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असम-मणिपुर में बाढ़ से तबाही, काजीरंगा के जीव भी चपेट में
05-Jul-2024 12:09 PM
असम-मणिपुर में बाढ़ से तबाही, काजीरंगा के जीव भी चपेट में

असम और मणिपुर में भारी बारिश के बाद आई बाढ़ ने बड़ी तबाही मचाई है. अब तक कम-से-कम 50 लोगों की मौत हो चुकी है. काजीरंगा राष्ट्रीय अभयारण्य में भी बाढ़ की स्थिति गंभीर है और जानवरों को सुरक्षित स्थान पर ले जाया जा रहा है.

  डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट

पूर्वोत्तर भारत के असम और मणिपुर में करीब 20 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हुए हैं. अब तक कम-से-कम 50 लोगों की मौत हो चुकी है. एक सींग वाले गैंडों के लिए मशहूर असम के काजीरंगा नेशनल पार्क में बाढ़ का पानी भरने के कारण अब तक 17 जानवरों के मारे जाने की खबर हैं. 100 से ज्यादा वन्यजीवों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है.

असम में ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं. ऊपर से मौसम विभाग ने अगले तीन दिनों तक दोनों राज्यों में भारी से अति भारी बारिश की चेतावनी दी है. इससे हालात और बिगड़ने का अंदेशा है.

असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने राजधानी गुवाहाटी से सटे बाढ़ग्रस्त इलाकों का दौरा कर स्थिति की समीक्षा की है. असम और मणिपुर, दोनों राज्यों में राहत और बचाव कार्य के लिए प्राकृतिक आपदा विभाग के अलावा सेना और केंद्रीय सुरक्षा बल के जवानों की भी सहायता ली जा रही है. बाढ़ से इन दोनों राज्यों में सड़कों और कई पुलों को भी भारी नुकसान पहुंचा है.

ज्यादा विकराल होती जा रही है बाढ़
असम में अब साल में कम-से-कम तीन बार बाढ़ आती है. पहले ऐसा नहीं था. विशेषज्ञों का कहना है कि 1950 में आए भयावह भूकंप ने ब्रह्मपुत्र का मार्ग बदल दिया था और उसकी गहराई भी कम हो गई थी. उसके बाद धीरे-धीरे बाढ़ की समस्या गंभीर होने लगी. बीते एक दशक के दौरान इसकी गंभीरता तेजी से बढ़ी है. इसके लिए प्रकृति और पर्यावरण का अंधाधुंध दोहन, जलवायु परिवर्तन और इंसानी गतिविधियों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है.

असम राज्य प्राकृतिक आपदा विभाग के एक अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया कि बाढ़ से राज्य के 29 जिलों में 2,800 गांवों के 16.25 लाख लोग प्रभावित हैं. इनमें से नगांव, दरंग और करीमगंज जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. सरकार ने बाढ़ प्रभावित इलाकों में 515 राहत शिविर खोले हैं. उनमें करीब 3.86 लाख लोगों ने शरण ली है.

काजीरंगा पार्क में नुकसान
काजीरंगा नेशनल पार्क में हर साल बाढ़ के कारण बड़ी संख्या में जानवरों की मौत हो जाती है. इस बाढ़ से राज्य के गोलाघाट और नगांव जिलों में फैले अभयारण्य का लगभग 75 फीसदी हिस्सा पानी में डूब गया है और 20 जानवरों के मारे जाने की खबर है.

विश्व धरोहरों की सूची में शामिल इस पार्क की जैव विविधता और चरागाहों को बचाने के लिए बाढ़ कुछ हद तक उपयोगी भी है. बाढ़ अपने साथ उपजाऊ जमीन की परत लाती है. पहले बाढ़ इतनी विकराल नहीं होती थी, ना ही नियमित. बीते कुछ वर्षों से यह बाढ़ इस पार्क और यहां रहने वाले जानवरों को भारी नुकसान पहुंचा रही है. दुनिया भर में एक सींग वाले गैंडों की एक-तिहाई आबादी यहां रहती है. बाढ़ के कारण सैकड़ों जानवरों ने ऊंची जगहों पर शरण ली है.

राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 37 भी अभयारण्य के बीच से होकर गुजरती है. पानी से बचने की कोशिश में कई वन्यजीव एनएच-37 से गुजरने वाले तेज गति के वाहनों से टकराकर या तो मारे जाते हैं या फिर गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं. इसलिए सरकार ने यहां से गुजरने वाले वाहनों को गति सीमा 20 से 40 किलोमीटर प्रति घंटा रखने की सलाह दी है.

काजीरंगा नेशनल पार्क की फील्ड डायरेक्टर सोनाली घोष ने डीडब्ल्यू से कहा, "पार्क में बाढ़ की स्थिति गंभीर है. यहां 233 में से 141 फारेस्ट कैंप अब भी बाढ़ के पानी में डूबे हैं. इनमें पार्क के कर्मचारी और सुरक्षा गार्ड रहते थे. पार्क के कर्मचारी जानवरों को बचाने की कोशिश में जुटे हैं. अब तक मरने वाले जानवरों में हिरणों की तादाद ज्यादा है. 72 जानवरों को बचाकर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है और कुछ घायल जानवरों का इलाज चल रहा है."

मणिपुर के स्कूलों में छुट्टी, सार्वजनिक अवकाश
मणिपुर में भी लगातार भारी बारिश के कारण दोनों प्रमुख नदियों- इंफाल और कोंग्बा के तटबंधों में दरार आ गई है. इसके कारण इंफाल ईस्ट और इंफाल वेस्ट जिलों के कई इलाके पानी में डूब गए हैं. इनमें राजधानी इंफाल भी शामिल है. सरकार ने राज्य में तमाम स्कूलों को बंद कर दिया है. सरकार ने पहले स्कूलों को चार जुलाई तक बंद करने का निर्देश दिया था, लेकिन लगातार गंभीर होती स्थिति के कारण छुट्टी को अगली सूचना तक बढ़ा दिया गया है.

राज्य सरकार ने 4 जुलाई को लगातार दूसरे दिन भी सरकारी छुट्टी घोषित की है. लोगों से घरों के बाहर ना निकलने की अपील की गई है. यहां भी सेना और असम राइफल्स के जवानों को राहत व बचाव कार्य में लगाया गया है.

बीते साल की हिंसा के बाद से ही राहत शिविरों में रहने वाले हजारों लोगों के लिए यह बाढ़ एक नई मुसीबत बनकर आई है. सरकारी सूत्रों ने बताया कि बाढ़ प्रभावित इलाकों से करीब 2,000 लोगों को मोटर बोट के जरिए सुरक्षित निकालकर राहत शिविरों में पहुंचाया गया है. सेना और सुरक्षा बल के जवान प्रभावित इलाकों में लोगों तक खाना-पानी भी पहुंचा रहे हैं.

मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह ने भी राजधानी के आसपास के बाढ़ग्रस्त इलाकों का दौरा करने के बाद शीर्ष अधिकारियों के साथ बैठक में परिस्थिति की समीक्षा की है. उन्होंने आम लोगों से बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए राहत कोष में दान देने की भी अपील की है.

जंगल की कटाई है बाढ़ की वजह?
मणिपुर के जल संसाधन, राहत और आपदा प्रबंधन मंत्री अवांग्बो नेमाई डीडब्ल्यू को बताते हैं, "हालात अब भी चिंताजनक हैं. तमाम नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं. बड़े पैमाने पर जंगल की कटाई और अफीम की खेती के अलावा नदियों के तटवर्ती इलाकों पर बढ़ता अतिक्रमण ही इस बाढ़ की सबसे प्रमुख वजहें हैं."

नेमाई बताते हैं कि हर साल औसतन 420 वर्ग किलोमीटर जंगल साफ हो जाते हैं. अगर 10-15 साल तक ऐसा चलता रहा, तो प्रकृति और पर्यावरण का संतुलन गड़बड़ाना स्वाभाविक है.

मणिपुर के एक विशेषज्ञ डी.के.नीपामाचा सिंह कहते हैं, "बाढ़ पर अंकुश लगाने के लिए बहुस्तरीय उपाय जरूरी है. सरकार को पहले संवेदनशील इलाकों की शिनाख्त कर वहां बनने वाली सड़कों और पुलियों में खास तकनीक का इस्तेमाल करना चाहिए. ताकि हर साल बाढ़ में बहने से उनको रोका जा सके."

बांधों के निर्माण की भी भूमिका
विशेषज्ञों का कहना है कि असम सरकार ने बीते करीब छह दशकों के दौरान ब्रह्मपुत्र  के किनारे तटबंध बनाने पर 30,000 करोड़ रुपये खर्च किए हैं. हालांकि पिछले करीब एक दशक से इस नदी के तटवर्ती इलाके में इंसानी बस्तियों की बढ़ती संख्या, जंगलों के तेजी से कटने और आबादी बढ़ने की वजह से यह प्राकृतिक आपदा और विकराल होती जा रही है.

विशेषज्ञों का कहना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण होने वाले मौसमी बदलावों और अरुणाचल प्रदेश में बड़े पैमाने पर बांधों के निर्माण ने भी असम में बाढ़ की गंभीरता बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है. असम की पिछली सर्वानंद सोनोवाल सरकार ने करीब 40 हजार करोड़ की लागत से ब्रह्मपुत्र में ड्रेजिंग यानी गाद और मिट्टी निकालने की महत्वाकांक्षी योजना बनाई थी.

केंद्र की मंजूरी के बावजूद इसपर अब तक अमल नहीं हो सका है क्योंकि विशेषज्ञों ने इसपर सवाल खड़ा कर दिया था. उनकी राय थी कि एक बार की ड्रेजिंग से खास फायदा नहीं होगा. कुछ साल बाद समस्या फिर जस-की-तस हो जाएगी. (dw.com)

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