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अखबारों की यादें हैं कि पीछा ही नहीं छोड़तीं
27-Sep-2020 2:31 PM
अखबारों की यादें हैं कि पीछा ही नहीं छोड़तीं

-ओम थानवी

1984 की बात है। राजेंद्र माथुर नवभारत टाईम्स का संस्करण शुरू करने के इरादे से जयपुर आए। पहली, महज परिचय वाली, मुलाकात में कहा- ‘जानता हूँ आप इतवारी का काम देखते हैं।’ फिर अगले ही वाक्य में, ‘और अच्छा देखते हैं।’ कुछ रोज बाद में उन्होंने मुझे नवभारत टाईम्स में आने को कहा। बड़े जिम्मे का प्रस्ताव था। फिर दिल्ली बुलाया नियुक्ति की अंतिम कार्रवाई के लिए।

बहादुरशाह जफर मार्ग स्थित टाईम्स हाउस में मैं दूसरी बार दाखिल हुआ। (पहले अज्ञेय जब संपादक थे तब गया था; संभवत: 1978 में)। माथुर साहब अपनी परिचित गरमाई के साथ मिले। लंच में अपने घर ले गए। जमुना पार, स्वास्थ्य विहार। अपनी ऐम्बैसडर ख़ुद ड्राइव करते हुए। रास्ते में बोले, टाईम्स वाले इतना 

पैसा नहीं देते कि ड्राइवर रख सकूं। यह बात मुझे हमेशा याद रही। मैं टाईम्स वालों पर तरस खाता रहा। 

घर पर उन्होंने अनौपचारिक रूप से मेरा इम्तिहान ले डाला। वैसे रास्ते में भी ज़्यादा बात जयपुर के प्रस्तावित संस्करण को लक्ष्य कर ही हुई। श्रीमती माथुर का आतिथ्य आत्मीय था। घर पर किताबों का पहाड़ देखकर पिताजी का जुनून याद आया (जो बाद में मुझ पर भी छाया)। 

मुझे सुनकर हैरानी हुई, जब माथुर साहब के मुँह से बरबस निकला- मैं जनसत्ता जैसा अखबार निकालना चाहता हूँ। आज कुछ मित्रों को यह जानकर अजीब ही लग सकता है। पर सचाई यह है कि जनसत्ता नया अखबार था, नई टीम थी, नया तेवर था। भाषा में भी ताजगी थी। एक बाँकपन भी था। नभाटा की टीम काफ़ी पुरानी थी। शायद अकारण नहीं था कि जनसत्ता से कुछ पत्रकार (ख़ासकर रामबहादुर राय, श्याम आचार्य, व्यंग्य चित्रकार काक आदि) नभाटा में लाए भी गए।

दफ्तर लौटकर माथुर साहब मुझे ऊपर की मंजि़ल में बैठने वाले कम्पनी के कार्यकारी निदेशक रमेशचंद्र जैन के पास ले गए। जैन उस वक्त समूह के मालिक अशोक जैन से बात कर रहे थे, जो इलाज के लिए विदेश जाने की तैयारी में थे। हमारे सामने ही रमेशजी ने उस यात्रा के प्रबंध के सिलसिले में एक पत्र डिक्टेट करवाया। फिर हमसे मुखातिब हुए। सवाल-जवाब करने लगे।

रमेशजी को ठीक से अंदाजा नहीं था कि मुझे क्या जि़म्मा सौंपा जाने वाला है। साप्ताहिक के अनुभव के बारे में सुन अपने पठन-पाठन की बात करने लगे। बीच-बीच में भावी योजना के बारे में मेरे विचार जान लेते। उनकी हिंदी अच्छी थी।

मुझे उनके सामने जाना अजीब लगा। जब प्रधान सम्पादक ने किसी को चुन लिया, हर तरह की बात तय हो चुकी, तब यह दखल कैसा। पत्रिका में तो ऐसा नहीं देखा था (बाद में जनसत्ता में भी नहीं)। सम्पादक ने चुन लिया, बात वहीं खत्म। हालाँकि राजस्थान पत्रिका के सम्पादक अखबार के संस्थापक ही थे। पर जनसत्ता में प्रभाषजी ने चुना। किसी से नहीं मिलवाया। मैं बीकानेर (वहाँ पत्रिका का बीकानेर संस्करण देखता था) से दिल्ली पहुँचा। वे कार में (उनके पास भी सफेद ऐम्बैसडर थी) चंडीगढ़ छोड़ कर आए। मैंने भी जनसत्ता और उससे पहले पत्रिका में जिन-जिन को अपने साथ लिया, मेरा निर्णय अंतिम था। आगे किसी से कोई मिलना-मिलाना नहीं।

बहरहाल, टाईम्स हाउस में प्रबंधन से मेरी मुठभेड़ ऊपर की मंजि़ल पर ही नहीं थमी। कैबिन में लौटने के बाद माथुर साहब ने कहा कि नीचे पर्सोनेल (अब एचआर) में हो आओ। इमारत से बाहर निकलने के रास्ते पर दाईं ओर छोटे-से कैबिन में एक झक्की आदमी मिले। नाम था तोताराम। उन्होंने काम की बात करने की जगह मेरा इंटरव्यू-सा शुरू कर दिया। माथुर साहब से जो वेतन तय हुआ, उससे भी वे मुकर गए। एक सयाने की मुद्रा में नम्रता का लबादा ओढक़र पता नहीं क्या-क्या समझाने लगे।

उनकी एक दलील पर मेरा धीरज जवाब दे गया। उन्होंने कहा, यह सोचिए कि आप कहाँ आ रहे हैं। एक छोटी-सी दुकान से निकल कर कितने बड़े संसार में। टाईम्स कितना बड़ा एंपायर है, इसे समझिए। इस ज्ञान से मेरा मन और उखड़ गया। इस साम्राज्य में सम्पादक बड़ा है या मैनेजर?

मैंने उन्हें एक ही बात कही- मैं जानता हूँ कि यह एक विराट एम्पायर है। मगर राजस्थान में जहाँ मैं काम करता हूँ, उसकी तूती बोलती है। आपके अखबार का अभी वहाँ कोई निशान तक नहीं; बल्कि आप उसे वहाँ हमारे सहयोग से शुरू करने की सोच रहे हैं। 

इतना कहकर मैंने विदा का ऊँचे हाथों वाला नमस्कार किया और उठ गया। वे भाँप गए कि बात बिगड़ गई है। तुरंत पलटने लगे कि आपकी तो सारी बात तय हो चुकी है। फिक्र न करें। बैठें। पर मेरा मन डगमग रहा। शांत मुद्रा में बाहर निकल आया। फिर मुख्य इमारत से भी। वहाँ से सीधे बीकानेर हाउस पहुँचा, जहाँ से जयपुर को बसें जाती थीं और लौट के सीधे घर को। 

रास्ते में खय़ाल आया कि अब पत्रिका की नौकरी भी गई। गई तो गई। असल में शहर में पहले ही बहुत हल्ला हो चुका था नभाटा के बुलावे का।
दो रोज बाद कुलिशजी ने घर बुलाया। पहले भी जाता रहा था। उनके साथ बैठकर ध्रुपद के दर्जनों कैसेट कापी किए थे। तेईस साल की उम्र में उन्होंने साप्ताहिक का बड़ा जिम्मा मुझे सौंपा था। लग रहा था कि आज यह किस्सा यहाँ तमाम हुआ।

उन्होंने पूछा, नभाटा जयपुर आ रहा है? मैंने कहा, सही बात है। सुना, तुम जा रहे हो? मैंने कहा, अब नहीं। बोले, जाओ भी तो इसमें संकोच कैसा? मैं भी तो राष्ट्रदूत छोडक़र आया था। मैंने उन्हें सारी दास्तान सुनाई। कि बुलावा था। दिल्ली भी होकर आया हूँ। पर मन नहीं माना। नहीं जा रहा। 

उनकी आँखों में चमक आ गई। बोले, तुम्हारे जाने की बात जय क्लब में डॉ गौरीशंकर से सुनी थी। उन्हें भी मैंने राष्ट्रदूत वाली बात कही। पर अब नहीं जा रहे हो तब और भी अच्छा। तुम्हारा घर है। और देखते-देखते पत्रिका छूटने की जो आशंका थी, वह उलटे पदोन्नति में बदल गई। इतना ही नहीं, शायद पत्रिका में मैं पहला पत्रकार था जिसे अख़बार की तरफ से घर मिला। यानी घर का पूरा किराया।

बहरहाल, माथुर साहब का स्नेह मुझे हासिल हुआ। उन्होंने इज्जत बख्शी। प्रेरणा दी। बस तोताराम के कारण उनके साथ काम करने से वंचित रह गया। शायद दुबारा मिलता तो बात बन जाती। 

पाँच साल बाद कुलिशजी ने पत्रिका से निवृत्ति ले ली। तब प्रभाषजी ने बुलाया तो मैं भी जनसत्ता से जुड़ गया। छब्बीस साल उनके अखबार में रहा। सम्पादक की आजादी प्रधान सम्पादक के नाते कुलिशजी ने भी भरपूर दी और प्रभाषजी ने भी। उसे लेकर दिया। वही लेकर जिया।

हाँ, एक बात ज़रूर कभी न समझ सका कि माथुर साहब ने दीनानाथ मिश्र को जयपुर का नभाटा सँभालने के लिए क्या सोचकर भेजा? क्या इस मामले वे प्रबंधन के कहने में आ गए थे?

अंत में एक दिलचस्प मोड़। टाईम्स में अपना दाय पूरा कर तोताराम इंडियन एक्सप्रेस में आ गए। वहीं नोएडा में, जहाँ जनसत्ता में मेरा दफ़्तर था। कोई बीस बरस बीत चुके थे। उन्होंने मुझे नहीं पहचाना। मैंने बखूबी पहचान लिया था। पर उन्हें कभी याद नहीं दिलाया। शायद इसलिए भी कि उन्हें बिना समय लिए मिलने आने की आदत थी। मैं व्यस्त होता तो तुरंत मिल नहीं पाता था। उन्हें एंपायर वाला किस्सा सुना देता तो वे समझते कि शायद बदला ले रहा हूँ!

इंडियन एक्सप्रेस टाईम्स से इस मायने में तो बहुत अलग था ही कि वहाँ संपादकों की क़द्र ज़्यादा थी। शहर के सबसे अभिजात इलाक़े में घर और शोफऱ वाली गाड़ी। मैनेजर संपादकों से रश्क करते थे। वे जब-तब किसी विज्ञापनदाता की या जगराते की खबर छपवाने की कोशिश भी करते तो विफल हो जाते। खबरों का दबाव होने पर या विज्ञापन देर से आने पर अंतिम अधिकार संपादक को था कि एक अटल ना कहते हुए संस्करण छोडऩे को कह दे।

 
सबसे अहम बात- रामनाथ गोयनका तो कुछ समय बाद नहीं रहे; छब्बीस साल में उनके दत्तक पुत्र विवेक गोयनका से मैं सिर्फ एक बार मिला!

(यह पोस्ट दरअसल माथुर साहब पर अग्रज पत्रकार, महान साप्ताहिक दिनमान की टीम के सदस्य, त्रिलोक दीपजी के एक स्मरण पर ‘कमेंट’ के बतौर लिखी गई थी। पर वहाँ शब्दों की सीमा के चलते लम्बी पड़ गई। तब यहाँ पोस्ट की है।)

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