विचार / लेख
-गोकुल सोनी
छुरा से कोमाखान की ओर जाते हुए कल मैंने चरोदा गांव में यह दृश्य देखा। राजस्थान से आए ये लोहार परिवार बरसात को छोडक़र शेष समय छतीसगढ़ में ही बिताते हैं।
राजस्थान में इन्हें लोहपीट्टा कहा जाता है। खुले आसमान के नीचे कोयले की भट्ठी जलाकर लोहार लोहे को गर्म कर रहा था। गर्म होने पर लोहे को वह ‘निहई’ पर रखता था। लोहार की पत्नी उस लोहे पर घन से प्रहार करती थी। लोहे को आकार देने के लिए लोहार गर्म लोहे को संसी की मदद से निहई के ऊपर घुमाता था। धीरे-धीरे साधारण लोहा कुदाली, कुल्हाड़ी, हंसिया का आकार ले रहा था। इनकी तस्वीर लेकर मैं आगे बढ़ गया। कार में बैठे-बैठे मुझे लोहा और उससे जुड़ी बातें याद आ रही थी।
करीब 50 साल पहले अपने स्कूल की पाठ्यपुस्तक बाल भारती में एक कविता थी। उस कविता के माध्यम से समाज में अलग-अलग तरह के काम करने वालों को इंगित किया गया था। उसमें लोहारों के लिए एक पंक्ति थी-
वह लोहे को लाल तपाकर कौन पीटता घन दिन-रात।
इसी तरह सोशल मीडिया के स्टार खान सर कहते हैं कि इंसान को कभी क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोधी व्यक्ति अपनी शक्ति खो देता है। वे कहते हैं कि लोहा बहुत सख्त होता है लेकिन उसे जब आग में गर्म किया जाता है यानी गुस्सा दिलाया जाता है तो वह अपनी शक्ति खो देता है और तब लोहार उसे मोड़ देता है या झुका देता है।
हरिवंशराय बच्चन जी कहते हैं कि गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
वे कहते हैं कि जब लोहा गर्म हो तभी उस पर वार करो। अर्थात परिस्थितियां जब अनुकूल हो तब किसी कठिन काम को कर लो।
बात जब लोहा और कवियों की हो रही है तो महान क्रांतिकारी कवि पाश को भी सुन लीजिए। वे कहते हैं-आप लोहे की बात करते हैं, मैंने लोहा खाया है।
उन्हीं के तेवर के प्रसिद्ध कवि धूमिल को भी पढ़ लीजिए। उन्होंने लिखा है- लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है।
वैसे लोहे की खोज के बाद मानव सभ्यता का बहुत तेजी से विकास हुआ है। आज भी हम उसी लोहे के कल-पुर्जों के सहारे इक्कीसवीं सदी को पार करने जा रहे हैं।