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नेपाल के प्रधानमंत्री प्रचंड ने फिर बदला पाला, भारत पर क्या होगा इसका असर
09-Mar-2024 2:00 PM
नेपाल के प्रधानमंत्री प्रचंड ने फिर बदला पाला, भारत पर क्या होगा इसका असर

संजय ढकाल

नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल प्रचंड ने एक बार फिर से पाला बदल लिया है।

सोमवार को प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) ने नेपाली कांग्रेस से गठबंधन तोड़ नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के साथ गठबंधन बना लिया है।

प्रचंड के इस हालिया फ़ैसले से नेपाली संसद में सबसे ज़्यादा 88 सीटें जीतने वाली नेपाली कांग्रेस पार्टी विपक्ष में हो गई है।

प्रचंड और ओली की पार्टी का कहना है कि दोनों के बीच सरकार को लेकर नया समझौता हो गया है। एक साल से कुछ ही ज़्यादा समय हुआ है कि एक बार फिर से नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों का गठबंधन तैयार हुआ है।

प्रचंड और ओली की पार्टी के बीच बने गठबंधन में राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी (आरएसपी) और जनता समाजवादी पार्टी भी शामिल हैं। सोमवार की शाम प्रचंड ने अपने सभी मंत्रियों को हटा दिया था और अपनी पार्टी, ओली की पार्टी के अलावा आरएसपी से एक-एक नए मंत्रियों को शामिल किया था। प्रचंड ने बाकी के सभी 25 मंत्रालय अपने पास रखे हैं।

नेपाल में 2022 के आम चुनाव में नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) के बीच गठबंधन था। लेकिन चुनाव बाद प्रचंड ने ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत माक्र्सवादी-लेनिनवादी) से गठबंधन कर लिया था।

फिर से साथ आए ओली और प्रचंड

ओली की पार्टी नेपाल में 78 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। नेपाली कांग्रेस ने 25 दिसंबर 2022 को प्रचंड की उस मांग को खारिज कर दिया था, जिसमें वह तीसरी बड़ी पार्टी (32 सीटें) होने के बावजूद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे।

लेकिन पिछले साल फऱवरी में ही ओली की पार्टी ने प्रचंड से गठबंधन तोड़ लिया था। प्रचंड की पार्टी ने नेपाल के राष्ट्रपति चुनाव में नेपाली कांग्रेस के नेता रामचंद्र पौडेल का समर्थन किया था।

ओली चाहते थे कि प्रचंड राष्ट्रपति चुनाव में उनकी पार्टी के उम्मीदवार का समर्थन करें। रामचंद्र पौडेल के राष्ट्रपति बनने के बाद नेपाली कांग्रेस ने एक बार फिर से प्रचंड से हाथ मिला था। लेकिन एक साल से कुछ ही ज़्यादा वक्त हुआ है और प्रचंड ने नेपाली कांग्रेस से खुद को अलग कर लिया।

नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की पार्टी के बीच सरकार में कई मुद्दों पर मतभेद खुलकर सामने आ रहे थे। लेकिन नेशनल एसेंबली के अध्यक्ष को लेकर सबसे ज़्यादा कलह थी। नेपाली कांग्रेस नहीं चाहती थी कि नेशनल एसेंबली के अध्यक्ष का पद प्रचंड की पार्टी के पास जाए।

नेपाली कांग्रेस से मतभेद

नेपाल की नेशनल एसेंबली के अध्यक्ष का पद अहम होता है क्योंकि संवैधानिक निकायों में सदस्यों की नियुक्तियां उसी की सिफारिश से होती हैं।

12 मार्च को नेपाल में नेशनल एसेंबली के अध्यक्ष के लिए चुनाव है। नेपाल में बार-बार नई सरकार का बनना कोई नई बात नहीं है। 2008 में नेपाल में राजशाही ख़त्म होने के बाद से 11 सरकारें बन चुकी हैं।

नेपाल की चुनावी व्यवस्था में किसी भी पार्टी के लिए अपने बहुमत पर सरकार बनाना संभव नहीं है। 275 सदस्यों वाली नेपाल की प्रतिनिधि सभा में 165 सदस्यों को सीधे जनता अपने मतों से चुनती है और बाक़ी 110 सदस्यों का चुनाव समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रक्रिया से होता है।

2018 में ओली और प्रचंड ने अपनी पार्टियों का विलय कर बड़ा कम्युनिस्ट फोर्स नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनाई थी लेकिन दोनों के बीच सत्ता संघर्ष इस कदर बढ़ा कि 2021 में अलग हो गए और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी टूट गई थी। इसके बाद दोनों ने अपनी-अपनी पार्टी बना ली थी।

कहा जाता है कि नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टियों की एकता को चीन हमेशा से पसंद करता रहा है। वहीं भारत के बारे में कहा जाता है कि वह नेपाली कांग्रेस को सत्ता में किसी ने किसी रूप में हिस्सेदार देखना चाहता है।

भारत के हक में नहीं

विश्लेषकों का कहना है कि नेपाल में नया सत्ता समीकरण बनने के बाद काठमांडू के प्रति उसके पड़ोसी देशों भारत और चीन की राय बदल सकती है।

करीब 13 महीने पहले नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की पार्टी के बीच गठबंधन से भारत सहज था।

कहा जाता था कि उससे पहले जब वामपंथी दल एक साथ आए तो चीन इससे सहज था।

तो, क्या अब फिर चीन ख़ुश हो गया है और दिल्ली उस नए गठबंधन को लेकर चिंतित है, जिस पर कम्युनिस्टों का वर्चस्व होगा?

विश्लेषकों के मुताबिक, इससे देश की बुनियादी विदेश नीति तो नहीं बदलेगी लेकिन नेपाल के प्रति धारणा बदल सकती है।

नेपाल की विदेश नीति

नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार युवराज घिमिरे कहते हैं कि चूंकि नेपाल का संविधान गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को अपनाता है, इसलिए भले ही सरकार बदल जाए, एक ‘संतुलित’ विदेश नीति रखी जाएगी। ख़ासकर पड़ोसियों के मामले में ऐसा ही होगा।

घिमिरे कहते हैं, ‘हालांकि, यह सच है कि अतीत में, जब कम्युनिस्ट एकजुट हुए थे तो चीन ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी थी।’

उन्होंने कहा, ‘इसलिए, चीन के साथ बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआई समझौते अमल में लाना भविष्य में प्राथमिकता बन सकता है।’

पूर्व मंत्री राम कार्की के मुताबिक, नए गठबंधन से नेपाल की विदेश नीति ‘अधिक संतुलित’ होगी।

उन्होंने कहा, ‘नेपाल को विदेशी मामलों में अपनी तटस्थता को अधिक मजबूत तरीके से दिखानी होगी।’

जब पुराना गठबंधन था तो क्या वह तटस्थ नहीं था? इस सवाल के जवाब में कार्की ने कहा, ‘यह ऐसी बात है, जिसे हर कोई जानता है।’

पिछले कुछ समय से कुछ समूह नेपाल में हिंदू राष्ट्र की वापसी की मांग कर रहे हैं। नेपाली कांग्रेस के अंदर भी एक गुट यह मांग उठाता रहा है।

यह सवाल भी उठाया जाता रहा है कि अगर हिंदू राष्ट्र का एजेंडा- जो भारत की मौजूदा सत्ता के लिए रुचिकर हो सकता है- एक नया गठबंधन बन गया तो क्या होगा।

हालांकि भारत ने नेपाल में हिंदू राष्ट्र या संघीय शासन या गणतंत्र के बहस पर औपचारिक रूप से प्रतिक्रिया नहीं दी है या कोई रुचि व्यक्त नहीं की है।

पत्रकार घिमिरे ने कहते हैं, ‘देश के भीतर भी, मुझे नहीं लगता कि इन मुद्दों को बड़ी पार्टियों ने ईमानदारी से उठाया है।’

‘विश्वसनीयता का नुकसान’

नेपाल में सत्ता गठबंधन बदलना सामान्य बात हो गई है।

पिछले आम चुनाव के डेढ़ साल से भी कम समय में, सिंह दरबार पर शासन करने वाला सत्ता गठबंधन तीन बार बदल चुका है।

लेकिन हर बार संसद में तीसरी ताकत माओवादी पार्टी के अध्यक्ष पुष्प कमल दाहाल ‘प्रचंड’ प्रधानमंत्री बनने में सफल रहे हैं।

प्रचंड के नेतृत्व वाली पिछली गठबंधन सरकार के दौरान जिसमें उदारवादी मानी जाने वाली नेपाली कांग्रेस मुख्य भागीदार थी, यह टिप्पणी की गई थी कि चीन के साथ बीआरआई समझौते के तहत परियोजनाएं आगे नहीं बढ़ीं।

लेकिन इसी अवधि में भारत के साथ नज़दीकियां बढ़ीं और ऊर्जा व्यापार पर एक महत्वपूर्ण समझौता भी हुआ, जबकि अमेरिका के साथ मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन के तहत एमसीसी नामक कॉम्पैक्ट समझौते को मंजूरी दी गई।

नेपाल मुद्दे पर भारत के टिप्पणीकार भी कह रहे थे कि प्रचंड और नेपाली कांग्रेस के बीच गठबंधन दिल्ली के लिए ‘अच्छा’ है। लेकिन देश के अंदर कुछ विश्लेषक गठबंधन का झुकाव दिल्ली की ओर अधिक होने की आलोचना करते रहे हैं।

पिछले चुनाव में, नेपाली कांग्रेस ने संसद के निचले सदन में 88 सीटें जीतीं, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) ने 78 सीटें जीतीं और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) ने 32 सीटें जीतीं। बाकी सीटें अन्य पार्टियों ने जीतीं।

संविधान के मुताबिक सरकार बनाने के लिए 275 सीटों में से 138 सीटों की जरूरत होती है।

नेपाल के पूर्व राजनयिक दिनेश भट्टराई ने कहा कि जब सत्ता गठबंधन में बार-बार बदलाव होंगे तो देश के अंदर और बाहर ‘विश्वसनीयता में कमी’ आएगी।

भट्टराई, जो अतीत में नेपाली कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों के विदेशी मामलों के सलाहकार भी रह चुके हैं, कहते हैं, ‘नेपाल के भीतर सत्ता के लिए हाथापाई बाहरी शक्तियों को अपनी चालें चलने के लिए प्रोत्साहित करेगी।’

‘नेपाल की भू-राजनीति चीन और भारत जैसे बड़े देशों के बीच होने के कारण बहुत संवेदनशील मानी जाती है। इसलिए, यहां की अस्थिरता को लेकर बाहर भी दिलचस्पी और चिंता है।’

क्या कहते हैं प्रचंड?

पहले कहा जा रहा था कि कांग्रेस और अन्य छोटी पार्टियों के साथ मिलकर माओवादियों का बनाया गठबंधन पाँच साल तक सरकार चलाएगा।

अनौपचारिक रूप से यह भी कहा गया था कि पहले दो साल के लिए प्रचंड प्रधानमंत्री होंगे और उसके बाद नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा और कुछ समय के लिए नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (यूनिफाइड सोशलिस्ट) के अध्यक्ष माधव कुमार नेपाल सत्ता का नेतृत्व करने वाले थे।

लेकिन सोमवार को प्रचंड ने जो नई राजनीतिक चाल चली उसके बाद वो सभी समझौते टूट गए हैं।

लगातार राजनीतिक समीकरण बदल कर सत्ता में बने रहने में कामयाब रहे प्रचंड इसे स्वाभाविक मानते हैं।

सोमवार को राजनीतिक तनाव के बीच राजधानी काठमांडू में प्रचंड ने कहा, ‘जब तक मैं मर नहीं जाऊंगा, देश में उथल-पुथल मची रहेगी।’

उन्होंने यह भी कहा कि वह ‘बड़ी वामपंथी एकता की शुरुआत’ कर रहे हैं।

बैठक में उन्होंने अपनी विदेश नीति के बारे में भी बताया।

नेपाल की भौगोलिक स्थिति की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, ‘अगर हम एक उचित, वैज्ञानिक, स्वतंत्र और गुटनिरपेक्ष विदेश नीति अपनाने में विफल रहते हैं और अगर हम नेपाली लोगों के साथ एकजुट होने में विफल रहते हैं, तो नेपाल किसी भी समय कठिन स्थिति में जा सकता है।’ (bbc.com/hindi)

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