विचार / लेख

कनक तिवारी लिखते हैं- विश्वेश्वर को लेकर
26-Apr-2021 2:54 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- विश्वेश्वर को लेकर

पत्रकार किशनलाल से कल मालूम हुआ कि छत्तीसगढ़ के राष्ट्रीय पहचान रखते ख्यातनाम कहानीकार विश्वेश्वर का दुखद निधन हो गया। यह नाम मेरे लिए अनजान नहीं है। यह अलग बात है कि विश्वेश्वर से काफी अरसे से संपर्क नहीं हो पाया था। लगभग 1978 की बात है। जब विश्वेश्वर पहली बार मुझसे मिलने दुर्ग आए थे। मैं नगरपालिका परिषद में पार्षद भी था। मेरे कहने पर संस्कृति, कला और क्रीड़ा की गतिविधियों के लिए परिषद ने एक उपसमिति बनाई थी और मुझे ही उसका अध्यक्ष बनाया था। विश्वेश्वर की माली हालत उस समय काफी खस्ता थी। उनके व्यक्तित्व, आंखें, आवाज़ और उनके कहे की कशिश में एक चमक मुझे दिखी थी। दुर्ग के भुला दिए गए बेहद प्रिय गज़लकार     जनक दुर्गवी और विश्वेश्वर को मैंने कुछ समय के लिए दुर्ग नगर का इतिहास लिखने के लिए अनुबंधित किया। उन्हें मात्र 300 रुपये महीने नगरपालिका ने देना तय किया। हम जानते थे पुस्तकालयों, किताबों, यात्राओं और अन्य लिपिकीय सुविधाओं के अभाव में इतिहास लेखन जैसा काम समयावधि में करना एक कवि और एक कहानीकार के लिए संभव नहीं होगा। फिर भी हमें उन्हें मदद तो करनी थी। नगरपालिका के नगरनिगम बनते ही हमारा कार्यकाल ही अधूरा हो गया। 

विश्वेश्वर लगातार मिलते रहे। हमारे परिवार का एक छोटा मकान पद्मनाभपुर में खाली कराकर विश्वेश्वर को दिया ताकि वे दुर्ग शहर में रहकर गुजरबसर करें। मैंने उनके लिए कुछ और सामान्य व्यवस्थाएं भी की थीं। बाद में महसूस हुआ लेखक को सामाजिक जीवन की चैहद्दी में किसी खूंटे से बंधकर रहना उसकी रुचियों में शामिल नहीं है। उद्दाम पहाड़ी नदी में मैदानी नदी बन जाने के अपने भविष्य तक की ललक, उम्मीद या आश्वस्ति नहीं है। उसे नहीं मालूम कि कहां जा रहा है। इतना लेकिन जानता है कि वह कहीं जा तो रहा है। और यह भी जिं़दगी के ऊबडख़ाबड़ रास्तों पर लहूलुहान होकर चलना ही उसकी नियति है। रचनात्मक प्रतिभा के बावजूद व्यक्तिगत व्यवहार में विश्वेश्वर अव्वल दर्जे का अडिय़ल, सनकी और जिद्दी लोगों को लगता था। मैं उन दिनों वकालत के अतिरिक्त राजनीतिक कामों में भी लिप्त था। लिहाज़ा साहित्यिक या बौद्धिक सहकार के लिए विश्वेश्वर को भी समय देना मेरे लिए कठिन था। वह भी अपनी अनिश्चित मानसिकता लिए कहीं चला गया। कभी कभार की क्षणिक मुलाकातें रिश्ते की डोर बने रहने का आभास देती रहीं। 

वर्षों बाद फिर विश्वेश्वर से गंभीर लंबी बातचीत हुई। मैंने उसे एक दूसरा बौद्धिक प्रोजेक्ट दिया जिसे लिखने के लिए रायपुर में रहना जरूरी था क्योंकि वहां अपेक्षाकृत बेहतर सुविधाएं थीं। कॉफी हाउस में एक किराए का कमरा लेकर उसे व्यवस्थित किया। देशबंधु पत्रसमूह के संपादक ललित सुरजन से अनुरोध किया कि कॉफी हाउस प्रबंधन को सूचना देकर आश्वस्त करें कि जो भी खर्च होगा हम पटाएंगे। हमने लेकिन आशंकित खतरा उठाया था। हवाओं के एक बवंडर को कमरे में कैद किया था। पढऩा लिखना उसकी रुचि में था लेकिन वह सरहदों को तोड़ देता था। ललित का फोन आया कि बौद्धिक प्रयोजन के प्रोजेक्ट में वहां खानपान का बिल ज़्यादा बढ़ रहा है, बल्कि पानखान का। आपको सचेत रहना है। विश्वेश्वर से फिर बात की। उसने कहा जिस तरह आपने काम करने का सुझाव दिया है, वह मेरे जीवन को एक नहर की तरह बहाना चाहता है। मुझे नहर बनना होता तो इतने दिन अपने जीवन के साथ प्रयोग नहीं करता होता। मैं बंधना नहीं चाहता लेकिन आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने से मैं वह सब नहीं कर पा रहा हूं जो कर पाने की मेरी इंद्रियां मुझे उकसाती हैं। हमारा मिलना फिर स्थगित हो गया। 

बहुत बाद फिर कभी मिलने पर उसका स्वास्थ्य कुछ बेहतर लगा, कुछ कपड़े लत्ते भी। मुझे यह देखकर अच्छा लगा। विश्वेश्वर ने अपनी कई किताबें मुझे दे रखी थीं। वे आकार में बहुत मोटी नहीं ही थीं और पढऩे में कठिन भी नहीं। 1978 में ही मैंने  पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की स्मृति में एक समारोह आयोजित करना चाहा था। विश्वेश्वर की पहल पर प्रख्यात लेखक कमलेश्वर से गुज़ारिश की गई। कमलेश्वर ने उलाहना, आश्वस्ति और प्रेम को मिलाकर विश्वेश्वर को लगभग निजी पत्र लिखा था। मुझे उन दोनों की नज़दीकियों का तब तक कोई भान तक नहीं था। बख्शी समारोह अंतत: मैं 1994 में ही कर पाया। तब तक कमलेश्वर से परिचय हो चुका था। मैंने उनके घर दिल्ली में उन्हें आने का निमंत्रण दिया। कमलेश्वर ने पूरे छत्तीसगढ़ में केवल विश्वेश्वर की याद की और कहा उससे मिलने की बहुत इच्छा है। 

विश्वेश्वर में जीवन की आग थी। मनुष्य होने की ताब थी लेकिन वह सामाजिक संबंधों के मनोवैज्ञानिक समीकरणों की गणित का फेल विद्यार्थी हो जाता था। उसे पूंजीवाद से सख्त नफरत थी। मुझसे भी कहता आपकी आर्थिक हालत के लिए आपने कई समझौते किए हैं। जो जितना अमीर है, वह उतना ही समझौतापरस्त है। मैं जीवन में बिना समझौता किए अमीर होकर उसका सुख क्यों नहीं उठा पाता? वह असंभव संभावनाओं को अपनी जिरह शैली के जरिए परास्त करना चाहता था। जब राजनीति में मेरे अच्छे दिन आकर सत्ता की कुर्सी मिली तब अपने साहित्यिक गुरु डा0 नन्दूलाल चोटिया की पांडुलिपियां मैं प्रकाशित करना चाहता था लेकिन मुझे नहीं मिल पाईं। विश्वेश्वर को खबर भेजी थी लेकिन वह भोपाल नहीं आना चाहता रहा होगा। उसकी अपेक्षित मदद नहीं कर पाने का मुझे मलाल और दुख है। 

उसने विवाह करने में भी हिन्दू कानूनों और पारंपरिक रिश्तों तथा सामाजिक रूढिय़ों को चुनौती दी थी। ऐसा ही उद्दाम तो अंगरेज़ी के महान कवि लॉर्ड बायरन में भी था। जब मुझसे अकेले में बात करता तो उसमें उत्तेजना, विनम्रता और मासूमियत एक साथ झरती रहतीं। गोष्ठियों में वह दूसरों की बातें सुनकर भी उलझने के साथ साथ स्वगत में कुछ कहता चलता। जैसे शास्त्रीय रागों का कोई गायक खुद की बनाई हुई आरोह अवरोह की जुंबिशों में एकालाप करता है। वह चाहता था लोग उसे समर्थन करें लेकिन कुछ बकझक के बाद विरोध तो क्या असमर्थित होने पर भी उससे कोफ्त होती। वह खीज में भी तब्दील होती। फिर एक तरह के सामाजिक क्रोध में और उसकी विद्रोही निजी तथा लेखकीय अभिव्यक्तियों में भी। 

विश्वेश्वर दुर्ग जिले के निपट ग्रामीण परिवेश में जन्मा था। ब्राह्मण परिवार से होने के बाद भी जातीय, आनुवांशिक और वर्णाश्रम के विग्रहों को कुचलने वीरोचित मुद्रा में आ जाता था। कभी कभी अच्छा श्रोता बन जाता था और तत्काल कोई जवाब नहीं भी देता था। फिर कुछ दिनों के बाद मिलने पर पुरानी जिरह को तरोताज़ा कर किश्तों में क्रमश: बनाता चलता था। विश्वेश्वर इलाहाबाद, बनारस जैसी जगहों पर होता तो उसके रचनात्मक कौशल में वहां के पुश्तैनी नस्ल की अभिव्यक्तियों के उस्तादों के संपर्कों से उभार भी आता। कभी कभी लगता है मनुष्य के बौद्धिक, सामाजिक और रचनात्मक विकास में उत्कर्ष का दरवाजा इसलिए बंद हो जाता है क्योंकि वह भूगोल के किसी उपेक्षित इलाके से आया है। क्या हमारा छत्तीसगढ़ बौद्धिकों के श्रेष्ठि वर्ग में ऐसा ही समझा जाता है जिसे विश्वेश्वर का व्यक्तित्व अपनी नियति के कारण नीयत की भाषा में परिभाषित नहीं कर पाया।

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