विचार / लेख
डॉ. आर.के. पालीवाल
सरकार ने आनन फानन में केंद्रीय चुनाव आयोग में चुनाव आयुक्त के दो खाली पदों पर दो सेवानिवृत आई ए एस सुखबीर सिंह संधू और ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति कर दी। अक्सर सरकार की दो कारणों से ही सबसे ज्यादा आलोचना होती है, एक तब जब वह अपने पसंदीदा कामों को बिजली की गति से करती है और एक तब जब वह अपनी अरुचि के कामों को हजार कुतर्क देकर सालों साल टालती रहती है। इन्हीं दो कारणों से सरकार के कामों की विपक्ष और उससे भी ज्यादा प्रबुद्ध जन एवम जन सरोकारी मीडिया द्वारा आलोचना की जाती है।
भ्रष्टाचार के मामलों की जांच की निगरानी करने वाली शीर्ष संस्था केंद्रीय सतर्कता आयोग का भी यही सिद्धांत है कि जब कोई काम या तो सामान्य से बहुत तेज गति से सम्पन्न किया जाता है या बहुत दिनों तक लटकाया जाता है तो उसमें भ्रष्टाचार की प्रबल संभावना मानी जाती है। चुनाव आयुक्तों की यह दो नियुक्तियां भी इसी परिपेक्ष्य में विवादित हो गई हैं। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए सरकार द्वारा गठित समिती के सदस्य और लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने इस मामले में अपनी कड़ी असहमति दर्ज की है। उनका कहना है कि जब सर्वोच्च न्यायालय 15 मार्च को केंद्रीय चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति संबंधी याचिका की सुनवाई करने जा रहा था, ऐसे में आनन फानन में दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ती की बैठक रखने का क्या मतलब है। उनका यह भी मानना है कि यह बैठक मात्र औपचारिकता पूरी करने के लिए लिए रखी गई थी।
एक तरफ सरकार ने आयुक्तों की नियुक्ती की समिती से सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश को अलग रखा है और दूसरे उनकी जगह गृह मंत्री को रखकर सरकार ने समिती में अपना बहुमत बनाकर अपनी पसंद के चुनाव आयुक्त नियुक्त कर लिए। उन्होंने यह भी कहा कि नियुक्ति समिती की प्रस्तावित बैठक से पहले उन्होने नियुक्ति के शॉर्ट लिस्ट किए गए लोगों की जानकारी मांगी थी ताकि वे उन लोगों की योग्यता और प्रशासनिक छवि के बारे में कुछ जानकारी जुटा सकें लेकिन शॉर्टलिस्ट नामों की जगह सरकार ने उन्हें दो सौ से ज़्यादा नामों की सूची थमा दी। इतने लोगों की योग्यता और क्षमता का निरीक्षण किसी भी व्यक्ति के लिए एक दिन में कर पाना संभव नहीं है। अधीर रंजन चौधरी के इन तर्कों को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता। चुनाव आयुक्त की नियुक्तियों पर विगत में भी विवाद हुए हैं जिससे केंद्रीय चुनाव आयोग की निष्पक्ष छवि पर प्रश्न चिन्ह खड़े हुए हैं इसलिए सरकार का दायित्व बनता है कि उसकी कार्यशैली पूरी तरह पारदर्शी और विवेक सम्मत हो।
विगत में पूर्व चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति का विवाद सर्वोच्च न्यायालय में गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी ऐच्छिक सेवानिवृति के तुरंत बाद चुनाव आयुक्त के पद पर नियुक्ति पर आश्चर्य जताया था हालांकि उनकी नियुक्ति को निरस्त नहीं किया था। अरुण गोयल की नियुक्ति जैसा ही आश्चर्य उनके अचानक हुए त्यागपत्र से हुआ है क्योंकि वह लोकसभा चुनाव से मात्र चंद दिनों पहले हुआ था। अभी वह विवाद थमा नहीं था दो नए चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का विवाद खड़ा हो गया। हालाकि सर्वोच्च न्यायालय ने इन नियुक्तियों को भी निरस्त करने की मांग स्वीकार नहीं की फिर भी इस तरह के विवाद संवैधानिक पदों और संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाते हैं। इससे सरकार और सरकार के राजनीतिक दल की प्रतिष्ठा भी धूमिल होती है। अब जब राजनीति से नैतिकता की लगभग विदाई सी हो चुकी है तब संवैधानिक संस्थाओं की नियुक्तियों में निष्पक्षता आवश्यक है और वह तभी संभव है जब नियुक्तियों की तीन सदस्यीय समिति में किसी का बहुमत नहीं होगा। इसके लिए नियुक्ति समिती में प्रधानमन्त्री, नेता विपक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश का होना ही सर्वोत्तम विकल्प लगता है।