विचार / लेख

उस लहू के रंग से पहचानो जो...
25-Apr-2021 3:25 PM
उस लहू के रंग से पहचानो जो...

-कृष्ण कांत

कभी देश के मुखिया ने कहा था कि ‘उन्हें कपड़ों से पहचाना जा सकता है।’ आज हम लोगों को उनके लहू के रंग से पहचान रहे हैं जो एक-दूसरे की रगों में उतरकर हम सबकी जान बचा रहा है। मैं कहना चाहता हूं कि हमें हमारे कपड़ों से मत पहचानो। हमें हमारे लहू के लाल रंग से पहचानो।

कहानी उसी झारखंड की है जहां पर कपड़ों से पहचानने की सलाह दी गई थी। पलामू के मेदिनीनगर में कुछ मुसलमान युवकों को पता चला कि उनके हिंदू दोस्त की मां को कोरोना लील गया। बेचारा बेटा मां की लाश के साथ अकेला पड़ गया था। कोई परिवार साथ नहीं आया था। मरे हुए को कंधा देने के लिए चार कंधे चाहिए होते हैं। ये वक्त बुरा है। जनता को सहारा देने के लिए जालिम हुकूमत ने अपना कंधा खींच लिया है। डर के मारे किसी मरहूम के अपने भी कंधा खींच ले रहे हैं। लेकिन युवक के दोस्त मोसैफ, फैशल, सुहैल, आसिफ, शमशाद जाफर, महबूब सभी श्मशान पहुंच गए। 

वे सभी रमजान के महीने में रोजा रखे हुए थे। पर इससे क्या, इंसानी सेवा बड़ी कोई इबाबत नहीं। वे अपने दोस्त के पास पहुंचे। मां के शव को लेकर साथ श्मशान गए। दोस्त को मुश्किल घड़ी में सहारा दिया। मरहूम मां को एंबुलेंस से उतरवाया, कंधा दिया। पूरे हिंदू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार संपन्न हुआ।

ये कोई अकेली मिसाल नहीं है। शामली के आसिफ ने रोजा तोडक़र एक गर्भवती महिला की जान बचाई है। झालावाड़ के आबिद ने रोजा तोडक़र एक 15 दिन की बच्ची की जान बचाई है। उदयपुर के अकील मंसूरी ने रोजा तोडक़र दो हिंदू महिलाओं के लिए प्लाज्मा डोनेट किया है। समाज में रोज हजारों लोग हजारों लोगों की जान बचा रहे हैं। इसके उलट सियासत इस ‘आपदा में भी अवसर’ खोज रही है। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, गुजरात के एक श्मशान में कुछ मुस्लिम स्वयंसेवक क्रियाकर्म में सहयोग कर रहे थे तो कुछ बीजेपी के नेताओं ने आपत्ति दर्ज करा दी कि हिंदुओं का अंतिम संस्कार मुसलमान कैसे करा सकते हैं? उन्हें श्मशान पहुंचकर भी नफरत ही सूझी। उनके बताए रास्ते पर मत चलो। उन्हें अपने रास्ते पर लाओ।

समाज मुश्किल में है लेकिन समाज से मानवता खत्म नहीं होगी। इंसान जब तक रहेगा, इंसानियत सिर उठाकर साथ चलती रहेगी। आज इंसानियत निभाने में वायरस का खौफ भी है लेकिन इंसानी साहस और प्रेम का जुनून अब भी मजबूत है।

सोचने पर लगता है कि ये तो आम बात है। इंसान ही इंसान के काम आता है। इसमें नया क्या है? लेकिन फिर लगता है कि जब आपके बच्चों को देश की सियासत पोशाक और हुलिये से पहचान करने जैसी नफरत सिखा रही हो, तब उन्हें ये भी बताना जरूरी हो जाता है कि नहीं, कपड़ों से मत पहचानो, इंसानियत के जज्बे से पहचानो। आपसी मोहब्बत से पहचानो। उस लहू के रंग से पहचानो जो हम सबकी रगों में उतरने से इनकार नहीं करता, बल्कि जिंदगी अता करता है।

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