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स्त्री लगातार घर में रहते संघर्ष करना भूल गई
29-Mar-2024 8:31 PM
स्त्री लगातार घर में रहते संघर्ष करना भूल गई

फोटो : सोशल मीडिया

-अमिता नीरव

पिछले दिनों अखबार में एक खबर छपी थी। गीर अभ्यारण्य में कुत्ते से लड़ाई में पीछे हटी शेरनी। इस तरह का एक वीडियो सामने आया था और फिर अखबार ने इस घटना के सिलसिले में विशेषज्ञों से बात की। विशेषज्ञों का कहना था कि गीर की उस सफारी में चूँकि वीआईपी को शेर दिखाए जाते हैं, इसलिए उन्हें तैयार खाना दिया जाता है। लगातार तैयार खाना खाते-खाते वे लडऩा भूल गए हैं और यदि यही सिलसिला जारी रहा तो ऐसे और भी वीडियो आते रहेंगे।  

विज्ञान बताता है कि जैविक और शारीरिक संरचना में अंतर के अतिरिक्त स्त्री औऱ पुरुषों में मूलत: कोई फर्क नहीं है। न शारीरिक क्षमताओं में और न ही बौद्धिक, मानसिक क्षमताओं में। स्त्री को मिली प्रजनन की विशेषता ने उसकी सामाजिक, आर्थिक स्थितियों का निर्धारण किया। 

कुछ वक्त पहले एक वेब सीरीज देखी थी 'कॉसमोस: ए स्पेसटाइम ओडिसी'। इस सीरीज में धरती औऱ अंतरिक्ष के बारे में बताया जा रहा था। सीरीज में बताया गया कि यदि हम धरती की उम्र एक साल मानें तो उस साल के आखिरी महीने मतलब दिसंबर में इस धरती पर जीवन आया। दिसंबर की 31 तारीख को इंसान आया और 31 दिसंबर को रात 11 बजे से सभ्यता अस्तित्व में आई। 

इसका मतलब यह है करोड़ों साल के धरती के अस्तित्व के एक बहुत छोटे से हिस्से में इंसान आया और उसके भी हजारों साल बाद व्यवस्था ने आकार लिया। यही बात युवाल भी अपनी किताब 'सेपियंस' में कह चुके हैं। 'ह्युमन डिग्निटी एंड ह्युमिलिएशन' की फिलॉसफर औऱ फाउंडर एवलिन लिंडनर भी यही बात कहती है। 

जीन जैक्स रूसो की एक प्रसिद्ध उक्ति है कि, 'वह व्यक्ति इस समाज का निर्माता होगा जिसने पहली बार एक जमीन के टुकड़े को घेरकर कहा कि यह मेरा है और दूसरे भोले लोगों ने उसे मान लिया।' रूसो की मानें तो प्राकृतिक जीवन में संघर्ष नहीं हुआ करते थे। जीवन शांत और सुंदर था। रूसो की तरह ही मार्क्स भी यह कहते हैं कि मानवीय सभ्यता के विकास में निजी संपत्ति के विचार के उदय ने महती भूमिका का निर्वहन किया है। निजी संपत्ति के उदय से ही हम सभ्यता की शुरुआत मान सकते हैं। 

एवलिन लिंडनर कहती हैं कि स्त्री की जैविक-संरचना ने उसकी सामाजिक स्थिति का बहुत नुकसान किया है। जब इंसान ने हथियार ईजाद कर लिए थे और कबीलों में संघर्ष हुआ करते थे, तबसे ही स्त्रियों की समाज में भूमिका एकदम स्पष्ट हो गई थी। उन्हें संघर्ष के लिए बच्चों को जन्म देना था। जिस कबीले में जितने ज्यादा बच्चे उस कबीले की उतनी ज्यादा ताकत पुरुष है तो युद्ध के लिए और स्त्री है तो बच्चे जनने के लिए। 

वे कहती हैं कि एक स्त्री के प्रजनन काल तक उसे बच्चों को जन्म देना होता था। इससे स्त्री निरंतर गर्भधारण और प्रसव के चक्र में ही फँसी रहती थी। मासिक-चक्र में होने वाली शारीरिक दिक्कत और लगातार गर्भधारण और फिर बच्चों के जन्म देने की क्रम में लगी स्त्री की दुनिया सीमित होती जाती है। 

यही बात सिमोन भी कहती हैं कि प्रजनन औऱ मासिक-चक्र में स्त्री को अपनी शक्ति, मेधा, क्षमता और कौशल को निखारने का अवकाश ही नहीं मिल पाता था। दूसरी तरफ पुरुष लगातार खुद का परिष्कार औऱ परिवर्धन करता रहता है। यही वह क्रम है जहाँ से स्त्री की नियति निर्धारित होने लगती है। 

सिमोन अपनी प्रसिद्ध किताब ह्लद्धद्ग ह्यद्गष्शठ्ठस्र ह्यद्ग& में लिखती हैं कि – ‘एक अस्तित्ववादी दृष्टिकोण हमें यह समझने में मदद करता है कि कैसे खानाबदोश मानव ने जैविक और आर्थिक स्थितियों को परिवर्तित कर पुरुष की श्रेष्ठता स्थापित की। पुरुष की अपेक्षा औरत ज्यादा घाटे में रही। वह अपनी जैविक नियति का शिकार हो गई। वह मादा पशु की तरह अपनी शारीरिक सीमाओं में प्रजनन-क्षमता के कारण सदा के लिए कैद कर दी गई। मनुष्य महज जीता नहीं, बल्कि अपने जीवन की सर्वोपरिता का औचित्य भी सिद्ध करना चाहता है। पुरुष ने वह सर्वोपरिता हासिल की, क्योंकि बच्चे पैदा करने का काम पुरुष का नहीं था, वह नर था और क्षणों का नियंत्रण कर भविष्य की रूपरेखा तैयार कर सकता था। यह उसका पौरुषीय क्रिया-कलाप था, जिसके जरिए उसने स्वयं के अस्तित्व को सर्वोपरि मूल्य में बदलकर रख दिया, उसने जीवन की जटिल ताकतों को सुलझाने का भार अपने हाथों में रखा औऱ स्त्री तथा प्रकृति को अधिकृत किया। हमें तो यह देखना है कि कैसे यह परिस्थिति सदियों से जारी रही और विकसित होती रही। मानवता का यह हिस्सा क्यों अन्या होकर रह गया और पुरुष ने इस अन्यता को कैसे परिभाषित किया?’

जैसे ही भूमि पर एकाधिकार की अवधारणा जन्मी, हर तरफ एकाधिकार की आकांक्षा ने जन्म लिया। स्त्री भी और बच्चे भी इसी एकाधिकार की आकांक्षा का हिस्सा रहे। याद रहे कि सभ्यता-पूर्व का समाज मातृसत्तात्मक रहा है। कृषि युग में ही जबकि व्यक्तिगत संपत्ति का उदय हुआ समाज का स्वरूप मातृसत्तात्मक से बदलकर पितृसत्तात्मक होता चला गया। 

इस बात की तस्दीक एंगेल्स ने अपनी किताब ‘द ओरि़जिन ऑफ फैमिली, प्राइवेट प्रॉपर्टी ऐंड स्टेट’ में भी की है। संपत्ति के संरक्षण के लिए समूह बने, समूह से कबीले फिर संघर्ष के लिए लड़ाके। अब तक सब कुछ ठीक था। स्त्री औऱ पुरुषों के बीच भूमिकाओं का निर्धारण नहीं हुआ था, लेकिन निजी संपत्ति के संरक्षण की मजबूरी ने पुरुषों को संघर्ष की तरफ और लडऩे वाले पुरुषों की अधिक संख्या की जरूरत ने स्त्रियों को लगातार प्रजनन की तरफ धकेला।  

मतलब युद्ध के लिए पुरुषों की आपूर्ति के चलते बच्चों को लगातार जन्म देना स्त्री की मजबूरी बन गया। इससे यह हुआ कि पुरुष बाहर जाने लगे औऱ स्त्रियाँ घर में कैद होने लगी। यहीं से स्त्री की दुर्दशा की शुरुआत हुई। तब से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक स्त्रियाँ लगातार घरों में रहीं औऱ प्रजनन की मशीन बनी रहीं। पश्चिम की औद्योगिक क्रांति और स्त्रीवाद की फर्स्ट वेव लगभग साथ-साथ ही आई। 

औद्योगिक क्रांति के दिनों में जबकि उत्पादन के लिए अधिक श्रम-शक्ति की जरूरत लगी तो पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों से भी काम करवाया जाने लगा। तब तक पूरी दुनिया पुरुषों के लिए, पुरुषों के द्वारा औऱ पुरुषों की हो चुकी थी। 

जिस तरह से गिर अभ्यारण्य में शेरनी शिकार करना भूल गई, उसी तरह स्त्री इतने सालों से लगातार घर में रहते हुए अपने कौशल, क्षमता, मेधा का विकास  करना, लडऩा औऱ संघर्ष करना भूल गई। जब स्त्रियाँ अपनी स्थिति के प्रति जागरूक हुई तब तक वह बहुत पिछड़ चुकी थी। जागरूकता की वजह से अपने वजूद के लिए स्त्रियों के अंतहीन संघर्षों की शुरुआत हुई।

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