विचार / लेख
डॉ. आर.के. पालीवाल
हमारे संविधान निर्माताओं ने जब आजाद देश के लिए नया संविधान गढ़ा था तब उन्होंने सपनों में भी यह कल्पना नहीं की होगी कि सेवा के लिए राजनीति में आने वाले नेता आज़ादी के कुछ साल बाद मेवा के लिए राजनीति में आने लगेंगे और राजनीति अपराधी तत्वों के लिए सबसे सुरक्षित पनाहगाह बन जाएगी। संविधान निर्माताओं ने संसद और विधानसभाओं को लोकतंत्र के सबसे पवित्र सेवास्थल मानते हुए ही यह प्रावधान किए होंगे कि सासंद और विधायक जब इन पूजा स्थलों में प्रादेशिक और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर चर्चा करेंगे तो संसद और विधानसभाओं के अंदर होने वाली अप्रिय गतिविधियों को भी अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा। इसी का फायदा उठाकर अपराधी प्रवृत्ति के सासंद और विधायक संसद और विधानसभाओं में गाली गलौज, एक दूसरे पर अनर्गल आरोप और मारपीट तक कर लेने के बावजूद सजा पाने से बच जाते हैं।
1998 में सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय बैंच ने तीन दो के बहुमत से यह फैसला दिया था कि घूस लेकर संसद में सरकार के पक्ष मे वोट देना भी सांसदों के विशेष अधिकार में आता है इसलिए उन्हें सजा नहीं दी जा सकती। यह फैसला तर्क संगत नहीं लगता था।अब सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय बैंच ने सर्वसम्मति से इस फैसले को पलट दिया है। यह अजीब सा लगता है कि नरसिंह राव और लालकृष्ण आडवानी को इस वर्ष भारत रत्न से नवाजा गया है। विगत में इन दोनों की भूमिका अपराधी सांसदों को बचाने की रही है। नरसिंह राव तो सांसदों की खरीद फरोख्त के सबसे बड़े लाभार्थी थे। लाल कृष्ण आडवाणी उन सांसदों के निष्कासन को बडी सजा बता रहे थे जिन्हें पैसा लेकर संसद में प्रश्न पूछने पर निष्कासित किया गया था। वे ऐसे सांसदों के पक्ष मे सदन से वाक आउट कर रहे थे जब कोबरा के स्टिंग ऑपरेशन में कई दलों के सासंद फंसे थे। हाल ही में तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा पर इसी तरह के आरोप लगे हैं। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय उनके लिए भी मुसीबत का पहाड़ साबित हो सकता है। हालांकि उनके मामले में तकनीकी कारण से यह राहत मिल सकती है कि उनकी घटना इस फैसले से आने के पहले की है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में कुछ महत्त्वपूर्ण टिप्पणियां भी की हैं जिनसे निष्कर्ष निकलता है कि जन प्रतिनिधियों को अपने संविधानिक दायित्वों के निर्वहन के दौरान किए गए किसी भी तरह के भ्रष्ट आचरण को संसदीय संरक्षण की आड़ में माफ नहीं किया जा सकता। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब घूस लेकर संसद और विधानसभाओं में प्रश्न पूछने, मोटी रकम लेकर दल बदल कर चुनी हुई सरकार गिराने या अल्पमत की सरकार बनवाने वाले भ्रष्ट जन प्रतिनिधि ऐसा करके बच नहीं पाएंगे और संबंधित राजनीतिक दल ऐसे नेताओं के खिलाफ कड़ी कार्यवाही कर सकेंगे।
यह बात भी गौरतलब है कि दो दशक पहले जब सर्वोच्च न्यायालय ने सांसदों और विधायकों के पक्ष मे निर्णय दिया था तब पांच सदस्यीय पीठ में दो न्यायधीश उस निर्णय के पक्ष मे नहीं थे। नए फैसले में सात न्यायाधीशों ने सर्व सम्मति से भ्रष्ट जन प्रतिनिधियों के खिलाफ फैसला दिया है। इसका एक बड़ा कारण यह भी लगता है कि विगत कुछ वर्षों में सरकारों को बनाने और गिराने की उठापटक के कई मामले अखबारों की सुर्खियां बने हैं और याचिकाओं के रुप में विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी आए हैं जिससे न्यायपालिका को भी यह अहसास हुआ कि जन प्रतिनिधियों में बढ़ता भ्रष्ट आचरण लोकतंत्र को खोखला कर रहा है।