विचार / लेख
सनियारा खान
बोलनेवाले लोगों के लिए लिखे गए कुछ तथ्यों के बारे में पढऩे का मौका मिला। काफी रोचक भी लगा और खतरनाक भी। पैथोलॉजिकल झूठ को माइथोमेनिया और स्यूडोलोजिया फैंटाका नाम से भी जाना जाता है। इसे एक प्रकार से असामाजिक व्यक्तित्व विकार के रूप से भी माना जाता है। ऐसे लोग अपने बारे में गलत इतिहास गढ़ कर दूसरों को प्रभावित करते हैं। पैथोलॉजिकल झूठ बोलने वाले लोग अत्याधिक आत्मकेंद्रित, वाकपटु और रचनात्मक होने के साथ साथ कुछ ज्यादा ही मंझे हुए कलाकार होते हैं। इसे एक बड़ा रहस्यमय रोग भी कहा जा सकता है। क्यों कि वे लोग कई बार तथ्य और कल्पना के बीच का फर्क समझ ही नहीं पाते हैं या फिर समझना ही नहीं चाहते हैं। अगर उनसे कुछ सवाल पूछ लिया जाए तो वे उस खास सवाल के बारे में खामोश रह कर भी लगातार बोलकर सवाल पूछने वाला व्यक्ति को ही बूरी तरह से भ्रमित कर देते हैं। एक अध्ययन से ये पता चला है कि पैथोलॉजिकल झूठ बोलने वाला एक व्यक्ति जितना अधिक झूठ बोलते जाता है, उसके लिए आगे झूठ बोलना उतना ही आसान होता जाता है। ये अलग बात है कि पैथोलॉजिकल झूठ को हमेशा पकड़ पाना मुश्किल होता है। वे लोग इस बात में पारंगत होते हैं कि कैसे एक झूठ को सशक्त कहानी बना कर और कह कर लोगों को आसानी से आश्वस्त करके प्रभावित किया जाए। वाशिंगटन पोस्ट के कार्टूनिस्ट टॉम टॉल्स ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को भी एक बार पैथोलॉजिकल झूठा कहा था।
पैथोलॉजिकल झूठ बोलने वाले लोगों को थोड़ी मुश्किल से ही सही, लेकिन पहचाना जा सकता है। कुछ जगह पर अपनी बनाई कहानियों से वे खुद को वीर और अत्यंत साहसी दिखा कर लोगों को मोहित करने की कोशिश करते हैं। और कुछ अन्य जगह पर कुछ अलग कहानियां बना कर खुद को पीडि़त और सताया हुआ दिखाकर सहानुभूति बटोरने में व्यस्त रहते हैं। कभी कभी ये भी देखा गया कि वे लोग एक ही कहानी को बदल बदल कर पेश करते करते कई बार पहले कही बातें बाद में भूल भी जाते हैं।
चिकित्सा साहित्य में 100 साल पहले ही पैथोलॉजिकल झूठ के बारे में बताया गया था। 1891 में मनोचिकित्सक एंटोन डेलब्रूक ने पहली बार चिकित्सा साहित्य में पैथोलॉजिकल झूठ के बारे में बताया था। इसे एक जटिल विषय माना जाता है। लेकिन इस बात से सभी सहमत हैं कि इस विषय पर और ज़्यादा व्यवस्थित शोध होना चाहिए। क्यों किपैथोलॉजिकल झूठ समाज को साधारण मानवीय झूठ से ज़्यादा भ्रमित करता है। ऐसे बीमार लोगों से प्रभावित समाज कई बार झूठ और सच में अंतर समझने लायक ही नहीं रहता हैं। तब ऐसे समाज की बुनियाद हिलने लगती है।