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आसिफ अली जरदारी: जिला काउंसलर का चुनाव हारने से दूसरी बार पाकिस्तान का राष्ट्रपति बनने तक का सफर
12-Mar-2024 2:39 PM
आसिफ अली जरदारी: जिला काउंसलर का चुनाव हारने से दूसरी बार पाकिस्तान का राष्ट्रपति बनने तक का सफर

 रियाज सोहैल

‘राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तारिक अजीज ने मुझे बताया है कि वह (तारिक) पिछले चार दिनों के दौरान आसिफ जरदारी से दो बार मुलाकात कर चुके हैं।’

विकीलीक्स की ओर से उजागर किए जाने वाले कूटनीतिक दस्तावेजों के अनुसार यह बात अमेरिकी राजदूत एन पीटरसन ने 16 फरवरी 2008 को अमेरिकी सरकार को भेजे अपने पत्र में लिखी थी।

ध्यान रहे कि पाकिस्तान में आम चुनाव 18 फरवरी 2008 को होने वाले थे। विकीलीक्स की ओर से उजागर दस्तावेजों के अनुसार इस चुनाव से पहले आसिफ जरदारी ने पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के सलाहकार तारिक के साथ इस बात की चर्चा की थी कि अगर पीपुल्स पार्टी चुनाव जीत गई तो किसे प्रधानमंत्री बनाया जाए।

उन दस्तावेज़ों के अनुसार तारिक़ अज़ीज़ और उस समय के आईएसआई प्रमुख जनरल नदीम ताज आसिफ़ जऱदारी को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि वह प्रधानमंत्री न बनें और पार्टी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष मखदूम अमीन फहीम का इस पद के लिए समर्थन करें।

एन पीटरसन की ओर से 7 फऱवरी 2008 को लिखे गए एक और पत्र के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तारिक़ अज़ीज़ ने उन्हें (पीटरसन को) बताया कि राष्ट्रपति मुशर्रफ़ ने आसिफ़ जऱदारी को प्रधानमंत्री बनाए जाने के प्रस्ताव को सख़्ती से ठुकरा दिया है।

उस पत्र के अनुसार तारिक़ अज़ीज़ का कहना था कि जिस डील के नतीजे में बेनज़ीर भुट्टो की वापसी हुई थी उसी के ज़रिए आसिफ़ जऱदारी के प्रधानमंत्री बनने से राष्ट्रपति मुशर्रफ की साख प्रभावित हो सकती है।

पत्र के अनुसार, ‘तारिक अजीज ने कहा कि जरदारी अगर पर्दे के पीछे रहें और अपनी पार्टी का नेतृत्व करें तो उनका समर्थन किया जाएगा। अजीज ने कहा कि यह स्थिति वर्तमान (सैनिक) नेतृत्व के लिए बेहतर होगी क्योंकि बेनजीर भुट्टो की तुलना में जरदारी के साथ मामले तय करना अधिक आसान है।’

लगभग डेढ़ दशक पहले विकीलीक्स के ज़रिए उजागर होने वाले इन अमेरिकी कूटनीतिक दस्तावेजों और उनमें लिखी गई घटनाओं के बारे में पूर्व राष्ट्रपति जरदारी या पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।

हालांकि यह सच्चाई है कि 2008 के चुनाव के बाद आसिफ जरदारी प्रधानमंत्री नहीं बल्कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने थे।

शनिवार को हुए राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे में उन्हें सफल घोषित किया गया है। अब वह पाकिस्तान के पहले ऐसे राजनेता बन गए हैं जो दो बार राष्ट्रपति पद पर आसीन होंगे।

इस रिपोर्ट में हमने आसिफ अली जरदारी के राजनीतिक जीवन के बारे में जानने की कोशिश की है। तो चलिए शुरू करते हैं काउंसलर के उस चुनाव से जिसमें आसिफ अली जरदारी को हार का सामना करना पड़ा था।

जब आसिफ जरदारी काउंसलर का चुनाव हार गए

सन् 1955 में पैदा होने वाले आसिफ अली जरदारी अपने माता-पिता के इकलौते बेटे हैं और उनकी तीन बहनें हैं।

आसिफ जरदारी ने शुरुआती शिक्षा सेंट पैट्रिक स्कूल से ली। इसके बाद वह सिंध के पिटारो स्थित कैडेट कॉलेज चले गए। उनकी अधिकृत जीवनी के अनुसार उन्होंने लंदन से बिजनेस में ग्रेजुएशन की है।

आसिफ अली जरदारी के पिता हाकिम अली जरदारी जमींदारी के अलावा कराची में सिनेमाघरों और कंस्ट्रक्शन के काम से जुड़े थे। किसी जमाने में वह शेख मुजीब की अवामी नेशनल पार्टी का हिस्सा भी रहे थे। पाकिस्तान चुनाव आयोग के रिकॉर्ड के अनुसार हाकिम जऱदारी सन 1985 में जनरल जिय़ाउल हक़ के दौर में नवाबशाह से राष्ट्रीय असेंबली का चुनाव लड़े लेकिन हार गए। वह चुनाव गैर-दलीय हुआ था।

अपने पिता से पहले आसिफ़ अली जऱदारी नवाबशाह की जि़ला काउंसिल के चुनाव में हिस्सा ले चुके थे। इसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। सन 1983 का यह वह दौर था जब सिंध में लोकतंत्र बहाल करने का आंदोलन जोरों पर था। इस साल नवाबशाह के शहर सकरंड के पास ‘पिन्हल चांडियू’ गांव में सेना की ़ायरिंग में पीपुल्स पार्टी के सोलह कार्यकर्ता मारे गए और लगभग पचास घायल हो गए थे।

देश-विदेश के मीडिया में आसिफ जरदारी को घाघ नेता बताया जाता है।

पाकिस्तान के लोग सन 1987 से पहले आसिफ जरदारी का नाम नहीं जानते थे। जब दिसंबर 1987 में उनकी शादी पूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी और पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो से हुई तो उनका नाम देशभर में जाना पहचाना बन गया।

उस शादी के अगले ही साल ही यानी 1988 में होने वाले आम चुनाव में भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने बहुमत प्राप्त किया और बेनजीर भुट्टो देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बन गईं। बेनजीर अपने साथ अपने पति को भी प्राइम मिनिस्टर हाउस ले आईं। यही वह वक्त था जबसे आसिफ जरदारी की राजनीति, उनसे जुड़े विवाद और कथित भ्रष्टाचार के मुकदमों की शुरुआत हुई।

‘मिस्टर टेन पर्सेंट’ की छाप

राष्ट्रपति ग़ुलाम इसहाक खान ने बेनजीर भुट्टो की सरकार को चुने जाने के दो साल के अंदर ही बर्खास्त कर दिया और असेंबलियों को भंग कर दिया। असेंबली को भंग करने और देश में नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग की सरकार आने के कुछ ही समय बाद 10 अक्टूबर 1990 को आसिफ जरदारी पहली बार गिरफ्तार हुए। जब नवाज शरीफ की सरकार बर्खास्त हुई तो फरवरी 1993 में उन्हें रिहाई मिली।

आसिफ जरदारी पर आर्थिक भ्रष्टाचार, अपहरण और अधिकारों के दुरुपयोग जैसे आरोप लगाए गए थे जो कभी अदालतों में साबित नहीं हो पाए।

1990 के दशक का यही वह दौर था जब कथित तौर पर सरकारी ठेकों में करप्शन जैसे आरोप के कारण उनके नाम के साथ ‘मिस्टर टेन पर्सेंट’ का ठप्पा लग गया जिसने कई दशकों तक उनका पीछा किया। यह भी वह आरोप था जो कभी अदालत में साबित नहीं हुआ।

साल 1993 में हुए आम चुनाव में पीपुल्स पार्टी ने एक बार फिर कामयाबी हासिल की और बेनजीर भुट्टो दूसरी बार प्रधानमंत्री बनीं। लेकिन यह सरकार भी अपनी संवैधानिक अवधि पूरी न कर सकी और नवंबर 1996 में उन्हें हटा दिया गया।

बेनजीर के दूसरे कार्यकाल में आसिफ जरदारी पर राजनीतिक जोड़-तोड़ और भ्रष्टाचार जैसे आरोप लगाए गए। बेनजीर की दूसरी सरकार को हटाए जाने से पहले आसिफ जरदारी दुबई में थे और दुबई से पाकिस्तान वापसी पर अगले ही दिन उन्हें एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया।

सबसे लंबी क़ैद

दूसरी बार होने वाली उनकी गिरफ़्तारी लंबी थी। आसिफ़ जऱदारी की क़ैद के दौरान पाकिस्तान में दो सरकारें बदलीं। पहले नवाज़ शरीफ़ की सरकार आई और उसके बाद जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ का मार्शल लॉ आया। हालांकि उस समय के पीपुल्स पार्टी के नेतृत्व की राय थी कि सरकार बदलने से जरदारी की रिहाई हो पाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

आसिफ जरदारी पर भ्रष्टाचार, मनी लॉन्ड्रिंग और हत्या जैसे गंभीर आरोप लगे थे। उन पर बेनजीर भुट्टो के भाई मुर्तजा भुट्टो की हत्या का आरोप भी था लेकिन बाद में उन्हें इस आरोप से बरी कर दिया गया।

आसिफ जरदारी की सन 2004 में रिहाई उस वक़्त तक नहीं हुई जब तक जनरल परवेज मुशर्रफ ने एनआरओ (नेशनल रिकॉन्सिलिएशन ऑर्डिनेंस) जारी नहीं किया। एनआरओ के तहत उन पर दायर मुकदमे स्थगित हुए और बाद में उन मुक़दमों में अदालतों ने उन्हें बरी कर दिया।

लंबी क़ैद की वजह से वह पाकिस्तान में हाल में जेल में सबसे ज़्यादा वक़्त गुज़ारने वाले नेता बन गए। बाद में दिए गए अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने यह बात मानी कि उन्होंने जेल में बहुत कुछ सीखा है। उनकी अनुपस्थिति में बच्चों की परवरिश की पूरी जि़म्मेदारी बेनज़ीर भुट्टो ने निभाई।

कैद के दौरान ब्रितानी अखबार ‘गार्डियन’ को दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि वह अपने बच्चों को बड़े होते हुए देखने की ख़ुशी से महरूम हैं। उन्होंने कहा था कि वह बाग में चहलकदमी करने, अपने क्षेत्र नवाबशाह की धूल और गर्मी, अपने क़बीले के लोगों और अपने राजनीतिक साथियों से मुलाकातों और अपने दोस्तों के साथ गपशप करने और ठहाके लगाने और पोलो मैच में भाग लेने से वंचित हैं। रिहाई के बाद वह पहले दुबई और बाद में अमेरिका चले गए।

बेनजीर भुट्टो ने जब 18 अक्टूबर 2007 को स्व-निर्वासन खत्म करके पाकिस्तान वापस आने का फैसला किया तो आसिफ जरदारी अपने बच्चों के साथ दुबई में मौजूद रहे।

रावलपिंडी के लियाकत बाग में 27 दिसंबर 2007 को हुए एक आत्मघाती हमले में बेनज़ीर भुट्टो की मौत के बाद वह पाकिस्तान वापस आए। बेनज़ीर भुट्टो को दफनाए जाने के बाद जब गुस्साए लोगों की ओर से ‘न खपे पाकिस्तान’ (नहीं चाहिए पाकिस्तान) का नारा लगाया गया तो जरदारी ने अपनी पहली जनसभा में ‘पाकिस्तान खपे’ (पाकिस्तान चाहिए) का नारा दिया। यह नारा बाद में उनकी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और खुद आसिफ जरदारी की राजनीति का नारा बनकर सामने आया।

पीपुल्स पार्टी का नेतृत्व अपने पास रखने की बजाय उन्होंने इसे उस समय शिक्षा प्राप्त कर रहे अपने युवा बेटे बिलावल भुट्टो को सुपुर्द कर दिया। उन्होंने उनका नाम बिलावल जरदारी से बदलकर बिलावल भुट्टो जऱदारी के रूप में दुनिया के सामने पेश किया। यह एक बेहतर रणनीति साबित हुई। इस तरह उन्हें पार्टी में किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। असल में पार्टी जरदारी संभाल रहे थे लेकिन नेतृत्व बिलावल के पास था।

सन् 2008 के चुनाव में पीपुल्स पार्टी ने सफलता प्राप्त की और प्रधानमंत्री के लिए यूसुफ़ रज़ा गिलानी को उम्मीदवार बनाया गया। हालांकि इससे पहले आम राय यह थी कि यह पद सिंध से संबंध रखने वाले पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सीनियर नेता मखदूम अमीन फ़हीम को मिलेगा। लेकिन यह पहली बार हुआ कि पीपुल्स पार्टी का प्रधानमंत्री सिंध से नहीं बल्कि पंजाब से बन रहा था।

पीपुल्स पार्टी की सरकार का शुरुआत में मुस्लिम लीग (नवाज) ने भी साथ दिया लेकिन यह गठबंधन देर तक नहीं चला। जनरल परवेज मुशर्रफ की ओर से अपदस्थ किए गए चीफ जस्टिस इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी और दूसरे जजों की बहाली के मामले पर दोनों दलों में मतभेद सामने आए।

राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ पर महाभियोग लगाने के मामले पर भी दोनों की सहमति थी, लेकिन इसी दौरान जरदारी का यह बयान भी सामने आया कि अगर मुशर्रफ इस्तीफा दे दें तो उन्हें ‘सुरक्षित रास्ता’ दिया जा सकता है। इसके बाद मुशर्रफ ने इस्तीफा दे दिया और जरदारी राष्ट्रपति पद के लिए ख़ुद उम्मीदवार बन गए।

एमक्यूएम (मुत्तहिदा क़ौमी मूवमेंट), एएनपी (अवामी नेशनल पार्टी), जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम, आफ़ताब शेरपाओ और मुस्लिम लीग (क़ायद-ए-आज़म) के फ़ारवर्ड ब्लॉक ने जऱदारी को राष्ट्रपति पद के लिए समर्थन दिया। मुस्लिम लीग (नवाज़) और मुस्लिम लीग (क़ायद-ए-आज़म) ने अपना उम्मीदवार खड़ा किया लेकिन उनका उम्मीदवार हार गया।

कार्यकाल पूरा करने वाले पहले राष्ट्रपति

आसिफ जरदारी 2008 से 2013 तक पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे। वह पहले नागरिक राष्ट्रपति थे जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया। राष्ट्रपति के रूप में उनके उल्लेखनीय फैसलों में असेंबली को भंग करने का अधिकार संसद को वापस करना, 18वें संवैधानिक संशोधन के जरिए राज्यों की स्वायत्तता बहाल करना और फाटा (फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरियाज) के सुधार प्रमुख थे।

इसके अलावा उनके फैसलों में सूबा-ए-सरहद को खैबर पख़्तूनख़्वा नाम देना, गिलगित बल्तिस्तान को स्वायत्तता देना और बलूचिस्तान को अधिकार देने का पैकेज भी शामिल है।

इस्टैब्लिशमेंट से टकराव न लेने की नीति

जनरल परवेज मुशर्रफ के पाकिस्तान पर आठ साल के शासनकाल के बाद आसिफ जरदारी ने जब नागरिक राष्ट्रपति के तौर पर पद संभाला तो उन्होंने इस्टैब्लिशमेंट के साथ संबंध में संतुलन बनाने की कोशिश की।

विकीलीक्स में उजागर किए गए कूटनीतिक दस्तावेजों के अनुसार अमेरिकी राजदूत पीटरसन ने अपनी सरकार को लिखे एक पत्र में कहा कि अशफाक कयानी (पूर्व आर्मी चीफ़) यह इशारा कर चुके हैं कि वह जऱदारी को हटाना चाहते हैं। लेकिन उन्हीं दिनों आसिफ जरदारी का यह बयान भी सामने आया था कि वह ‘राष्ट्रपति भवन से एंबुलेंस में बाहर निकलेंगे।’

पाकिस्तानी फौजी इस्टैब्लिशमेंट से टकराने वाले नेताओं की आमतौर पर दोबारा सत्ता में वापसी कठिन हो जाती है, लेकिन आसिफ अली जरदारी दूसरी बार राष्ट्रपति बन रहे हैं तो यह सवाल पैदा हुआ कि परवेज मुशर्रफ और अशफाक परवेज कयानी समेत सेना प्रमुखों की नापसंदीदगी के बावजूद वह सत्ता में कैसे आ जाते हैं?

विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार सोहैल वड़ैच कहते हैं, ‘जब से पीपुल्स पार्टी का नेतृत्व जऱदारी के पास आया है, उन्होंने कोशिश की है कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सेना विरोधी राजनीति की छवि को बदला जाए। यही वजह है कि उन्होंने आज तक कोई आंदोलन नहीं चलाया और अगर इस्टैब्लिशमेंट से कोई शिकायत हुई भी तो उसको तुरंत दूर कर लिया।’

‘जब वह राष्ट्रपति भवन में थे तो मेमो गेट स्कैंडल आया। एक बार उनका जनरल राहिल शरीफ़ के साथ विवाद भी हुआ लेकिन उन्होंने इसको हल कर लिया था। वह ख़ुद और अपनी पार्टी को दोनों विवादों से बाहर निकलने में कामयाब हुए। उनके नेतृत्व में अब शायद यही रणनीति है कि अब हमें न जेल जाना है और न कोड़े खाने हैं। शायद यही सोच है कि जब मुश्किल वक़्त आता भी है तो वह उससे निपट कर आगे बढ़ जाते हैं।’

शहीद जुल्फिकार अली भुट्टो इंस्टीट्यूट आफ साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी के प्रोफ़ेसर डॉक्टर रियाज शेख कहते हैं कि आसिफ जरदारी में राजनीतिक तौर पर लचक ज़्यादा है जो उनके प्रतिद्वंद्वी नेताओं नवाज शरीफ और इमरान खान में कम नजर आती है।

डॉक्टर रियाज़ के अनुसार आसिफ़ जऱदारी के पहले राष्ट्रपति काल में चार-पांच मौक़े ऐसे आए जब पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का इस्टैब्लिशमेंट के साथ टकराव हो सकता था लेकिन उन्होंने कामयाबी के साथ इससे बचकर इस्टैब्लिशमेंट की बात भी मानी और मामले को सुलझा लिया।

डॉक्टर रियाज़ के अनुसार पहला मामला मुंबई हमलों का था। ‘आसिफ जरदारी जैसे ही सत्ता में आए तो उस समय मुंबई हमले हो चुके थे और आसिफ जरदारी को इस मामले की गंभीरता का शायद बहुत अंदाज़ा नहीं था। उन्होंने अपने तौर पर यह कह दिया कि भारत आरोप लगा रहा है तो ‘हमारा डीजी, आईएसआई भारत चला जाए और बातचीत करके समस्या को हल करे क्योंकि हमारे हाथ साफ हैं।’ सेना ने उनके बयान पर आपत्ति की तो उन्होंने एक और बयान में कह दिया कि डीजी, आईएसआई नहीं जाएगा।

‘उन्होंने इस बात को प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया और इस्टैब्लिशमेंट की बात मान ली। इसकी तुलना में अगर इमरान खान का विश्लेषण किया जाए तो जनरल फैज हमीद के मामले में उन्होंने अहम् दिखाया जिससे एक नया विवाद खड़ा हो गया। इसी तरह नवाज शरीफ का जहांगीर करामात के साथ उस समय टकराव हुआ जब उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा काउंसिल बनाने की बात की थी और नवाज शरीफ नहीं माने थे। इसके अलावा करगिल के मामले पर उनका मुशर्रफ के साथ विवाद हुआ। लेकिन आसिफ जरदारी ने इसके उलट किसी समय भी टकराव की नीति नहीं अपनाई।’

डॉक्टर रियाज़ शेख़ एक और घटना के बारे में बताते हैं जो आसिफ़ जऱदारी के राष्ट्रपति काल के दौरान घटी। उनके अनुसार कैबिनेट ने फ़ैसला लिया था कि इंटेलिजेंस ब्यूरो और आईएसआई केंद्रीय गृह मंत्रालय के मातहत रहेंगे। इसका नोटिफिक़ेशन भी जारी हो गया मगर इस फैसले पर इस्टैब्लिशमेंट की तीखी प्रतिक्रिया सामने आई और सरकार को नोटिफिक़ेशन वापस लेना पड़ा।

डॉक्टर रियाज़ के अनुसार इसी तरह अमेरिकी नागरिक रेमंड डेविस की गिरफ़्तारी का मामला हो या एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन की मौत की कहानी, जऱदारी ने वही स्टैंड लिया जो इस्टैब्लिशमेंट का था। ‘यह लचक ही है जिसकी वजह से वह सुरक्षित रहे हैं।’

‘लम्स’ (लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैनेजमेंट साइंसेज़) के प्रोफेसर और ‘पॉलिटिकल कनफ़्िलक्ट ऑफ़ पाकिस्तान’ नाम की किताब के लेखक मोहम्मद वसीम कहते हैं कि आसिफ जरदारी इस्टैब्लिशमेंट के लिए कभी ख़तरा नहीं रहे।

प्रोफेसर वसीम के अनुसार ज़ुल्फिक़़ार अली भुट्टो और बेनज़ीर भुट्टो के उलट आसिफ़ अली जऱदारी कभी करिश्माई व्यक्तित्व के मालिक नहीं रहे, वह सीधे कभी जनता में नहीं गए और न ही जनता को कभी इस्टैब्लिशमेंट के खिलाफ किया।

आसिफ जरदारी ने दूसरी बार राष्ट्रपति पद क्यों संभाला

आसिफ अली जरदारी ने 2008 में राष्ट्रपति चुनाव मुस्लिम लीग (नवाज़) के उम्मीदवार के खिलाफ लड़ा लेकिन इस बार वह पीपुल्स पार्टी और मुस्लिम लीग (नवाज़) के साझा उम्मीदवार थे। बिलावल भुट्टो ने कुछ दिन पहले कहा था कि हालांकि पीपुल्स पार्टी केंद्र सरकार का हिस्सा नहीं बनेगी लेकिन उनकी इच्छा है कि उनके पिता देश के राष्ट्रपति बनें।

तो सवाल यह है कि आखिर आसिफ अली जऱदारी ने राष्ट्रपति पद का ही चुनाव क्यों किया?

डॉक्टर रियाज शेख कहते हैं कि राष्ट्रपति को संवैधानिक तौर पर छूट मिली होती है। पाकिस्तान के संविधान और कानून के अनुसार जब तक राष्ट्रपति अपने पद पर होते हैं उनके खि़लाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हो सकती और न ही कोई मुक़दमा दायर हो सकता है।

‘पाकिस्तान एक संसदीय प्रणाली है जिसमें असल अधिकार प्रधानमंत्री के पास होता है। तो आसिफ़ जऱदारी यह जताएंगे कि जो काम हो रहा है वह तो मुस्लिम लीग की सरकार और उसका प्रधानमंत्री कर रहा है। और 18वें संवैधानिक संशोधन के बाद तो राष्ट्रपति के अधिकार कुछ ख़ास हैं ही नहीं। इसलिए सरकारी फ़ैसलों का दोष पीपुल्स पार्टी को नहीं दिया जा सकता।’

डॉक्टर रियाज़ शेख़ की राय में दूसरी बात यह होगी कि जब मुस्लिम लीग (नवाज़) की सरकार निजीकरण और दूसरे इसी तरह के कड़े फैसले लेगी तो हर क़ानून को राष्ट्रपति के पास से गुजऱना होगा। वह सरकार के प्रस्ताव को वापस भेज सकते हैं या उसका विरोध कर सकते हैं, मगर इसके बावजूद कुछ समय के बाद संसद से पास होने वाले बिल स्वत: क़ानून बन जाएंगे। दूसरी ओर संभावित तौर पर राष्ट्रपति को लोकप्रियता मिलेगी कि उन्होंने ‘जन विरोधी’ बिल पर हस्ताक्षर नहीं किए और ‘जनता के एजेंडे’ पर बात की।

‘इस स्थिति में बदनामी मुस्लिम लीग (नवाज़) की सरकार की होगी जबकि राष्ट्रपति अपना काम करके जनता की सहानुभूति भी लेंगे और राष्ट्रपति का काम भी चलता रहेगा।’

लेकिन प्रोफ़ेसर मोहम्मद वसीम आसिफ जरदारी की ओर से राष्ट्रपति पद संभालने के फैसले को ‘कमजोर फैसला’ बताते हैं।

उनकी राय है कि पीपुल्स पार्टी की यह सोच है कि यह सरकार अधिक दिन तक नहीं चलेगी क्योंकि सरकार को बहुत से आर्थिक और सुरक्षा के गंभीर मामलों का सामना करना होगा, इसलिए इस समय कोई बड़ी जिम्मेदारी न ली जाए।

‘अगर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी सरकार का हिस्सा बनती है तो जि़म्मेदारी लेनी पड़ेगी इसलिए केवल संवैधानिक पद लिए जाएं, जिसका मतलब गवर्नर और राष्ट्रपति के पद हैं जो पांच साल तक चल सकते हैं।’

आसिफ जरदारी के लिए चुनौती क्या होगी?

डॉक्टर रियाज शेख का कहना है कि आसिफ़ जऱदारी जिस राजनीतिक माहौल में राष्ट्रपति भवन में बैठेंगे उसमें उन्हें संतुलन के साथ चलना होगा।

‘एक ओर ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में इमरान ख़ान की सरकार होगी, कई ऐसी बातें हैं जिसमें वह केंद्र सरकार से संपर्क करेंगे और जब जवाब नहीं मिलेगा तो वह फिर राष्ट्रपति से संपर्क कर सकते हैं। इसके अलावा पंजाब सरकार को भी बैलेंस करके चलना पड़ेगा।’

विश्लेषक सोहैल वड़ैच कहते हैं, ‘राष्ट्रपति का पद संवैधानिक पद है, इसे प्रशासनिक फैसले तो नहीं करने होते। वह सरकार और प्रशासन के बीच एक पुल हैं और राज्यों के बीच भी। वह संघीय शासन के प्रतीक हैं। ऐसे में उनके लिए कोई विशेष चुनौती नहीं होगी। इसलिए उन्हें चाहिए कि सरकार को चलने दें। राज्यों के साथ सामंजस्य बनाए रखने की कोशिश करें और फैसले लेने में सकारात्मक रवैया अपनाएं।’

सोहैल वड़ैच के अनुसार मुस्लिम लीग (नवाज) को विश्वास है कि वह रुकावट नहीं बनेंगे। ‘इसीलिए ख़ुशी-ख़ुशी राष्ट्रपति पद पर सहमति जता दी। अगर उन्हें शक होता कि कोई मुश्किल पैदा करेंगे तो यह मामला इतनी आसानी से तय नहीं हो पता।’

प्रो. मोहम्मद वसीम कहते हैं कि नवाज लीग में शहबाज शरीफ की राजनीतिक शैली आसिफ जरदारी की राजनीतिक शैली से मेल खाती है यानी समझौते की राजनीति। ‘दोनों इस्टैब्लिशमेंट के साथ मामला निभाने में माहिर हैं। इसलिए इस बार शायद तकरार जल्दी न हो।’  (bbc.com/hindi)

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