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अगर संपादक खुद भाषा न जाने तो....
19-Mar-2024 2:29 PM
अगर संपादक खुद भाषा न जाने तो....

 प्रियदर्शन

अशुद्ध भाषा ऐसी चीज नहीं है जिस पर किसी लेखक को बहुत शर्मिंदा होना चाहिए। कई बड़े लेखक व्याकरण के हिसाब से अशुद्ध भाषा लिखते रहे हैं। लेकिन उनके लेखन को मापे जाने की कसौटी उसके साहित्यिक मूल्य से बनती रही। भाषिक अशुद्धियां या असावधानियां दूर करने के लिए प्रकाशन गृहों के संपादक होते हैं।

भाषाओं के रूप बदलते रहते हैं। हिंदी में चन्द्रबिन्दु धीरे-धीरे गुम होता जा रहा है। कवर्ग-चवर्ग का पांचवा वर्ण लगभग विलुप्त हो चुके हैं। पांचवें वर्ण की जगह बिंदी का इस्तेमाल चल पड़ा है। व्याकरण के पुराने विशेषज्ञ इस परिवर्तन पर दुखी होते हैं और कुछ लोग अब भी जि़द की तरह गंगा या आंचल जैसे शब्दों में बिंदी की जगह पांचवें वर्ण का इस्तेमाल करते हैं। अब आप इस पर बहस करते रहिए कि शुद्ध रूप क्या है।

इसी तरह नुक्तों का इस्तेमाल हिंदी में एक नया अभ्यास है। 25 साल पहले तक हिंदी के सार्वजनिक व्यवहार में नुक्ते नहीं थे। लेकिन अब तमाम अखबारों, समाचार चैनलों और यहां तक की किताबों में भी नुक्ते का इस्तेमाल दिखाई पड़ता है। मेरी तरह के लेखक को भी ग़ालिब की जगह गालिब लिखना गालिब का अपमान लगता है और जिंदगी को जिंदगी बना देना उसकी तौहीन।

बेशक नुक्ते हिंदी व्याकरण का हिस्सा नहीं हैं लेकिन वे हिंदी की शोभा बढ़ाते हैं। भाषाएं अंतत: ध्वनियों से बनती हैं और किसी भाषा में जितनी ध्वनियां होंगी, वह अपने वाचन में उतनी ही समृद्ध लगेगी।

वैसे भी शुद्धतावाद भाषाओं का शत्रु होता है। भाषाएं मेलजोल से जीवित रहती हैं और समृद्ध होती हैं। अंग्रेज़ी में न जाने कितनी भाषाओं के शब्द चले आए और हिंदी में भी न जाने कितनी नदियों का पानी मिलता चला गया। जो लोग शुद्धतावाद के आग्रही होते हैं वे भाषा को संकीर्ण और संकुचित छोड़ देते हैं। उनका सांस लेना मुश्किल हो जाता है।

6 मगर व्याकरण में धीरे-धीरे होने वाला बदलाव एक चीज है और व्याकरण न जानने की वजह से होने वाली गलतियां एक दूसरी बात है। यह गलतियां इस ओर इशारा करती हैं कि आप अपनी भाषा के प्रति संवेदनशील नहीं हैं।

व्याकरण के नियम इसलिए नहीं होते हैं कि वह भाषा को जकड़ दें, बल्कि वे इसलिए बनते जाते हैं कि उनके दायरे में रहते हुए भाषा अपने सबसे सुंदर रूप में खिलती है। उन्हें परंपरा भी बनाती है और स्मृति भी। ‘उसकी नाक सुंदर है’ की जगह ‘उसका नाक सुंदर है’ लिखना चाहें तो यह सुस्वादु भोजन में कंकड़ मिलने जैसा लगता है।

कई बार लेखक जानबूझकर व्याकरण को? तोड़ते भी हैं- यह दरअसल व्याकरण नहीं, भाषा का शिल्प तोडऩा है। क्योंकि भाषा से जो नया अर्थ वे अर्जित करना चाहते हैं, वह शब्दों या वाक्यों के प्रचलित अर्थ के बाहर जाकर ही संभव होता है। लेकिन लेखक को गलत भाषा लिखने की छूट मिल सकती है, संपादक या प्राध्यापक को नहीं। बेशक, अनजाने में ग़लत भाषा लिखने वाले लेखक खऱाब भाषा भी लिखते हैं- अच्छी भाषा लिखने की कोशिश में नकली भाषा लिखते हैं। इस नकलीपन को पकडऩा, एक लेखक की असावधानी या सीमा को पहचानना और सुधारना संपादक का काम होता है। अगर संपादक खुद भाषा न जाने तो यह काम कैसे करेगा?

हिंदी का सबसे बड़ा दुर्भाग्य भाषा और व्याकरण के प्रति सजग और सतर्क संपादकों और प्राध्यापकों का अभाव है। दिल्ली विश्वविद्यालय के नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा हिंदी-प्राध्यापक शुद्ध और साफ-सुथरी भाषा नहीं लिख सकते। दिल्ली के निन्यानबे फीसदी पत्रकारों को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। इनमें से कई लोग आलोचक और संपादक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। अब वे पुरस्कार भी बांटते हैं। क्या ही अच्छा हो कि वे कुछ काम अपनी भाषा पर भी करें।

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