विचार / लेख

मौत का सत्संग
03-Jul-2024 1:47 PM
मौत का सत्संग

-प्रमोद भार्गव

उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले के ग्राम पुलराई में नारायण साकार हरि उर्फ भोले बाबा के सत्संग समागम में मची भगदड़ में 120 से ज्यादा श्रद्धालुओं की असमय मौत हो गई। इनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे हैं। बड़ी संख्या में लोग घायल हुए हैं। मौत की यह भयावह त्रासदी कोई पहली घटना नहीं है। अंधभक्त धर्मपरायण देश में ब्रह्मज्ञान देने के आयोजन निरंतर होते रहते हैं, उसी अनुपात में दुर्घटनाएं भी घटती रहती हैं। तीर्थस्थलों की आवाजाही में होने वाली वाहन दुर्घटनाओं में भी बड़ी संख्या में लोग हर साल काल के गाल में समा जाते हैं। 

पिछले माह संपन्न हुई हज यात्रा में भी एक हजार के करीब लोग भीषण गर्मी के चलते मक्का में मौत की नींद सो गए थे। इसमें 78 भारतीय थे। आजकल राजनेताओं और फिल्म जगत की बड़ी हस्तियों द्वारा बाबाओं की शरण में जाने से आम आदमी यह सोचने लगा है कि ब्रह्म और भविष्य के इन अलौकिक ज्ञाताओं के पास वाकई अदृष्य शक्तियां नियंत्रण में हैं।

गोया, बाबा बाघेष्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री और सीहोर के प्रदीप मिश्रा भी आसानी से अपने प्रवचनों के लिए लाखों की भीड़ जुटा लेते हैं। भीड़ उम्मीद से ज्यादा हो जाती है और प्रशासन प्रबंधन में अकसर चूक जाता है। फलत: भगदड़ में ही सैंकड़ों लोग मर जाते हैं। आज कल नेता बाबाओं की इस भीड़ को मतदाता समझने लगे हैं। अतएव वोट के लालच में इन समागमों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं और श्रद्धालुओं की धार्मिक भावनाओं का दोहन कथित बाबाओं के मध्ययम से स्वयं एव ंअपने दल के लिए दोहन करने में कोई संकोच नहीं करते हैं। वैभव और विलास में डूबे बाबा भी इन नेताओं की पैरवी करने लग जाते हैं। नतीजतन उचित प्रबंधन की प्रशासन अनदेखी कर देता है।

क्लिक करें और यह भी पढ़ें :  हाथरस हादसाः नारायण साकार के चरणों की धूल को लेकर मची भगदड़, क्या कह रहे हैं श्रद्धालु

उत्तर प्रदेश की पुलिस सेवा में आरक्षक रहे सूरजपाल जाटव को एकाएक आध्यात्मिक ज्ञान हो गया और वे नारायण साकार उर्फ भोले बाबा के रूप में सत्संग कर ब्रह्मज्ञान की रसधारा बहाने लग गए। सूरजपाल ने 1997 में नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर आध्यात्मिक मार्ग पर चल पड़े थे। बाबा कांसीनगर में पटियाली तहसील के बहादुर नगर के रहने वाले हैं। यही उन्होंने अपने घर को आश्रम का रूप दे दिया और प्रवचन शुरू कर दिए। बीते कुछ सालों में ही उन्होंने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब में अपने असंख्य भक्त बना लिए। चमत्कारी बाबा के रूप में प्रसिद्धि मिल गई तो उनकी पत्नी भी माताश्री कही जाने लगी। भोले बाबा के सत्संग में लोग अपनी परेशानियां लेकर पहुंचने लगे। उनके द्वारा हाथ से छूकर बीमारियों को दूर करने का चमत्कार जुड़ गया। अतएव चमत्कार से वशीभूत उनके अनुयायियों का कारवां बढ़ता चला गया। वे काशी नगर के अलावा अनेक जगह बुलावे पर प्रवचन देने जाने लगे। पुलराई में जहां यह त्रासदी घटी है, वहां 80,000 से ज्यादा भक्त पहुंचे थे। जबकि प्रशासन को सूचना 50,000 लोगों के पहुंचने की दी गई थी। सत्संग जब समाप्त हुआ तो अनुमान से ज्यादा पहुंचे भक्त बाबा के चरण छूने की होड़ में लग गए और एक-दूसरे को मची भगदड़ में कुचलने लग गए। ऐसे मामलों में कभी कोई कठोर कार्यवाही हुई हो अब तक देखने में नहीं आया है। गोया, यह मामला भी कुछ दिन चर्चा में रहने के बाद शून्य में बदल जाएगा।  

2018 में अमृतसर में रावण दहन के अवसर पर हुए रेल हादसे में 61 लोग मारे गए थे। सीधे-सीधे यह प्रशासनिक लापरवाही थी। देश में धार्मिक मेलों और सांस्कृतिक आयोजनों के दौरान भीड़ में भगदड़ मचने से होने वाले हादसों का सिलसिला लगातार बढ़ रहा है। ठीक इसी किस्म की लापरवाही केरल में कोल्लम के पास पुत्तिंगल देवी मंदिर परिसर में हुई त्रासदी के समय देखने में आई थी। इस घटना में 110 लोग मारे गए थे और 383 लोग घायल हुए थे। यह ऐसी घटना थी, जिसे मंदिर प्रबंधन और जिला प्रशासन सचेत रहते तो टाला जा सकता था। क्योंकि मलयालम नववर्ष के उपलक्ष में हर वर्ष जो उत्सव होता है, उसमें बड़ी मात्रा में आतिशबाजी की जाती है और इसका भंडारण मंदिर परिसर में ही किया जाता है। आतिशबाजी चलाने के दौरान एक चिंगारी भंडार में रखी आतिशबाजी तक पहुंच गई और भीषण त्रासदी में लोगों की दर्दनाक मौतें हो गईं। यह हादसा इतना बड़ा और हृदयविदारक था कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिकित्सकों का दल लेकर कोल्लम पहुंचना पड़ा था। लेकिन इस तरह से संवेदना जताकर और मुआवजा देने की खानापूर्ति कर देने भर से मंदिर हादसों का क्रम टूटने वाला नहीं हैं। जरूरत तो शीर्ष न्यायालय के उस निर्देश का पालन करने की है, जिसमें मंदिरों में होने वाली दुर्घटनाओं को रोकने के लिए राष्ट्रव्यापी समान नीति बनाने का उल्लेख है। 

क्लिक करें और यह भी पढ़ें :  धर्म की अराजक भीड़ में थोक में होती मौतें रोकने की फिक्र किसी को रहती है?

यदि प्रधानमंत्री इस हादसे से सबक लेकर इस नीति को बनाने का काम करते तो शायद यह हादसा नहीं हुआ होता ? दर्शनलाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाली भगदड़ व आगजनी का सिलसिला जारी है। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती। इसलिए उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अक्सर देखने में नहीं आती। लिहाजा आजादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमलेश बेकाबू ही नहीं हुए होते?
हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक आयोजन विराट रुप लेते जा रहे हैं।  कुंभ मेलों में तो विशेष पर्वों के अवसर पर एक साथ तीन-तीन करोड़ तक लोग एक निश्चित समय के बीच स्नान करते हैं। दरअसल भीड़ के अनुपात में यातायात और सुरक्षा के इंतजाम देखने में नहीं आते। जबकि शासन-प्रशासन के पास पिछले पर्वों के आंकड़े हाते हैं। बावजूद लपरवाही बरतना हैरान करने वाली बात है। दरअसल, कुंभ या अन्य मेलों में जितनी भीड़ पहुंचती है और उसके प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौशल की जरुरत होती है, उसकी दूसरे देशों के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते ? इसलिए हमारे यहां लगने वाले मेलों के प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से नहीं ले सकते? क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विशेष मुहूर्त के समय लाखों-करोडों़ की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जा सकती? बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण लेने खासतौर से योरुपीय देशों में जाते हैं। प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें खुद अपने देश, ज्ञान और अनुभव से लिखने होंगे।

प्रशासन के साथ हमारे राजनेता, उद्योगपति, फिल्मी सितारे और आला अधिकारी भी धार्मिक लाभ लेने की होड़ में व्यवस्था को भंग करने का काम करते हैं। इनकी वीआईपी व्यवस्था और यज्ञ कुण्ड अथवा मंदिरों में मूर्तिस्थल तक ही हर हाल में पहुंचने की रूढ़ मनोदशा, मौजूदा प्रबंधन को लाचार बनाने का काम करती है। नतीजतन भीड़ ठसाठस के हालात में आ जाती है। ऐसे में कोई महिला या बच्चा गिरकर अनजाने में भीड़ के पैरों तले रौंद दिया जाता है और भगदड़ मच जाती है। धार्मिक स्थलों पर भीड़ बढ़ाने का काम मीडिया भी कर रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया टीआरपी के लालच में इसमें अहम् भूमिका निभाता है। 

वह हरेक छोटे बड़े मंदिर के दर्शन को चमात्कारिक लाभ से जोडक़र देश के भोले-भाले भक्तगणों से एक तरह का छल कर रहा है। इस मीडिया के अस्तित्व में आने के बाद धर्म के क्षेत्र में कर्मकाण्ड और पाखण्ड का आंडबर जितना बड़ा है, उतना पहले कभी देखने में नहीं आया। निर्मल बाबा, कृपालू महाराज और आसाराम बापू, रामपाल जैसे संतों का महिमामंडन इसी मीडिया ने किया था। हालांकि यही मीडिया पाखण्ड के सार्वजनिक खुलासे के बाद मूर्तिभंजक की भूमिका में भी खड़ा हो जाता है।

मीडिया का यही नाट्य रूपांतरण अलौकिक कलावाद, धार्मिक आस्था के बहाने व्यक्ति को निष्क्रिय व अंधविश्वासी बनाता है। यही भावना मानवीय मसलों को यथास्थिति में बनाए रखने का काम करती है और हम ईश्वर अथवा भाग्य आधारित अवधारणा को प्रतिफल व नियति का कारक मानने लग जाते हैं। दरअसल मीडिया, राजनेता और बुद्धिजीवियों का काम लोगों को जागरूक बनाने का है, लेकिन निजी लाभ का लालची मीडिया, धर्मभीरु राजनेता और धर्म की आंतरिक आध्यात्मिकता से अज्ञान बुद्धिजीवी भी धर्म के छद्म का शिकार होते दिखाई देते हैं। यही वजह है कि पिछले एक दशक के भीतर मंदिर हादसों में कई हजार से भी ज्यादा भक्त मारे जा चुके हैं। 2013 में घटित केदारनाथ हादसे में तो कई हजार लोग दफन हो गए थे। बावजूद श्रद्धालु हैं कि दर्शन, श्रद्धा, पूजा और भक्ति से यह अर्थ निकालने में लगे हैं कि इनको संपन्न करने से इस जन्म में किए पाप धुल जाएंगे, मोक्ष मिल जाएगा और परलोक भी सुधर जाएगा। गोया, पुनर्जन्म हुआ भी तो श्रेष्ठ वर्ण में होने के साथ समृद्ध व वैभवशाली होगा? जाहिर है, धार्मिक हादसों से छुटकारा पाने की कोई उम्मीद निकट भविष्य में दिखाई नहीं दे रही है ?

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)

 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news