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सडक़ पर नमाज और पूजा जुलूस को लेकर पुलिस के रवैये में फर्क क्यों
15-Mar-2024 4:32 PM
सडक़ पर नमाज और पूजा जुलूस को लेकर पुलिस के रवैये में फर्क क्यों

नासिरुद्दीन

दिल्ली के इंद्रलोक में सजदे में झुके इंसान को पुलिसकर्मी ने ठीक उसी अंदाज में किक किया था जैसे कि फुटबॉल को मारते हैं।

फर्क इतना था कि फुटबॉल की जगह इंसान का बदन था, जो इबादत कर रहा था।

किक तो एक या दो लोगों को लगा लेकिन धक्के कइयों ने खाए। इसकी तस्वीर के वायरल होने के बाद दिल्ली पुलिस ने जिम्मेदार पुलिस वाले पर कार्रवाई कर एक बेहतर संदेश जरूर दिया।

लेकिन ये पूरा वाकया किसी भी सभ्य समाज को कमतर करने के लिए काफी था।

गलती क्या थीज् मस्जिद में जगह नहीं थी तो अनेक लोग सडक़ के किनारे नमाज के लिए बैठ गए। मुमकिन है, पहले भी ऐसा हुआ हो। इन्हें रोका भी गया हो।

मगर रोकने का यह तरीका काफी वायरल हो गया। वजह साफ थी- इंसान से इंसान का सुलूक कैसे होगा?

अगर सडक़ पर नमाज पढऩा गलत है तो उस गलत काम को रोकने का तरीका क्या यही होगा?

नमाज में खड़े लोगों को धकियाना, गिराना, सजदे में बैठे लोगों को ठोकर मारनाज्यह तो छोटे से वीडियो में जो दिख रहा था उसकी झलक है।

नमाज और अजान पिछले दिनों काफी विवाद का मुद्दा रहे हैं। मुसलमानों के खिलाफ नफरती अभियान का भी यह आधार रहा है।

पिछले साल इसी रमजान के दौरान कई जगहों पर नमाज को लेकर विवाद हुआ था। कई जगह रमज़ान के दौरान पढ़ी जाने वाली विशेष नमाज तरावीह पर लोगों ने एतराज़ किया।

मगर सवाल है कि किन्हें और क्यों इबादत से एतराज है?

अफवाह और नफरत के बीच बँटा समाज

देश में मुसलमानों के बारे में पिछले दिनों अफवाहों की तरह बातें ज्यादा होने लगी हैं।

सोशल मीडिया और खासकर व्हाट्सऐप जैसे मंच मुसलमानों के खिलाफ प्रचार में ख़ूब इस्तेमाल हो रहे हैं।

मुसलमानों के बारे में समाज के बड़े तबके में नफऱत अब आम विचार की तरह पसरता जा रहा है।

खासतौर पर हिन्दू और मुसलमानों के बीच दूरी बढ़ाने या नफरत की खाई चौड़ी करने के लिए मीडिया और खासकर सोशल मीडिया पर कुछ न कुछ लगातार चलता रहता है।

इसमें मीडिया की भूमिका भी काफी अहम है।

मीडिया पर होने वाली बहसें दूरी पाटने या नफरत की खाई को कम करने का काम नहीं करतीं बल्कि वे तो समुदायों के बीच अफवाह को और विस्तार देती हुई देखी जा सकती हैं।

संविधान के रक्षकों पर भी पड़ा है असर

सवाल है, जिनके हाथ में कानून की हिफाजत की जिम्मेदारी है, उनका व्यवहार ऐसा क्यों है? इन सबसे हमारे समाज का हर तबका प्रभावित हुआ है।

इसमें पढ़े-लिखे या बुद्धिजीवी माने जाने वाले लोग भी शामिल हैं। इसलिए इसके असर से किसी वर्दी वाले का बचा रहना कैसे मुमकिन है।

हालाँकि, वर्दी वाले ने जो शपथ ली है, वह संविधान को बचाने की है। सडक़ पर वह राज्य का प्रतिनिधि है और संविधान के मूल्यों की हिफाजत उसका धर्म।

मगर जब वह वर्दी पहनकर किसी को इबादत के दौरान ठोकर मारता है, तो देखने की बात है कि क्या यह महज प्रशासनिक ठोकर है या इससे इतर भी कुछ है।

अगर यह प्रशासनिक किक या ठोकर है तो सब पर एक जैसा चलेगा। हालाँकि, अगर यह चयनित तौर पर कुछ लोगों के खिलाफ उठता है तो यह नफरती कदम है।

दिल्ली में जो हुआ, वह प्रशासनिक ठोकर नहीं दिखता। अगर प्रशासनिक ठोकर होता तो वह सबको ऐसा ही दिखता। मगर ऐसा हुआ नहीं।

कुछ लोगों ने किक को सही ठहराया। बल्कि वे उस पुलिस वाले के पक्ष में दलील देते देखे गए। बल्कि यहाँ तक कहते पाए गए कि जो किया सो सही किया।

इसका मतलब है कि वह किक कुछ संदेश दे रहा है। संदेश भी तीन तरह के हैं। एक, जिन्हें किक मारा गया उनके सम्मान को भी ठोकर मारी गई।

जिन्होंने देखा और अपने को इस घटना से जोड़ा। उन्हें भी यह कहीं न कहीं बुरा लगा या सम्मान को ठेस पहुँचाने वाला लगा।

लेकिन एक तीसरा तबका भी है, जिसे इस ठोकर में किसी के अपमान का मज़ा दिखा। इसीलिए यह कहना बेमानी है कि पुलिस वाला महज अपनी ड्यूटी निभा रहा था।

यह ड्यूटी के दौरान की कार्रवाई है। सवाल है, उसकी यह ड्यूटी किस तरह का संदेश दे रही है।

एक और महत्वपूर्ण बात है कि कानून व्यवस्था का पालन कराने का यह कौन सा तरीका है?

किसी को इस तरह पैर से ठोकर मारना, मानवीय तरीका नहीं है। यह मानवाधिकार के दायरे में नहीं आता है।

सडक़ पर नमाज और पूजा

इस तर्क में दम है कि सडक़ पर नमाज नहीं पढऩी चाहिए। सडक़ पर आने-जाने में असुविधा होती है। मगर सडक़ पर आमतौर पर रोजाना नमाज़ नहीं पढ़ी जाती है।

नमाज रोजाना पाँच वक़्त होती है। रोजाना के नमाज और शुक्रवार यानी जुमे की नमाज में फर्क होता है।

अनेक लोग हफ्ते में एक दिन जुमे के रोज खास नमाज पढ़ते हैं। इसलिए उस दिन बहुत ज्यादा भीड़ होती है।

ठीक उसी तरह जैसे बहुत सारे लोग मंगलवार या शनिवार को खास पूजा करने मंदिरों में जाते हैं। उस दिन मंदिरों में और आसपास काफी भीड़ होती है।

कई मौक़ों पर विशेष पंडाल लगते हैं। भंडारा लगता है। बड़े-बड़े जुलूस निकलते हैं। रास्ते रोके और बदले जाते हैं। आना-जाना दुश्वार होता है। परेशानी होती है।

मगर हम इसी के साथ जीते हैं। पुलिस तब कैसी व्यवस्था में लगी रहती है।

क्या हमें उस दिन यानी मंगलवार या शनिवार या विशेष पूजा के दिन लगने वाली भीड़ से यह लगता है कि सडक़ पर किसी ने कब्जा कर लिया है?

या तब हमारी प्रतिक्रिया किस तरह की होती है? पुलिस किस तरह व्यवहार करती है?

जिस दिन दिल्ली में जुमे के दौरान यह घटना हुई, उस दिन महाशिवरात्रि के मौके पर कई जगह जुलूस निकले थे।

क्या कहीं से कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसी किसी घटना की जानकारी मिलती है। बल्कि ज्यादातर जगहों पर तो पुलिस के सहयोग से ही जुलूस निकले होंगे।

विशेष इंतजाम किए जाएं

विशेष दिनों की पूजा-अर्चना या नमाज के लिए विशेष व्यवस्था होनी जरूरी है। इन दिनों में भीड़ रोजाना से ज़्यादा होगी, यह भी तय है। नमाज घंटों या दिन भर चलने वाली प्रक्रिया नहीं है। ज़्यादा से ज़्यादा से दस-पंद्रह मिनट।

कई मस्जिदों ने भीड़ को देखते हुए कई दौर में नमाज शुरू कर दी है। मगर शहरों में जहाँ इंसान की तुलना में मंदिरों-मस्जिदों में जगह नहीं है, वहाँ तो भीड़ बढ़ रही है।

सवाल है, इस भीड़ को काबू में कैसा रखा जाए। यही नहीं, पूजा करने वाले हों या नमाजी दोनों के साथ एक जैसा सुलूक कैसे किया जाए।

कोई नियम बने तो सब पर एक जैसे कैसे लागू हों ताकि किसी को यह न लगे कि उसके साथ भेदभाव या ज़्यादती हो रही है।

राज्य का काम नागरिक व्यवस्था का बेहतर इंतजाम करना है। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राज्य में वह इंतजाम भी धर्म से निरपेक्ष होकर ही किया जा सकता है।

ऐसा नहीं हो कि कहीं तो फूल बरसे और कहीं डंडा। राज्य का काम जिसमें पुलिस शामिल है, व्यवस्था को सुचारू बनाना है और कानून का पालन कराना है। अराजकता न फैले यह देखना है।

कोई कानून तोड़ता नजऱ न आए, यह देखना है। धर्मनिरपेक्ष राज्य में अगर एक धर्म के कार्यक्रम के लिए सुचारू रूप से चलने की पूरी निष्ठा, गंभीरता और बिना किसी दुराव के व्यवस्था की जा सकती है तो बाकी धर्मों के लिए भी ऐसा किया जा सकता है।

यही बेहतर तरीका है। अगर ऐसा नहीं होगा तो एक समुदाय को हमेशा अपने साथ भेदभाव नजर आएगा।  (bbc.com/hindi)

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