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मोदी सरकार कहाँ से लाती है प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के लिए पैसा
20-Mar-2024 4:14 PM
मोदी सरकार कहाँ से लाती है प्रधानमंत्री  गरीब कल्याण योजना के लिए पैसा

दिनेश उप्रेती

‘आजकल हमारे देश में मुफ्त की रेवड़ी बाँटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की भरसक कोशिश हो रही है। ये रेवड़ी कल्चर देश के विकास के लिए बहुत घातक है। रेवड़ी कल्चर वालों को लगता है कि जनता जनार्दन को मुफ्त की रेवड़ी बाँटकर उन्हें खरीद लेंगे। हमें मिलकर रेवड़ी कल्चर को देश की राजनीति से हटाना है।’

साल 2022 में दिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान पर काफी चर्चा हुई थी।

‘कोई और (राजनीतिक दल) बाँटे तो रेवड़ी और वो (मोदी सरकार) बाँटे तो विटामिन की गोलियां...’

लोगों को मुफ्त में चीज़ें या पैसे देने से सियासी दलों के वादों पर मीडिया में बहस के दौरान अक्सर विपक्षी नेता ये तर्क देते हुए देखे-सुने जा सकते हैं।

यहाँ तक कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुँचा था और उच्चतम न्यायालय ने इसे गंभीर मुद्दा बताते हुए कहा था कि वेलफ़ेयर स्टेट होने के नाते मुफ्त चीजें जरूरतमंदों को मिलनी चाहिए, लेकिन अर्थव्यवस्था को हो रहे नुकसान और वेलफेयर में संतुलन बिठाने की जरूरत है।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने फरवरी 2024 में अपने बजट भाषण में बताया था कि मुफ्त राशन योजना पर चालू वित्त वर्ष में दो लाख करोड़ रुपये खर्च किया जाएगा।

नरेंद्र मोदी सरकार ने नवंबर 2023 में ही घोषणा कर दी थी कि इस योजना को अगले पाँच साल तक यानी 2028 तक जारी रखा जाएगा।

वित्त मंत्री के बजट अनुमान को आधार बनाया जाए तो इस योजना से सरकारी खजाने का बोझ तकरीबन 10 लाख करोड़ रुपये होता है।

इस योजना को जून 2020 में शुरू किया गया था, इसके बाद से इसकी समय सीमा को कई बार आगे बढ़ाया गया है। अब इसकी डेडलाइन दिसंबर 2028 तक बढ़ाई गई है।

लाखों करोड़ कहाँ से जुटा रही सरकार?

पर सवाल ये उठता है कि आखिर सरकार के पास इन मुफ्त की चीजों के लिए पैसा आता कहाँ से है।

जब 2014 में मनमोहन सरकार को हटाकर नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई तो सब्सिडी बिल में उसे सबसे अधिक राहत मिली पेट्रोल-डीज़ल और फर्टिलाइज़र्स की कम होती अंतरराष्ट्रीय कीमतों से।

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल यानी 2014-15 से लेकर 2018-19 तक भारतीय रिफाइनरी कंपनियों ने 60.84 प्रति बैरल की दर से कच्चा तेल आयात किया जबकि इससे पहले के पाँच वित्त वर्षों (मनमोहन सरकार 2.0) में ये दर औसतन 96.05 डॉलर प्रति बैरल थी।

रिसर्च एनालिस्ट आसिफ इकबाल कहते हैं, ‘मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में कच्चे तेल की सस्ती आयातित दर ने सरकारी खजाने में संतुलन साधने में अहम भूमिका निभाई। मोदी सरकार इस मायने में भी चतुर रही कि उन्होंने सस्ते आयातित तेल का पूरा फायदा भारतीय उपभोक्ताओं को नहीं दिया। यानी पेट्रोल, डीजल के दाम नहीं घटाए। उलटे पेट्रोल, डीज़ल के अलावा दूसरे फ्यूल प्रोडक्ट्स पर एक्साइज़ ड्यूटी भी बढ़ा दी।’

साल 2012-13 में पेट्रोलियम उत्पादों पर जहाँ केंद्र सरकार 96,800 करोड़ रुपये की सब्सिडी दे रही थी, लेकिन उसे एक्साइज़ के रूप में सिर्फ 63,478 करोड़ रुपये का राजस्व मिल रहा था।

साल 2013-14 में भी फ्यूल सब्सिडी जहाँ 85,378 करोड़ रुपये रही, वहीं इससे मिला एक्साइज राजस्व 67,234 करोड़ रुपये रहा।

लेकिन इसके बाद की स्थिति उलट गई। साल 2017-18 और 2018-19 में जहाँ फ्यूल सब्सिडी 24,460 करोड़ रुपये और 24,837 करोड़ रुपये रही, वहीं इन पर एक्साइज कलेक्शन 2 लाख 29,716 करोड़ और 2 लाख 14,369 करोड़ रुपये हो गया।

तेल की धार पर शुरुआत से नजर

मोदी सरकार जब पहली बार 2014 में सत्ता में आई थी तो पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी 9 रुपये 48 पैसे प्रति लीटर थी, जबकि डीज़ल पर 3 रुपये 56 पैसे प्रति लीटर।

इसके बाद सरकार ने नवंबर 2014 से लेकर जनवरी 2016 तक नौ बार पेट्रोल और डीज़ल की एक्साइज ड्यूटी में बढ़ोतरी की।

यानी इन 15 महीनों में पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी में 11 रुपये 77 पैसे की बढ़ोतरी की गई जबकि डीजल पर एक्साइज़ ड्यूटी 13 रुपये 47 पैसे बढ़ाई गई।

इससे सरकारी खजाने में जमकर पैसा आया। साल 2014-15 में जहाँ पेट्रोल, डीजल से एक्साइज कमाई 99 हज़ार करोड़ रुपये थी वहीं 2016 में ये तकरीबन ढाई गुना (2 लाख 42 हज़ार करोड़ रुपये) हो गई।

आसिफ कहते हैं, ‘आंकड़ों से साफ है कि मोदी सरकार ने सस्ते इंपोर्टेड क्रूड से न केवल फ्यूल सब्सिडी घटाई, बल्कि दूसरे वित्तीय खर्चों के लिए भी इससे होने वाली कमाई का इस्तेमाल किया। पेट्रोलियम सब्सिडी ले-देकर रसोई गैस सिलिंडर तक ही सीमित रह गई और कुछ हद तक उज्ज्वला स्कीम की सब्सिडी तक। दूसरी ओर पेट्रोल-डीज़ल से एक्साइज की कमाई में कई गुना का उछाल आ गया है।’

अब आलम ये है कि मोदी सरकार पेट्रोल, डीज़ल क़ीमतों को हाथ भी नहीं लगाती, चुनावी मौसम को छोडक़र। अभी मई में लोकसभा चुनाव होने हैं, उससे पहले 15 मार्च को पेट्रोल, डीजल की कीमतों में कटौती की गई है। इससे पहले आखिरी बार 22 मई 2022 को पेट्रोल, डीज़ल कीमतें घटाई गईं थीं।

पाँच जुलाई 2013 को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बाद पीडीएस के तहत गेहूं की कीमत दो रुपये प्रति किलो और चावल की कीमत तीन रुपये प्रति किलो तय की गई थी।

मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद इन दरों में इजाफा नहीं किया बल्कि एक जनवरी 2023 से कीमतें ही शून्य कर दी। मतलब पीडीएस के तहत अब गेहूं और चावल मुफ़्त मिल रहा है।

फ्रीबीज के ऐलान में लगी होड़

मुफ़्त योजनाओं की घोषणाएं करने में केंद्र से कहीं आगे राज्य सरकारें हैं। सत्ता में आने के लिए राजनीतिक दल बड़ी-बड़ी घोषणाएं कर देते हैं और सत्ता में आने के बाद इनका सीधा असर सरकारी खजाने और दूसरी योजनाओं पर दिखने लगता है।

पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने अक्टूबर 2023 में एक रिसर्च रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें कम से कम 11 राज्यों का राजस्व घाटा बहुत अधिक था।

इनमें पंजाब, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और हरियाणा का राजस्व घाटा बहुत अधिक है, जबकि इसके उलट खनन से अच्छी खासी कमाई करने वाले झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों की आर्थिक हालत इनसे बेहतर थी।

सब्सिडी का बोझ इतना अधिक है कि राज्यों की कमाई का एक बड़ा हिस्सा सब्सिडी पर खर्च होता है। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2022-23 में राज्यों ने अपनी राजस्व प्राप्तियों का औसतन 9 फीसदी सब्सिडी पर खर्च किया।

कुछ राज्यों में तो सब्सिडी का भी एक बड़ा हिस्सा बिजली सब्सिडी पर खर्च हो रहा है। मसलन राजस्थान ने कुल सब्सिडी का 97 फीसदी बिजली पर खर्च किया जबकि पंजाब ने 80 फीसदी।

मुफ़्त की रेवड़ी कहना ठीक है?

सवाल ये उठता है कि सरकारों की किन योजनाओं को ज़रूरी जन-कल्याणकारी योजना कहा जा सकता है और किन्हें ‘फ्रीबीज’ या मुफ्त की रेवड़ी कहना ठीक रहेगा?

मनी नाइन के संपादक और आर्थिक मामलों के जानकार अंशुमन तिवारी?बताते हैं, ‘हमारे पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जिसके जरिए ये बताया जा सके कि क्या चीज फ्रीबीज हैं और क्या नहीं हैं। क्या आप मुफ्त अनाज बाँटने को फ्रीबीज कहेंगे। और कहीं किसी राज्य में पहाड़ों पर पानी नहीं पहुंच रहा है और वहां सरकार फ्री में पानी उपलब्ध करवा रही है तो क्या उसे आप फ्रीबीज कहेंगे या नहीं। ऐसे में इस पूरे विचार-विमर्श में तथ्यों का भारी अभाव है।’

वह कहते हैं, ‘हमारे पास इसे देखने का सिर्फ एक ही तरीका है। अब से दस साल पहले तक भारत में तथ्यों के आधार पर चर्चा होती थी, जिसमें मेरिट और डिमेरिट सब्सिडी को परिभाषित किया जाता था। हमारे पास इसे देखने का यही एक तरीका है जो भारतीय वित्तीय व्यवस्था के अनुरूप है।’

‘इस आधार पर फ्री राशन और फ्री शिक्षा मेरिट सब्सिडी है। लेकिन अगर किसी छात्र को शिक्षा देना मेरिट सब्सिडी है तो क्या उसे लैपटॉप देना डिमेरिट सब्सिडी है, ये कहना मुश्किल है।’

लेकिन सब्सिडी चाहे मेरिट की श्रेणी में आए अथवा डिमेरिट की श्रेणी में, दोनों सूरत में टैक्सपेयर का पैसा खर्च होता है।

लोग गरीबी से बाहर या गरीबी बढ़ी?

बहस इस बात पर भी है कि अक्सर गरीबों को आगे रखकर मुफ्त योजनाओं या फ्रीबीज का ऐलान किया जाता है। साथ ही सरकार ये भी दावा करती है कि उसके कार्यकाल के दौरान देश ने खूब तरक्की की है और करोड़ों लोग गरीबी रेखा से बाहर आए हैं।

पिछले दिनों मोदी सरकार के इस दावे के बाद कि 25 करोड़ लोग गऱीबी रेखा से बाहर आए हैं, कई राजनीतिक दलों के अलावा सोशल मीडिया पर कुछ लोग सवाल पूछने लगे कि 25 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आए हैं तो 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन क्यों?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद राज्यसभा में इस सवाल को कुतर्क बताया और इसका जवाब कुछ इस तरह दिया, ‘हम जानते हैं कोई बीमार व्यक्ति हॉस्पिटल से बाहर आ जाए ना तो भी डॉक्टर कहता है कुछ दिन इसको ऐसे-ऐसे संभालिए, खाने में परहेज रखिए। क्यों...कभी दोबारा वहां मुसीबत में ना आ जाए। ’

‘जो गरीबी से बाहर निकला है ना उसको ज्यादा संभालना चाहिए ताकि कोई ऐसा संकट आकर के फिर से गरीबी की तरफ लपक ना जाए। इसलिए उसको मजबूती देने का समय देना चाहिए। ताकि वो फिर से वापिस उस नर्क में डूब न जाए।’ (bbc.com/hindi)

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