विचार / लेख
-विष्णु नागर
केरल की बात है। एक फ्लैट शहर की मुख्य जगह पर था, अच्छा था, सुविधाजनक था। उसके मालिक विदेश सेवा एक भूतपूर्व बड़े अधिकारी थे। वह इस फ्लैट को बेचना चाहते थे। एक खरीदार आए। उन्हें फ्लैट पसंद आया मगर एक बात पसंद नहीं आई कि उसमें कामवाली बाई के लिए अलग शौचालय नहीं है। बाद में वह फ्लैट भी बिक ही गया होगा। वह बहुमंजिला इमारत थी और उसके सभी फ्लैट भरे हुए थे। वहां से मुख्य बाजार भी आसपास था। भाजपा के एक बड़े नेता भी उसी बिल्डिंग में कहीं रहते थे।
मगर इस बात ने मुझे चौंकाया, खासकर केरल जैसे राजनीतिक- सामाजिक रूप से जागरूक राज्य में यह स्थिति है कि कामवाली बाई के लिए अलग शौचालय न हो तो फ्लैट कुछ लोगों के लिए काम का नहीं भी हो सकता है!
मगर पत्नी ने ध्यान दिलाया कि हमारे उत्तर भारत में मध्यवर्गीय समाज की हालत तो और भी बुरी है? यहां न केवल कामगारों के लिए अलग लिफ्ट है बल्कि घर में काम करने आने वाली स्त्री को अपने शौचालय में हगने- मूतने तक नहीं दिया जाता। उससे तो यह कहीं बेहतर स्थिति है। कम से कम वहां उनके लिए इन कामों के लिए अलग व्यवस्था की सोचा तो जाता है!
निश्चित रूप से इस अर्थ में केरल की स्थिति बेहतर है मगर फिर भी शोचनीय है और इससे पता चलता है कि हमारे समाज में एक किस्म की क्रूरता, भेदभाव का एक स्तर यह भी है।
जिन कामवाली बाइयों के बगैर मध्यवर्गीय एक कदम आगे नहीं बढ़ सकते,उनके प्रति इस तरह का व्यवहार समझ से बाहर है।बताइए उनके पेट से जो बाहर आता है, उससे तुम्हारे- हमारे पेट से जो बाहर प्रकट होता है,वह क्या उत्तम कोटि का होता है?उससे क्या सुगंध आती है,क्या छूत लग जाती है?हमारे घर में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है,हमें तो आजतक छूत नहीं लगी? हमारा शौचालय तो संक्रमित नहीं हुआ!और मेरा ख्याल है कि मेरे फेसबुक मित्रों के घर में भी ऐसा भेदभाव नहीं होता होगा।
इस समाज में आर्थिक- सामाजिक भेदभाव जितना गहरा होता जाएगा-और उसे गहरा होने दिया जा रहा है- ऐसे भेदभाव नीचता के और भी निचले स्तर तक गिरते जाएंगे।