विचार / लेख
![बाबा लोग इसी का फायदा उठाते हैं बाबा लोग इसी का फायदा उठाते हैं](https://dailychhattisgarh.com/uploads/article/171999596001.jpg)
-के. जी. कदम
हाथरस के एक सत्संग में भगदड़.. सौ से अधिक मरे… कई घायल…
कल से ये खबर टीवी, अखबार, सोशल मीडिया पर दौड़ रही है।
आयोजन को “सत्संग” नाम देकर किस तरह से लोगों को खींचा जा सकता है। इस तरह के बाबा लोग ये बहुत अच्छे से जानते है। साथ ही इससे यह भी स्पष्ट है कि देश में लाखों- करोड़ो लोग ज्ञान और गुरु की तलाश में भटक रहे है (पता नहीं क्यों) ऐसे बाबा लोग इसी का फायदा उठाते हैं।
स्वयं को ईश्वर समझने वाले लोग अहंकार नहीं करने के प्रवचन दे रहे है। मोह माया को त्यागने की बातें करने वाले.. लग्जरी कारों में घूम रहे है।
ऐसे भव्य सत्संगों में, भव्य आसनों पर बैठकर वही सब बातें बोली जाती है जो घर में सामान्य तरीके से अपने बड़े बुजुर्ग बोलते है.. ईमानदारी से काम करो, धर्म कर्म से जीवन व्यापन करो, जीव सेवा करो…
ये छोटी छोटी बातें हमको बचपन से समझाया जा रही है। बच्चे तक जानते है।
लेकिन उम्र पचास, साठ या सत्तर भी हो जाये .. यही सब बातें सुनने फिर ऐसे सत्संग जाना है…
अब और कितनी बार सुनना है ???
पर ऐसे बाबा ये सब बातें ढोलक तबले आधुनिक संगीत और फिल्मी गीत के साथ समझाते है.. शायद तभी वो अच्छे से समझ आती है.. घर पर माता पिता बोलते है तो उनके मुंह से अलग ही बदबू आती है ।
एक अजीब सा रस भीड़ को खींचता है.. भीड़ , प्रवचन के मूल तत्व के बजाय प्रवचन की प्रस्तुति को पकड़ती है।.. मूल तत्व तो बहुत सरल सामान्य है.. उसमें कहां रस ? उसे तो जीना पड़ता है।
ऐसा लगता है बाबाजी के प्रवचन पेट्रोल की तरह होते है। एक बार भरा, तीन महिने चला।.. खत्म.... भूल गये सब प्रवचन.. वापस भराऔ… फिर जाओ बाबाजी के पास… बाबा जी वही बातें फिर कहेगें… गुरु की सेवा करो, मोह माया त्यागो…
सालों हो गये... ना श्रोता मोह माया छोड़ते है , ना वक्ता लग्जरी कारें… प्रवचन कटी पतंग की तरह हवा में तैरते तैरते कहीं अटक भटक जाते है।..
बातें, हर बार वही है। समझ में आ जाये तो पहली बार में ही आ जानी चाहिए। कुछ लोगो को बिना ऐसे सत्संग के भी आ जाती है। कभी कभी एक बच्चा, बाबाजी से ज्यादा बडी बात समझा देता है। बिना ढोलक तबले के.. ।
हमारे जैसे कुछ लोग सुनने के बजाय पढना पसंद करते है। किताबों और लाइब्रेरी से बेहतर सत्संग कहीं नहीं है।
सत्संग पर कोई ऐतराज नहीं है। सत्संग भी जरूरी है। लेकिन सत्संग सिर्फ टेंट, तम्बू, बैनर या लाउडस्पीकर लगाने से नहीं हो जाते.. सच्चे सत्संग तो तामझाम से दूर होते है.. और भीतर के तामझाम दूर करते है।
सीखने, सुनने, स्मरण और साधना और सत्संग के वक्त भी अगर अन्दर कुछ चल रहा है तो ये सिर्फ वक्त खराब करना है।
घर पर बच्चो को पढ़ाती एक मां को उसकी पड़ोसी ने ताना मारा.. दिन भर क्या बच्चों और सास की सेवा में लगी रहती हो.. बाबाजी आये हुए है जीवन में कुछ समय तो सत्संग को दो… ईश्वर को क्या जवाब दोगी ?
बहरहाल इस विषय पर सबका अपना नज़रिया है। ये मेरे अपने विचार है। मैं भी ईश्वर, सत्संग.. सबको मानता हूं, लेकिन उनके लिए मेरी परिभाषा अलग है।