विचार / लेख
-चैतन्य नागर
भाजपा को भी ओबामा के वक्तव्य को लेकर उछल-कूद नहीं मचानी चाहिए। उसे याद रखना चाहिए कि ओबामा ने जनवरी 2015 में भारत में धार्मिक असहिष्णुता की बात भी कही थी। इस पर पार्टी के लोग नाराज भी हुए थे। उन्हें भी कड़वा कड़वा थू और मीठा मीठा गप करने की आदत छोडनी चाहिए।
अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति बराक ओबामा ने राहुल गांधी के बारे में लिखा है कि उनमें में एक ‘अनगढ़पन और घबराहट है, मानों वह ऐसे छात्र हों जिसने अपना पाठ पूरा कर लिया हो और शिक्षक को प्रभावित करने की चेष्टा में हो, लेकिन विषय में पारंगत होने के लिए जज़्बे और प्रतिभा दोनों की ही उसमें कमी हो।’ ओबामा की पुस्तक ‘अ प्रॉमिस्ड लैण्ड’ उनके संस्मरणों पर आधारित है। 17 नवंबर को यह बाजार में आएगी। 768-पन्नों के उनके संस्मरण का यह पहला खंड है। आम कांग्रेसी राहुल की इस परिभाषा और ओबामा के वक्तव्य से बौखलाया हुआ है। हालांकि पार्टी ने औपचारिक तौर पर इसपर चुप्पी साध रखी है। ओबामा ने अपनी किताब में सिर्फ राहुल गांधी के बारे में ही नहीं लिखा। डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में भी अपनी बात कही है। उनका कहना है कि डॉ. सिंह एक भावशून्य ईमानदारी वाले व्यक्ति हैं। सोनिया गांधी का जिक्र करते हए ओबामा कहते हैं कि दुनिया में पुरुष नेताओं की खूबसूरती के बारे में चर्चा होती है पर महिला नेताओं के सौंदर्य के बारे में लोग बातें करते हुए कतराते हैं। जिन एक दो सुंदर स्त्री नेताओं का जिक्र होता है उनमे ओबामा ने सोनिया गांधी के नाम का जिक्र किया है।
यह बात बड़ी दिलचस्प है कि ओबामा के बयान का सबसे जोरदार विरोध शिव सेना के संजय राउत ने किया है जिनका कहना है कि कोई विदेशी राजनीतिज्ञ किसी भारतीय राजनेता के बारे में इस तरह का बयान नहीं दे सकता। उन्होंने पूछा है कि ओबामा भारत को जानते ही कितना हैं? बिहार में कांग्रेस नेता तारिक अनवर ने यह याद दिलाया है ओबामा और राहुल गाँधी करीब आठ दस साल पहले थोड़े समय के लिए ही मिले थे और इतने कम समय में किसी का आकलन नहीं किया जा सकता। अनवर के मुताबिक पिछले आठ वर्षों में राहुल का व्यक्तित्व काफी बदल चुका है। कांग्रेसी नेता अधीर रंजन ने ओबामा को कूपमंडूक घोषित कर दिया है। आश्चर्य है कि मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के बारे में इसी किताब में ओबामा की सकारात्मक राय को लेकर कांग्रेस की कोई प्रतिक्रिया नहीं। प्रशंसा उन्हें स्वीकार है, आलोचना नहीं। गहरी आत्ममुग्धता का लक्षण है यह। गांधी परिवार को कांग्रेसी पूरी तरह से दोषमुक्त और निर्विवाद रूप से पवित्र मानते हैं, उसके आभामंडल से खुद को मुक्त करने की न ही उनमें न कोई इच्छा है, न ही हिम्मत।
गौर से देखें तो ओबामा ने बहुत थोड़े शब्दों में कांग्रेस के कुछ नेताओं को सटीक ढंग से परिभाषित किया है। उनकी टिप्पणियां किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित बिल्कुल नहीं लगती। दो बार राष्ट्रपति रहे ओबामा ने अपने गहरे अवलोकन की क्षमता को दर्शाया है। जो लोग अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल कर रहे हैं उन्हें थोड़ा आत्ममंथन करना चाहिए। यह किसी आम नेता का बयान नहीं जो भारतीय कांग्रेस पार्टी का विरोधी हो, वर्तमान समय में देश सत्तासीन लोगों का करीबी हो या कांग्रेस में राहुल गांधी के जगह हथियाने की फिराक में हो। यह एक बहुत ही लोकप्रिय और विश्व के सबसे बड़े नेताओं में से शुमार किए जाने वाले, नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित एक सुलझे हुए नेता का बयान है जो अपने व्यक्तित्व, संजीदगी और अपने देश की जनता के साथ अच्छे संबंधों के कारण न सिर्फ अपने देश में बल्कि पूरी दुनिया में विख्यात रहे हैं। ओबामा सस्ती लोकप्रियता और नाटकीय तौर तरीकों से कोसों दूर रहने वाले नेता रहे हैं और हाल ही में पराजित हुए ट्रम्प को उनके विलोम के रूप में देखा जा सकता है। उनके बयान की अहमियत इसलिए भी है क्योंकि उनकी पार्टी के प्रत्याशी ही अमेरिका के अगले राष्ट्रपति बन गए हैं और वह ओबामा के साथ उनके उपराष्ट्रपति भी थे। राहुल गांधी के बारे में उनके ख्याल वास्तव में उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी के भी ख्याल हैं तो फिर ओबामा का बयान राहुल गांधी और उनकी पार्टी की वर्तमान स्थिति पर अमेरिकी सत्तारूढ़ पार्टी का बयान है। जिस तरह से ओबामा राहुल को देख रहे हैं, उसी तरह बाइडन और कमला हैरिस भी देखें, तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। बाइडन-कमला हैरिस के पक्ष में चुनाव प्रचार के दौरान डेमोक्रेटिक पार्टी के सबसे बड़े स्टार प्रचारक ओबामा ही थे। एक अद्भुत वक्ता होने के नाते ओबामा ने पूरी दुनिया को अपनी वक्तृता, भाषा पर अपनी मजबूत पकड़ और सही शब्दों के चयन से लोगों को चमत्कृत किया है, इसें कोई दो राय नहीं।
2014 चुनावों के बाद आत्मनिरीक्षण शब्द भारतीय राजनीति में बड़ा प्रचलित हुआ। यह शब्द हर पराजय के बाद हारे हुए दल में अचानक बड़ा लोकप्रिय हो जाता है। 2014 और उसके बाद 2019 में पराजित योद्धा, चाहे वो वामपंथी हों, या मध्यममार्गी, सभी तथाकथित आत्मनिरीक्षण के अभ्यास में लग गये थे। राजनैतिक आत्मनिरीक्षण का वास्तविक अर्थ है है चुनाव परिणाम, विपक्षियों और निंदकों के विचारों के आईने में खुद अपनी मौजूदा स्थितियों को गौर से निहारना। आईना दिखाता है कि आप वास्तव में कैसे हैं। यदि आप आईने से झूठ बोलने की अपेक्षा करें, तो यह तो भयंकर बेईमानी होगी। आत्मनिरीक्षण में एक निर्ममता और निर्लिप्तता होनी चाहिए, एक कठोर और स्पष्ट दृष्टि। खुद को जस का तस देखने का साहस होना चाहिए। ओबामा के बयान को क्या कांग्रेस ईमानदारी से समझने की कोशिश कर सकती है, क्योंकि इसमे बहुत कुछ ऐसा है जिसकी ईमानदार समझ पार्टी में नई जान फूंक सकती है।
ओबामा के बयान को एक दर्पण की तरह से देखा जाना चाहिए। पहली बात तो इसमें यह स्पष्ट होती है कि राहुल राजनीति में एक छात्र समान ही हैं। अभी वे पारंगत नहीं हुए हैं। गौरतलब है कि जो छात्र अपने टीचर्स को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं वे या तो अपने सबक को ठीक से नहीं समझ पाते या फिर उनमें आत्मविश्वास की कमी होती है। उनमें एक तरह की नर्वसनेस या घबराहट देखी जाती है, असुरक्षा का भाव होता है कि यदि टीचर प्रभावित नहीं हुआ तो उसे फेल कर देगा। जिस छात्र को अपनी पढ़ाई और समझ पर पूरा भरोसा होता है, उसमे ऐसी प्रवित्ति नहीं देखी जाती। सवाल उठता है कि राहुल किस सबक को लेकर घबराए हुए हैं। क्या उनकी राजनीति की समझ अभी भी परिपक्व नहीं हुई? उनके टीचर कौन हैं? सोनिया गांधी, या पार्टी के वरिष्ठ सदस्य जो कभी उनके खिलाफ खड़े हो सकते हैं, या सत्तासीन दल और खास तौर पर उसके प्रधान मंत्री? क्या राहुल मोदी की उपस्थिति से नर्वस हैं क्योंकि फिलहाल भारतीय राजनीति से तो उनके पांव उखड़ते दिखाई नहीं देते। न सिर्फ राहुल जैसे युवा और कम अनुभवी नेताओं को बल्कि मंजे हुए बुजुर्ग सियासतबाजों को भी मोदी में एक अविजेय नेता दिखाई दे रहा है। यह स्थिति लंबे समय से बनी हुई है और विपक्ष धीरे-धीरे पर लगातार मुरझाता जा रहा है। कांग्रेस के सामने एक बड़ी दुविधा यह है कि राहुल गांधी के नेतृत्व की खामियों के बावजूद उनका राजनीति से हटना किसी और नेता को शीर्ष पर बैठने का मौका देगा और उस शीर्ष नेता के प्रमुख बनने के साथ ही कई और नेता इसका विरोध करेंगे और इस तरह नेताओं की एक जमात खड़ी हो जाएगी और पार्टी में बगावत की स्थिति पैदा हो सकती है। इस संभावित स्थिति के वास्तविक दु:ख से पार्टी अभी तक अपरिचित है। एक अकुशल, अपरिपक्व और अनिच्छुक नेता के कारण होने वाला दु:ख जाना-समझा हुआ है। जब परिचित और अपरिचित दुखों के बीच चुनाव का प्रश्न हो तो व्यक्ति हो या संगठन परिचित दु:ख ही चुनना पसंद करता है।
कांग्रेस सचाई से मुंह चुराने की कला में पारंगत है और फिर भी इस मुगालते में है कि वह आत्मनिरीक्षण में लगी हुई है। कांग्रेस को 2014 के लोक सभा चुनावों में जो पछाड़ मिली थी, उसके विश्लेषण का जिम्मा उसने सौंपा था अपने वरिष्ठ, वफादार नेता ए के एंटनी को। कांग्रेस को वफादारी शब्द पर गहरा विचार करना चाहिए। वफादारी किसके प्रति नेहरू-गांधी कुनबे के प्रति या देश और इसकी जनता के प्रति बदलती सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों के प्रति कांग्रेस को अपना निरीक्षण इसी शब्द के निहितार्थों को समझने के साथ शुरू करना चाहिए। क्योंकि वफादारी की इसकी परिवार-केन्द्रित परिभाषा एक पत्थर की तरह रही है जिसके नीचे जो कांग्रेसी जितना अधिक दबा रहे, उसे उतना ही वफादार माना जाता है। यही वजह है कि कांग्रेस नेहरू-इंदिरा-राहुल-सोनिया-प्रियंका का जाप करने वालों की पार्टी बनी रह गयी है। इसमें नेतृत्व की क्षमता किसी में पनपी ही नहीं। जिस तरह भाजपा ने पार्टी से जरासत्ता खत्म की ठीक उसी तरह कांग्रेस को अपनी पार्टी की बासी, व्यक्तिवादी, नेहरू-गांधी-परिवारवादी परंपरा को त्यागना होगा। वृद्ध और अकुशल नेतृत्व से खुद को मुक्त करके ही कांग्रेस को अपना राजनीतिक भविष्य साफ-साफ दिखाई देगा।
भाजपा को भी ओबामा के वक्तव्य को लेकर उछल-कूद नहीं मचानी चाहिए। उसे याद रखना चाहिए कि ओबामा ने जनवरी 2015 में भारत में धार्मिक असहिष्णुता की बात भी कही थी। इस पर पार्टी के लोग नाराज भी हुए थे। उन्हें भी कड़वा कड़वा थू और मीठा मीठा गप करने की आदत छोडनी चाहिए। निंदकों को सम्मान दिया जाना चाहिए क्योकि वे आपको अपनी खामियां देखने और उन्हें खत्म करने का मौका देते हैं। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि ओबामा कोई भाजपा समर्थक नेता नहीं। हो सकता है अपनी किताब के अगले खंड में ही उन्हें अपने महान नेताओं के बारे में भी कुछ दिलचस्प बातें पढऩे को मिले।