विचार / लेख
-राहुल कुमार सिंह
(संदर्भ : राजकमल प्रकाशन समूह का आयोजन)
संयोग कि मेरे आस-पास और लगभग नियमित संपर्क में छह-सात ऐसे घनघोर पाठक हैं, जिनसे लाभान्वित होता रहता हूं। ये सभी, जो हाथ आए पढ़ लेते हैं, कहीं लिखने-छपने को उत्सुक नहीं रहते, आपस की बैठकी में अपनी पसंद पर बातें जरूर कर लेते हैं। इन्हीं में से एक ने किसी दिन हल्के मूड में कहा- 'कभी लगता है पढऩे को ज्यादा ही सम्मान दिया जाता है, हम दूसरे कई जरूरी कामों से बच कर किताबों में मुंह छुपा लेते हैं।'
मैंने देखा है कि अधिकतर 'पाठक' के रूप में पहचाने जाने वाले लिखने-छपने वाले या इसकी तैयारी में चाल-चलन को समझने की कोशिश करने वाले होते हैं। पाठकों की पसंद का कुछ अनुमान बाजार और लोक-प्रतिष्ठा से लगाया जा सकता है, मगर पुस्तकालयों और विनिमय से पढऩे वालों और साधक भाव वाले पाठकों की तादाद कम नहीं। मुझे लगता है कि किंडल और नेट आदि के बावजूद हिंदी का गंभीर पाठक का बड़ा वर्ग अभी भी पुस्तक और छपे रूप पर टिका है।
पढऩे और पसंद की बात होते, क्या पढ़े? कुछ अच्छा बताइए, पूछने वाले जरूर मिलेंगे, इनके अच्छा पाठक बन सकने का भविष्य संदिग्ध ही होता है। मेरे एक परिचित अभी भी कागज का हाथ आया पुरजा हो या चिंदी, एक नजर देख कर, सरसरी बांचे बिना नहीं फेंकते।
एक अन्य परिचित, जो नये-नये लेखक बन रहे थे, किताब छपाना चाहते थे, मुझे प्रिंट-आउट दिखाया, ठीक-ठाक लिखा था। बताया कि प्रकाशक अमुक राशि ले कर छापने को तैयार है, मैंने सुझाया कि जल्दी न हो तो कुछ अच्छे प्रकाशकों से बात कर लीजिए, वे भी तैयार हो सकते हैं। इस पर उन्होंने कहा साहित्यकार बनने की इच्छा नहीं है, मैं चाहता हूं, मेरी किताब छपे, बस-ट्रेन का मुसाफिर, बैठे-ठाले जिसके हाथ लगे, पढ़ ले, उसे पसंद आ जाए, बस। आज उनकी चार-पांच पुस्तकें हैं, सारी आत्मकथा वाली, खूब पढ़ी जा रही हैं, पसंद की जाती हैं। वे खुद चाहें तो अपनी पहचान यहां उजागर कर दें।