विचार / लेख
राज्य स्थापना दिवस के मौके पर
-विनय शील
छत्तीसगढ़ के शहीद वीर नारायण सिंह से जुड़ी यह घटना कौन भूल सकता है कि किस तरह से सोनाखान रियासत के राजकुमार वीर नारायण सिंह ने 1856 में पड़े भीषण अकाल के दौरान हजारों किसानों को साथ लेकर कसडोल के जमाखोरों के गोदामों पर धावा बोलकर अनाज लूटा और फिर उसे भूखे मर रही जनता में बांट दिया था। मगर उनकी यह दरियादिली अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर इलियट को रास नहीं आई और उन्होंने वीर नारायण सिंह को गिरफ्तार करवा लिया और अंतत: 10 दिसंबर, 1857 को रायपुर में एक चौराहे पर फांसी दे दी।
इस घटना के 164 सालों के बाद आज भी किसान, खेती और खाद्यान्न छत्तीसगढ़ के केंद्र में है। इतना कि, पहली नवंबर को एक पृथक राज्य के रूप में दो दशक पूरे कर रहे इस राज्य की सियासत तक इनसे तय होती रही है। दो साल पहले पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान पर्यावरण संबंधी मुद्दों को समर्पित प्रतिष्ठित वेबसाइट मोंगाबे-इंडिया के मयंक अग्रवाल ने छत्तीसगढ़ के हालात पर लंबी रिपोर्ट लिखी थी। उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह के राजनांदगांव क्षेत्र को भी कवर किया था। उनकी इस रिपोर्ट में किसान नेता सुदेश टेकाम को यह कहते हुए दर्ज किया गया था, ‘सरकार का ध्यान सिर्फ माइनिंग और बिजली में है। किसानों के मुद्दों की लगातार उपेक्षा की जा रही है। पिछले चुनावों में रमन सिंह ने धान की फसल के लिए 2100 रुपये न्यूनतम समर्थन मूल्य और तीन सौ रुपये बोनस का वादा किया था। लेकिन चुनाव जीतने के बाद उन्होंने कभी भी अपना वादा पूरा नहीं किया। किसानों के भारी आंदोलन के बाद सरकार ने 2017 में धान के लिए सिर्फ 1750 रुपये एमएसपी और तीन सौ रुपये बोनस दिए थे। हम इस बार मूर्ख नहीं बनेंगे।’
इसी रिपोर्ट में टेकाम ने यह भी कहा कि उनके लिए किसानों तथा भूमिहीन खेतिहर मजदूरों के लिए कर्जमाफी भी बड़ा मुद्दा है, क्योंकि सरकार ने छोटे और मझोले किसानों की उपेक्षा की है। इस चुनाव में डॉ. रमन सिंह खुद तो राजनांदगांव से विजयी हुए, मगर वह अपनी पंद्रह साल पुरानी सरकार नहीं बचा सके थे। हैरत नहीं कि लंबे शासन के दौरान उनकी पहचान 'चाउर वाले बाबा' के रूप में स्थापित हो गई थी,क्योंकि उन्होंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली(पी डी एस ) के जरिए गरीबों को एक रुपए और दो रुपए किलो चावल देने की योजना चलाई थी।
हालांकि पीडीएस के जरिये दो रुपये किलो चावल देने की योजना कोई नया विचार नहीं था। 1980 के दशक में एनटीआर रामाराव ने अविभाजित आंध्र प्रदेश में इसे सफलतापूर्वक अंजाम दिया था। यूपीए शासन के दौरान 2013 में अस्तित्व में आए खाद्य सुरक्षा कानून का आधार ही राशन की दुकानों के जरिये गरीबों को सस्ता अनाज देने की व्यवस्था है। कोरोना काल में पीडीएस की इस व्यवस्था ने पूरे देश में अपनी सार्थकता साबित की है।
हैरत नहीं होनी चाहिए कि दो साल पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 90 में से मिली 67 सीटों के पीछे किसानों प्रति क्विंटल धान के बदले ढाई हजार रुपये देने का वादा भी एक बड़ी वजह थी। भूपेश बघेल ने नेतृत्व वाली कांग्रेस की इस सरकार ने उस धारणा को ही बदल दिया कि भारत में चुनावी वादे सिर्फ चुनाव जीतने के लिए होते हैं। शपथ ग्रहण के शायद दो घंटे के भीतर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने जिन दो फैसलों पर हस्ताक्षर किए उनमें से एक था बस्तर में लोहंडीगुड़ा के आदिवासी किसानों की जमीन वापसी का और दूसरा फैसला किसानों की कर्जमाफी का। लोहंडीगुड़ा में पूर्वर्ती रमन सरकार ने ग्रामीणों के भारी विरोध के बावजूद उनकी ज़मीनें टाटा के लिए अधिग्रहीत कर ली थीं लेकिन टाटा ने प्लांट लगाया नहीं तो आदिवासियों को उनकी ज़मीनें लौटाने के बजाए उसे सरकारी लैंड बैंक में शामिल कर लिया। ये पंद्रह साल के एक मुख्यमंत्री का नितांत अलोकप्रिय और आदिवासी विरोधी फैसला था। दूसरी ओर जब भूपेश बघेल ने इन ज़मीनों को लौटाने की फाइल पीआर दस्तखत किए तो पूरे देश को नजरें अचानक लोहंडीगुड़ा की ओर उठ गईं थीं। ऐसा सम्भवत: पहली बार किसी सरकार ने किया था। ये उस विकास की दिशा का इशारा था जिसका वादा कांग्रेस पार्टी ने किया था। केन्द्र की मोदी सरकार की तमाम अड़चनों के बावजूद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने किसानों को धान का समर्थन मूल्य और बोनस मिला कर 25 सौ रुपए प्रति क्विंटल दिया लेकिन अगली बार इस पर केन्द्र की मोदी सरकार ने अड़ंगा डाल दिया। जाहिर है कि यह भूपेश बघेल की लोकप्रियता बढ़ाने वाला कदम था और बीजेपी के लिए यह असुविधाजनक था। लेकिन बोनस को लेकर केंद्र के अड़ंगे के बाद भूपेश सरकार ने समर्थन मूल्य तो दिया पर बाकी राशि के लिए अपने संसाधनों से एक किसानों के लिए राजीव गांधी न्याय योजना लागू कर दी। हालांकि यह सच है कि खेती से जुड़े वृहत संकट का यह स्थायी समाधान नहीं है,लेकिन दुनिया के है बड़े अर्थशास्त्री की नजरों में इस संकट के बीच समाधान का रास्ता इन्हीं गलियों से हो कर गुजरता है।
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में सस्ते अनाज और सार्वजनिक वितरण प्रणाली और कृषि का क्या महत्व है, यह कुछ सहज उपलब्ध तथ्यों से समझा जा सकता है। पिछली जनगणना के मुताबिक राज्य की 75 फीसदी आबादी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है और धान यहां की मुख्य फसल है। छत्तीसगढ़ की 40 फीसदी से भी अधिक आबादी गरीबी की रेखा से नीचे गुजर बसर करने को मजबूर है। 32 फीसदी आबादी आदिवासियों की है और उनमें गरीबी का आंकड़ा तो और भी बुरा है। यह स्थिति तब है, जब छत्तीसगढ़ खनिज संपदा से समृद्ध है और इसका करीब 45 फीसदी भू-भाग जंगलों से घिरा हुआ है।
छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री दिवंगत अजीत जोगी अपने राज्य के बारे में अक्सर कहते थे, ‘अमीर धरती के गरीब लोग।’ यह विडंबना ही है कि सात राज्यों के करीब पच्चीस जिलों से घिरा यह राज्य आगे बढऩे की असीम संभावनाओं और संसाधनों के बावजूद आज भी पिछड़ा हुआ है।लेकिन अजीत जोगी को महाजकाम के लिए तीन साल मिले थे और भाजपा की रमन सरकार ने पंद्रह बरस राज किया पर छत्तीसगढ़ के आम लोगों की बुनियादी जरूरत संबोधित ना हो सकी। लेकिन अब यह उम्मीद तो बंधी है कि एक मुख्यमंत्री ऐसा है जिसे छत्तीसगढ़ की बुनियादी जरूरतों की पहचान है। अभी तो शायद इन दशकों में छत्तीसगढ़ की नौकरशाही भी इन जरूरतों की ठीक से पहचान ना कर सकी थी।
दो दशक का समय किसी राज्य के जीवन में लंबा वक्त नहीं होता, मगर यह तो देखा ही जाना चाहिए कि आखिर छत्तीसगढ़ विकसित प्रदेशों की श्रेणी में क्यों नहीं आ सका। इसके उलट जनवरी, 2019 को आई नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के भुखमरी और कुपोषण जैसे सूचकांकों में निचले क्रम में है। उस दिन यह जानना सुखद था जब भूपेश बघेल ने यह ऐलान किया कि बस्तर जैसे इलाकों में जिला खनिज न्यास की राशि अनुत्पादक निर्माणों के बजाए सुपोषण और स्वास्थ्य जैसी जरूरतों पर खर्च होगी। बस्तर में कुपोषण में कमी के आंकड़े भूपेश सरकार के इस फैसले की सफलता की कहानी है। ये ऐसे फैसले हैं जिन्हें गवर्नेंस के प्रयोगों के रूप में समझना चाहिए ।
छत्तीसगढ़ के लिए एक बड़ा मुद्दा माओवाद भी है। इस बीच माओवादी हिंसा में कमी जरूर आई है, लेकिन अब भी छत्तीसगढ़ इससे सर्वाधिक पीडि़त है। केंद्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक 2010 से 2018 के दौरान पूरे देश में माओवादी हिंसा में 3,769 लोग मारे गए थे, जिनमें से सर्वाधिक 1,370 मौतें छत्तीसगढ़ में दर्ज की गई थीं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यूपीए सरकार के अपने दूसरे कार्यकाल का पहला साल पूरा होने के मौके पर 24 मई, 2010 को प्रेस कांन्फ्रेंस में नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था। उनकी इस प्रेस कान्फ्रेंस से करीब डेढ़ महीने पहले ही छह अप्रैल, 2010 को दंतेवाड़ा के सबसे बड़े नक्सल हमले में सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद हो गए थे। बस्तर के दरभा में मई, 2013 में नक्सलियों के भीषण हमले में कांग्रेस के अग्रिम पंक्ति के अनेक नेता मारे गए थे।
आखिर ऐसा क्यों हुआ कि नया राज्य बनने के बाद माओवादी या नक्सली हिंसा में कमी के बजाए बढ़ोतरी होती गई? इसका जवाब तलाशने के लिए दिल्ली के नजरिये की नहीं, बस्तर के नजरिये की जरूरत है। बस्तर के सातों जिले आज भी विकास की मुख्यधारा से दूर हैं, तो इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ आर्थिक दूरदृष्टि का न होना भी वजह है। समावेशी विकास की जिस अवधारणा की बात इन दिनों काफी सुनी जाती है, उसका विलोम बस्तर में देखा जा सकता है। वहां खनिज और वन संपदा के असली मालिक आदिवासी ही हाशिये पर ही रहे हैं। माओवाद से निपटने के लिए उन मुद्दों को संबोधित करना ज़रूरी है जो माओवाद के लिए खाद पानी का काम करते रहे हैं। आदिवासियों की ज़मीन वापसी से लेकर वनोपज संग्रहण की राशि में बड़ी वृद्धि या जिला खनिज न्यास (डीएमएफ) का बुनियादी मानवीय जरूरतों में खर्च होना एक सकारात्मक संकेत है।
बस्तर में बड़े उद्योग हैं, सार्वजनिक क्षेत्र में एनएमडीसी की देश के विकास में बड़ी भूमिका है लेकिन अब इसके निजीकरण का खतरा है। प्रदेश सरकार इसका विरोध कर रही है। औद्योगिक विकास एक अलग तरह के संघर्ष से गुजर रहा है।एक तरफ केवल मुनाफा और दोहन है, दूसरी तरफ है तरह के विकास की कोशिशों के सामने खड़े अवरोध हैं और तीसरी तरफ जनाकक्षाएं हैं।छत्तीसगढ़ के बस्तर जैसे इलाकों की चुनौती इनके बीच अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति तक सरकार को पहुंचाना है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने हाल ही में बस्तर में नए इस्पात संयंत्र स्थापित करने पर सहमति जताई है। यह मौका है, जब वह ऐसे संयंत्रों में आदिवासियों को मुनाफे का हिस्सेदार बनाकर विकास का एक नया मॉडल प्रस्तुत कर सकते हैं। यह हिस्सेदारी वन और कृषि संपदा को लेकर भी हो सकती है। एक उदाहरण से इसे समझते हैं। बस्तर की इमली न केवल मशहूर है, बल्कि इसका करीब सालाना पांच सौ करोड़ रुपये का कारोबार है। मगर ऐसी लघुवनोपज को जैसे बाजार की जरूरत है, वह नहीं मिला। आखिर बस्तर की इमली की ब्रांडिंग क्यों नहीं की जा सकती? यही बात छत्तीसगढ़ में पाए जाने वाली चावल की विविध किस्मों को लेकर कही जा सकती हैं कि उनकी पेशेवर तरीके से ब्रांडिंग और मार्केटिंग क्यों नहीं की जा सकती। हालांकि हाल के दिनों में भूपेश सरकार ने इस दिशा में भी काम शुरू किया है और उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके सकारात्मक परिणाम भी नजर आएंगे। वन अधिकार पत्र और सामुदायिक वन अधिकार पत्र जैसे कदम और इसके बाद जैव विविधता के संरक्षण की जो योजना बताई जा रही है वो अगर दावे के अनुरूप ही लागू हुई तो निश्चित ही तस्वीर बदलेगी।
दरअसल स्थानीय संसाधनों और संपदा के बेहतर इस्तेमाल और स्थानीय लोगों की साझेदारी से ही छत्तीसगढ़ के विकास की कहानी बदली जा सकती है।
(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)