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कनक तिवारी लिखते हैं- राजद्रोह ढूंढे जस्टिस रमन्ना को
04-Jun-2023 6:17 PM
 कनक तिवारी लिखते हैं- राजद्रोह ढूंढे जस्टिस रमन्ना को

रिटायर हो गए चीफ  जस्टिस एन. वी. रमन्ना जाते-जाते देश को हौसला दे रहे थे कि उनके रहते भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह का अपराध खत्म कर दिया जाएगा। सुनवाई के अंतिम दिन केन्द्र सरकार के तारणहार सेनापति सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बहुत वर्जिश की। कोर्ट को तरह-तरह से आश्वासन दिया कि केन्द्र सरकार इस मामले में गंभीर है। राजद्रोह को लेकर कुछ करना ही चाहेगी। इस फिरकी गेंद में जस्टिस रमन्ना की बेंच फंस गई। समय दिया गया। अगली तारीख जल्दी लगने की संभावना नहीं थी। जस्टिस रमन्ना रिटायर हो गए। राजद्रोह का घिनौना अपराध भारतीय दंड संहिता की धारा 124 में उसकी आंत में फंसा रहा। हालांकि उन्होंने यथास्थिति जैसा आदेश भी किया था। 

राजद्रोह देश के जीवन में जहर घोल रहा है। राजनेता, मीडिया, पुलिस और जनता में देशद्रोह, राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह जैसे शब्दों का कचूमर निकल रहा है। देशद्रोह और राष्ट्रद्रोह शब्द भारतीय दंड संहिता में हैं ही नहीं। 

गुलाम रहे भारत में राजद्रोह का अपराध भारतीय दंड संहिता में घुस आया था। जब संविधान बन रहा था, तब कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सेठ गोविन्ददास, अनंत शयनम आयंगर और सरदार हुकुम सिंह ने कड़ाई से विरोध किया कि जिस राजद्रोह का आजादी की लड़ाई में विरेाध किया गया, वह घुसा हुआ कैसे है? सांसदों के विरोध के कारण संविधान से राजद्रोह सरकारी अधिनियम के रूप में समाप्त किया गया। अर्थात भारत के किसी कानून में राजद्रोह शामिल नहीं किया जा सकेगा। खुद जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि इस अपराध को हटा दिया जाना चाहिए लेकिन नेहरू के प्रधानमंत्री रहते यह अपराध भारतीय दंड संहिता से हटाया नहीं गया। 

राजद्रोह के सबसे बदनाम मुकदमे में एक के बाद एक तीन बार तिलक को गिरफ्तार किया गया। प्रसिद्ध वकील मोहम्मद अली जिन्ना ने राजद्रोह संबंधी कानून की बारीकियां विन्यस्त करते बहस की कि तिलक ने अपने भाषणों में नौकरषाही पर हमला किया है, उसे सरकार की आलोचना नहीं कहा जा सकता। सबसे मशहूर मामला गांधी का हुआ। 1922 में गांधी एक संपादक के रूप में तथा समकालीन पत्र ‘यंग इंडिया’ के मालिक के रूप में षंकर लाल बैंकर पर तीन आपत्तिजनक लेख छापे जाने के कारण राजद्रोह का मामला दर्ज हुआ। गांधी ने कहा हमारा सौभाग्य है कि ऐसा आरोप लगाया गया है। ब्रिटिश कानून का उल्लंघन करना उन्हें नैतिक कर्तव्य लगता है। यह कानून वहशी है। जज चाहें तो उन्हें ज्यादा से ज्यादा सजा दे दें। गांधी को छह वर्ष की कारावास की सजा दी गई। गांधी ने यह भी कहा था कि राजनयिकों पर जितने मुकदमे चलाए जा रहे हैं। उनमें से हर दस में नौ लोग निर्दोष होते हैं। जो लोग सरकार के अत्याचार के खिलाफ  बोलते हैं, वे अपने देष से मोहब्बत करते हैं। 

यह भी इतिहास का सच है कि संविधान निर्माण की शुरुआत में मूल अधिकारों की उपसमिति के सभापति सरदार पटेल ने राजद्रोह को अभिव्यक्ति की आजादी और वाक् स्वातंत्र्य के प्रतिबंध के रूप में शामिल किया था। सोमनाथ लाहिरी ने इस अपराध को वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की आजादी का रोड़ा बनाए जाने पर बेहद कड़ी आलोचना की। दूसरे दिन ही पटेल ने राजद्रोह के अपराध को जनअभिव्यक्तियों के पर कुतरने वाले सरकार के बचाव के हथियार के रूप में रखने से इंकार कर दिया। फिर भी अपने बाज जैसे जबड़ों में हर तरह के अभिव्यक्तिकारक विरोध को गौरेया समझकर राजद्रोह का अपराध दबा लेना चाहता है। 

छात्र उमर खालिद की इनडिपिंडेंट डेमोक्रेटिक यूनियन के बुलावे पर छात्रों तथा बाहरी व्यक्तियों की छोटी सभा हुई। आरोपों के अनुसार भारत विरोधी नारे भी लगाए गए। जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार सभा में अचानक पहुंचे। उन्होंने शायद देश विरोधी नारे नहीं लगाए। फिर भी पुलिस ने उन्हें राजद्रोह के अपराण में गिरफ्तार कर लिया। कन्हैया कुमार कलियुग या द्वापर के कन्हैया नहीं हैं। उन्हें गरीब सुदामा का कलियुगी संस्करण समझना होगा। बिहार के बेगुसराय के पास के गांव के गरीब का बेटा जेल से छूटने एड़ी चोटी का पसीना लगाता रहा। कई टीवी चैनलों पर फूटेज बताते रहे कि उसने देशविरोधी नारे लगाए ही नहीं। पुलिस कमिश्नर ने थक-हारकर कहा कि उसकी जमानत का विरोध नहीं करेंगे। नारे नहीं लगाने वाले गरीब के बेटे को पटियाला हाउस कोर्ट में कलंक बने वकीलों से पिटवाते देखती है। भाजपा विधायक ओपी शर्मा मूंछों पर ताव देकर दिल्ली पुलिस की शह पर अदालत परिसर में कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को लातों घूसों से कुचलता है। 

केन्द्र सरकार के इरादे साफ  हैं। उसने किसी तरह जस्टिस रमन्ना को अपनी गुगली गेंद में फंसा लिया। इसके उलट मौजूदा विधि आयोग ने केन्द्र को सिफारिश कर दी है कि राजद्रोह को हटाना तो नहीं है। बल्कि उसमें सजा बढ़ाकर सात साल कर दी जाए। अब मामला चीफ  जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ को देखना है। तमाम संवैधानिक आधार होने के बावजूद राजद्रोह हटेगा या नहीं? संविधान सभा में जनता को दिए गए वायदों का क्या होगा? 1962 में  सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने केदारनाथ सिंह के प्रकरण में भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह को रखे जाने का इसलिए समर्थन किया क्योंकि संविधान के पहले संशोधन में नेहरू के समय ‘राज्य की सुरक्षा’ का आधार जोड़ दिया गया था, जो खुद नेहरू और पटेल के संविधान सभा मेंं विरोध करने के वक्त नहीं था। फिर भी केदारनाथ सिंह के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने यह नहीं कहा है कि मंत्रियों और अफसरों को देश मान लिया जाए। कहा कि उनकी मुखालफत की जा सकती है। 

ये जानना महत्वपूर्ण है कि 1962 में केदारनाथ सिंह के मामले में फैसला होने के बाद देश में प्रतिबंधात्मक कानूनों की बहार आ गई है। भारत के आजाद होते ही मद्रास अशांति की रोकथाम अधिनियम, 1948 ने कथित आतंकवाद विरोधी अधिनियमों के नवयुग का उद्घाटन किया। इस काले कानून का छिपा हुआ मकसद था तेलंगाना में हो रहे किसान आंदोलन को फौज और पुलिस के दम पर कुचल दिया जाए। उसके बाद कई राज्यों ने इसी तरह के काले कानून बना दिए जिससे जनता में शासन के प्रति खौफ पैदा हो। इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1950, असम अशांत क्षेत्र अधिनियम, 1955, सशस्त्र बल (विशेष उपबंध) अधिनियम 1958, विधि विरुद्ध क्रियाकलाप रोकथाम अधिनियम, 1967, (उआपा) आंतरिक सुरक्षा अधिनियम 1971,  (मिसा) (निरसित) राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980, पंजाब अशांत क्षेत्र अधिनियम, 1983, (निरसित) सशस्त्र बल विषेष अधिकार अधिनियम (1983, 85 और 1991) आतंकवादी एवं विध्वंसात्मक गतिविधि अधिनियम, (टाडा) (1985, 89, 91) (निरसित) आतंकवाद रोकथाम अधिनियम 2002 (पोटा) (निरसित) वगैरह शामिल हैं। पोटा का अनुभव यह भी रहा है कि गुजरात में उसे केवल मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया। एक भी हिन्दू छात्र की पोटा में गिरफ्तारी नहीं हुई। 

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