्रकारों के खिलाफ मामले बढ़ रहे हैं, कुछ लिखने के लिए, कुछ करने के लिए?

जस्टिस कौल - देखिए कहीं न कहीं, कुछ दिक्कतें सामने आई हैं। लेकिन मैं किसी पीरियड (समय विशेष) पर इसे फिक्स नहीं करना चाहूंगा।

मैं इसे एक सामाजिक समस्या के रूप में देखता हूँ। अगर आप समाज को देखिए तो कहीं न कहीं हमारी एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता कम हुई है।

और मैं देश की बात नहीं कर रहा हूं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यही समस्या है।

हम मानते हैं कि माई-वे या हाई वे नहीं होना चाहिए। या तो मेरा रास्ता मानो या नहीं। तभी कोई कहता है कि वो भक्त हैं, वो ओपोनेंट हैं।

न्यायपालिका में यौन शोषण के मामले

सवाल- हाल ही में यूपी में एक सिविल जज थीं, उन्होंने चीफ जस्टिस को पत्र लिखा कि उनके जो जिला जज हैं, उन्होंने उनके साथ यौन उत्पीडऩ किया है। उसके बाद उनकी आईसीसी में शिकायत भी बहुत मुश्किल से दर्ज हो सकी। अब वो कह रही थीं कि उन्हें इथूनेशिया करने की इजाजत दे दी जाए क्योंकि उनमें अब जीने की कोई इच्छा नहीं रह गई है। तो ऐसे हमने पहले भी देखा कि जो पहले चीफ़ जस्टिस रह चुके हैं, रंजन गोगोई, उनके खिलाफ भी आरोप आए थे। अब जिला न्यायालय में एक जज हैं उनके खिलाफ आरोप लगाए गए हैं। ऐसे में न्यायपालिका के अंदर से जो यौन उत्पीडऩ की शिकायतें आती हैं, आपको लगता है कि न्यायपालिका उससे निपटने में पूरी तरह से असमर्थ रही है।

जस्टिस कौल- देखिए, भगवान जज को ऊपर से नहीं टपकाते हैं। वे भी हमारी सोसाइटी का हिस्सा हैं। ऐसे में जज से अपेक्षाएं ज़्यादा होती हैं। लेकिन वो एब्सोल्यूट नहीं हो सकतीं। कुछ मामले होंगे, जिनसे निपटा जा सकता है। अब ये एक खास मामला है, जिसकी जानकारी मुझे नहीं हैं।

लेकिन हर चीज में एक आरोप होता है और एक बचाव भी होता है। क्या हम आरोपों को फाइनल मान लें? और दूसरे शख्स को बर्बाद कर दें? बिना ये जांच किए कि उसने कोई गलती की है या नहीं?

मैं इसे एक भावुक प्रतिक्रिया समझूंगा कि मुझे मरने की अनुमति दीजिए। कुछ चि_ी लिखी है तो अटेंड हुई है। चीफ जस्टिस ने देखा है, उसे अटेंड किया है। ये नहीं है कि नजरअंदाज कर दी गई हो।

कभी-कभी एक पक्ष को लगता है कि मेरे तरीके से नहीं हो रहा है।।।है तो एड्रेस होगी। और सही ।।।नहीं है तो ये नहीं हो सकता कि जो नतीजा मुझे चाहिए, वही नतीजा चाहिए। ये किसी भी चीज़ में है।

सवाल- हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में जातिगत प्रतिनिधित्व को आप कैसे देखते हैं। विधि मंत्रालय के मुताबिक़, 5 सालों में हुईं 659 नियुक्तियों में 75त्न लोग सामान्य वर्ग के थे। एससी सिर्फ 3।5त्न और एसटी 1।5त्न और ये स्थिति सुप्रीम कोर्ट में भी रही है। इसकी क्या वजहें हैं?

जस्टिस कौल- न्यायिक नियुक्तियां तीन चरणों में होती हैं। सब-ऑर्डिनेट जजेज़ की जो नियुक्तियां होती हैं, उनमें आरक्षण होता है। उसे अमल में भी लाया जाता है। हाई कोर्ट के एक तिहाई जज उसी में से आते हैं। तो वो एक तिहाई का तो प्रतिनिधित्व हो गया।

हम बात कर रहे हैं वो जो बार (वकालत करने वाले वकीलों का संघ) से आते हैं। अब कई बार सामाजिक उत्थान यहां नहीं उतना हुआ है। तो आपको बार में किस एज में देखना है।आपने देखना है, 45 से 50 साल के उम्र वर्ग की ओर। इसी आठ दस साल के वक़्त में आपको प्रतिनिधित्व देखना होगा।

अगर किसी विशेष समुदाय से वकील देखेंगे, कोई कंशेसन देंगे। चीज़ देखेंगे। लेकिन अगर नहीं है तो जबरदस्ती इस चीज़ को कैसे किया जा सकता है।

महिलाओं की नियुक्तियों की बात करें तो मैं कई बार कहता हूं कि कई पोस्ट्स में महिलाओं की नियुक्तियां 50 फीसद से ज़्यादा हो रही हैं। अब 25 साल पहले महिलाएं नहीं थीं तो आज उन्हें कैसे कंसीडर किया जाएगा। फिर भी उस पहलू को देखा जाता है। कई बार जब सरकार कि दिलचस्पी होती है तो ऐसा नहीं कि वह कास्ट या कम्यूनिटी नहीं देखती है। ऐसे में प्रतिनिधित्व तो है, लेकिन उचित प्रतिनिधित्व में थोड़ा वक््त लगता है।

सवाल - क्या सरकार जजों की नियुक्ति के मामले में कोर्ट के आदेश का पालन नहीं कर रही थी?

जस्टिस कौल - जबसे ये कॉलेजियम सिस्टम आया है तो ये पॉलिटिकल क्लास को लगता था कि नहीं हमारा कुछ रोल होना चाहिए।

एनजेसी को सरकार ने पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया। एक तरफ से वो स्वीकार नहीं कर रहे थे एक तरफ़ से कॉलेजियम अपनी सिफारिश दे रहा था।

सवाल-अभी आपका 5 दिसंबर को जजों की नियुक्ति से जुड़ा हुआ, इसकी अंतिम सुनवाई में आपने कहा था कि कुछ चीजों को बिन कहे छोड़ देना चाहिए। आपका क्या आशय था?

जस्टिस कौल-‘मैंने डेट दी थी, हालाँकि वो मैटर लगा नहीं। कोर्ट की रजिस्ट्री चीफ जस्टिस के अंडर काम करती है। अगर वो नहीं लगाया तो मैं इस चीज़ में ज़्यादा जाऊंगा नहीं। क्योंकि मैं समझता हूं कि ये उनका अधिकार क्षेत्र है। इसलिए मैंने कहा कि मैं इसमें क्या कह सकता हूं।

चीफ जस्टिस के साथ इस विषय पर चर्चा हुई थी लेकिन मैं इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं करूंगा।

यह इंटरनल सिस्टम है। हाँ मैंने जिक्र किया था। इस चीज में मैं ज़्यादा कुछ कहना नहीं चाहूँगा। रिटायरमेंट के बाद इस चीज पर मैं रोशनी डालना उचित नहीं समझता हूं।’

और किस किस की लिस्टिंग किस कोर्ट में होनी चाहिए ये चीफ जस्टिस का प्रेरोगेटिव है। चीफ जस्टिस को ट्रस्ट करना होगा इस मामले में।

पहले जिन जजों को इस सिस्टम से दिक्कत थी, जब वो चीफ जस्टिस बने कोई भी इसका कुछ अच्छा नतीजा नहीं निकाल पाए।

आगे कोई चीफ जस्टिस ये देख सकते हैं कि अगर कुछ बेहतर किया जा सके तो।

सवाल- एक तरफ इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे अहम मुद्दे अभी भी अदालत में लंबित हैं, वहीं समलैंगिक विवाह जैसे मुद्दे पर एक साल में फैसला भी आ गया? इसे आप कैसे देखते हैं?

जस्टिस कौल - ‘मेरा यह मानना है संवैधानिक मामलों पर जल्दी फ़ैसले होने चाहिए क्योंकि इनसे बड़े मामलों का समाधान होता है। कहीं न कहीं बात वहीं जाकर अटक जाती है कि चीफ जस्टिस लिस्टिंग करते हैं। एक हद तक उसके अधिकार क्षेत्र में आ जाता है।’

सेम सेक्स मैरिज, चीफ जस्टिस के अधिकार क्षेत्र में ये एक सामाजिक मुद्दा था। चीफ जस्टिस के विचार में इसे महत्व देना था। रिजल्ट चाहे कुछ और ही निकला हो।

अनुच्छेद 370 पर कोर्ट का रुख

सवाल-अनुच्छेद 370 से जुड़े दो मुद्दे थे-पहला ये कि इसे हटाया जाना क़ानूनी था या नहीं। और दूसरा मुद्दा था कि जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँटा जाना सही था या नहीं। दूसरे मुद्दे पर कोर्ट ने कहा कि चूंकि एक सॉलिसिटर जनरल ने आश्वासन दिया है कि राज्य का दर्जा वापस आ जाएगा तो इस पर हमें कोई टिप्पणी देने की ज़रूरत नहीं है। पूर्व न्यायाधीश जस्टिस रोहिंटन नरीमन का कहना था कि न फैसला करना भी अपने आप में एक फैसला करना है।

जस्टिस कौल- बयान सिर्फ सॉलिसिटर जनरल का नहीं था। ये गृह मंत्री की ओर से संसद में दिए गए बयान पर टिका था। अब कोई चीज़ किसी सिद्धांत पर तय हुई है तो उसमें कुछ नहीं होता है, आगे जाकर तो एक एवेन्यू है, इसमें कोई शक नहीं है।

सवाल- ये जो वापस होने वाला बयान है, इसकी कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। दूसरे कानून के जानकारों का भी मानना था कि कोर्ट को एक फैसला देना चाहिए था।

जस्टिस कौल - क़ानून एक ऐसी चीज़ है, जिसमें विचारों की विविधता रहेगी। इसी वजह से वो लोग क्या ठीक समझते हैं और बेंच क्या ठीक समझती है, इसमें फक़ऱ् आ जाता है। लेकिन जो मुद्दा था उसका समाधान दिया गया है।

वो स्टेटमेंट (गवर्नमेंट के वकील ने) अपने आप नहीं दी थी। उनसे पूछा गया उन्होंने इंस्ट्रक्शन लिए और फिर वापस आए। करें न करें लेकिन ये एक बाध्यकारी बयान है। (bbc.com/hindi/)

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