विचार / लेख

लोक सेवकों की रगों में घुसता विचारधाराओं की कट्टरता का जहर
22-Mar-2024 2:32 PM
लोक सेवकों की रगों में घुसता विचारधाराओं की कट्टरता का जहर

 डॉ. आर.के. पालीवाल

हमारे संविधान में सरकारी कर्मचारियों की कल्पना ऐसे लोक सेवक के रुप में की गई है जो किसी राजनीतिक विचारधारा से अलग रहकर स्थाई रुप से जनता की सेवा करेंगे। आज़ादी के बाद से दो दशक पहले तक अधिकांश कर्मचारी ऐसा करते भी थे। इधर जब से जन प्रतिनिधियों का दखल सरकारी कर्मचारियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग में बढ़ा है तब से कर्मचारियों का एक वर्ग अपने राजनीतिक आकाओं के प्रति इतना निष्ठावान हो गया है कि वह अपने मूल कर्तव्य को भूलकर अपने राजनीतिक आकाओं के कार्यकर्ता के रुप में काम करने लगा है। सरकारी कर्मचारियों के आचरण में यह बदलाव सरकारी दफ्तरों में हद दर्जे की अनुशासन हीनता को बढ़ावा दे रहा है। कई सरकारी कर्मचारी अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए और बहुतेरे जन प्रतिनिधियों को अपने भ्रष्ट आचरण की ढाल बनाने के लिए ऐसा करते हैं। कुछ दिन पहले रेलवे के उस रक्षक दल की घटना जेहन से भूली नहीं थी जिसने धार्मिक विचारधारा की कट्टरता के कारण धर्म विशेष के यात्री की हत्या कर दी थी। कुछ दिन पहले देश की राजधानी दिल्ली की पुलिस के दरोगा की करतूत सामने आई है जो सडक़ पर नमाज अदा करते युवाओं और बुजुर्गों को बूट से ठोकर मार रहा है। किसी सरकारी कर्मचारी का ऐसा आचरण अत्यंत शर्मनाक है।

चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में मतदान अधिकारी का जिम्मा संभाल रहे अनिल मसीह किस हद तक जाकर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार को हराने और भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार को जिताने के लिए मतपत्रों से खिलवाड़ कर रहे थे यह भी पूरी दुनिया ने देखा है। वह तो हाई प्रोफाइल होने के कारण यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया जिस पर न्यायालय ने उनके दुराचरण पर तुरंत कड़ी प्रतिक्रिया की अन्यथा लोकसभा और विधानसभा चुनावों में न जाने इस तरह के कितने अधिकारी पोलिंग अफसर के रुप में तैनात होते हैं और मनमानी करते हैं। यही कारण है कि विपक्षी दल ई वी एम पर विश्वास नहीं करते जिसे अनिल मसीह जैसे अधिकारी और ज्यादा आसानी से मैनिपुलेट कर सकते हैं।

सरकारी कर्मचारियों का यही ट्रेंड आजकल सोशल मीडिया पर भी सामने आ रहा है।प्राइमरी स्कूलों के शिक्षक से लेकर सरकारी डॉक्टर और इंजीनियर आदि फेसबुक और व्हाट्स एप समूहों पर अपने राज्य की सरकार के नेताओं की तारीफ में कसीदे पढ़ते हैं और विपक्षी दलों के नेताओं को अभद्र भाषा का प्रयोग कर गलियाते दिखाई देते हैं। सरकारी कर्मचारियों का यह गलत आचरण कुछ वर्षों से निरंतर बढ़ रहा है। कुछ साल पहले तक इस तरह का आचरण जन प्रतिनिधियों तक सीमित था लेकिन उनकी देखा देखी यह प्रवृत्ति जन सेवकों में भी तेजी से बढ़ रही है जो अत्यन्त घातक है। जन प्रतिनिधि किसी विशेष विचारधारा से जुड़े राजनीतिक दल से प्रतिबद्ध होते हैं। उन्हें कई मामलों में संसद और विधानसभाओं में बोलने के लिए संवैधानिक सरंक्षण प्राप्त है और विभिन्न दल अपने दलों के ऐसे नेताओं को अनुशासन में रखने की कोशिश भी नहीं करते। इसके बरक्स सरकारी कर्मचारियों के लिए बहुत कड़ी आचरण नियमावली है। सरकारी कर्मचारी इस तरह की हरकत करते हुए अक्सर यह भूल जाते हैं कि संवैधानिक पदों पर आसीन विभूतियों के बारे में अनर्गल लिखना उनकी आचरण नियमावली का उल्लंघन है। इसके लिए किसी खास विचारधारा के राजनीतिक दल की सरकार बदलने पर उन पर कड़ी कार्यवाही हो सकती है। जनसेवकों में धार्मिक या राजनीतिक वैचारिक कट्टरता लोकसेवा की विरोधी है। सिविल सोसाइटी के संगठनों को ऐसे जनसेवकों पर कड़ी नजर रखनी चाहिए ताकि उन्हें चिन्हित कर उचित सजा दिलाई जा सके अन्यथा यह बीमारी बेकाबू हो जाएगी।

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