सामान्य ज्ञान

राइनोप्लास्टी
27-Dec-2020 12:14 PM
 राइनोप्लास्टी

राइनोप्लास्टी एक प्रकार की  कास्मेटिक सर्जरी है,  जिसमें नाक को नया आकार और रूप दिया जाता है। राइनोप्लास्टी के जरिए खूबसूरत नाक पाई जा सकती है। राइनोप्लास्टी में नाक की टिप-ब्रिज चपटी, मोटी, छोटी, लंबी और सभी प्रकार की कमियों को दूर किया जा सकता है। इसमें बोन ग्राफ्ट या कार्टिलेज ग्राफ्ट दोनों किया जा सकता है। 
सर्जरी के दौरान डॉक्टर एक चीरा लगाते हैं, जिससे वे उन हड्डियों और कार्टीलेज तक पहुंच सकें जो नाक को सपोर्ट करती हैं। यह चीरा इस तरह लगाया जाता है कि सर्जरी के बाद नजर न आए। हड्डी और कार्टिलेज (उपास्थि) को मनमुताबिक समायोजित किया जाता है और फिर उसे पुन: व्यवस्थित कर दिया जाता है। नए आकार को सहारा देने के लिए नाक पर एक पट्टी लगा दी जाती है। एक हफ्ते के बाद पट्टी हटाकर चेहरे पर सूजन आदि की जांच की जाती है। आपकी आंखों ओर नाक के पास के क्षेत्र में कुछ दिनों तक सूजा हुआ लग सकता है। यह सूजन और खरोंच ठीक होने में दो सप्ताह का वक्त लग सकता है। सर्जरी के कई दिनों बाद तक सिर ऊंचा रखना पड़ता है। इसके साथ ही आराम की सलाह दी जाती है। 
राइनोप्लास्टी से नाक को नया आकार, रूप दिया जाता है। इसके अलावा यदि नाक में किसी प्रकार की कमी हो, तो राइनोप्लास्टी द्वारा उसे भी सुधारा जा सकता है। सर्जरी का परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि आखिर नाक में किस प्रकार के बदलाव किये गए। इस सर्जरी के परिणाम स्थायी होती हैं। हालांकि सर्जरी के बाद नाक पर किसी प्रकार की चोट लगने से इनमें बदलाव आने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। इस प्रकार की सर्जरी एक खास उम्र के बाद ही की जा सकती है। यानी महिलाओं में 15-16 वर्ष की उम्र के बाद ही यह सर्जरी की जा सकती है वहीं पुरुषों में 17-18 के बाद ही नाक सर्जरी के लिए तैयार होती है। हालांकि इस सर्जरी के बाद  रक्तस्राव, नाक की झिल्ली पर चोट, त्वचा संबंधी समस्याएं, नाक अवरुद्ध होना जैसी समस्याएं भी हो सकती हैं। 

कंपनी शैली
कंपनी शैली को, पटना चित्रकला भी कहते हैं। यह पुस्तकों को चित्रित करने की शैली है, जो भारत में 18वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी में काम कर रहे ब्रिटिश लोगों की पसंद के आधार पर विकसित हुई। यह शैली सबसे पहले पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में विकसित हुए और बाद में ब्रिटिश व्यापार के अन्य केंद्रों, बनारस (वाराणसी), दिल्ली लखनऊ व पटना तक पहुंच गई।
ये चित्र कागज और अभ्रक पर जलरंगों से बनाए जाते थे, पसंदीदा विषयों में रोजमर्रा के भारतीय जीवन, स्थानीय शासकों, त्यौहारों और आयोजनों के दृश्य होते थे, जो उस समय के ब्रिटिश कलाकारों के समूह में प्रचलित चित्रोपम संप्रदाय की श्रेणी में आते थे, सबसे सफल चित्र प्राकृतिक जीवन के थे, लेकिन शैली आमतौर पर मिश्रित थी और इसकी गुणवत्ता की बहुत स्पष्टï पहचान नहीं थी।
 

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