विचार / लेख
-विजया एस कुमार
याद नहीं कब से, पर बहुत ही छुटपन से मैं शिव की अन्यन भक्त रही हूं। शिव का अभिषेक और उनका श्रृंगार मुझे अतिशय प्रिय रहा।शायद इसलिये भी की वैष्णव सम्प्रदाय की दीक्षा लेने वाली पीढिय़ों के वावजूद हमारे अँगने में शिव हमेशा से ही विराजमान रहे हैं, फिर चाहे वो हमारे पुराने अँगने का मिट्टी का शिवलिंग हो या नए अँगने में वाराणसी से ले स्थापित किये गए शिवलिंग। वैसे भी अवधारणा है कि काशी से लाये गए शिवलिंग को स्थापना की जरूरत नही है क्योंकि वहां तो कण कण में शिव विराजते हैं। अम्मा गर्मियों में उनके ऊपर पानी की झाँपि रखती थी जिससे पूरे दिन बून्द-बून्द बरसते जल से शंकर भगवान का अभिषेक होता रहता और उन्हें ठंडक मिलती थी, वही सर्दियों में भोला बाबा के नजदीक धूप की अलाव जलती थी ताकि कैलाशपती को सर्दी का अहसास न हो। ऊपर से बड़े पापा के साथ हर पूर्णिमा दश्वमेध घाट का स्नान और विश्वनाथ मंदिर में बाबा का अभिषेक। वही पापा के साथ सावन में बाबा वैद्यनाथ का दर्शन। आज भी साल में कम से कम एक बार महराज मलिककार्जुन का दर्शन तो सुखद हो ही जाता है।
जब घर मे ऐसा माहौल हो तो शिवभक्ति तो रग रग में घुलने ही लगती है। सावन की हरेक सोमवारी और शिवरात्रि तो होना ही था, पर फागुन की शिवरात्रि का मोह कैसे छूट जाता।इसी दिन तो प्यारे शिव लाडली गौरा संग विवाह बंधन में बंध जाते हैं। वही बंधन जिसमे बंधते वक्त हर माता पिता अपनी बिटिया दामाद में गौरीशंकर ढूंढते हैं और उन जैसा ही होने का आशीर्वचन देते हैं। शिवरात्रि के दिन तो हर कोई भोले का पूजन करता है पर मेरी बड़ी चाची अगले दिन की पूजा मुझसे खूब मनोयोग से करवाती और कहती कि गौरा संग ब्याह के कैलाशपति इतने प्रसन्न होते हैं कि हर वचन देने को आतुर होते हैं जो चाहे मांग लो,फिर इसी दिन से गांव में खड़ी होली की भी शुरुआत होती है।
ब्याह के बाद तो गौना होता है, उसके बगैर दूल्हन आये कैसे ससुराल! तो गौरा भी कैसे पहुंचे विश्वनाथ गलियां। गौरा को गौनाने आते हैं त्रिपुरारी और संग उनके गण। बनारस में ठीक फाल्गुन एकादशी के दिन विश्वनाथ मंदिर के महंत जी के यहां से रजत जडि़त गौरा और महादेव चांदी की पालकी पर विराज गौरा के मायके की गलियों से गुजरती विश्वनाथ मंदिर आती है और सारे भक्तगण खुशी मे गुलाल उड़ाते हैं इतना कि मय नगरी लालम लाल हो जाती है और एकादशी रंगभरी हो जाती है इसलिए ही इसे रंगभरी एकादशी भी कहते हैं। इसी एकादशी से शुरुआत हो जाती है रंगों गुलाल वाली फाल्गुनी होली की।
पर शिव के भक्त में सिर्फ मनुष्य एवं देवगण ही तो नहीं आते हैं न! इस औघड़ की टोली तो भूत पिशाचों की भी उतनी ही होती है, तो भला उन्हें सिर्फ रंगों की होली कैसे रास आये। ठीक गौने के अगले दिन मणिकर्णिका पर चितायों की राख से भस्म होली खेली जाती हैं। वही मणिकर्णिका जहां सैकड़ों सालों से कभी भी चिता की आग ठंडी नही हुई है, जहां पहुच कर ही अहसास होता है कि शरीर की आखरी गति वही है। तुम्हारे पूर्वज भी इसी मिट्टी में मिले हुए हैं जिनमे तुमने भी मिलना है। फिर इस संसार से इतनी प्रीति क्यों। विरक्ति क्यो नही।
तो कितना निराला है ना शिव का प्रीति से विरक्ति तक का सफर। आइए इस होली हम भी अपने घमंड और टसनो को भी भस्म कर दे और उससे होली खेलते लब से फूटे-
‘खेले मशाने में होली दिगम्बर, खेले मसाने में होली’
होली है!