विचार / लेख
- डॉ. आर.के. पालीवाल
अति भौतिकता के वर्तमान दौर में अर्थ इतना शक्तिशाली हो गया है कि मनुष्य का पूरा जीवन ही अर्थ के इर्द गिर्द कोल्हू के बैल की तरह सिमट कर रह गया है। हमारे व्यक्तिगत रिश्ते हों या व्यावसायिक संबंध अथवा दो देशों के बीच आपसी रिश्ते, उनका सबसे शक्तिशाली तत्व अर्थ बन गया है। यहां तक कि कभी सेवा का सबसे सशक्त और व्यापक माध्यम मानी जाने वाली राजनीति भी अब पूरी तरह अर्थ केंद्रित हो गई है। और तो और कभी अर्थ से बहुत दूर रहने वाला धर्म भी अर्थ प्रधान हो चुका है। सादगी और सेवा को सर्वोपरि मानने वाला भारतीय संत समाज, जो कभी अर्थ को छूने तक से परहेज करता था, भी अर्थ केंद्रित हो गया है। हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था ने समाज को इस तरह आत्म केंद्रित बना दिया है कि अर्थ की तपती भट्टी में नैतिक मूल्यों और मनुष्यता के तमाम मूलभूत सिद्धांतो की बलि चढ़ चुकी है। इसके लिए केवल पश्चिम की भोगवादी जीवन शैली या राजनीति को ही दोषी नहीं ठहरा सकते। अर्थ ने हर व्यक्ति और हर संस्था को अपने मोहपास में जकड़ लिया है।
कोटा कोचिंग फैक्ट्री कमसिन युवाओं को पहले दिन से बड़े बड़े पे पैकेज के लिए तैयार करती है। खुद बच्चों के मां बाप अपने जिगर के टुकड़ों को कोटा और दिल्ली की कोचिंग भट्टियों में झौंक रहे हैं। इन भट्टियों में तपकर निकले बच्चे पकी ईंट की तरह कठोर हो जाते हैं जिनमें कोमल मानवीय रिश्तों की कच्ची मिट्टी जैसी भीनी खुशबू दूर दूर तक दिखाई नहीं देती। इन्हें केवल मल्टी नेशनल कंपनियों के भारी भरकम पे पैकेज दिखाई देते हैं , भले ही वह कंपनी चीन की हो या कनाडा की इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
हमारी शिक्षा पद्धति और उसके आसपास उपजी कोचिंग संस्कृति पूरी तरह अर्थ के इर्दगिर्द घूमती है। वैसे तो प्ले स्कूल की संस्कृति ने प्राइमरी स्कूल से पहले की शिक्षा को ही इतना महंगा बना दिया है कि आम आदमी के लिए अच्छे स्कूल कॉलेज का रुख करना असंभव है। अधिसंख्य आबादी के लिए सरकारी स्कूल की लचर व्यवस्था या कुकुरमुत्तों से उपजे अंग्रेजी नाम वाले सी ग्रेड स्कूल ही एकमात्र विकल्प हैं। उच्च शिक्षा के प्राइवेटाईजेसन ने इंजीनियरिंग, मेडिकल, वकालत और एम बी ए आदि की पढ़ाई को इतना महंगा और भ्रष्ट कर दिया है कि वहां काले धन का भी धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है।आई सी एस और पी सी एस की कोचिंग के जाल महानगरों से निकलकर शहरों और कस्बों तक में फैल गए हैं जिनके सब्जबाग के सपनों में ग्रामीण बच्चे उलझकर न खेती किसानी के मतलब के रहते और न किसी सरकारी नौकरी में घुस पाते हैं। आईआईटी और आईआईएम से निकले बच्चे बुजुर्ग होते अभिभावकों से बेफिक्र अर्थ प्रधान ग्रीनर पास्चर्स खोजते हुए पूरी दुनियां में भटकते रहते हैं। अर्थ का बढ़ता प्रभाव
पति-पत्नी के दाम्पत्य में दरार डाल रहा है, जमीन जायदाद और पारिवारिक धन संपत्ति के लिए भाई-भाई में तकरार बढ़ रही हैं, बुजुर्गों और बच्चों के बीच आर्थिक तनातनी के कोर्ट केस बेतहासा बढ़ रहे हैं।
राजनीतिक दलों ने कॉरपोरेट घरानों और मतदाताओं के रिश्ते में अर्थ लाभ को प्रमुख बना दिया है। इसका दुष्परिणाम एक तरफ सत्ताधारी दलों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग से कंपनियों से धन उगाही के रुप में सामने आ रहा है और दूसरी तरफ़ मतदाताओं को मुफ्त की रेवडिय़ां बांटने से देश में आलसियों की बडी फौज पैदा हो रही है। अर्थ ने हमारी मानसिकता को इस तरह जकड़ लिया कि उसकी पकड़ से छूटना असंभव सा दिखता है। ईसा मसीह, गुरु नानक और महात्मा गांधी जैसी विभूतियों ने अर्थ के दुष्प्रभावों से तत्कालीन समाजों को इसीलिए चेताया था। हमे भी शांतिमय जीवन के लिए अर्थ के आकर्षण से बाहर आने के विकल्प खोजने होंगे।