विचार / लेख

हिंदुस्तानी रेडियो-टीवी की कुछ बातें
23-Mar-2024 2:18 PM
हिंदुस्तानी रेडियो-टीवी की कुछ बातें

-दिनेश श्रीनेत

पिछले दिनों दूरदर्शन के पुराने सीरियल ‘फिर वही तलाश’ का जिक्र चला तो बहुत सी यादें ताजा हो गईं। अस्सी के दशक के अंतिम साल यह टेलीकास्ट हुआ था। तब तक भारत में निजी चैनल शुरू नहीं हुए थे, तो ‘ऑन-एयर’ एक किस्म की मासूमियत फैली हुई थी। दूरदर्शन पर प्रसारित इन सीरियल्स में सादा सी कहानियां, रंगमंच से आए अभिनेता- जो पूरी तरह किरदार में ढल जाते थे और सहज-सरल निर्देशन होता था। बात को बहुत जटिल तरीके से या घुमा-फिराकर कहने की कोशिश नहीं होती थी।

उन्हीं सादा दिनों में मासूम सी प्रेम कहानी वाला यह सीरियल शुरू हुआ था। महज चार लाइनों में सिमटी प्रेम कहानी को इसके लेखक रेवती सरन शर्मा ने इस तरीके से कहा कि लगता था कि छोटे से स्क्रीन में सचमुच कुछ चलते-फिरते वास्तविक लोगों की जिंदगी समा गई है। हालांकि इससे पहले भारतीय मध्यवर्गीय जीवन पर आधारित कुछ बेहद लोकप्रिय सीरियल आ चुके थे। सन् 1984 में ‘हम लोग’ और 1986 में ‘बुनियाद’ की लोकप्रियता आज भी इतिहास है। लेकिन ‘फिर वही तलाश’ ने चुपचाप लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाई थी।

आज जब कई बरस बीत चुके हैं, इसकी याद हल्की सी कसक के साथ उन सबके भीतर आज भी मौजूद है, जिन्होंने वह समय देखा था। उस कहानी के साथ कुछ सुंदर से लम्हे बिताए थे। मुझे याद है कि ‘फिर वही तलाश’ का प्रसारण दोपहर बाद हुआ करता था- शायद तीन बजे के आसपास। इसकी टार्गेट ऑडियंस के लिए शायद दूरदर्शन को यह उपयुक्त समय लगा होगा, जब घरेलू महिलाएं फुर्सत में हुआ करती थीं। मेरी मां को यह सीरियल बहुत पसंद था। उनके साथ बैठकर मैं भी देख लिया करता था। देखते-देखते जाने कब मैं नरेंद्र और पद्मा की प्रेम कहानी से जुड़ता चला गया।

इसमें एक कंट्रास्ट भी था। सकुचाई हुई पद्मा की शोख सहेली थी शहनाज। मुफलिस और मजबूर नरेंद्र के बरअक्स था आत्मविश्वास से भरा हुआ किरदार कैप्टन सलीम, जो शहनाज़ से प्रेम करता था। पूरे 22 एपिसोड बस इन्हीं चार किरदारों के इर्द-गिर्द बुने गए थे। उनकी खुशियां, उनकी चिंताएँ, परेशानियां, शरारतें, कभी उम्मीदों से भर उठना और कभी आसपास निराशा के बादल घिर जाना। लेकिन यह लेखक और निर्देशक की खूबी थी कि उन्होंने तमाम छोटे-छोटे किरदार भी बखूबी लिखे थे। इसमें सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया नरेंद्र के पिता बने वीरेंद्र सक्सेना और उसके पड़ोस में रहने वाली लडक़ी तारा के रोल में हिमानी शिवपुरी ने। संभवत: हिमानी शिवपुरी को इस सीरियल में पहला ब्रेक मिला था।

मुख्य किरदार तब नए थे। कहानी के नायक नरेंद्र का किरदार निभाया था डॉ. अश्विनी कुमार ने। मूल्यों पर भरोसा करने वाला एक ऐसा इनसान जो जीवन की ख्वाहिशों और जरूरतों के द्वंद्व में उलझा हुआ है। अश्विनी कुमार को हम बहुत शानदार अभिनेता नहीं कह सकते मगर यही बात इस सीरियल के लिए शायद उनकी खूबी बन गई। वह इतने आम से दिखते हैं कि लगता ही नहीं कोई अभिनय कर रहा है। हालांकि इस सीरियल के बाद उन्होंने पूरी तरह अभिनय छोड़ दिया और फुल-टाइम डॉक्टर बन गए।

ऐसी ही सरल सहज थीं पूनम रेहानी जिन्होंने चुपचाप सी रहने वाली पद्मा का किरदार निभाया था। उन्होंने भी इस सीरियल के बाद कहीं और अभिनय नहीं किया। कहते हैं ‘मैंने प्यार किया’ के लिए उनका ऑडिशन हुआ था मगर मना करने पर यह रोल ‘कच्ची धूप’ से सामने आई भाग्यश्री को मिल गया। नीलिमा अजीम को हम सब जानते हैं, उन्हें उनकी पूरी शोखी के साथ सर्वश्रेष्ठ रूप में देखना हो तो ‘फिर वही तलाश’ जरूर देखनी चाहिए। उनके प्रेमी बने कैप्टन सलीम का रोल किया था राजेश खट्टर ने, जो नई जनरेशन के अभिनेता ईशान खट्टर के पिता भी हैं।

इसके निर्देशक लेख टंडन ने कई सफल फिल्में बनाईं मगर अस्सी के दशक में उनके लायक सिनेमा नहीं बन रहा था तो शायद उन्होंने दूरदर्शन का रुख किया। यह उनका पहला सीरियल था। उन्होंने रेवती सरन शर्मा की कहानी को बड़ी सादगी से जस-का-तस स्क्रीन पर उतार दिया। असल जादू तो रेवती सरन जी की कहानी का ही था। उनके रग-रग में रेडियो नाटक बसा हुआ था। टेलीविजन को कई यादगार फिल्में और नाटक देने के बावजूद वे अंत तक खुद को ‘रेडियोवाला’ ही कहते रहे। उनके कई लोकप्रिय रेडियो नाटक बरसों-बरस सुनने वालों को याद रहे।

बहुत कम लोगों को पता होगा कि दरअसल ‘फिर वही तलाश’ उनके ही एक घंटे भर के रेडियो नाटक ‘फिर उसी वीराने की तलाश’ की पुन: प्रस्तुति थी। उस रेडियो नाटक के राजन और रमा टेलीविजन में आकर नरेंद्र और पद्मा बन गए। चुलबुली शहनाज रेडियो में भी थी और टीवी में भी। उसका नाम नहीं बदला गया, बस उसकी प्रेम कहानी को टीवी में विस्तार मिल गया। कहानी बस इतनी सी थी पढ़ाई के लिए शहर आए एक नौजवान को किसी परिचित की मदद से शहर के एक रईस के आउटहाउस में रहने की गुंजाइश मिल जाती है। संयोग से उस अमीर व्यक्ति की बेटी भी उसी कॉलेज में पढ़ती है।

परिस्थितियां इस तरह करवट लेती हैं कि दोनों के बीच प्रेम हो जाता है मगर लडक़ी को मजबूरन किसी और से शादी करनी पड़ती है। एक दिन वह अपने पति की फैक्टरी में ही उसी युवक को नौकरी करते देखती है। वह उससे मिलती है और कहती है कि कई साल बीतने के बाद भी वह उसको नहीं भूली है और अपने पति से तलाक लेकर उसके साथ शादी करने को तैयार है। यहां तक की कहानी दोनों में एक जैसी है। मगर टीवी में अंत बदल दिया गया है। रेवती सरन शर्मा के निधन पर फ्रंटलाइन पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में उन्हें  (बाकी पेज 8 पर)

‘वाइस ऑफ ह्यूमनिज़्म’ कहकर याद किया गया था। वे गंगा-जमुनी तहजीब वाले लेखक थे। उर्दू में लिखा करते थे, अपनी मुहावरेदार भाषा और काव्यात्मकता के जरिए उनका लेखन सीधे सुनने वालों के दिल में उतर जाता था। ‘फिर वही तलाश’ में नायक के सपनों से उन दिनों छोटे शहर की पृष्ठभूमि से आया हर नवयुवक जुड़ जाता था। क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हापुड़ कसबे में जन्मे रेवती सरन के पिता भी यही चाहते थे कि वे आगे पढऩे की बजाय दुकान संभालना सीखें और शादी करके घर बसा लें। शर्मा आगे पढऩा चाहते थे और यह उनके पिता को बिल्कुल पसंद नहीं था।

शायद इसी वजह से सीरियल में नायक डॉ. अश्विनी कुमार और उनके पिता बने वीरेंद्र सक्सेना के बीच द्वंद्व इतनी गहराई से उभरकर सामने आया है। रेवती सरन शर्मा की सबसे बड़ी खूबी उनके संवाद थे। उन्हें पता था कि रेडियो का श्रोता सिर्फ नरेशन और संवादों के जरिए अपनी कल्पना को उड़ान दे सकता है, लिहाजा वे इस तरह से लिखते थे कि पात्रों की तस्वीर बिना कुछ लिखे-कहे सुनने वाले के मन में बनती चली जाती थी। उनके पास रंगमंच का गहरा अनुशासन था मगर नाटकों के विपरीत वे छोटे और अंग्रेजी नाटकों की तरह विट वाले संवाद लिखा करते थे। उर्दू पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी, लिहाजा उर्दू अफसानों का चुस्त लहजा भी उनकी लेखनी को अलग बना देता था। इसका एक उदाहरण रेडियो नाटक ‘फिर उन्हीं वीरानों की तलाश’ में देखा जा सकता है, जब रमा की शादी के बाद राजन की उससे मुलाकात होती है -

मुलाकात के कुछ देर बाद राजन कहता है-मैं जा सकता हूँ?

रमा : तुमने मुझे माफ नहीं किया?

राजन : मुझे घर जाना है।।।

रमा : कुछ देर और न बैठ सकोगे?

राजन : फायदा?

रमा : हर बात फायदे के लिए की जाती है?

राजन : नहीं की जाती?

रमा : राजन...

राजन : कम से कम इस बारे में अब तो तुम्हें ईमानदार हो जाना चाहिए।

सवाल के बदले सवाल; और जब आप कहानी से गुजर चुके हों तो हर वाक्य नए अर्थ खोलता चलता है। रमा के साथ अपनी आखिरी मुलाकात में राजन कहता है, ‘तुम अगली बार मिलोगी तो पाओगी कि मैं टूटा नहीं हूँ, जुड़ गया हूँ, बन गया हूँ। मुझे चाहते रहना पर उस मंजिल की तरह जो पहली थी आखिरी नहीं...’

नाटक में रमा और राजन एक-दूसरे से कभी नहीं मिल पाते हैं और शहनाज के इस वाक्य के साथ नाटक का अंत होता है, जब वह रमा से कहती है, ‘बहुत से सफर सितारों के साथ कटते हैं तेरा सफर भी ऐसा ही सही...’

‘फिर वही तलाश’ किस तरह इस रेडियो नाटक से अलग है, इसके लिए इस सीरियल को यूट्यूब पर देखा जा सकता है, @DoordarshanNational ने इसके सभी 22 एपिसोड डाल दिए हैं। इस सीरियल की एक और खूबी थी चंदन दास की आवाज में इसका टाइटल सांग, जिसे लिखा था दिनेश कुमार स्वामी यानी शबाब मेरठी ने। इनका एक शेर है,

उस एक चेहरे के पीछे हजार चेहरे हैं

हजार चेहरों का वो काफिला सा लगता है

बहरहाल ‘फिर वही तलाश’ के टाइटिल सांग में उन्होंने लिखा था,

कभी हादसों की डगर मिले

कभी मुश्किलों का सफर मिले

ये चराग हैं मेरी राह के

मुझे मंजिलों की तलाश है

कोई हो सफर में जो साथ दे

मैं रुकूँ जहाँ कोई हाथ दे

मेरी मंजिलें अभी दूर है

मुझे रास्तों की तलाश है

लेकिन इसका सबसे खूबसूरत पहलू था हर एपिसोड के अंत में कहानी के किसी खास मोड़ पर आने वाला कोई शेर जैसे कि हमेशा पिता से तल्ख रिश्तों के बावजूद उसकी मौत पर फूट-फूटकर रोते हुए नायक के क्लोजअप के साथ जब एपिसोड खत्म होता है तो आवाज उठती है -

वो जो मुद्दतों मेरे साथ था,

वो जो मेरा दाहिना हाथ था,

मेरी जिन्दगी से निकल गया,

मुझे आसरों की तलाश है

या फिर

कोई दर्द हो या हो खुशी,

कोई ख्वाब हो या हकीकतें

जहाँ सच के चेहरे दिखाई दें,

उन्हीं आईनों की तलाश है

यह सच है कि यह सीरियल एक अंतत: एक नॉस्टेल्जिया ही है। शायद जिन्होंने उन उदास ढलती दुपहरियों में उदासी में लिपटी नायिका की उस हँसी को देखा होगा, जो अनजाने अपनी नियति की तलाश में भटकते उन किरदारों से जुड़ गया होगा, वही शायद आज दोबारा उसी शिद्दत के साथ उन भावनाओं को महसूस कर सकता है। आज जब हम ‘फिर वही तलाश’ को याद करते हैं तो शायद उन किरदारों में अपनी ही परछाइयों को पाने की कोई जि़द-सी होती है।

कोई मुझसे दूर भी जाए तो,

जिन्हें अपनी रूह में सुन सकूँ,

मुझे जिन्दगी तेरी नब्ज में

उन्हीं आहटों की तलाश है

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