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56 बरस पहले ऐसे लिखा गया ‘इन्सपेक्टर मातादीन चांद पर’
02-Jul-2024 2:29 PM
56 बरस पहले ऐसे लिखा गया ‘इन्सपेक्टर मातादीन चांद पर’

  हिमांशु राय

आज से 56 साल पहले 21 मई 1968 को आमनपुर मदन महल जबलपुर स्थित हमारे घर के सामने दोपहर को बलवा हो गया था। कोर्ट का आर्डर लेकर जमीन मालिक पुलिस और सरकारी अमला लेकर झुग्गी झोपड़ी वालों से जमीन खाली कराने आया था। सब कुछ अचानक घटा। पुलिस का एक सिपाही घायल हो गया। वो रास्ते में पड़ा था। मेरे पिता का शेषनारायण राय उस समय घर पर थे। परिवार के हम सब लोग ननिहाल गये हुए थे। वो बाहर निकले। देखा पुलिस वाला घायल पड़ा है। पड़ोस के लोगों से उसे पानी लेकर उसे पिलाया। एक रिक्शे में रखकर उसे मेडिकल कॉलेज भिजवाया। धीरे धीरे कर पुलिस वाले और बाकी लोग घटना स्थल पर वापस लौटे। शाम को पिताजी को पुलिस ने आग्रह किया किया कि थाने में चलकर बयान दे दीजिए। पिताजी बयान देने गये। वहां बयान नहीं लिया गया। और न घर जाने दिया गया। उन्हें थाने में बैठा लिया गया। दूसरे दिन वो सिपाही मर गया। इसी दौरान पुलिस ने पूरी योजना का निर्माण कर लिया। का शेषनारायण राय उस पुलिस वाले की हत्या के जुर्म में गिरफ्तार कर लिए गए। कम्युनिष्ट पार्टी के एक और बहुत सक्रिय कार्यकर्ता का शंकर सिंह धीमान जो घटना स्थल से दूर एक सहकारी संस्था में नौकरी करते थे वे भी गिरफ्तार कर लिए गए। सोशलिस्ट पार्टी के नेता डा के एल दुबे भी गिरफ्तार कर लिए गए। बस्ती में रहने वाले 30 लोग गिरफ्तार कर लिए गए। इसे आमनपुर कांड का नाम दिया गया।

परसाई जी की विख्यात कहानी ’इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ आमनपुर कांड पर है। उस कहानी में चांद की फेंटेसी को छोडक़र एक-एक वाक्य सही है और घटा है। उस कहानी का भला आदमी का शेषनारायण राय हैं। 1967 में उस समय मध्यप्रदेश में संविद सरकार थी। वीरेंद्र कुमार सकलेचा गृहमंत्री और गोविन्द नारायण सिंह मुख्यमंत्री थे। जनसंघ पहली बार सत्ता में आई थी। आमनपुर कांड पर परसाई जी ने दो रचनाएं लिखीं। एक ’इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ जो पूरी तरह पुलिस की कारगुजारियों पर है और दूसरी ’एक काना ऐंचकताना’ जो पूरी तरह अदालती कार्यवाहियों पर है। 

हमारा परिवार पहले जबलपुर में राइट टाउन में रहता था। सन् 1965 में हम लोग आमनपुर में खुद के घर में रहने आ गये थे। हमारी पुस्तकों की दुकान थी। यूनिवर्सल बुक डिपो। ये गंजीपुरा में थी। पिताजी की दुकान में परसाई जी की नियमित बैठक थी। कम्युनिष्ट पार्टी की गतिविधियां भी वहीं से संचालित होती थीं। सारा दिन लोगों का आना जाना लगा रहता था। परसाई जी एक बार दोपहर और एक बार शाम को आकर दुकान में बैठते थे। राइट टाउन में भी हमारे घर के पास ही नाले के पार परसाई मामाजी जैसा कि हम लोग उन्हें कहते थे रहा करते थे। दोनों परिवारों का भी आना जाना लगा रहता था।

जब हम लोग 1965 में आमनपुर में रहने आ गये तो ये इलाका उस समय नया नया बस रहा था। अधिकांश प्लाट खाली पड़े थे। पूरी बस्ती में बिजली के ख्ंाबे तक नहीं थे। रात को एक आदमी नसैनी लेकर चलता था और खंभों पर चिमनी जलाकर रखता जाता था। पिताजी ने का शंकर सिंह धीमान और साथियों को साथ लेकर जनसमिति बनाई और जनसमस्याओं के लिए लडऩा शुरू किया। लाइब्रेरी, वाचनालय खुलवाये। सांस्कृतिक कार्यक्रमों और आयोजनों की शुरुआत करवाई। परिणाम ये हुआ कि मोहल्ले में वो काफी लोकप्रिय हो गये। आमनपुर कांड में फंसाए जाने के पीछे यही लोकप्रियता और भविष्य का भय था।

जब दूसरे दिन 22 मई को पुलिस वाला मर गया तो पुलिस ने उसे शहीद घोषित किया। उसका राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार किया गया। का राय, का शंकर सिंह धीमान और डा के एल दुबे के अलावा शायद 21 लोगों पर दफा 302 के अंतर्गत हत्या का केस चलाया गया। यह केस जो 21 मई 1968 को चालू हुआ वो 20 दिसंबर 1968 को पहले पड़ाव पर पहुंचा। जब का शेषनारायण राय, का शंकर सिंह धीमान व 9 अन्य को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सेशंस जज ने अपने फैसले में लिखा कि इन लोगों ने इतना जघन्य अपराध किया है कि इन्हें फांसी की सजा दी जाना चाहिए। पर मैं रियायत कर रहा हूं। बहुत शीघ्र ही इन जज महोदय का प्रमोशन हुआ और वे हाईकोर्ट जज बन गये।

इस केस का दूसरा पड़ाव 30 अप्रैल 1969 को आया जब हाईकोर्ट ने का राय व का धीमान को ससम्मान बरी किया। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में लिखा कि सेशंस कोर्ट ने इन लोगों को सजा देकर मानवता के प्रति बहुत बड़ी गलती की है। हाईकोर्ट की बेंच में उस समय जस्टिस गोलवलकर और जस्टिस सूरजभान ग्रोवर बैठे थे। हाईकोर्ट से रिटायर होने के बाद जस्टिस गोलवलकर एक दिन यूनिवर्सल बुक डिपो आए पिताजी से मिलने के लिए। उनने कहा कि मैं उस व्यक्ति को देखना चाहता हूं जिसको ये सब भोगना पड़ा। सुनवाई के दौरान जस्टिस गोलवलकर से सरकारी वकील ने कहा कि इस केस की पैरवी के लिए सरकार की ओर से महाधिवक्ता चित्तले को बुलाना चाहता हूं। हाईकोर्ट ने कहा कि जिसे भी बुलाना है तुरंत बुलाइये वरना मैं इन लोगों को तत्काल जमानत पर छोड़ूगा। वो केस पढ़ चुके थे और समझ चुके थे।

उस जमाने में सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट चारी बहुत बड़े वकील माने जाते थे। ये कोशिश की गई कि वे इस मुकदमे की पैरवी करने आएं। परसाई जी इलाहाबाद जाकर एडवोकेट सरन को लाए। जिन्होंने हाईकोर्ट में इस केस की पैरवी की। एडवोकेट सरन ने हाईकोर्ट को यह बात बताई कि मुकदमे में यह बात कही गई कि अभियुक्त शेषनारायण राय ने जहां सिपाही के सिर पर लोहे की सब्बल मारी गई बताई गई है  पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार वहां कोई घाव ही नहीं है। सेशंस में पूरा केस पिताजी के लिए जबलपुर के जाने माने वकील लल्लू भार्गव जी ने लड़ा था। लल्लू भार्गव जी ने जिस रणनीति के अनुसार केस लड़ा और गवाहों से जिरह की उसकी भूरि भूरि प्रशंसा एडवोकेट सरन ने की। भार्गव जी बहुत धीरे धीरे प्रश्न करके गवाह से पूरी सचाई उगलवा लेते थे। वे बहुत खूबसूरत और प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी थे। वो काली शेरवानी पहनते थे और गांधी टोपी लगाते थे। सेशंस कोर्ट में फाइनल आर्गुमेंट के लिए जबलपुर के जाने माने वकील सरदार राजेन्द्र सिंह भी खड़े हुए थे।

20 दिसंबर 1968 को जब फैसला हुआ तो ठंड के दिन थे। सैकड़ों लोग अदालत में सुबह से थे। पूरा दिन इंतजार में गुजर गया। शाम हो गई। फिर अंधेरा हो गया। करीब साढ़े सात आठ बजे फैसला सुनाया गया।

सैकड़ों लोगों के बीच एक ठंडी हवा और चुप्पी फैल गई। लाईफ लाईफ आजीवन कारावास की सुगबुगाहट थी। मैं बाहर खड़ा था। अंदर जाने की जगह ही नहीं थी। किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। कहा चिंता मत करो। अपन हाई कोर्ट में लड़ेंगे। सभी लोग हारे थके लौट चले। पुलिस की गाड़ी में पिताजी लोग जेल रवाना हो गए।

आमतौर पर सेशंस कोर्ट में फैसला होने के बाद चार पांच साल बाद हाई कोर्ट में केस लगता है। एक केस बुक बना करती है। इस केस में वह केस बुक करीब 1000 पन्ने की थी। सारे साथी कोर्ट में जुट गए। टाइपिंग कराने में। दो महीने के अंदर केस बुक तैयार हो गई और हाईकोर्ट में केस लग गया। यह एक चमत्कार जैसा था। इसी बीच जनसंघ की संविद सरकार गिर गई।   

और इस तरह 11 महीने जेल में रहने के बाद 30 अप्रैल को पिताजी घर वापस पहुँचे। शाम को जेल से रिहाई हुई। सैकड़ों लोग जेल के दरवाजे पर खड़े थे। फूलमालाएं लिए। कामरेड शेषनारायण राय की जय जयकार हो रही थी।  ये केस पूरी पार्टी और पिताजी के दोस्तों ने लड़ा था। जिस दिन ये केस हुआ उस दिन से पिताजी के घर पहुंचने तक परसाई जी ने एक पल चैन के सांस नहीं ली। मेरा पिता के सगे बड़े भाई एडवोकेट आर एन राय जबलपुर के जानेमाने फौजदारी वकील थे। पूरे केस में शहर के नामी वकीलों को जो उनके खास मित्र थे उन्होंने लगा रखा था। परंतु का शेषनारायण राय के परिवार की ओर से परसाई जी ही पूरा केस लड़ते रहे। का एल एन मेहरोत्रा अपने स्तर पर वकालत का पक्ष देखते थे। पूरे केस के दौरान जो खर्च हुआ उसका एक नया पैसा भी हमारे घर से नहीं गया। परसाई जी और पार्टी ने शायद फंड जमा करके या जैसे भी पूरा केस लड़ा। का शंकर सिंह धीमान भी इस केस में अभियुक्त थे उनकी और उनके परिवार की जिम्मेदारी पार्टी ने उठाई। उस समय के नौजवान का रमेश बाजपेयी, का कृष्णकुमार पाठक की ड्यूटी लगाई गई थी कि वे नियमित रूप से हमारे घर जाते रहें और यदि कोई समस्या हो तो उसका निदान करें। श्याम कश्यप उस समय जबलपुर में हमारे घर के पास ही रहते थे। दुर्भाग्य से ये तीनों आज इस दुनिया में नहीं हैं। 

जब केस हुआ तब मैं 14 साल का था, मेरी बहनें नीलू 12 साल और भावना 9 साल की थी। सबसे छोटा भाई पंकज केवल 4 साल का था। पिताजी उस समय 42 साल और मां सरोज राय 37 साल की थीं। हम सब पढ़ रहे थे। केस के कारण दुकान बंद हो जाती परंतु पिताजी के चचेरे भाई अशोक उसी समय पॉलिटेक्निक की पढाई करके खाली हुए थे। वो हमारे घर आ गये और उन्होंने उस पूरे कठिन समय में दुकान चलाई और हमारा घर चलता रहा। दुकान में दो कर्मचारी थे। हुकुम चंद जैन और रतन। हुकुमचंद जैन, रतन और अशोक चाचाजी की तिकड़ी ने दुकान बहुत अच्छे से चलाई।

इस केस की सबसे बड़ी मार मेरी मां सरोज राय पर पड़ी थी। घर सम्भालना, बच्चों को देखना और पिताजी के केस के लिए पूरे समय जेल और अदालत में हर पेशी के समय खाना वगैरह लेकर जाना हर कुछ वो दौड़ दौड़ कर करती रहीं। इन 11 महीनों में मैंने कभी उन्हें रोते नहीं देखा। बहुत बहादुरी से वे लड़ीं। वो उस जमाने में बी ए पास थीं। हिन्दी अंग्रेजी आदि विषयों की अच्छी जानकार थीं। इंटरमीडिएट ड्राइंग की परीक्षा पास थीं। उनके दिये हुए संस्कार और सिद्धांत हम सब बच्चों के पथप्रदर्शक बने। इन 11 महीनों में हर रोज उन्हें नई नई सलाहें देने लोग आते थे। मगर वे कभी किसी अंधविश्वास में नहीं पड़ीं।

इस केस में कई ऐसी घटनाएं घटीं जिनसे अनेक लोगों के चरित्रों को पढऩे का अवसर मिला। सबसे पहले उस व्यक्ति के बारे में जो इंस्पेक्टर मातादीन नामक चरित्र बना। इनका नाम पं शिवकुमार तिवारी था। ये ढलती उम्र के इंस्पेक्टर थे और माथे पर सफेद रंग का गोल टीका लगाते थे। हर पेशी में ये आते थे। परसाई जी इन्हें कहते थे कि क्यों पंडित ये सफेद टीका जो तुम माथे पर लगाते हो वो क्या कोई सफेद चूरन है जिससे झूठ पचा जाते हो। वो कहते थे नहीं परसाई जी मैं प्रतिदिन सुबह तीन घंटे पूजा करता हूं। ये पुलिस विभाग में झूठा केस बनाने के प्रोफेसर थे। जैसा मातादीन में लिखा है झूठा केस बनाना, झूठे गवाह बनाना इन सबमें इनकी विशेषज्ञता थी। 30 अप्रैल 1969 को जब ये केस खत्म हो गया तो सवाल ये था कि क्या सरकार सुप्रीम कोर्ट जाएगी। संभावना कम थी क्योंकि तब तक संविद सरकार गिर चुकी थी और जनसंघ का राज खत्म हो चुका था। फिर भी ये शिवकुमार तिवारी अपने झूठे केस को सुप्रीम कोर्ट भिजवाने के लिए भोपाल गया था। किस्मत से उस दिन पिताजी भी भोपाल में थे। मुलाकात हो गई थी। इस केस में एक भी बात सच्ची नहीं थी। इसीलिए गवाह पूरी तरह झूठे थे और तैयार किए गए थे। सभी चोर चुरकट थे। हमारे वकील श्री लल्लू भार्गव ने हरेक का इतिहास निकाल कर अदालत में रखा था।

हमारी ओर से चार प्रमुख गवाह थे। प्रो गो मो रानडे और उनके पुत्र राजन रानडे जिन्होंने पूरा घटनाक्रम देखा था और पिताजी ने रानडे साहब के घर से फोन भी किया था। इसके अलावा हमारे पड़ोसी खन्ना परिवार के घर जमाई परजाई जी थे। वो बहुत मस्त मौला आदमी थे और हमारे घर आया जाया करते थे। इन्होंने भी अपने घर से पूरा घटनाक्रम देखा था। इस खन्ना परिवार के मुखिया एक कालू भैया थे जो नौजवान थे पर पूरे घर की जिम्मेदारी उन्हीं की थी। वो जनसंघ के कार्यकर्ता थे। जब उन्होंने देखा कि राय भैया पर इस तरह से झूठा केस बनाया गया है तो वे जनसंघ के नेताओं के पास गये। उन लोगों ने उनसे कहा कि तुम राजनीति नहीं जानते हो तुम चुप रहो। जिस दिन परसाई जी को गवाही देने जाना था उस दिन उन्होंने सुबह खबर भिजवा दी कि वो गवाही नहीं देंगे। सभी अवाक रह गये मगर यही सच था। मगर हमारे वकीलों ने कहा कि कोई बात नहीं उनकी गवाही के बिना भी काम चल जाएगा। चौथे सबसे महत्वपूर्ण गवाह सालपेकर जी थे। ये हमारे पड़ोस के घर पर पहली मंजिल में रहते थे। इनने सब कुछ देखा था और सिपाही को जो पानी वगैरह पिताजी ने पिलाया था वो इन्होंने ही छत से बाल्टी लटकाकर दिया था। इनकी विशेषता यह थी कि यह आर एस एस के वरिष्ठ कार्यकर्ता थे। इनकी छत पर बौद्धिक आदि हुआ करते थे। एक क्षण को लगा कि शायद इस कारण वे गवाही न दें परंतु साल्पेकर जी एक दृढ़ प्रतिज्ञ व्यक्ति थे। उन पर दबाव जरूर आया होगा लेकिन उन्होंने कहा कि आप लोग निश्चिंत रहें जो सच है वो मैं बोलूंगा। उन्होंने पूरा सहयोग किया। उनकी गवाही महत्वपूर्ण थी।

एक और घटना है जो कुछ सोचने पर मजबूर करती है। चरित्र की विविधता। जेल से छूटने के कुछ दिन बाद पिताजी को पथरी की शिकायत हो गई। उनका मेडिकल कालेज में आपरेशन हुआ। वो आपरेशन सफल नहीं रहा। आज से पचास साल पहले बहुत कम सुविधाएं थीं। पिताजी प्राइवेट वार्ड में थे। दर्द आदि से बहुत परेशान थे। बाजू के कमरे में जस्टिस नवीनचंद्र द्विवेदी की पत्नी भरती थीं। ये जस्टिस वही व्यक्ति थे जिन्होंने सेशंस कोर्ट में पिताजी को आजीवन कारावास की सजा दी थी और उन्हें जघन्य हत्या का दोषी बताया था। जो कुछ भी उनके मन में घटा हो जब उन्हें पता चला कि शेषनारायण राय बाजू के कमरे में भर्ती हैं तो वे रोज शाम को आकर पिताजी के बिस्तर के बाजू में बैठ जाते और उनके लिए अगरबत्ती वगैरह जलाते। उन्हें गीतासार वगैरह बताते रहते। पिताजी बहुत परेशान थे मगर बिस्तर में पड़े रहने के अलावा कोई चारा नहीं था। बाद में बम्बई जाकर उनका सही उपचार हुआ।

मैं उस समय दसवीं में पढ़ता था। हमारा मॉडल हाई स्कूल सेशंस कोर्ट के ठीक बाजू में था। जब पेशी होती तो मैं अपने दोस्त विजय श्रीवास्तव के साथ दोपहर की छुट्टी में जाकर पिताजी से मिल आता था। विजय के अलावा शशांक और देवेन्द्र गुमास्ता ही थे जिन्हें इस केस के बारे में पता था। कक्षा में मेरे सहपाठी आपस में बात करते थे कि इसके पिता जेल में हैं मगर मेरे से केवल एक बार एक ही सहपाठी ने पूछा। विडंबना ये थी सेशंस जज द्विवेदी जी का लडक़ा चारूचन्द्र हमारी ही स्कूल में दूसरे सेक्शन में हमारे साथ पढ़ता था।

उन कठिन दिनों में मेरे मामा ज्योतिन्द्र कुमार राय और मेरे ताउ स्व शिवदत्त राय  ने हमारी आर्थिक मदद की थी जो मैं हमेशा याद करता हूं। पिताजी ने जिन यूनियनों के लिए काम किया था उसके मजदूर साथियों ने भी मुझे कई बार रास्ता रोक कर छोटी छोटी मदद करने की बात कही जो मेरे लिए बहुत बड़ी बात है।

पिताजी 2006 में नहीं रहे। मां 2014 में नहीं रहीं। मेरे बच्चों को आमनपुर कांड और अपने दादा दादी के जीवन की इस घटना का पता ही नहीं था। इसीलिए मैंने किंचित विस्तार से यह सब लिखा। ज्यादा से ज्यादा नाम याद कर लिखे हैं।

 

 

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