विचार / लेख

विश्व कप विजय, इसलिए संभव...
03-Jul-2024 2:15 PM
 विश्व कप विजय, इसलिए संभव...

-मनोज श्रीवास्तव

निखिल नाज़ ने 1983 की विश्वकप विजय पर 'मिरैकल मैन' नाम से एक पुस्तक लिखी थी. 2024 के इस टी-20 विश्व में भी हमारी टीम चमत्कारी पुरुषों से भरी हुई थी. फर्क सिर्फ इतना था कि 1983 में विजय के बाद ये खिलाड़ी चमत्कारी पुरुषों के रूप में पहचाने गये जबकि 2024 में ये सब इस रूप में पहले ही सिद्ध और प्रसिद्ध हो चुके थे.

1983 के ODI की तुलना 2007 के T-20 से की जानी चाहिए क्योंकि दोनों में ही एक बिल्कुल नया बंदा भारतीय कप्तान था. वे दोनों विश्वकप दोनों कप्तानों का यज्ञारंभ थे. अंग्रेजी का वह शब्द मुझे अच्छा नहीं लगता पर वे दोनों विश्वकप अंडरडॉग' के रूप में हमारी विजय थे. जब चांस ही नहीं था तो चमत्कार कर दिखाया.

पर 2011 और 2024 के क्रमश: ODI और टी-20 विश्वकप ज़्यादा कठिन थे क्योंकि तब कप्तानों के कंधों पर करोड़ों की आशाओं का भार था. तब सिद्ध और प्रसिद्ध कप्तानों से जनता पूछ रही थी: अब नहीं तो कब. इन दोनों समय एक एक चमत्कारी खिलाड़ी था. तब युवराज था अब बुमराह था.

पर 2024 जितना टीम गेम था, उसके कारण यह विजय और मधुर हो गयी. और छोटा-सा चमत्कार इस बार भी हुआ. फाइनल में 16 वें ओवर के बाद की कहानी एक अलग तरह का थ्रिल है. अंडरडॉग शब्द शायद चोकर शब्द की तुलना में ज़्यादा सम्माननीय है.

वैसे इस विश्वकप में अंडरडॉग्स की प्रतिभा खूब खिलकर आई. सबसे पहले तो अमेरिका ने पाकिस्तान को हराकर चकित किया. ठीक वैसे ही जैसे 29 जून 1950 के दिन इसी अमेरिका ने इंग्लैंड को फुटबॉल में हराकर किया था. जैसे अभी अमेरिका में क्रिकेट को लोग बहुत ज़्यादा न जानते हैं, न तवज्जो देते हैं, वैसे ही उस समय अमेरिकी फुटबॉल का हाल था कि इस विजय के अनुकम्प पता ही न चले. पर जैसे उत्तरी कोरिया ने अपना पहला फुटबाल वर्ल्ड कप खेलते हुए इटली जैसी ताकतवर टीम को हरा दिया था, अमेरिका ने पाकिस्तान को ऐसा झटका दिया कि अब तक उनके प्रलाप और विलाप इंजमाम-उल- हक जैसे अपेक्षया शान्त और परिपक्व दिखने वालों तक के श्रीमुख से झरते नज़र आ रहे हैं. अफगानिस्तान की कथा तो अब प्रख्यात हो ही गई है. प्रतिस्पर्धी विश्वकपों में क्रिकेट की वर्णमाला के ‘अ’ अक्षर पर ही मौजूद देशों ने कई पंडित देशों को पूरा का पूरा पाठ ही पढ़ा दिया.

जिस न्यूयॉर्क की नसाऊ पिच पर भारत ने अपनी जीतें दर्ज की वे obsessively neutral pitches थीं. उन पर कोई भी जीत सकता था और आपके विगत की कोई ख्याति , कोई प्रताप यहां काम नहीं आने वाला था. भारत उस unproven पिच पर अपने को प्रमाणित करके आया था.

जब ऑस्ट्रेलिया इंग्लैंड के विरुद्ध किंग्सटन में 201 रन ठोंक रहा था, इंडिया को सवा सौ रनों के भी लाले पड़े हुए थे. श्रीलंका 201 रन मार रहा था और नसाऊ की पिच भारतीय बल्लेबाजों की लय और आत्मविश्वास का नाश किये दे रही थी क्योंकि जीत में भी जान बची लाखों पाए का आलम था. इतनी वल्नरेबिलिटी के साथ खेलने के भी मनोवैज्ञानिक फायदे हैं. आप कभी भी झूठी आत्मसंतुष्टि के जाल में नहीं फँसते.

हर बार भारत बाल बाल बचता था. पर तब हर बार जीतने ने भारत के गेंदबाजों में यह जज़्बा पैदा किया कि कोई-सा भी स्कोर डिफेंडेबल है. यह आत्म-श्रद्धा फाइनल में काम आई. इसने टीम के हर सदस्य में यह भरोसा भी भरा कि वह भी इस टीम की नियति के निर्धारण में उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि कोई अन्य.

और तब इस बात ने भी खिलाड़ियों को स्फूर्त दिया कि प्रयोगों के लिए कुख्यात हो चुके राहुल द्रविड़ ने इस बार कोई प्रयोग नहीं किया सिवाय ग्रुप स्टेज-सुपर एट- में कुलदीप यादव को लाने के. बार बार विराट असफल होते थे लेकिन उनकी पोजीशन चेंज नहीं की गई तो नहीं की गई. कोई revamping या redesigning की कोशिश नहीं हुई. विराट कोहली अपनी ही आत्मा के नरक से निकले - उनके आलोचकों और सोशल मीडिया वीरों तक ने उनके लिए जो भट्टियाँ तैयार कर रखीं थीं उनसे तो निकले ही - जब फाइनल में उन्होंने 'मैन ऑफ द मैच' होकर बताया. बड़े मुकाबलों में He was always a Man enough.

जिस शिवम दुबे को हटाकर उसकी जगह यशस्वी को लाने और विराट को वन-डाउन खिलाने की चीखें मची हुई थीं, उस शिवम ने लगातार अपना विनम्र योगदान किया तो उसके पीछे कप्तान और कोच के स्थैर्य और मानसिक दृढ़ता की बहुत बड़ी भूमिका है.

जब टीम बनी तो टीम स्पिरिट भी बनी. रोहित शर्मा ने' आल फॉर वन और वन फॉर आल 'को सिद्ध किया जबकि इस टीम के कई खिलाड़ी under siege थे अपने ही लोगों से और सबसे ज्यादा इस बात को प्रतीकायित करने वाला शख्स हार्दिक पांड्या था.

यह विश्व कप असाधारण था इसलिए भी कि इसके बाद भारत की तीन असाधारण क्रिकेट प्रतिभाओं ने इस फॉर्मेट से अपनी स्वैच्छिक निवृत्ति की घोषणा की। एक ऐसी विदाई जो इन तीनों जीनियस के साथ न्याय करती है। टीयर्स और चीयर्स साथ साथ। हालाँकि यह किसी को पता नहीं था कि जब विराट ने 76 वाँ रन बनाया तो वह इस अंतर्राष्ट्रीय फॉर्मेट में उनका आख़िरी रन था। नहीं तो यह बात ही कि यह जडेजा की आख़िरी दौड़ है, रोमांचित कर देने वाली थी। उन सारे संचित संवेगों का विस्फोट बाद में ही हुआ। लेटकर ग्राउंड को चूमते हुए रोहित का दृश्य सौरभ गांगुली के शर्ट घुमाने के विद्रोही दृश्य से गुणात्मक रूप से अलग था। यह स्वस्थापन का उद्घोष नहीं था। यह जैसे जीवन भर का आभार था। अभी वन-डे और टेस्ट में उन्हें इसी गौरव पर देश को पहुँचाना है। पर तब तो ऐसा था कि जैसे वह दिन रोहित का सब कुछ हो। कितने कितने फ़्रस्ट्रेशन से यह व्यक्ति गुज़रा है। इस बार भी आँसू थे पर इस बार इनका रूप, रंग, लय, गंध, छंद सब अलग था। कुछ Surreal इनिंग्स रोहित ने इतने आवेश में इतनी दृढ़िमा में खेली हैं- ऐसे ही जैसे वे मैदान आकाश हों जिन पर बिजलियाँ कड़क रहीं हों। ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ तो वह ‘ वॉर माइनस द शूटिंग’ भी नहीं थी। शूटिंग ही थी और ज़बर्दस्त थी। पर उन सबसे भी कहीं ज़्यादा अपने साथियों के प्रातिभ प्रयोग की, अपनी जनशक्ति के सही सही डिप्लायमेंट वाली उसकी कप्तानी याद रखी जायेगी।

एक उत्कर्ष पर टीम को पहुँचा देने के बाद ज़ेन-ज़ी, जो दस्तक देते हुए दरवाज़े पर ही खड़ी है, का आव्हान उचित भी है। ओल्ड ऑर्डर चेंजेथ यील्डिंग प्लेस टु न्यू।।
और वह नई पीढ़ी भी काफ़ी पुरानी हो गई। मसलन वो सुनहरे हाथों वाला सूर्य जो टूर्नामेंट के आख़िरी ओवर की पहली गेंद पर कुछ अलग तरह से चमका, वही तैंतीस वर्ष का हो चुका।
साधारणतः वह अपनी फ्लैशी बल्लेबाज़ी के लिए जाना जाता है पर यह तो फ़ील्डिंग फ़्लैश के लिए अमर हो गया।

मुझे लॉर्ड्स टेस्ट में सचिन तेंदुलकर के द्वारा लिए कैच की याद हो आई। सचिन की पहचान भी बैटिंग के लिए थी। पर वह कैच क्या था? कहते हैं कि कार्ल ल्युइस की रफ़्तार से वह चालीस यार्ड की दूरी तय कर लिया गया कैच था जिस पर तब हर्षा भोगले ने मिड डे में लिखा था कि यह मेरे द्वारा देखा गया महानतम कैच था। विज्डेन क्रिकेट अल्मनाक में तब जॉन थिकनेस ने इसे As wonderful an outfield catch as Lord’s has ever seen लिखा था।

पर सूर्य का कैच मैच और टूर्नामेंट का निर्णायक कैच था जबकि सचिन का कैच एक अर्थहीन ड्रा हुए मैच में लिया कैच था। इसलिए सचिन के उस कैच को अद्भुत होने के बावजूद लोग भूल गये हैं पर सूर्य का यह कैच लोगों की स्मृति में अब हमेशा अंकित हो गया है।

दक्षिण अफ़्रीका इसे कैच-24 की जगह अवश्य ही कैच-22 की तरह याद करना चाहेगा। पर इस टूर्नामेंट ने दक्षिण अफ़्रीका का jinx तोड़ तो दिया ही है और उन्होंने अपना खोया हुआ गौरव कमा भी लिया है।

तथ्य यह है कि 2007 में भारत ने जब पहला T-20 विश्व कप जीता तो वह दक्षिण अफ़्रीका में हुआ था और अब जब यह विश्व कप जीता तो यह दक्षिण अफ्रीका के विरुद्ध फाइनल था। तो इस देश का भारत के लिए इस मामले में कुछ तो रिश्ता है। यह रिश्ता क्या कहलाता है पता नहीं। बापू का भी बताते हैं।

और बापू का तो इस बार वो भी लोहा मान गये जो पहले उनके शैदाई नहीं थे। बैट से डिस्ट्रक्टिव और बॉल से क्रिएटिव अक्षर पटेल बापू और पटेल दोनों का मिश्रण रहा। कुलदीप की स्पिन भी एक जाल रचती है। हालाँकि अक्षर, कुलदीप और जडेजा की स्पिन त्रयी फ़ाइनल में बिल्कुल नहीं चली- पर कई मैचों में उनका क्रिएटिव डिस्ट्रक्शन काम आया।

अर्शदीप भी वैसे ही बड़े टूर्नामेंट का खिलाड़ी है जैसे हार्दिक पांड्या। पिछले टी-20 विश्व कप में भी भारत की ओर से सबसे ज़्यादा विकेट उसी ने लिये थे, इस बार भी। थोड़ा-सा रडार के नीचे रहता है तो इसकी थ्रेट को ट्रेस करना और कठिन पड़ता है। और यह कितना प्रभावी है यह तो ट्रांस-बॉर्डर प्रतिक्रिया से ही पता लग गया जब इंज़माम दादा उस पर बॉल-टेंपरिंग का आरोप लगाने लग गये। इंजमाम अपनी टीम का तो सही सही इंतज़ाम कर न पाये तो अर्श को फ़र्श पर लाने की खीझ।

और ऐसा नहीं है कि इस टीम में कमियाँ न थीं पर कमियों का उचित प्रबंधन करने के लिए राहुल द्रविड़ जो बैठे थे। पूरे जीवन भर का अनुभव लिए। ऐसा बंदा जो प्रेस को इंप्रेस करने में कोई ऊर्जांश व्यय नहीं करता। जितनी शांति उनके बैटिंग कैरियर में थी, उतनी कोचिंग में भी। जो मूव्स राहुल ने चले वे टीम में behavioural ही नहीं structural सुधार लाये हैं। वे सही अर्थों में द्रोणाचार्य सिद्ध हुए हैं।
सबको कुछ न कुछ सिद्ध करना था, इसलिए सिद्धि संभव हुई।


 

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