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इसराइल जाने के लिए इस हद तक क्यों बेताब हैं भारत के युवा
27-Jan-2024 9:32 PM
इसराइल जाने के लिए इस हद तक क्यों बेताब हैं भारत के युवा

photo : MANSI THAPLIYAL

-सौतिक बिस्वास

बीते सप्ताह की एक सुबह सैंकड़ों की संख्या में युवा देश के उत्तरी राज्य हरियाणा में एक यूनिवर्सिटी कैंपस के सामने एकत्र हुए।

कड़ाके की ठंड में ख़ुद को गर्म कपड़ों और कंबल में लपेटे ये युवा भारत के बाहर नौकरी करने की तलाश में यहाँ जमा हुए थे। ये युवा अपने घर से दोपहर का खाना लेकर निकले थे, जो उनकी पीठ पर मौजूद बैकपैक में रखा था। ये सभी युवा भारत से दूर इसराइल में प्लास्टरिंग, स्टील फिक्सिंग या टाइल लगाने जैसे कंस्ट्रक्शन के काम के लिए प्रैक्टिकल परीक्षा देने के लिए आए थे।

युनिवर्सिटी से अपनी शिक्षा पूरी कर चुके रंजीत कुमार एक योग्यता प्राप्त टीचर हैं लेकिन अब तक उन्हें कोई पक्की नौकरी नहीं मिल सकी। उन्होंने कभी पेन्टर, तो कभी स्टील फिक्सर, कभी मज़दूर, कभी गाडिय़ों के वर्कशॉप में बतौर तकनीशियन तो कभी ग़ैर-सरकारी संगठन में बतौर सर्वेयर काम किया है। उनके लिए ये ऐसा मौक़ा है, जिसे वो हाथ से जाने नहीं दे सकते।

31 साल के रंजीत कुमार के पास दो-दो डिग्रियां हैं और वो ‘डीज़ल मकैनिक’ के तौर पर काम करने के लिए सरकार की तरफ़ से कराए जाने वाले ‘ट्रेड टेस्ट’ को पास कर चुके हैं, लेकिन वो रोज़ का 700 रुपये से अधिक कभी कमा नहीं सके हैं।

वहीं इसके मुक़ाबले इसराइल में नौकरी करने पर उन्हें हर महीने 1,37,000 रुपये की (1,648 डॉलर) तनख़्वाह के साथ-साथ रहने का ठिकाना भी मिलेगा और मेडिकल सुविधाएं मिलेंगी।

रंजीत कुमार का पासपोर्ट बीते साल ही बना है। सात सदस्यों वाले अपने परिवार की आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए के वो इसराइल जाकर स्टील फिक्सर के तौर पर नौकरी करने के लिए तैयार हैं। वो कहते हैं, ‘यहां पर कोई सुरक्षित नौकरी नहीं है। चीज़ों की क़ीमतें बढ़ रही हैं। नौ साल पहले मैंने ग्रैजुएशन की पढ़ाई ख़त्म की थी लेकिन अब तक आर्थिक तौर पर स्थायित्व नहीं हासिल कर सका हूं।’

रोजग़ार की कमी से परेशान हैं युवा
अधिकारियों के हवाले से मिल रही ख़बरों के अनुसार, इसराइल चीन और भारत से कऱीब 70 हज़ार युवाओं को अपने यहां कंस्ट्रक्शन सेक्टर में नौकरी देना चाहता है।

बीते साल सात अक्तूबर को हुए हमास के हमले के बाद से ये सेक्टर बुरी तरह प्रभावित हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, इसराइल ने अपने यहां आकर काम करने वाले फ़लस्तीनियों पर पाबंदी लगा दी है, जिससे वहां कामग़ारों की भारी कमी हो गई है। हमास के हमले से पहले तक कऱीब 80,000 फ़लस्तीनी इस सेक्टर में काम कर रहे थे।

कहा जा रहा है कि भारत से कऱीब 10,000 कामग़ारों को नौकरी पर रखा जाने वाला है। इसके लिए हरियाणा और उत्तर प्रदेश में युवाओं से नौकरी की दरख़्वास्त ली जा रही है।
हरियाणा के रोहतक शहर में मौजूद महर्षि दयानंद युनिवर्सिटी में इसके लिए टेस्ट का आयोजन किया गया था, जिसमें देश भर से कई हज़ार युवा शामिल हुए। (दिल्ली में मौजूद इसराइली दूतावास ने इस मामले पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया है।)

इस रेस में रंजीत कुमार अकेले नहीं है, उनके साथ कतार में लगकर अपनी बारी का इंतज़ार करने वाले हज़ारों युवा भारत के विशाल और अस्थायी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं, जहाँ उन्हें बिना औपचारिक कॉन्ट्रैक्ट और सुविधाओं के काम करना पड़ता है।

रंजीत की ही तरह इनमें से कइयों के पास कॉलेज की डिग्री है लेकिन वो अपने लिए एक स्थायी नौकरी का इंतज़ार कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर युवा कंस्ट्रक्शन सेक्टर में रोजग़ार जैसे अनौपचारिक काम कर रहे हैं, जिसमें उन्हें महीने में 15-20 दिनों के काम के बदले 700 रुपये मिलते हैं। हर युवा अपने साथ अपना रेज़्यूमे लेकर आए हैं। इनमें से एक युवा ने हमें बताया कि ‘मैं अपनी टीम के साथ तालमेल बैठाकर काम करता हूं।’

‘नोटबंदी और कोरोना महामारी की दोहरी मार’
इनमें से कई युवा अपनी कमाई बढ़ाने के लिए एक वक़्त में दो या दो से ज़्यादा काम करते हैं।

कई अपनी आर्थिक परेशानियों के लिए साल 2016 में मोदी सरकार की लगाई नोटबंदी और फिर 2020 में कोरोना महामारी को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन को जि़म्मेदार मानते हैं।

कई युवा सरकारी परीक्षाओं में प्रश्नपत्र लीक होने की भी शिकायत करते हैं। कई कहते हैं कि उन्होंने अवैध तरीके से अमेरिका या कनाडा जाने के लिए एजेंटों को पैसे देने की कोशिश भी की, लेकिन इसके लिए पैसे जमा नहीं कर पाए। वो कहते हैं कि इन सभी वजहों से वो विदेश जाकर कोई सुरक्षित और अधिक कमाई वाली नौकरी करना चाहते हैं और इसके लिए ‘वार ज़ोन में भी काम करने को तैयार हैं।’

संजय वर्मा ने साल 2014 में ग्रैजुएशन किया जिसके बाद उन्होंने टेक्नीकल एजुकेशन में डिप्लोमा किया। बीते छह सालों से वो पुलिस, अर्धसैनिक बल और रेलवे में सरकारी नौकरी के लिए कोशिशें कर रहे हैं और दर्जनों परीक्षाएं दे चुके हैं। वो कहते हैं, ‘नौकरियां कम हैं और मांग उससे 20 गुना अधिक।’ वो कहते हैं कि 2017 में एक एजेंट ने उन्हें इटली में खेत में काम करने के लिए 600 यूरो प्रति महीने की नौकरी का वादा किया था, लेकिन इसके लिए वो 1,40,000 रुपये की व्यवस्था नहीं कर पाए।

नोटबंदी और कोरोना लॉकडाउन की तरफ इशारा करते हुए प्रभात सिंह चौहान कहते हैं कि अर्थव्यवस्था को एक के बाद एक दो झटके लगे और उनकी माली हालत अस्थिर हो गई।

35 साल के प्रभात राजस्थान से हैं और इमर्जेंसी एंबुलेंस चलाने वाले ड्राइवर के रूप में काम करते हैं। रोज़ाना 12 घंटों के काम के लिए उन्हें 8,000 रुपये प्रतिमाह मिलते हैं।
वो कहते हैं कि उन्होंने अपने गांव में कंस्ट्रक्शन से जुड़े ठेके लेने शुरू किए और किराए पर चलाने के लिए छह कार खरीदीं।

कई अन्य युवाओं की तरह प्रभात सिंह ने भी हाई स्कूल ख़त्म करने के बाद से ही कमाई के ज़रिए तलाशने शुरू कर दिए। उन्होंने स्कूल में अख़बार बेचे और महीने में 300 रुपये तक की कमाई की। अपनी मां की मौत के बाद उन्होंने कपड़ों की एक दुकान में काम किया। जब उन्हें कोई स्थायी नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने मोबाइल रिपेयरिंग की पढ़ाई की। वो कहते हैं ‘इससे कुछ ज़्यादा फ़ायदा नहीं हुआ।’

कऱीब पांच से सात तक उनके नसीब ने उनका साथ दिया और उन्होंने अच्छी कमाई की। एक तरफ वो खुद एंबुलेंस चलाते थे और गांव में कंस्ट्रक्शन का काम ठेके पर लेते थे तो दूसरी तरफ़ उनकी टैक्सियां किराए पर चल रही थीं। लेकिन 2016 से पहले ये सिलसिला भी ख़त्म हो गया। वो कहते हैं, ‘2020 के लॉकडाउन ने मुझे तबाह कर दिया। मुझे अपनी कारें बेचनी पड़ी क्योंकि मैं उनकी किस्त नहीं दे पाया। अब मैं एक बार फिर एंबुलेंस चला रहा हूं और गांव में ठेके पर काम ले रहा हूं।’

‘युद्ध से डर नहीं लगता’
हरियाणा के रहने वाले 40 साल के राम अवतार टाइल लगाने के काम करते हैं। उनहें इसका 20 साल का तजुर्बा है। वो लगातार बढ़ रही महंगाई के बीच कमाई में उस तरह से इज़ाफा न होने से परेशान हैं। वो कहते हैं कि उनके लिए बच्चों की पढ़ाई पूरी करवा पाना बड़ी चुनौती बन गया है। उनकी बेटी विज्ञान में ग्रैजुएशन कर रही है जबकि बेटा चार्टर्ड अकाउंटेन्ट बनना चाहता है।

उन्होंने दुबई, इटली, कनाडा जैसे मुल्कों में काम करने के मौक़े तलाश किए लेकिन इसके लिए एजेंट बड़ी फीस मांगते हैं जो दे पाना उनके लिए असंभव है। वो कहते हैं खाना और रोज़मर्रा की ज़रूरतों के साथ-साथ घर का किराया और कोचिंग का खर्च जुटाना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है। वो कहते हैं, ‘हम जानते हैं कि इसराइल में युद्ध चल रहा है। मैं मौत से नहीं डरता। हम यहां भी मर सकते हैं।’

इन सबके बीच हर्ष जाट जैसे उम्मीदों से भरे कुछ युवा भी हैं। 28 साल के हर्ष ने 2018 में ह्यूमैनिटीज़ में डिग्री हासिल की थी। शुरुआत में उन्होंने एक मकैनिक के तौर पर कार फैक्ट्री में काम किया जिसके बाद दो साल तक वो पुलिस गाड़ी में ड्राइवर के तौर पर काम करते रहे। वो कहते हैं ‘नशे में डूबे लोगों के इमर्जेंसी फ़ोन लाइन के इस्तेमाल से’ वो थक गए और उन्होंने ये नौकरी छोड़ दी।

इसके बाद हर्ष ने गुडग़ांव के संपन्न इलाक़े में एक पब में बतौर बाउंसर काम किया, जहां उन्हें हर महीने 40,000 रुपये मिलते थे। वो कहते हैं, ‘इस तरह के काम में वो दो साल बाद आपको निकाल फेंकते हैं और ये नौकरियां सुरक्षित नहीं हैं।’

अब हर्ष जाट बेरोजग़ार हैं अपने परिवार के आठ एकड़ की ज़मीन पर खेती का काम करते हैं। वो कहते हैं ‘आज के वक्त में खेती का काम कोई नहीं करना चाहता।’ वो कहते हैं उन्होंने क्लर्क और पुलिसकर्मी जैसी सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन किया लेकिन उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। वो बताते हैं कि उनके गांव के कुछ युवाओं ने अवैध तरीक़े से अमेरिका और कनाडा जाने के लिए एजेंटों को 60 लाख रुपये तक दिए हैं। ये लोग अब विदेश से भारत में अपने घर पैसे भेज रहे हैं और महंगी गाडिय़ां खरीदने में उनकी मदद कर रहे हैं।

हर्ष कहते हैं, ‘मैं भी विदेश जाना चाहता हूं और अच्छी कमाई वाली नौकरी करना चाहता हूं। मैं नहीं चाहता कि कल को मेरे बच्चे मुझसे ये सवाल करें कि हमारे पड़ोसियों के पास जब अच्छी गाडिय़ां और एसयूवी हैं तो हमारे पास क्यों नहीं है?
वो कहते हैं, ‘मैं युद्ध ने नहीं डरता।’

भारत में रोजग़ार की तस्वीर
भारत में रोजग़ार के अवसर को लेकर तस्वीर मिलीजुली दिखती है। पीरियॉडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे (पीएलएफ़एस) में बरोजग़ारी को लेकर जो आंकड़े दिए गए हैं वो बेरोजग़ारी में कमी दिखाते हैं। जहां साल 2017-18 में बोरोजग़ारी दर 6 फ़ीसदी थी, वहीं 2021-22 में 4 फ़ीसदी थी।

डेवेलपमेन्ट इकोनॉमिस्ट और बाथ यूनिवर्सिटी में विजि़टिंग प्रोफ़ेसर संतोष महरोत्रा कहते हैं कि ??अवैतनिक काम को भी सरकारी डेटा में शामिल करने की वजह से ऐसा दिखता है। वो कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि नौकरियां नहीं आ रही हैं। मामला ये है कि एक तरफ औपचारिक सेक्टर में नौकरियां बढ़ नहीं रहीं तो दूसरी तरफ नौकरी की तलाश कर रहे युवाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है।’

अज़ीम प्रेमजी युनिवर्सिटी की स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार बेरोजग़ारी कम तो हो रही है लेकिन ये अभी भी काफी ज़्यादा है।

इस रिपोर्ट के अनुसार 1980 के दशक में आए ठहराव के बाद 2004 में अर्थव्यवस्था में रेगुलर वेतन या वेतनभोगी कामग़ारों की हिस्सेदारी बढऩे लगी। 2004 में ये पुरुषों के लिए 18 से 25 फ़ीसदी तक हुई और महिलाओं में 10 से 25 फ़ीसदी तक। लेकिन 2019 के बाद से, ‘विकास मंदी और महामारी’ के कारण रेलुलर वेतन वाली नौकरियों में कमी आई है।

इस रिपोर्ट के अनुसार कोरोना महामारी के बाद देश के 15 फ़ीसदी से अधिक ग्रैजुएट और 25 साल से कम उम्र के 42 फ़ीसदी ग्रैजुएट्स के पास नौकरियां नहीं हैं।

अज़ीम प्रेमजी युनिवर्सिटी में लेबर इकोनॉमिस्ट रोज़ा अब्राहम कहती हैं, ‘ये वो तबका है जिसे अधिक कमाई चाहिए और ये छोटे-मोटे अस्थायी काम करने में दिलचस्पी नहीं रखता। यही वो समूह है अधिक कमाई और नौकरी में स्थायित्व की उम्मीद में जान का जोखिम लेने के लिए (इसराइल जाने के लिए) तैयार है।

इन युवाओं में से एक हैं उत्तर प्रदेश के अंकित उपाध्याय। वो कहते हैं कि उन्होंने एक एजेंट को पैसे दिए, अपना वीज़ा बनवाया और कुवैत जाकर स्टील फिक्सर के तौर पर आठ साल काम किया।

वो कहते हैं क महामारी ने उनकी नौकरी छीन ली। वो कहते हैं, ‘मुझे किसी बात की डर नहीं है। मैं इसराइल में काम करने के लिए तैयार हूं। वहां मौजूद ख़तरों से मुझे फर्क नहीं पड़ता। देश के भीतर भी नौकरियों में सुरक्षा नहीं है।’ (bbc.com/hindi)

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