संपादकीय
हिन्दुस्तान में आमतौर पर मुस्लिमों के बीच न तो कन्या भ्रूण हत्या का चलन सुनाई पड़ता, न ही किसी की बलि देने जैसी धर्मान्धता सुनाई पड़ती। लेकिन पिछले चार दिनों में दो ऐसी दिल दहलाने वाली खबरें सामने आई हैं जिनकी वजह से न सिर्फ मुस्लिमों में, बल्कि भारत के बहुत से दूसरे सम्प्रदायों में ऐसी निजी हिंसा के बारे में लिखने की जरूरत महसूस हो रही है। पहली खबर इतवार के दिन केरल से आई जहां पर एक गर्भवती मदरसा-शिक्षिका ने अल्लाह को खुश करने के नाम पर अपने छह बरस के बेटे का गला काटकर उसे मार डाला। इसके बाद उसने खुद पुलिस को फोन करके खबर की कि उसने अपने बेटे को अल्लाह को कुर्बान कर दिया। केरल न सिर्फ हिन्दुस्तान का सबसे पढ़ा-लिखा राज्य है, बल्कि यह सेक्स अनुपात में देश में सर्वाधिक कन्या-आबादी वाला राज्य भी है। हालांकि मां के हाथों बेटे के इस कत्ल का लडक़े-लड़कियों से कोई लेना-देना नहीं है, और यह सिर्फ धार्मिक अंधविश्वास के चलते हुई पारिवारिक हिंसा है। जब इस महिला ने बेटे को मारा, तो बगल के कमरे में उसका पति उनके दो दूसरे बच्चों के साथ सोया हुआ था। इसके दो हफ्ते पहले आन्ध्रप्रदेश से अंधविश्वास से जुड़ी पारिवारिक हिंसा की एक दूसरी खबर आई थी जिसमें दो पढ़े-लिखे मां-बाप ने अपनी दो जवान पढ़-लिख रही बेटियों को मार डाला था कि वे मरने के बाद फिर जिंदा होकर लौट आएंगी। आज की ताजा खबर हरियाणा से है जहां एक महिला अभी दो महीने बाद गिरफ्तार हुई है। यह महिला हरियाणा की सबसे घनी मुस्लिम आबादी वाले इलाके मेवात की रहने वाली है, और उसे चार बेटियां हो चुकी थीं, लेकिन बेटा नहीं हुआ था। ऐसे में उसने पारिवारिक प्रताड़ऩा झेलते हुए तनाव में चारों बेटियों की गला काटकर हत्या कर दी थी, और खुद का भी गला काटने की कोशिश की थी। अस्पताल से अब छूटने पर उसे चार बेटियों की हत्या के जुर्म में गिरफ्तार किया गया है।
पारिवारिक हिंसा के ये तीनों मामले अंधविश्वास और सामाजिक-पारिवारिक प्रताड़ऩा से जुड़े हुए हैं। शुरू के दो मामले अंधविश्वास में अपने ही बच्चों को मार डालने के हैं, और हरियाणा का मामला लडक़े की चाह वाले परिवार के दबाव में तनाव से की गई हत्याओं का है। इन तीन घटनाओं से दो अलग-अलग मुद्दे जुड़े हुए हैं, लेकिन ऐसी पारिवारिक हिंसा को एक साथ भी देखने की जरूरत है। धार्मिक अंधविश्वास लोगों को किस हद तक हिंसक-आत्मघाती बना देता है, उसकी कोई सीमा नहीं दिखती है। लोग अपने बच्चों को मार डालते हैं, देवी-देवता को खुश करने के लिए अपने शरीर का कोई अंग काटकर चढ़ा देते हैं, या खुदकुशी कर लेते हैं। एक तरफ तो यह दुनिया 21वीं सदी में पहुंची हुई है जब यहां के इंसान जाकर चांद को रौंद आए हैं, दूसरे ग्रहों पर जाने के रास्ते पर हैं, विज्ञान ने लोगों की बीमारियों को दूर किया है, जगह-जगह विज्ञान की पढ़ाई हो रही है, और उस बीच अंधविश्वास में ऐसी हिंसा हो रही है! एक तरफ धर्मशिक्षा देने वाले मदरसे की शिक्षिका अपने बच्चे को अल्लाह को कुर्बान कर रही है, दूसरी तरफ आन्ध्र में उच्च शिक्षित मां-बाप अपनी उच्च शिक्षा पा रही जवान बेटियों को मार डाल रहे हैं कि वे जिंदा हो जाएंगी। ऐसी नौबत में सिर्फ धर्म की शिक्षा को क्या कोसा जाए? धर्म की शिक्षा से परे उच्च शिक्षा भी लोगों के दिमाग के अंधविश्वास खत्म नहीं कर पा रही है। आज हिन्दुस्तान का सारा माहौल ही वैज्ञानिक सोच के खिलाफ हो चुका है, और इसका असर भी समाज में जगह-जगह देखने मिल रहा है।
हरियाणा पहले भी कन्या भ्रूण हत्या के लिए बदनाम राज्य रहा है, और वहां आबादी में लड़कियों का अनुपात लडक़ों के मुकाबले खासा कम रहा है। वहां पर इस मुस्लिम परिवार में चार लड़कियों के बाद मां पर बेटा पैदा करने के लिए दबाव इतना बढ़ा कि उसने चारों लड़कियों के गले काटकर खुद का भी गला काटा, लेकिन वह जख्मी होकर रह गई, और बाकी जिंदगी का पता नहीं कितना हिस्सा जेल में जाएगा। हरियाणा एक ऐसा राज्य है जहां खाप पंचायतों से लेकर मौजूदा मुख्यमंत्री तक लगातार लड़कियों के खिलाफ तरह-तरह के फतवे देते आए हैं, और राज्य की आम सामाजिक सोच लड़कियों के लिए हिकारत की है। जबकि हिन्दुस्तान में ओलंपिक से भी मैडल लेकर आने वाली लड़कियां हरियाणा की भी रही हैं।
समाज के लोगों को ऐसी घटनाओं से महज सतह पर तैरते हुए लक्षण मानना चाहिए जिनकी बीमारी सतह के नीचे है, और मरने-मारने से कम दर्जे की हिंसा सामने नहीं आ पाती है। लोगों को यह समझना चाहिए कि हिंसा की पराकाष्ठा के कुछ मामले जब सामने आते हैं, तो उससे कम दर्जे की हिंसा के हजारों मामले और रहते हैं जो कि पुलिस और अखबार तक नहीं पहुंचते, घर की चारदीवारी के भीतर जिनका दम घुटकर रह जाता है। ऐसी आत्मघाती या पारिवारिक हिंसा से उबरने के लिए लोगों के बीच एक वैज्ञानिक सोच विकसित होना जरूरी है, और समाज के भीतर लड़कियों और महिलाओं के लिए सम्मान बढऩा भी जरूरी है। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में स्थित डॉ. दिनेश मिश्रा जैसे जीवट सामाजिक कार्यकर्ता लगातार अंधविश्वास के खिलाफ अपना वक्त और अपनी मेहनत लगाकर काम कर रहे हैं। अलग-अलग प्रदेशों में ऐसे और लोग भी हैं। लेकिन पुणे से लेकर बेंगलुरू तक अंधविश्वास और धर्मान्धता के खिलाफ काम करने वाले लोगों का साम्प्रदायिक कत्ल भी हो रहा है। ऐसे में अधिक संख्या में जागरूक लोगों को अधिक मेहनत करने की जरूरत है क्योंकि जब देश में कुछ ताकतें लगातार लोगों को धर्मान्ध और अंधविश्वासी बनाने के लुभावने काम में लगी हुई हैं, तब न्यायसंगत लोगों को जुटना होगा, वरना लोगों को अंधविश्वासी और धर्मान्ध बनाना तो एक अधिक आसान काम है ही।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्यसभा में देश में चल रहे आंदोलनों के संदर्भ में आंदोलनकारियों पर बड़ा हमला किया। उन्हें परजीवी भी कहा, यानी जो दूसरों पर पलते हैं, और यह भी कहा कि देश को ऐसे आंदोलनजीवी लोगों से बचाकर रखने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि जिस तरह पहले श्रमजीवी या बुद्धिजीवी शब्द सुनाई पड़ते थे, देश में अब एक नई बिरादरी खड़ी हो गई है आंदोलनजीवियों की। किसी का भी आंदोलन चलता रहे ये जाकर उसमें पर्दे के सामने से या पर्दे के पीछे से शामिल हो जाते हैं। उन्होंने आंदोलनों को समर्थन देने वाले ऐसे लोगों की जमकर खिल्ली उड़ाते हुए मोदी ने देश को इन लोगों से सावधान रहने को कहा, देश को इनसे बचाकर रखने कहा।
पहली नजर में ऐसा लगा कि मानो भरोसेमंद मीडिया ने भी मोदी की बात को तोड़़-मरोडक़र लिखा है, और भला किस लोकतंत्र में प्रधानमंत्री आंदोलनों को लेकर इतनी ओछी बात कर सकता है। लेकिन जल्द ही यह खुलासा हो गया, और राज्यसभा का वीडियो भी चारों तरफ फैल गया कि मोदी ने सचमुच ऐसा ही कहा था। यह बात किसी भी लोकतंत्र को सदमा पहुंचाने वाली है कि वहां के आंदोलनों के संदर्भ में उस लोकतंत्र का प्रधानमंत्री ऐसी सोच रखता है। खासकर आज जब देश में कुल एक, किसान आंदोलन की चर्चा है, और इन आंदोलनकारियों को खालिस्तानी, पाकिस्तानी, चीन समर्थक, और देश का गद्दार करार देने की भरपूर कोशिश चल ही रही है। इस बीच में प्रधानमंत्री का ऐसा कहना देश के तमाम लोकतंत्रवादियों का भयानक अपमान छोड़ और कुछ नहीं है।
देश में बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि हर कुछ हफ्तों या महीनों में किसी आंदोलन को समर्थन देते हैं, उसकी हिमायत में बयान जारी करते हैं, या उसके समर्थन में किसी प्रदर्शन में शामिल होते हैं। ऐसा इसलिए नहीं होता कि ये लोग भाड़े पर ट्वीटने वाले लोगों सरीखे भाड़े के आंदोलनजीवी हैं। ये लोग लोकतंत्र पर भरोसा रखते हैं, और हिन्दुस्तान जैसे विशाल देश में, यहां के दर्जनों प्रदेशों में, यहां के लाखों शोषणकर्ताओं के राज में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन तो चलते ही रहते हैं, और जिनका भरोसा लोकतंत्र पर है, उनका भरोसा ऐसे एक से अधिक बहुत से आंदोलनों पर हो सकता है, और रहता है। आज कोई जेएनयू के छात्रों के साथ हैं, तो हो सकता है कि यह उनका धंधा न रहते हुए भी वे शाहीन बाग के आंदोलन के साथ हो सकते हैं, वे यूपी और बिहार में बलात्कार के बाद जबरिया अंतिम संस्कार करने वाली पुलिस के खिलाफ आंदोलन के साथ भी हो सकते हैं, किसानों के आंदोलन के साथ भी हो सकते हैं, और किसी कॉमेडियन की गिरफ्तारी के खिलाफ आंदोलन के साथ भी हो सकते हैं। इसका मतलब यह कहीं भी नहीं रहता कि वे पेशेवर आंदोलनकारी हैं, या आंदोलन पर पलने वाले परजीवी धंधेबाज हैं।
लोकतंत्र में आंदोलनों और आंदोलनकारियों को इतनी हिकारत से देखना बहुत ही नाजायज बात है। अटल-अडवानी के वक्त से जनसंघ और भाजपा गौरक्षा के लिए आंदोलन करते आए हैं, या कुछ दूसरे हिन्दू संगठनों के चलाए जा रहे गौरक्षा आंदोलन का साथ देते आए हैं। जनसंघ और भाजपा कश्मीरी पंडितों के मुद्दे से लेकर कश्मीर से धारा 370 हटाने तक के मुद्दों पर आंदोलन भी करते आए हैं, और इन मुद्दों के दूसरे आंदोलनकारियों के साथ भी खड़े रहे हैं। जनसंघ के लोग आपातकाल के खिलाफ चले आंदोलन में समाजवादियों, और माक्र्सवादियों के साथ इंदिरा-विरोधी आंदोलन में शामिल रहे हैं, ये लोग कहीं हिन्दी भाषा के आंदोलन में शामिल रहे हैं, तो कहीं धर्मांतरण के बाद ऑपरेशन घरवापिसी के साथ खड़े रहे हैं। प्रधानमंत्री के बयान के जवाब में सोशल मीडिया ने उबलते हुए सैकड़ों ऐसी तस्वीरें पेश की हैं जिनमें नरेन्द्र मोदी से लेकर स्मृति ईरानी तक, और अरूण जेटली से लेकर सुषमा स्वराज तक तरह-तरह के आंदोलनों में हिस्सा लेते दिख रहे हैं। खुद मोदी धारा 370 के खिलाफ आंदोलन के मंच पर बैठे दिख रहे हैं, अटल बिहारी वाजपेयी पेट्रोल की महंगाई के खिलाफ बैलगाड़ी पर संसद जाते दिख रहे हैं, और स्मृति ईरानी तो गैस सिलेंडर की महंगाई के खिलाफ आंदोलन में सबसे आगे, लेकिन यूपीए सरकार तक, दिख रही हैं। जो पार्टी या जो नेता पूरी जिंदगी किसी न किसी लोकतांत्रिक आंदोलन से जुड़े रहे, उनका आज का मुखिया आंदोलनकारियों को अगर परजीवी कहे, तो यह उस नेता की अपनी पार्टी की विरासत का अपमान भी है।
कोई भी लोकतंत्र जब तक बेइंसाफी के खिलाफ, हक के लिए, लोकतांत्रिक मुद्दों के लिए आंदोलन नहीं देखता, तब तक वह एक मुर्दा लोकतंत्र रहता है, जिसका रहना न रहना एक बराबर होता है। आज हिन्दुस्तान के जो तथाकथित देशप्रेमी स्वीडन की एक किशोरी, ग्रेटा थनबर्ग पर उबल रहे हैं कि उसने हिन्दुस्तानी किसानों के पक्ष में ट्वीट करके हिन्दुस्तानी घरेलू मामलों में दखल दी है, उन्हें दुनिया के विकसित और सभ्य लोकतंत्रों के माहौल को भी समझना चाहिए जो कि आज भारत में नहीं रह गया है। स्वीडन की यही किशोरी ग्रेटा थनबर्ग 15 बरस की उम्र में अपने देश की संसद के बाहर पर्यावरण बचाने के मुद्दे पर धरने पर बैठी, और उसने पूरी दुनिया के लोगों का ध्यान खींचा, और अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप से गालियां खाईं। लेकिन उसने अपने देश में अकेले जो धरना और विरोध-प्रदर्शन शुरू किया उसने पूरी दुनिया को प्रभावित किया। दुनिया के देशों में जगह-जगह उसकी प्रेरणा से लोग पर्यावरण बचाने के लिए प्रदर्शन करने लगे। इस लडक़ी ने 2019 में 16 बरस की उम्र में एक समुद्री नौका से इंग्लैंड से न्यूयॉर्क तक सफर किया ताकि संयुक्त राष्ट्र पहुंचकर वह जलवायु पर खतरे के मुद्दे को उठा सके। पन्द्रह दिनों का यह सफर इसने सौर ऊर्जा से चलने वाली इस नौका से तय किया था और न्यूयॉर्क पहुंचकर उसने संयुक्त राष्ट्र के बैनरतले एक प्रेस कांफ्रेंस में दुनिया को प्रभावित किया। लोकतंत्र ऐसे ही आंदोलनों का नाम है, ये आंदोलन अपने देश की सरहद के भीतर हो सकते हैं, और अपने देश की सरहद के बाहर भी। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद के खिलाफ अपनी जिंदगी का पहला आंदोलन शुरू किया था, न तो वे वहां के नागरिक थे, और न ही वहां आंदोलन उनका हक था। आज हिन्दुस्तानी पुलिस ग्रेटा थनबर्ग को हिन्दुस्तान की दुश्मन करार देकर अपने देश के बावले लोगों को नारे लगाने का एक मौका जरूर दे रही है, लेकिन दुनिया में हिन्दुस्तान मखौल का सामान बन गया है।
देश के चुनावों में सबसे कामयाब नेता होने से भी नरेन्द्र मोदी को यह हक नहीं मिल जाता कि वे इस महान लोकतंत्र में आंदोलन नाम के लोकतांत्रिक हक को एक गाली की तरह इस्तेमाल करें। हो सकता है कि इसके बाद भी उनकी चुनावी संभावनाओं पर कोई फर्क न पड़े, या चुनावी संभावनाएं बढ़ भी जाएं, दुनिया के इतिहास में चुनावी आंकड़ों के मुकाबले लोकतांत्रिक फैसले अधिक मायने रखेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केदारनाथ में आई विनाशकारी बाढ़ की याद दिलाते हुए कल उत्तराखंड में एक बार फिर प्राकृतिक विपदा आई, लेकिन कुदरत इस बार मेहरबान रही, और शायद कुछ दर्जन मौतों पर ही बात रूक गई। फिर भी ऊपर पहाड़ पर किसी झील में बर्फ टूटी, या कुछ और हुआ जिससे कि पानी एकदम से नदी में आया, और बन रहे एक जल बिजलीघर को बहाते हुए आगे बढ़ गया। जैसा कि किसी भी बड़े हादसे में होता है, इसमें भी मरने वाले अधिकतर लोग गरीब मजदूर थे जो कि शायद इसी जल बिजलीघर की सुरंग में काम कर रहे थे, और ऊपर से बहकर आए मिट्टी के सैलाब में दर्जनों मजदूर दब गए। लाशों का मिलना और मौतों की गिनती अभी जारी है, लेकिन उनके कम-अधिक होने से बहुत फर्क नहीं पड़ता, फर्क की बात सिर्फ यह है कि कुदरत के साथ चल रहा यह खिलवाड़ इस ताजा हादसे के बाद भी लोगों की आंखें खोल सकेगा या नहीं?
उत्तराखंड में ऊपर हिमालय की जमी हुई झीलों की बर्फ धरती की बढ़ती हुई गर्मी से वैसे भी अधिक पिघल रही थी, और मौसम के बदलाव की वजह से वहां बर्फ जमना भी शायद कम हो रहा था। ऐसे में बादल फटने से, या धरती में कोई और फेरबदल होने से बर्फ का बड़ा टुकड़ा टूटकर नीचे आया और रास्ते के सब कुछ को बहाते हुए ले गया। यह तो अच्छी बात रही कि यह सुबह-सुबह हुआ, अगर यही हादसा देर रात हुआ होता, तो लोग बेखबर ही मारे जाते। लेकिन इससे सबक लेने की जरूरत यह है कि धरती के भीतर, धरती पर, या आसमान में आए किसी भयानक फेरबदल से उत्तराखंड जैसा पहाड़ी राज्य इतने बड़े खतरे में पड़ सकता है कि जिसके सामने केदारनाथ की बाढ़ की पांच हजार से अधिक मौतें भी फीकी पड़ जाएं। कुछ तो धरती की बनावट ऐसी है कि हर बात इंसान के काबू में नहीं है, और कुछ इंसान धरती को बर्बादी की तरफ धकेलने में लगे रहते हैं। इन दो बातों में से कम से कम इंसानी हरकतें तो काबू में लाई जा सकती हैं।
धरती के गर्म होने के लिए जिम्मेदार अनगिनत इंसानी हरकतों के व्यापक असर को पल भर के लिए अलग रखें, तो उत्तराखंड में इंसानों की लाई हुई तबाही को, और आगे आने वाले खतरे को देखा जा सकता है, और उसे आगे बढ़ाने से थमा भी जा सकता है। आज हिन्दुस्तान के गिने-चुने पहाड़ी राज्यों में बांध बनाकर सस्ती बिजली बनाने की कोशिशें कुछ जानकारों की नजरों में खतरे से खेलने के अलावा और कुछ नहीं है। लोग लंबे समय से उत्तराखंड जैसे राज्य में बांध में पानी अधिक इक_ा करने को धरती के लिए बड़ा खतरा मानकर चल रहे थे, और इसके खिलाफ आंदोलन भी कर रहे थे। इसी उत्तराखंड में सुंदरलाल बहुगुणा पेड़ों की कटाई का विरोध करते हुए पूरी जिंदगी चिपको आंदोलन चलाते रहे, और चाहे किसी पार्टी की सरकार रही हो, उसे कंस्ट्रक्शन के ठेकों के लिए पेड़ों को काटना सुहाता रहा। किसी भी पार्टी की सरकार का नजरिया धरती की तबाही को लेकर जरा भी अलग नहीं रहा, और उत्तराखंड ने कुछ बरस पहले केदारनाथ की बाढ़ ऐसी ही वजहों से झेली थी।
हिन्दुस्तान के ये पहाड़ी राज्य अपने स्थानीय शासन को अधिकारों के तहत पर्यटन को किसी भी सीमा तक बढ़ाने के लिए आजाद हैं, और इन राज्यों में कमाई का एक बड़ा जरिया पर्यटक हैं। लेकिन पड़ोस का हिमाचल प्रदेश अंधाधुंध बढ़ाए गए पर्यटन के बोझतले दम घुटते दिख रहा है। अब वैसा ही हाल उत्तराखंड का होने जा रहा है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि अंधाधुंध कमाई के लिए एवरेस्ट को कूड़े का ढेर बना दिया गया है। पहाड़ी रास्तों पर सडक़ें चौड़ी की जा रही हैं, उत्तराखंड को देवभूमि कहते हुए वहां अधिक से अधिक तीर्थयात्रियों का आना-जाना आसान करने के लिए ढेरों सडक़ें बनाई जा रही हैं, और उनमें से एक प्रोजेक्ट का नाम भी चारधाम महामार्ग रखा गया है। इस पहाड़ी प्रदेश में सात सौ किलोमीटर से अधिक लंबाई की यह टू-लेन नेशनल हाईवे बनाई जा रही है, और यह अंदाज लगाना अधिक मुश्किल नहीं है कि यहां आवाजाही बढऩे से वाहनों के धुएं का प्रदूषण बढ़ेगा, और उससे पर्यावरण के होने वाले नुकसान की भरपाई भी इंसानों को आगे चलकर करनी पड़ेगी। दरअसल कोई देश या प्रदेश अपनी तात्कालिक जरूरतों और संभावनाओं को देखते हुए धरती पर होने वाले दीर्घकालीन नुकसान को अनदेखा करने के आदी हो चुके हैं। उन्हें पांच साल के अपने कार्यकाल से परे की फिक्र खत्म हो गई है। केदारनाथ की बाढ़ के मुकाबले चूंकि इस बार मौतें बहुत कम हैं, इसलिए इस बार की कुदरत की चेतावनी को सरकारें तेजी से भुला देंगी। नतीजा आने वाली पीढिय़ां भुगतेंगी।
केन्द्र सरकार और उत्तराखंड सरकार पर इस बात को लेकर दबाव बनाना चाहिए कि विकास के नाम पर इस पहाड़ी राज्य, या दूसरे पहाड़ी राज्यों की कुदरती सीमाओं के साथ खिलवाड़ खत्म किया जाए। यह पूरे देश की जिम्मेदारी है कि पहाड़ी राज्यों पर कुदरती खतरा न बढ़ाने के एवज में उन राज्यों को केन्द्र से अतिरिक्त मदद दी जाए। हिन्दुस्तान में कई राज्यों को फौजी जरूरतों के मुताबिक या सरहदी रणनीति के चलते ऐसी मदद दी भी जाती रही है, और आज भी उत्तर-पूर्व जैसे राज्यों को कई तरह की रियायत मिलती है, और अनुदान मिलते हैं। भारत के पहाड़ी राज्यों को देश का फेंफड़ा बने रहने के एवज में इसकी भरपाई मिलनी चाहिए, और इसके साथ ही वहां पर धरती पर अधिक जुल्म भी खत्म होने चाहिए। अब हिन्दुस्तान की देश-प्रदेश की सरकारों में पर्यावरण के लिए आपराधिक लापरवाही दिखाई दे रही है, और ऐसे में धरती को बचाने की नसीहतों की जगह सरकारी दफ्तरों की कचरे की टोकरी के अलावा कुछ नहीं रहेगी। फिर भी लोगों को बोलने की अपनी जिम्मेदारी जारी रखनी चाहिए। ये पहाड़ी इलाके इंसानों का, आवाजाही का, बांधों का इतना बोझ ढोने के हिसाब से बने हुए नहीं हैं, और यहां की धरती अपने जंगलों के बिना हिफाजत से नहीं रह सकती। इन बातों को देखते हुए ऐसे पहाड़ी इलाकों की संभावनाओं की सीमाओं पर गौर करना जरूरी है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आज इस वक्त असम और पश्चिम बंगाल के दौरे पर हैं। इन दो चुनावी राज्यों में वे कई शिलान्यास और लोकार्पण करने वाले हैं। इस बार के केन्द्रीय बजट में देश के चुनावी राज्यों के लिए इतना खास इंतजाम किया गया है कि लोग सोशल मीडिया पर उसका मजाक भी बना रहे हैं। पश्चिम बंगाल का चुनाव सबसे अधिक उत्तेजना से भरा हुआ है, क्योंकि वहां पहले तो वामपंथियों और ममता बैनर्जी के समर्थकों के बीच हिंसक टकराव होते रहता था, अब वामपंथियों के किनारे हो जाने के बाद तृणमूल कांग्रेस का टकराव भाजपा से होता है जो कि राज्य में अगली सरकार बनाने का दावा कर रही है। इस मुद्दे पर आज लिखने की जरूरत इसलिए है कि बंगाल में प्रधानमंत्री के एक सरकारी कार्यक्रम में शामिल होने का न्यौता मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी को भी भेजा गया था, लेकिन वे उसमें शामिल नहीं हो रही हैं। पखवाड़े पहले नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती के राष्ट्र स्तर के समारोह में बंगाल में प्रधानमंत्री के साथ ममता बैनर्जी भी मौजूद थीं, और उसमें जब ममता बोलने के लिए खड़ी हुईं, तो भाजपा के कार्यकर्ताओं ने उनका भाषण शुरू होते ही जयश्रीराम के नारे लगाने शुरू कर दिए थे। उस पर ममता ने अपनी बात खत्म कर दी, और सार्वजनिक रूप से इस बर्ताव पर विरोध जाहिर किया था। देश के मीडिया के एक बड़े हिस्से ने इस घटना पर भाजपा के नेताओं के इस बयान को खूब बढ़-चढक़र दिखाया और छापा कि जयश्रीराम सुनने पर ममता के तन-मन में आग लग जाती है, या वे भडक़ जाती हैं। जबकि जिम्मेदार मीडिया में यह तथ्य साफ-साफ छपा था कि ममता को बोलते एक मिनट ही हुआ था कि कार्यक्रम में बड़ी संख्या में मौजूद भाजपा के कार्यकर्ताओं में से जयश्रीराम के नारे लगने लगे थे।
यह घटना और इससे एक पखवाड़े बाद आज इस राज्य में केन्द्र सरकार के एक सरकारी कार्यक्रम में जाने से ममता के इंकार को समझने की जरूरत है। भारत के संघीय ढांचे में ऐसा होते ही रहेगा कि केन्द्र में किसी पार्टी या गठबंधन की सरकार रहेगी, और अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों और गठबंधनों की। बहुत से ऐसे सार्वजनिक मौके रहेंगे जब एक सरकार के कार्यक्रम में दूसरी सरकार के लोगों को न्यौता दिया जाएगा, और सार्वजनिक जीवन के शिष्टाचार का यह तकाजा भी रहेगा कि दलगत पसंद-नापसंद से परे लोग ऐसे कार्यक्रमों में जाएं, और ऐसा आमतौर पर होता भी है। लेकिन बंगाल उन राज्यों में से है जहां पर सत्तारूढ़ पार्टी और उसकी मुखिया मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के साथ केन्द्र के सत्तारूढ़ गठबंधन की मुखिया भाजपा का बहुत कड़वाहट भरा टकराव चल रहा है। ममता बैनर्जी भी अपना आपा जल्दी खोने के लिए जानी जाती हैं, और दूसरी तरफ भाजपा के मंत्री और दूसरे नेता बंगाल में ममता को भडक़ाने का कोई मौका चूकते नहीं हैं। देश की संघीय व्यवस्था का तकाजा यह था कि जब कलकत्ता में प्रधानमंत्री की मौजूदगी में केन्द्र सरकार का एक कार्यक्रम चल रहा था, तो उसमें आमंत्रित और मौजूद मुख्यमंत्री के भाषण के बीच उन्हें हूट करना बदतमीजी भी थी, और अतिथि सत्कार की परंपरा के खिलाफ बात भी थी। लेकिन अपनी आंखों के सामने ऐसा होते देखकर भी प्रधानमंत्री की खामोशी को हुड़दंगियों को मौन सहमति के अलावा और तो कुछ समझा भी नहीं जा सकता है। खासकर जब केन्द्र और राज्य के बीच राजनीतिक और सरकारी संबंध तनातनी के चल रहे हैं, तब अपने कार्यक्रम में बुलाकर ममता बैनर्जी को पहले तो हूट करना, और फिर इस बात को ममता बैनर्जी के हिन्दू-विरोधी होने की तरह प्रचारित करना कोई अच्छी बात नहीं थी।
भारत में केन्द्र और राज्य के बीच संबंधों में कई बातें पारंपरिक शिष्टाचार पर आधारित रहती हैं। यह कहीं लिखा हुआ नहीं है कि राज्य के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में जाना ही होगा, यह सिर्फ शिष्टाचार का मामला है। केन्द्र के कार्यक्रम में आमंत्रित मुख्यमंत्री के साथ प्रधानमंत्री की नजरों के सामने की गई एक बड़ी अशिष्टता के बाद शिष्टाचार की परंपरा का तकाजा नहीं दिया जा सकता। लोकतंत्र में असहमतियों के बीच परस्पर सम्मान की दरियादिली अगर खत्म हो जाती है, तो दिलों को जोडऩे के लिए किसी कानूनी बंदिश की मदद नहीं ली जा सकती। चुनाव तो आते-जाते रहते हैं, चुनावी भाषणों में कई किस्म की गंदगी भी उगली जाती है, लेकिन आमंत्रित अतिथियों के साथ बदसलूकी कोई इज्जत नहीं दिलाती, फिर चाहे यह बदसलूकी कोई भी क्यों न करे।
सत्ता पर बैठे लोग, समाज के ताकतवर लोग, सार्वजनिक संस्थाओं और ओहदों पर काबिज लोग अगर किसी बात पर सबसे अधिक विचलित होते हैं तो वह आरटीआई है, यानी सूचना का अधिकार। हाल के बरसों में इस कानून का जितना इस्तेमाल हुआ है, उसका एक बड़ा हिस्सा बेजा इस्तेमाल का है। लेकिन लोकतंत्र में कौन सा ऐसा कानून होता है जिसका बेजा इस्तेमाल न होता हो? इसलिए आरटीआई का इस्तेमाल करके ब्लैकमेलिंग की जाती है, और इसलिए आरटीआई कानून को कमजोर किया जाए, यह एक निहायत अलोकतांत्रिक सोच है। पार्षदों से लेकर सांसदों तक के चुनाव में लोग अमूमन कानून तोडक़र ही चुनाव जीतते हैं इसलिए क्या चुनाव व्यवस्था खत्म कर दी जाए? संसद और विधानसभाओं में अपराधी लगातार बढ़ते चले जा रहे हैं तो क्या इन सदनों को खत्म कर दिया जाए? सरकारें आमतौर पर भ्रष्ट रहती हैं, तो क्या निर्वाचित लोगों के मुकाबले फौज को सत्ता दे दी जाए? जब कभी लोग लोकतंत्र की छूट के बेजा इस्तेमाल से थकते हैं, वे तुरंत उस छूट को खत्म करने की बात करने लगते हैं। वे बेजा इस्तेमाल खत्म करने के बजाय छूट को खत्म करने की बात करते हैं। इसी तरह गुजरात में अभी राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त ने एक जिले के स्वास्थ्य विभाग के जनसूचना अधिकारियों को निर्देश दिया है कि बहुत अधिक आरटीआई लगाने वाले एक परिवार के तीन सदस्यों को अगले पांच बरस के लिए ब्लैकलिस्ट कर दिया जाए, और उनसे कोई आवेदन या अपील मंजूर न करें।
हर दिन हिन्दुस्तान में कोई न कोई ताकतवर व्यक्ति ऐसा आदेश देते हैं जो कि सुप्रीम कोर्ट में घंटे भर भी खड़ा न हो। बिहार सरकार ने पिछले पखवाड़े दो ऐसे आदेश दिए जो कि लोकतंत्र के खिलाफ थे। बिहार सरकार ने यह आदेश जारी किया कि अगर सोशल मीडिया पर कोई जनप्रतिनिधि या सरकारी अधिकारी पर अमर्यादित टिप्पणी करेंगे, तो उस पर पुलिस सख्ती से कार्रवाई करेगी। उसके बाद बिहार का यह नया फैसला सामने आया है कि अगर राज्य में किसी विरोध-प्रदर्शन या सडक़ जाम में कोई शामिल होते हैं, और पुलिस उनके खिलाफ मामला पेश करती है, तो उन्हें न कोई सरकारी नौकरी मिल पाएगी, न ही कोई सरकारी ठेका मिल पाएगा। इसके खिलाफ हमने दो दिन पहले लिखा ही था, और अब आज गुजरात का यह आदेश आया है जो कि सूचना आयोग की बुनियादी जिम्मेदारी के ठीक खिलाफ है। अगर कोई परिवार किसी एक विभाग में अपनी निजी वजहों से भी बहुत अधिक संख्या में अर्जियां लगाता है, तो भी उसे ब्लैकलिस्ट करने का कोई अधिकार सूचना आयोग के पास नहीं है।
अब जब कोरोना और लॉकडाऊन के पिछले करीब एक बरस में हिन्दुस्तान की तमाम सरकारों ने डिजिटल और ऑनलाईन कामकाज अधिक दूर तक सीख लिया है, तो सूचना के अधिकार की जरूरत घटनी चाहिए। सरकार के हर विभाग को अपनी फाईलों को ऑनलाईन करते जाना चाहिए ताकि लोगों को उसकी कॉपी मांगने के लिए धक्के न खाने पड़ें। सरकारी कामकाज में जिन फाईलों में सबसे अधिक भ्रष्टाचार होता है, उन फाईलों की कॉपियां देने में सबसे अधिक आनाकानी की जाती है। चूंकि सूचना आयोगों में ही भूतपूर्व सरकारी अफसरों को रखा जाता है, इसलिए उनकी एक प्राकृतिक सहानुभूति सरकारी अमले के साथ रहती है जो कि किसी को भी कोई कॉपी देना नहीं चाहते। बहुत सी जगहों पर परले दर्जे के भ्रष्ट रिटायर्ड अफसर सूचना आयोगों पर काबिज हो जाते हैं, और वे सरकार के संगठित भ्रष्टाचार को दबाए-छुपाए रखने की कोशिशों को बचाने का काम करते हैं, और सूचना मांगने वाले लोगों को तरह-तरह से परेशान करते हैं। हो सकता है कि गुजरात सूचना आयोग का यह अलोकतांत्रिक आदेश ऐसे ही सिलसिले का एक नतीजा हो।
अब डिजिटल कामकाज के चलते हुए सरकारों को सूचना मांगने की जहमत खत्म करनी चाहिए, और सूचना के अधिकार को सूचना की जिम्मेदारी में बदलना चाहिए। सरकारी कामकाज जब तक राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित कोई गोपनीय दस्तावेज न हो, सूचना के अधिकार के तहत खुले हुए हर कागज को विभागों की वेबसाईटों पर डालने की जिम्मेदारी उन विभागों की होनी चाहिए। एक वक्त था जब पुलिस विभाग कोई एफआईआर करता था, तो वह एक रहस्य की तरह छुपी हुई बात रहती थी। अब एफआईआर को इंटरनेट पर डालना सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पुलिस की जिम्मेदारी हो गई है, इसलिए तकरीबन हर एफआईआर देखी जा सकती हैं। ऐसा ही हाल हर सरकारी दस्तावेज का होना चाहिए ताकि आम जनता को या आरटीआई एक्टिविस्ट को महीनों तक धक्के खिलाने के बाद अगली अपील की तरफ न धकेला जाए। हो सकता है कि आरटीआई का इस्तेमाल कुछ लोग ब्लैकमेलिंग के लिए भी करते हों। लेकिन कई लोग तो मीडिया का इस्तेमाल भी ब्लैकमेलिंग के लिए करते हैं, और दो दिन पहले ही छत्तीसगढ़ में एक न्यूज पोर्टल के पत्रकार को एक मंझले दर्जे के वन अफसर से एक करोड़ रूपए के आसपास उगाही के मामले में गिरफ्तार किया गया है। तो ब्लैकमेलिंग को देखते हुए क्या मीडिया को बंद कर दिया जाए? लोकतंत्र में हर कानून के बेजा इस्तेमाल का रास्ता लोग निकालते हैं, लेकिन इस वजह से कोई भी कानून कमजोर करना नाजायज बात होगी। सूचना के अधिकार ने सरकार के भीतर की गंदगी को उजागर करने, और कम करने की कोशिश की है। जब ऐसी कोशिशों के बाद भी न सरकारों को कोई शर्म रहे, और न ही अदालतों की अधिक दिलचस्पी भ्रष्टाचार घटाने में रहे, तो फिर सूचना का अधिकार अकेले कौन सा भाड़ फोड़ सकता है? लेकिन भ्रष्ट लोकतंत्र के भीतर अपनी सीमित संभावनाओं के साथ सूचना का अधिकार एक बड़ा सकारात्मक बदलाव लेकर आया है, और इस कानून को खोखला करने की तमाम कोशिशों के खिलाफ लडऩा चाहिए। यह एक अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट का एक आदेश भी सूचना के अधिकार को कमजोर करने वाला आया है, और उसने लोगों को बड़ा निराश भी किया है। कई बरस पहले, 2010 में, दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट की इस दलील को खारिज कर दिया था कि मुख्य न्यायाधीश के दफ्तर को आरटीआई के दायरे में लाने से न्यायिक स्वतंत्रता में अड़चन आएगी। मामला दिलचस्प था कि जब हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई दफ्तर के तर्कों के खिलाफ फैसला दिया था। बाद में उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील हुई और वहां पर पांच जजों की बेंच ने एकमत होकर दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को सही कहा था, और सीजेआई दफ्तर के तर्कों को गलत माना था।
हमें पक्का भरोसा है कि गुजरात सूचना आयोग का यह आदेश अदालत में तुरंत खारिज हो जाएगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में इस बरस बोरों की दिक्कत के बीच भी 92 लाख टन धान की खरीदी हुई है जो कि इस राज्य के अस्तित्व के 20 बरसों में सबसे अधिक है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इसका कुछ हिस्सा पड़ोसी राज्यों से तस्करी से लाए गए धान का भी है क्योंकि तमाम पड़ोसी राज्यों में धान का समर्थन मूल्य कम है, और छत्तीसगढ़ में सरकार बाद में किसानों को अतिरिक्त भुगतान करके देश का सबसे ऊंचा दाम देती है। पड़ोसी राज्यों से छत्तीसगढ़ में धान की तस्करी कोई नई बात नहीं है, और बीते बरसों में भाजपा के राज में भी यह सिलसिला चल रहा था, और उसी दौरान छत्तीसगढ़ को धान की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी का राष्ट्रीय सम्मान भी हासिल हुआ था।
अब जब इस राज्य के किसान संतुष्ट हैं, और उनका तकरीबन तमाम धान बिक चुका है, तब सरकार को कुछ बातों पर सोचना भी चाहिए। धान की फसल किसान के लिए सबसे आराम की फसल मानी जाती है जिसे बोने के बाद मेहनत दूसरी फसलों के मुकाबले बहुत कम लगती है। छत्तीसगढ़ में पानी कुदरत भरपूर देता है, और नहरों से भी कई इलाकों में पानी आता है, सरकार की मुफ्त, या तकरीबन मुफ्त बिजली के साथ-साथ सोलर पैनल से चलने वाले पंप भी धरती का पेट खाली करके धान की फसल को बढ़ाते हैं। लेकिन कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ के किसान अपनी फसल बेचने के लिए, किसी भी किस्म की कमाई के लिए मोटे तौर पर राज्य सरकार के मोहताज रहते हैं। ऐसे में सवाल यह है कि किसान को सरकार-आश्रित बनाए रखने के बजाय कौन सा दूसरा काम किया जा सकता है, जो कि हो सकता है शुरू में कुछ अलोकप्रिय हो, लेकिन जो लंबे सफर में किसानों का अधिक मददगार हो।
छत्तीसगढ़ में जहां-जहां मिट्टी और हवा-पानी साथ दें, वहां-वहां किसानों को धान से परे भी देखने के लिए कहना चाहिए। आसान धान लोगों की कल्पना को कुचल चुका है। किसान और दूसरी फसलों की तरफ देखना भी भूल गए हैं। यह बात धरती के लिए भी ठीक नहीं है, और दूसरी फसलों के लिए भी ठीक नहीं है। छत्तीसगढ़ में भी कुछ हिस्सों में चने की फसल ली जाती थी जो कि किसानों को सरकार को मोहताज भी नहीं रखती थी, और किसी समर्थन मूल्य की फिक्र भी उसे नहीं रहती थी। इस प्रदेश के बनने के भी दशकों पहले तो यहां कृषि विश्वविद्यालय है, और अब तक इसने किसानों के बीच दूसरी फसलों को लोकप्रिय करने का काम कर देना था, लेकिन प्रयोगशाला से सरकार तक होते हुए खेतों तक पहुंचने का सफर, और फिर फसल के मंडी या बाजार तक पहुंचने का सफर बहुत से रोड़ों भरे रास्ते से गुजरता है। धान से परे लोगों ने सोचना बंद कर दिया, और सरकार भी एक लोकप्रिय चुनावी नारे और कार्यक्रम से परे कोई प्रयोग करने के बारे में नहीं सोचती।
लेकिन बात महज किसी और फसल की नहीं है, बात खेती और किसानी की अर्थव्यवस्था की व्यापक तस्वीर की है, और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की भी है जो कि बुनियादी रूप से किसानों पर ही टिकी हुई है। छत्तीसगढ़ में जहां-जहां लोगों ने फल-सब्जी के प्रयोग किए, मशरूम या शहद के प्रयोग किए, उन्हें धान की फसल के मुकाबले अधिक कमाई भी हुई है। यह एक अलग बात है कि ऐसे प्रयोगों में सरकार की भूमिका बड़ी सीमित रही है, और लोगों की उपज के लिए बाजार जुटाने का काम सरकार नहीं कर पाई। छत्तीसगढ़ में वन विभाग ने वनोपज के दाम शायद देश में सबसे अधिक दिए, लेकिन वनोपज इस प्रदेश से कच्चे माल की तरह ही बाहर जाती है, उसके लिए कोई प्रोसेसिंग यूनिट यहां नहीं लग पाई। यही हाल फल-सब्जी के साथ हुआ, यही हाल कुछ दूसरी फसलों का हुआ। आज छत्तीसगढ़ में जगह-जगह होने वाले कोदो-कुटकी का कोई स्थानीय संगठित बाजार नहीं है, दूसरी तरफ यह देशी-विदेशी ऑनलाईन बाजार में महंगे दामों पर बिकता है। यह एक फासला राज्य सरकार जैसी संगठित कोशिश के बिना पट नहीं सकता। किसान को सरकार-आश्रित रखने के बजाय उसे तरह-तरह की आर्थिक गतिविधियों से जोडऩा होगा ताकि वह सरकारी बजट पर भी कम बोझ रहे।
आज आखिर क्या वजह है कि गुजरात के एक सिरे पर बसे आनंद से अमूल का दूध और बाकी डेयरी प्रोडक्ट निकलकर 1100 किलोमीटर से अधिक का रास्ता तय करके छत्तीसगढ़ आते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ की डेयरी संभावनाएं पूरी तरह टटोली नहीं जातीं। राज्य का दुग्ध महासंघ राजनीति और भ्रष्टाचार के लिए ही खबरों में अधिक आता है, राज्य में डेयरी और दूध का कलेक्शन और मार्केटिंग नेटवर्क बनाने में इसे कामयाबी मिली थी। अब कुछ निजी कारोबारियों ने बड़े-बड़े डेयरी उद्योग स्थापित किए हैं जो कि कामयाब भी बताए जा रहे हैं, और उनसे जुडक़र गांव-गांव में लोग दुधारू जानवर भी पाल रहे हैं।
राज्य सरकार को किसी कारोबार में पड़े बिना लोगों को तरह-तरह की प्रोसेसिंग यूनिट लगाने में मदद करनी चाहिए ताकि गांव के लोग धान और अनाज से परे भी कमाई कर सकें, जंगलों के लोग वनोपज और लघु वनोपज को कच्चे माल की शक्ल में बेचने को मजबूर न हों, और प्रदेश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था धान से परे भी धनवान हो। यह बात सुझाना आसान है, लेकिन ऐसा करना धान खरीदने के मुकाबले कई गुना अधिक मेहनत का काम है। छत्तीसगढ़ सरकार को ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि किसान धान से परे भी सोच सकें, और गांव सरकारी योजनाओं से परे भी अपने पैरों पर खड़े हो सकें। राज्य सरकार को धान से इतर अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के बारे में भी सोचना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पश्चिम की एक पॉप गायिका रिहन्ना ने भारत के किसान आंदोलन के समर्थन में एक ट्वीट क्या कर दिया, बात की बात में हिन्दुस्तानी राष्ट्रभक्त रिहन्ना की कम से कम कपड़ों वाली तमाम तस्वीरें निकाल लाए जो वे खुद ही अपने सोशल मीडिया पन्नों पर पोस्ट करती हैं। और हाल के महीनों में भारत नहीं, भारत सरकार की निजी सुरक्षा के लिए तैनात देश के सबसे घातक परमाणु हथियार ने भी इस अंतरराष्ट्रीय गायिका पर खुला हमला बोल दिया। यह हथियार एंटी मिसाइल, और एंटी एयरअटैक डिफेंस सिस्टम की तरह भारत सरकार की आलोचना पर खुद होकर पल भर में सक्रिय हो जाता है, और ट्विटर पर जवाबी परमाणु हमला शुरू कर देता है। कुछ लोग इस डिफेंस सिस्टम को कंगना रनौत नाम से भी बुलाते हैं। अभी इस डिफेंस सिस्टम की तरफ से पश्चिम की इस गायिका की चुनिंदा तस्वीरें पोस्ट करने पर लोगों ने इस देशी डिफेंस सिस्टम की भी टक्कर की तस्वीरें पोस्ट करना शुरू किया है, और ट्विटर का कम्प्यूटर बदन की भरमार वाली तस्वीरों को नंगी करार देते हुए बावला हो गया है।
खैर, सोशल मीडिया के बकवासी हमलों पर लिखने जैसा कुछ है नहीं क्योंकि एक दशक पहले पखाने के दरवाजे के भीतर गालियां कुरेदते हुए लोग डरते भी थे, अब तो सोशल मीडिया पर अपने नाम, पहचान, और तस्वीर सहित बलात्कार की धमकियां भी लिख देते हैं, उनकी हम अब क्या आलोचना करें। लेकिन आज इस मुद्दे पर लिखने की बात इसलिए आन पड़ी है कि भारत सरकार ने खुलकर मशहूर विदेशियों के लिखे का विरोध किया है, और भारत के किसान आंदोलन को भारत का आंतरिक मामला बताया है। इस गायिका के अलावा दुनिया की सबसे मशहूर पर्यावरणवादी किशोरी ग्रेटा थनबर्ग सहित कई और चर्चित लोगों ने किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन का समर्थन किया है, और भारत सरकार ने इन सबकी बोलती बंद कर देने के अंदाज में अपनी प्रतिक्रिया ट्वीट की है।
यह बात बड़ी दिलचस्प है कि किसी देश की कौन सी बात उसकी आंतरिक बात रहती है, और बाहर के लोगों के दखल के लायक नहीं कही जाती है। हमारी मामूली समझ तो अभी पिछले ही महीने तकरीबन इन्हीं दिनों अमरीका के संसद भवन पर हुए हमले पर भारतीय प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया को देखते आई है जिसमें अमरीकियों द्वारा, मौजूदा अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के उकसावे और भडक़ावे पर देश की संसद पर हमला किया गया था, और वहां गिने जा रहे वोटों को नष्ट करने की कोशिश की गई थी। मारने वाले और पांच मरने वाले सभी अमरीकी थे, संसद भी अमरीका की थी, भडक़ाने वाला अमरीकी राष्ट्रपति था, लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वहां लोगों को शांति की नसीहत दी थी। अब मोदी के ही मित्र रहे हुए डोनल्ड ट्रंप को अमरीकी जनता ने नमस्ते-ट्रंप कह दिया था, तो भडक़कर इस ट्रंप ने अपने लोगों को संसद पर हमला करने का फतवा देकर भेजा था। इस मामले में कुछ भी भारतीय नहीं था, लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री ने शांति की नसीहत दी थी। अब सवाल यह है कि मोदी यह नसीहत देते हुए जितने अमरीकी थे, या अबकी बार ट्रंप सरकार का नारा देते हुए जितने अमरीकी थे, उतनी ही भारतीय रिहन्ना भी है। आज अगर उसने भारतीय किसान आंदोलन को लेकर कुछ अहिंसक बात कही है, तो यही बात तो ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, और अमरीका जैसे कई देशों से सांसद पहले बोल चुके हैं, इस आंदोलन का साथ दे चुके हैं। लेकिन चूंकि इस बार की यह ट्वीट अमरीकी मनोरंजन-दुनिया की एक सबसे चर्चित और कामयाब महिला की तरफ से आई थी, यह जायज था कि भारत की मनोरंजन-दुनिया की अपने को सबसे चर्चित और सबसे कामयाब मानने वाली महिला जवाबी हमला करती। इस तरह कंगना रनौत ने भारत (देश नहीं) सरकार को नापसंद किसान आंदोलन के समर्थन के खिलाफ तमाम परमाणु मिसाइलों को लेकर हमला शुरू कर दिया।
चूंकि भारत में आज सक्रिय कंगनाएं अपनी तमाम ऊर्जा मोदी के आलोचकों पर हमले में लगाती हैं, इसलिए उनके पास यह वक्त नहीं रहता कि यह भी पढ़ सकें कि मोदी क्या लिखते हैं। मोदी ने अमरीका के हिंसक हमलावरों को शांति की नसीहत देकर एकदम जायज काम किया था, उसके लिए उनका अमरीकी होना जरूरी नहीं था। लेकिन कंगनाओं के साथ-साथ मोदी सरकार के लोग भी हिंसक अमरीकियों को मोदी की नसीहत लगता है नहीं पढ़ पाए। इसलिए आज वे दुनिया के मशहूर लोगों की मामूली अहिंसक ट्वीट पर भी भारत सरकार की तरफ से हमला कर रहे हैं कि किसान आंदोलन भारत का आंतरिक मामला है इससे बाहर के लोग दूर रहें। अब भारत सरकार के लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इसी तर्क का इस्तेमाल करते हुए अमरीका के हिंसक ट्रंपवादी मोदी से सवाल कर सकते हैं कि कैपिटल हिल के अंगने में तुम्हारा क्या काम है?
जिनके दिमाग का दीवालिया निकल चुका है, महज वे ही लोग आज दुनिया को ऐसी सरहदों में बांटने की कल्पना कर सकते हैं जिनके आरपार लोग बयान भी न दें। अगर पश्चिम के देशों का दबाव न होता और वहां हिन्दुस्तानी बाल मजदूरों के बुने कालीनों का बहिष्कार न हुआ होता, तो क्या हिन्दुस्तान में कालीन उद्योग में बाल मजदूर घटे होते? ऐसे कितने ही मामले हैं जिनमें दूसरे देश या कोई अंतरराष्ट्रीय संगठन अपने दबाव से किसी देश में फेरबदल लाते हैं। बांग्लादेश में कपड़े बनाने वाले मजदूरों की बदहाली और उनकी बहुत ही कम मजदूरी के खिलाफ पश्चिम के देशों ने खुद अपने कारोबारियों का जमकर विरोध किया, और उन्हें मजबूर किया कि वे बांग्लादेश के कारखानेदारों से वहां के मजदूरों को अधिक मजदूरी दिलवाएं। यह तो आज की दुनिया में सभ्य और विकसित लोकतंत्रों की पहचान है कि वे अपने निजी स्वार्थों और अपनी तंग-सीमाओं से बाहर जाकर दूसरों के लिए कितना कुछ कर सकते हैं। और यह कोई नई बात भी नहीं है, हिन्दुस्तान जब आजाद हुआ उसके पहले से गांधी लगातार फिलीस्तीनियों के पक्ष में और इजराइल के खिलाफ लिखते थे। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का गांधी का विरोध तो उस देश की आंतरिक व्यवस्था पर सीधा हमला था, लेकिन हिन्दुस्तान उस पर गर्व करता है। गांधी न तो दक्षिण अफ्रीकी थे, न ही वहां आंदोलन का उनका कोई कानूनी हक बनता था। लेकिन वे उस पिछली सदी में भी एक जागरूक विश्व नागरिक थे, और इस नाते वह हक न होते हुए भी उनकी जिम्मेदारी थी। आज हिन्दुस्तान के जो कमअक्ल और अधिक बदनीयत वाले लोग गैरहिन्दुस्तानियों की आलोचना पर हिंसक हमले कर रहे हैं, उन्हें यह समझने की जरूरत है कि ऐसा करते हुए वे गांधी की डाली हुई गौरवशाली परंपराओं को खारिज भी कर रहे हैं। जो लोग हिन्दुस्तान की सरकार की आलोचना को हिन्दुस्तानियों का देशद्रोह मानते हैं, और गैरहिन्दुस्तानियों की नाजायज दखल मानते हैं, वे गांधी के युग की दुनिया को भी नहीं समझते, आज की दुनिया तो दूर की बात है। दिक्कत यह है कि दुनिया को बचाने की फिक्र करने वालों की गिनी-चुनी ट्वीट के मुकाबले दुनिया को तबाह करने पर आमादा लोगों की ट्वीट लाखों गुना है। हिंसा की सुनामी के बीच भले लोगों के पांव जमीन पर टिके रहें, ऐसा खासा मुश्किल है। लेकिन फिर भी दुनिया का इतिहास है कि वह ऐसी ही नफरत और हिंसा के बीच से उबरकर एक बेहतर दुनिया बनी है। और इतिहास की मिसालों से परे इस दुनिया में ऐसी संभावनाएं हैं कि वह आज से बेहतर बन सकती है। आज दुनिया के किसी भी लोकतंत्र को यह भूल जाना चाहिए कि वे थ्यानमान चौक पर, हांगकांग में, सीरिया में या सिंघु बॉर्डर पर कुछ मनमानी करके बिना आलोचना, बिना प्रतिक्रिया रह सकते हैं। अंदरूनी मामला तो इतिहास के हर मामले को कहा जा सकता है, हिटलर अपने देश के भीतर दसियों लाख यहूदियों को मार रहा था, और वह भी उसका अंदरूनी मामला था। 21वीं सदी की दुनिया में इतना अंदरूनी कुछ भी नहीं रह गया है कि जिस पर सरहद के बाहर के लोग मुंह न खोलें। भारत सरकार के डिफेंस सिस्टम के दिमाग में यह बुनियादी बात बैठाने की जरूरत है।
एक पखवाड़े में बिहार सरकार का लोकतंत्र के खिलाफ एक दूसरा फैसला सामने आया है। कुछ दिन पहले ही राज्य सरकार ने यह आदेश जारी किया है कि अगर सोशल मीडिया पर कोई जनप्रतिनिधि या सरकारी अधिकारी पर अमर्यादित टिप्पणी करेंगे, तो उस पर पुलिस सख्ती से कार्रवाई करेगी। अब कल यह नया फैसला सामने आया है कि अगर बिहार में किसी विरोध-प्रदर्शन या सडक़ जाम में कोई शामिल होते हैं, और पुलिस उनके खिलाफ मामला पेश करती है, तो उन्हें न कोई सरकारी नौकरी मिल पाएगी, न ही कोई सरकारी ठेका मिल पाएगा। नीतीश सरकार के ये दोनों फैसले लोकतंत्र को कुचलने वाले कहे जा रहे हैं, और इनके खिलाफ लगातार राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रिया आ रही हैं।
बिहार भारत के लोकतंत्र में एक मजबूत स्तंभ रहा है। खुद नीतीश कुमार से लेकर लालू यादव तक बहुत से नेता आपातकाल का विरोध करते हुए छात्र राजनीति और राजनीति में आगे बढ़े, और बड़े नेता बने। आपातकाल के जॉर्ज फर्नांडीज जैसे बड़े नेता बिहार से चुनाव लडक़र संसद में बड़े नेता बने थे। ऐसे में अगर कोई राज्य लोकतंत्र को कुचलने का काम करता है, तो वह अदालत में भी नहीं टिक पाएगा, और जनता की अदालत में तो उसकी थुक्का-फजीहत शुरू हो ही चुकी है। दरअसल अपने चौथे कार्यकाल में नीतीश कुमार को शायद अब यह लग रहा है कि उनके पास खोने को कुछ नहीं है, और पाने को भी इससे अधिक कुछ नहीं है, और यह भी कब तक जारी रहता है, वह भी साफ नहीं है, इसलिए वे शायद लोकतंत्र पर आस्था खो चुके हैं। वैसे भी देश का माहौल कुल मिलाकर लोकतंत्र को एक निहायत ही अवांछित सामान मानकर चल रहा है कि वह सीढ़ी चढक़र सत्ता तक पहुंच गए, और अब उस सीढ़ी को लात मारकर गिरा देने में कोई हर्ज नहीं है।
आज जब दुनिया के तमाम सभ्य लोकतंत्र अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तमाम तरीकों का सम्मान बढ़ाते चल रहे हैं, तब हिन्दुस्तान का यह एक सबसे बड़ा राज्य अपनी सरहद में लोकतंत्र को इस तरह खत्म करने में जुटा है। जो नौजवान देश के तमाम राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों की रीढ़ की हड्डी रहते आए हैं, उनको ऐसे आंदोलनों में जाने से रोकने के लिए उनका नौकरी का हक छीनना एक ऐसी नाजायज बात है जो कि अदालत में नहीं टिक पाएगी। अगर आंदोलनों में सडक़ों पर उतरना ऐसा जुर्म है, तो फिर लालू यादव से लेकर नीतीश कुमार तक इन सबको मुख्यमंत्री बनने के लिए भी अपात्र कर देना चाहिए क्योंकि इनके ऊपर भी आंदोलनों के अपने दिनों में कई जुर्म कायम हुए होंगे। जो बात किसी को क्लर्क बनने के लिए भी अपात्र ठहराती है, वह बात सांसद और विधायक बनने की अपात्रता भी रहनी चाहिए। दरअसल नीतीश सरकार लोगों को धमकाने में लगी है। सोशल मीडिया पर लोग जनप्रतिनिधियों और अफसरों के बारे में नहीं लिखेंगे तो क्या वे जागरूक नागरिक रह जाएंगे? और अगर वे कोई गलत बात लिखते हैं तो उसके लिए सरकार के पास अलग से तरह-तरह के कानून हैं। इस पर पुलिस कार्रवाई के लिए अलग से आदेश निकालना अपने लोगों को धमकाने के अलावा कुछ नहीं है। पिछले बरसों में सुप्रीम कोर्ट बार-बार इस बात को कह चुका है कि सोशल मीडिया को लेकर सरकारों की की गई बहुत सी कार्रवाई नाजायज है और उसमें आईटी एक्ट की कुछ धाराओं को खारिज भी किया है। बिहार सरकार के ये दोनों ही मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचकर खारिज होंगे, इनसे सरकार का कोई भला नहीं होना है, और धमकाने का यह तरीका अदालती फैसला आने तक का ही है। देश में आज लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने का अभियान चल रहा है, और नीतीश कुमार उसी लहर पर सवार चल रहे हैं। वे अपने राजनीतिक जीवन की सबसे ऊंचाई पर पहुंच चुके हैं, और अब न सिर्फ राजनीति का, बल्कि उनकी नैतिकता का भी उतार चल रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सोशल मीडिया के एक तबके की बात छोड़ दें, तो भारत का किसान आंदोलन चल भी रहा है, इसकी खबर मीडिया के कम ही हिस्से में देखने मिलती है। कुछ तो देश का प्रमुख मीडिया सोशल मीडिया के दबाव में भी काम करता है कि वहां कौन सी बातें लिखी जा रही हैं। क्योंकि दोनों के ग्राहक तो एक ही हैं। लोग फेसबुक और ट्विटर पर किसान आंदोलन की दिल दहलाने वाली खबरें पढ़ लेंगे, और अगर उन्हें बड़े समाचार चैनलों और अखबारों से निराशा मिलेगी, तो ऐसे मीडिया के ग्राहक भी टूटेंगे। इस दबाव में भी किसानों की खबरें दिखाई जा रही हैं।
लेकिन मौजूदा किसान आंदोलन दिल्ली के इर्द-गिर्द, पंजाब और हरियाणा, और अब कुछ हद तक लगे हुए उत्तरप्रदेश के किसानों पर टिका हुआ है। कहने के लिए तो मुम्बई से चलकर शिवसेना के एक सबसे ताकतवर नेता संजय राऊत भी किसानों के समर्थन के लिए दिल्ली के पास किसान आंदोलन पहुंचे, लेकिन मोटेतौर पर बाकी देश में किसानों का समर्थन प्रतीकात्मक अधिक चल रहा है, जमीन पर कम। कांग्रेस के एक प्रमुख नेता दिग्विजय सिंह बार-बार सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से कह रहे हैं कि किसानों के समर्थन में सडक़ों पर निकलें, लेकिन महाराष्ट्र में शरद पवार, पंजाब में सुखबीर बादल, और बाकी प्रदेशों में वामपंथी पार्टियां, कार्यकर्ता किसानों के साथ सामने आए हैं। अगर दिल्ली को इस तरह घेरने की ताकत इस किसान आंदोलन में न होती, तो देश के किसी दूसरे हिस्से में ऐसा आंदोलन अब तक दम तोड़ चुका होता।
यह सोचने की जरूरत है कि जो किसान और जो किसानी देश के लोगों के जिंदा रहने के लिए सबसे जरूरी बातें कही जा रही हैं, वे खुद भी इस आंदोलन में पूरे देश में सामने क्यों नहीं हैं? हिन्दुस्तान में किसानी के काम में लगे हुए करोड़ों खेतिहर मजदूर किसानी पर जिंदा तो हैं, लेकिन वे खुद किसान नहीं हैं, महज मजदूर हैं। और फिर यह मजदूरी भी इतनी अनियमित, इतनी असंगठित, और अनिश्चित है कि ये ही खेतिहर मजदूर मनरेगा जैसी ग्रामीण मजदूरी योजना पर निर्भर रहते हैं। दूसरी बात किसानी करने वाले लोगों में भी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो कि भूस्वामी से खेत ठेके पर या किसी और अनुबंध के तहत लेकर मजदूर की तरह उस पर काम करते हैं, और कमाई साझा करते हैं। नतीजा यह है कि किसानी कानून के जितने किस्म के फायदे हैं, या नुकसान हैं, उनके ऐसे अधिया किसान सीधे प्रभावित नहीं होते हैं क्योंकि जमीन उनके नाम पर नहीं है। जमीन का मालिकाना हक किसान को ताकतवर भी बनाता है, और ऐसे आंदोलन में उसे जोडक़र भी रखता है। लेकिन आज हिन्दुस्तान के बाकी हिस्सों में किसान आंदोलन अगर मजबूत नहीं है, जमीन पर नहीं है, तो इसकी एक वजह यह है कि जमीन के मालिकाना हक वाले किसान अपने इलाकों में जरा भी संगठित नहीं हैं, और किसी लंबे आंदोलन के लायक उनकी आर्थिक स्थिति भी नहीं है। अधिकतर किसान बहुत मामूली कमाई, या बिना कमाई की खेती बस करते ही आ रहे हैं, उनके पास किसी लंबे आंदोलन की ताकत भी नहीं है। वे मजबूत किसानों के आंदोलनों के फायदों की ओर तो नजर लगाए हुए हैं, लेकिन खुद अधिक ताकत के ऐसा कोई आंदोलन न शुरू कर सकते, न उसमें शामिल हो सकते।
गणतंत्र दिवस के पहले तक दिल्ली के राजधानी क्षेत्र की सरहद पर चल रहा यह आंदोलन सिक्ख किसानों पर केन्द्रित था, और आंदोलन को चलाने के लिए जो बड़ा समर्थन मिला हुआ था, वह भी सिक्ख संगठनों की तरफ से था। दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर किसानों के नाम पर जो तोडफ़ोड़ हुई, और लाल किले पर प्रदर्शन हुआ, उसके बाद से सिक्ख किसानों को कुछ चुप देखा जा रहा है। और इसके बाद की तमाम खबरों में उत्तरप्रदेश के किसान नेता राकेश टिकैत की अगुवाई दिख रही है। यह एक बड़ा फर्क गणतंत्र दिवस के बाद से आया है, लेकिन यह आंदोलन को किसी तरफ ले जाएगा, उस पर क्या फर्क पड़ेगा, यह समझना अभी मुश्किल है।
आने वाले महीनों में देश में बंगाल सहित कुछ राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, और इसे ध्यान में रखकर कल के केन्द्रीय बजट में इन राज्यों के लिए खास इंतजाम किया गया है। लेकिन दिग्विजय सिंह के कहने के बावजूद इन राज्यों के राजनीतिक दल भी किसान आंदोलन का साथ देने के लिए सडक़ों पर उतर रहे हों ऐसा दिख नहीं रहा है। शिवसेना के संजय राऊत का आंदोलन में आकर लौटना भी छोटी बात नहीं है, यह महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ गठबंधन की अगुवा पार्टी का नैतिक समर्थन है जिसके अपने राज्य के भीतर भी शिवसेना-गठबंधन सरकार किसानों के साथ जुड़ती है। आज केन्द्र सरकार की रणनीति के मुताबिक जिस तरह किसानों और दिल्ली के बीच कटीले तारों के समंदर फैलाए जा रहे हैं, जिस तरह सडक़ों पर भालों सरीखी नोंक लगाई जा रही है, उससे केन्द्र सरकार और किसान आंदोलन के बीच एक बड़ा फासला बढ़ते दिख रहा है। ऐसे मौके पर बाकी राजनीतिक दलों को भी अपनी प्रतिबद्धता खुलकर सामने रखनी चाहिए कि वे कटीलें तारों के किस तरफ हैं। किसान आंदोलन और आज की नौबत एक बड़ा व्यापक मुद्दा है, हम आज इसे यहां पर छू भर रहे हैं और लोगों के सोचने के लिए इन पहलुओं को सामने रख रहे हैं। राजनीतिक दलों से परे भी समाज के दूसरे तबकों को किसानों के साथ आकर खड़ा होना होगा, वरना भूखों मरने के लिए तैयार रहना होगा।
भारत के पड़ोस में बसे हुए म्यांमार में आज सुबह हुई सैनिक बगावत के बाद वहां की सबसे बड़ी निर्वाचित नेता आंग सान सू की सहित बहुत से निर्वाचित नेताओं को सेना ने कैद कर लिया है और देश में एक बरस के लिए इमरजेंसी लागू करके सरकार संभाल ली है। दस बरस पहले म्यांमार के चुनावों में आंग सान सू की जीतकर आई थीं और उनकी पार्टी ने सरकार बनाई थी। वैसे तो लंबे समय तक नजरबंद रहते हुए आंग सान सू की को नोबल शांति पुरस्कार भी मिला था, लेकिन पिछले कई बरसों से उनकी अंतरराष्ट्रीय साख खत्म हो चुकी थी क्योंकि उनकी सरकार ने रोहिंग्या मुस्लिम अल्पसंख्यकों का जिस बुरी तरह मानव संहार करके उन्हें देश से निकाला था, उसकी उम्मीद उनसे और उनकी सरकार से किसी ने नहीं की थी। म्यांमार पांच देशों के बीच बसा हुआ देश है। बांग्लादेश, भारत, चीन, लाओ, और थाईलैंड से उसकी सरहद जुड़ी है, और इन देशों में से रोहिंग्या मुस्लिमों को बांग्लादेश ही शरण पाने के लिए ठीक लगा था, और वे समंदर के रास्ते वहां पहुंचे। अभी बांग्लादेश म्यांमार से रोहिंग्या शरणार्थियों की वापिसी के लिए बातचीत कर ही रहा था कि म्यांमार सरकार चली गई, और वहां जो फौजी तानाशाह आज काबिज हुआ है, वह रोहिंग्या शरणार्थियों के व्यापक मानव संहार का मुजरिम माना जाता है।
करीब साढ़े 5 करोड़ आबादी का यह देश वैसे तो भारत के एक औसत राज्य जितना बड़ा ही है, लेकिन चीन से लगी हुई लंबी सरहद के चलते म्यांमार भारत की विदेश और फौजी नीतियों में बड़ी नाजुक जगह रखता है। चीन की तरह ही म्यांमार बौद्ध बहुल देश है, और वहां सत्तारूढ़ बौद्ध ताकतों ने धार्मिक अल्पसंख्यकों को कुचलकर भी रखा है। म्यांमार में 85-90 फीसदी बौद्ध हैं, और उनकी मार के आगे 4 फीसदी के करीब मुस्लिमों के बचने की गुंजाइश कम ही थी। नतीजा यह हुआ कि लाखों रोहिंग्या शरणार्थी उनके गांव जला दिए जाने के बाद, व्यापक हत्या और बलात्कार के बाद देश छोडऩे को मजबूर हुए थे।
अंग्रेजों के वक्त से बर्मा कहे जाने वाले इस देश के साथ भारत के मजबूत रिश्ते रहे, लेकिन सांस्कृतिक रूप से आज का म्यांमार अपने बाकी बौद्ध बहुल देशों, चीन, लाओ, और थाईलैंड के अधिक करीब रहा। वैसे भी भारत और बांग्लादेश की सरहद से जुड़े म्यांमार में चीन की दिलचस्पी स्वाभाविक ही है, और नक्शे को देखें तो एक और वजह समझ आती है कि भारत और बांग्लादेश की करीब समुद्री सीमा भी म्यांमार से लगी हुई है, और वह चीन के लिए रणनीतिक रूप से जरूरी भी है। ऐसे में भारत के इस पड़ोसी देश का कमजोर लोकतंत्र जब घोषित रूप से फौजी तानाशाही बन रहा है, तो भारत के लिए यह एक बड़ी फिक्र की बात भी है। चीन के साथ कई मोर्चों पर भारत की तनातनी, और टकराहट जारी है। चीन और भारत के बीच एक दूसरे देश नेपाल को लेकर भी इन दोनों देशों में खींचतान है, और नेपाल से भी भारत के लिए कोई राहत की बात नहीं आ रही है, घूम-फिरकर नेपाल चीन के करीब ही दिखाई पड़ता है।
म्यांमार में 2011 में चुनाव जीतकर सत्ता में आई शांति की प्रतीक दिखती आंग सान सू की म्यांमार के पिछले चुनावों में बड़े पैमाने पर धांधली की फौजी तोहमत भी झेल रही थीं। सरकार और सेना के बीच तनातनी चल रही थी, और आंग सान सू की की पार्टी की चुनावी जीत की आंधी को फौज ने धोखाधड़ी और धांधली करार दिया था। म्यांमार के पिछले दशकों को देखें तो यह जाहिर है कि वहां लोकतंत्र बहुत मजबूत नहीं था, और फौज जरूरत से अधिक बड़ा किरदार निभाते आ रहा था। 2011 के चुनाव के पहले 15 बरस आंग सान सू की नजरबंदी में थी, लेकिन इस पूरे लोकतांत्रिक संघर्ष की उनकी साख रोहिंग्या मुस्लिमों के जनसंहार से खत्म हो गई थी।
भारत के पास आज म्यांमार को लेकर सार्वजनिक रूप से करने को कुछ नहीं है। भारत काफी पहले वह नैतिक ताकत खो चुका है जिससे वह दुनिया भर में दूसरे देशों के मामलों में भी खुलकर बोल पाता था। इसलिए आज जब दूर बैठा अमरीका म्यांमार के आज के फौजी सत्ता पलट पर भारी नाराजगी जाहिर करते हुए नेताओं की रिहाई की मांग कर रहा, और फौजी ताकतों को चेतावनी दे रहा है, तब भारत के करने का कुछ नहीं दिखता। भारत अपनी जमीन पर शरण पाए हुए रोहिंग्या मुस्लिमों को लेकर भी छुटकारा पाने की कोशिशों में लगा हुआ है, और बीते बरसों में इन मुस्लिमों का भारत में कुछ तबकों ने खुलकर विरोध भी किया था। आने वाला वक्त यह साफ करेगा कि म्यांमार की नई फौजी हुकूमत कितने वक्त तक चलती है, उसका रूख क्या रहता है, वहां पर चीन का दखल क्या रहता है, और इस फौजी हुकूमत का भारत के लिए क्या रूख रहता है। फिलहाल हम भारत के किसी भी पड़ोसी देश में लोकतंत्र के कमजोर होने को भारत के लिए एक बड़ी परेशानी मानते हैं, और उसे भारत के लिए एक खतरा मानते हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
गणतंत्र दिवस पर देश में महीनों से चल रहे किसान आंदोलन का तनाव तो दोपहर बाद शुरू हुआ, लेकिन इसके पहले के एक-दो दिनों से देश आजादी और देशभक्ति के गानों में डूबा हुआ था। इन दिनों टीवी के अनगिनत चैनलों पर दर्जनों रियलिटी शो चलते हैं, जो कैलेंडर के मौसम को देखकर लोगों की भावनाओं पर अपनी उंगलियां धरते हैं। टीवी के कई कार्यक्रम रिटायर्ड फौजियों से भरे हुए थे, जिनकी जंग की हसरत पंचतत्वों में विलीन हो जाने के बाद भी कायम रहेगी। दूसरी तरफ गणतंत्र दिवस पर सम्मान के नाम पर मौजूदा फौजियों को स्टूडियो में बिठाकर सम्मान किया गया, और उनकी बहादुरी या शहदत की कहानियां दोहराकर टीवी के दर्शकों को खासा रूलाया भी गया। यह मौका गणतंत्र दिवस का था, जिस दिन देश का संविधान लागू हुआ था, न कि जिस दिन देश आजाद हुआ था। लेकिन किसी भी राष्ट्रीय पर्व को युद्धोन्माद, देशभक्ति, और समर्पण से जोडऩे की जो संस्कृति पैर मजबूत जमा चुकी है, वहां हर मौके पर फौज और शहादत का महिमामंडन करने में लग जाती है। इसमें कोई दिक्कत नहीं है सिवाय इसके कि बहादुरी की कहानियों और आंसुओं के बीच एक रूखा-सूखा शब्द, संविधान, खो जाता है।
अगर निशाना टीआरपी न होता, दर्शक संख्या बढ़ाने की अर्नबी फिक्र न होती, तो शायद गणतंत्र दिवस पर अमल किए गए संविधान पर भी कुछ चर्चा हो सकती थी। लेकिन देश में आज न सिर्फ टीवी-मीडिया, बल्कि सत्ता के कब्जे की कमाल और संस्थाओं की नीयत संविधान को फर्श पर पड़े बाकी कचरे के साथ बुहारकर पड़ोसी के घर के सामने फेंक देने की रहे, तो फिर संविधान पर चर्चा ही क्यों छेड़ी जाए? फिर यह तो बहुत खतरनाक बवाल की बात है कि संविधान पर चर्चा होगी तो फिर यह भी बात होगी कि इस देश में वह किस कदर नाकामयाब हो चुका है, ताकतों ने उसे किस हद तक खारिज कर दिया है। नाकामयाबी की बातों से भी भला कहीं टीआरपी बढ़ती है? न चैनल की बढ़ती, न ही मुल्क की सरकार की। इसलिए यह कोई मासूम चूक नहीं थी कि संविधान लागू होने के दिन फिर तो झंडे से जोड़ा गया, डंडे से तोड़ा गया, सरहदों पर दुश्मन से खतरे से जोड़ा गया, लेकिन संविधान से नहीं जोड़ा गया। इस दिन को किसानों को बदनाम करने के लिए तो इस्तेमाल किया गया, लेकिन संविधान को श्रद्धांजलि देने के लिए नहीं किया गया। वोटों की मंडी में तिजारत करने वाले बड़े धूर्त होते हैं, और वे जानते हैं कि जलते-सुलगते मुद्दों को किस तरह किनारे धकेला जा सकता है। वे देशभक्ति के नाच-गाने से लेकर, बदन का कोई हिस्सा खो चुके किसी फौजी की बहादुरी तक का इस्तेमाल कर लेते हैं, लेकिन देश में कहां-कहां संविधान को कुचला जा रहा है, किन तबकों के संवैधानिक अधिकार छीने जा रहे हैं, उस तक कल्पना को नहीं आने दिया जाता।
जिन तबकों को संविधान ने कुचलने के सिवाय और कुछ नहीं किया है, उन तबकोंं को यह दिन नजरों से उसी तरह दूर रखना चाहता है जिस तरह अहमदाबाद के फुटपाथी बेघरों को दीवार बनाकर ट्रंप की नजरों से दूर रखा गया था, या जिस तरह देश के सबसे साफ शहर एमपी के इंदौर में बेघर-बेसहारा बुजुर्गों को म्युनिसिपल ने कचरा गाड़ी में लादकर शहर के बाहर फेंककर साफ शहर के बाशिंदों की नजरों से दूर कर दिया गया था। कुछ लोगों ने इंदौर में बेघर-बुजुर्ग नाम की गंदगी को हटाने के वीडियो बनाए, और जिन्हें देखकर देश के लोग हिल गए। लेकिन देश के लोगों के संवैधानिक अधिकारों की अनदेखी इस तरह कुछ मिनटों के वीडियो पर कैद नहीं हो सकती, इसलिए देशभक्ति के वीडियो का सैलाब स्टूडियो से शुरू होकर लालकिले तक बहता रहा।
लोकतंत्र में जब कुछ खास दिनों की अहमियत को पूरी तरह अनदेखा करके उनसे ठीक अलग किस्म के गैरमुद्दों की ओर लोगों को ध्यान खींच लिया जाए, तो वह उस दिन को कुचलने की साजिश की कामयाबी होती है। संविधान पर चर्चा आज भला कौन चाहते हैं? सत्ता पर बैठे लोग तो नहीं चाहते, और इसलिए देश में जनमत और जनधारणा बनाने की ताकत रखने वाली अधिकतर संस्थाएं भी नहीं चाहतीं, ताकतवर मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी नहीं चाहता। जब लोग चुनावों के ठीक पहले के बरसों में मुगलों की जुल्म की कहानियां बताने वाले टीवी सीरियल का वक्त मासूम समझते हैं, वे गणतंत्र दिवस पर देशभक्ति के सैलाब को भी मासूम समझ सकते हैं, या बता सकते हैं। गणतंत्र दिवस तो एक आजाद देश को आजाद हुए बरसों हो जाने के बाद उसके संविधान के लागू होने का दिन है, और आज उस संविधान की हत्या करते हुए भी इस दिन का जश्न महज आजादी पर फोकस रखना कोई मासूम काम नहीं है।
हिन्दुस्तान में एक भी टीवी चैनल ऐसा रहा हो तो हम उसके बारे में जरूर जानना चाहेंगे जिसने गणतंत्र दिवस पर अपनी बहस इस देश में संविधान की कामयाबी या नाकामयाबी पर केन्द्रित रखी हो। स्कूल-कॉलेज या किसी और दफ्तर में जहां कहीं झंडे के सामने भाषण हुए हों, क्या वहां पर कोई भी चर्चा देश के कमजोर तबकों के संवैधानिक अधिकारों पर हुई होगी? सच तो यह है कि संविधान लागू होने की सालगिरह के तुरंत बाद गांधी की हत्या का दिन आता है, और अब तो लोग यह भी भूल चले हैं कि गांधी की हत्या संविधान के तहत बने कानूनों के खिलाफ थी। अब तो देश में खुलेआम एक तबका इतना मुखर है कि उसे गांधी को कोसने और गोडसे को पूजने को छुपाने की जरूरत भी नहीं लगती है। ऐसा क्या गणतंत्र दिवस मनाना जो गोडसे की पूजा पर फिक्र के बिना पार हो जाए? किसी भी मौके की सालगिरह अगर उस मौके और वजह की अनदेखी करते हुए हो, तो उससे अच्छा है कि वह न ही हो। धूमिल ने शायद दशकों पहले इस नौबत का अंदाज लगा लिया था और लिखा था- क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है जिन्हें एक पहिया ढोता है, या इसका कोई खास मतलब होता है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान का एक सबसे बड़ा पाखंड कल शुरू होने के पहले ही खत्म हो गया। एक किस्म से अन्ना हजारे का किसानों के पक्ष में अनशन शुरू न होना किसानों के लिए अच्छा ही रहा। इस अनशन को समर्थन जुटता, उसे साथ मिलती, उसके बाद अन्ना हजारे इस साख को बेचकर निकल पड़ते तो किसानों के मुद्दे का बड़ा नुकसान होता। खादी की खाल ओढ़े हुए यह स्वघोषित गांधीवादी कल खुद ही उजागर हो गया जब उसने अपने कई हफ्तों पहले के घोषित कृषि कानूनों के खिलाफ अनशन को खुद होकर रद्द कर दिया। उन्होंने मोदी सरकार के तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ शनिवार से भूख हड़ताल की घोषणा की थी, लेकिन महाराष्ट्र के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता देवेन्द्र फडनवीस की मौजूदगी में उन्होंने इसे रद्द करने की घोषणा की। उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को 50 फीसदी तक बढ़ाने का फैसला लिया है इसलिए वे अपना अनशन वापिस ले रहे हैं।
देश को अच्छी तरह याद है कि कोई एक दशक पहले दिल्ली में अन्ना हजारे ने जन लोकपाल बनाने का एक आंदोलन छेड़ा था। उस वक्त केन्द्र में मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार का राज था। वह आंदोलन बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ाया गया, उसमें अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, और बाबा रामदेव सरीखे लोग शामिल हुए, और इस आंदोलन का कोई नतीजा निकले इसके पहले केजरीवाल राजनीति में आ गए, और दिल्ली में कांग्रेस सरकार के खिलाफ उन्होंने चुनाव लड़ा, और अपनी सरकार बनाई। बाबा रामदेव ने योग और आयुर्वेद का कारोबार बढ़ाते हुए साबुन तेल और टूथपेस्ट तक उसका विस्तार किया और विदेश के एक सबसे बड़े नवोदित कारोबारी बन गए। इसी आंदोलन में हाथ बंटाने के लिए कर्नाटक से निकलकर स्वघोषित श्रीश्री रविशंकर भी पहुंचे जो कि कर्नाटक में भाजपा के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के भयानक भ्रष्टाचार पर आंखें बंद किए हुए बैठे थे, लेकिन दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में वे लगातार जुटे रहे। यूपीए सरकार को भ्रष्ट साबित करते हुए अन्ना हजारे और उनकी टोली ने जो आंदोलन चलाया था, वह यूपीए के विसर्जन के साथ पूरा हो गया, और सत्ता पर आई मोदी सरकार ने पांच बरस तक उस लोकपाल का गठन नहीं किया जिसके बिना अन्ना हजारे सांस नहीं ले पा रहे थे। लेकिन अन्ना हजारे ने ऊफ भी नहीं किया।
हिन्दुस्तान में खादी एक सबसे बड़ा धोखा है। कहावतों में जिस तरह भेडिय़ा भेड़ की खाल ओढक़र हमले करता है और लोगों को शक नहीं होता, उसी तरह इस देश में सबसे बड़े जुर्म खादी पहनकर किए जाते हैं, और लोग ऐसे लोगों को गांधीवादी मानते हुए उनके जुर्म की कोई साजिश भी नहीं समझ पाते। अन्ना हजारे ऐसे ही एक धूर्त हैं जिन्हें चुनिंदा पार्टियों और नेताओं के भ्रष्टाचार पर हमला तो देश का सबसे जरूरी मुद्दा लगता है, लेकिन दूसरे लोगों के भ्रष्टाचार, दूसरी पार्टियों के भ्रष्टाचार, गैरआर्थिक भ्रष्टाचार और जुर्म से अन्ना हजारे को कोई शिकायत नहीं रहती। अपने आपको गांधीवादी कहते हुए यह आदमी जिस तरह खादी और गांधी टोपी के नकाब के पीछे से अपनी नीयत के काम करता है, उसकी शिनाख्त करने की ताकत हिन्दुस्तान की जनता में नहीं रह जाती। क्योंकि वह गांधी से परे आमतौर पर नहीं देख पाती। यही वजह है कि हिन्दुस्तान की राजनीति में कई किस्म की पार्टियां हैं, गांधी के कत्ल से सहमत पार्टियां भी हैं, लेकिन खादी पहनना इनमें से अधिकतर की मजबूरी हो जाती है क्योंकि हिन्दुस्तानी चेतना में खादी से परे कोई और पोशाक जनसेवक की हो नहीं सकती।
आज किसानों के मुद्दे गणतंत्र दिवस के पहले के मुकाबले अधिक मुखर हैं, केन्द्र सरकार के साथ किसानों का टकराव और बढ़ा हुआ है, अब आंदोलनकारी किसानों को मुल्क का गद्दार साबित करने की खुली कोशिश हो रही है, किसानों ने राजधानी के आसपास सडक़ों पर तमाम सर्द मौसम के महीने गुजारते हुए दर्जनों साथियों को खोया भी है, लेकिन ऐसे नाजुक मोड़ पर पहुंचे हुए किसानों का मुद्दा अगर इस पाखंडी अन्ना हजारे को सुलझा हुआ दिख रहा है, तो यह बहुत अच्छा हुआ कि इसका पाखंड इतनी जल्द खत्म हो गया। अगर यह किसानों का हमदर्द होकर कुछ और दूर तक उनके साथ चला होता, तो यह उन साख को चौपट कर जाता। लेकिन किसानों ने भी जिंदगी में बहुत से अच्छे काम किए होंगे जो इस बहुरूपिए से उनका छुटकारा पहले ही दिन हो गया।
हिन्दुस्तान में, और बाहर भी, एक कहावत चलती है कि हर चमकती हुई चीज सोना नहीं होती, हिन्दुस्तानी जनता को यह याद रखना चाहिए कि खादी की हर खाल के पीछे गांधीवाद समाजसेवक नहीं होते, इसके पीछे अन्ना हजारे जैसे भाड़े पर काम करने वाले लोगों की तरह के लोग भी होते हैं, जिनको भाड़ा पता नहीं किस शक्ल में दिया जाता है, लेकिन जो सरकार गिराने या किसी नेता को हराने की सुपारी लेते हैं। अब जैसा कि अन्ना हजारे ने खुद ही घोषणा की थी, यह उनके जीवन का आखिरी अनशन होने वाला था, अपनी जिंदगी के इस आखिरी नाटक का अन्ना हजारे पर्दा ही नहीं उठा पाए। लोगों को यह मनाना चाहिए कि यह खादी की खाल में जनआंदोलनों के नाम की साजिशों का एक अंत हो। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
यह तो अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने बाम्बे हाईकोर्ट के एक फैसले को रोक दिया है जिसमें वहां की एक महिला जज, जस्टिस पुष्पा गनेडीवाला ने एक बच्ची के साथ सेक्स की कोशिश कर रहे एक अधेड़-बुजुर्ग की सजा घटा दी थी कि जब तक सेक्स की नीयत से चमड़ी का चमड़ी से संपर्क न हो तब तक कपड़ों के ऊपर से बच्ची के सीने को दबोचना यौन शोषण के दर्जे में नहीं आता। खबर आने के कुछ घंटों के भीतर ही इसी जगह पर हमने लिखा था कि यह आदेश सुप्रीम कोर्ट को तुरंत खारिज करना चाहिए वरना इसकी मिसाल देश भर में बलात्कारी देने लगेंगे। यह तो अच्छा हुआ कि दो-चार दिन के भीतर ही सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी। लेकिन कुछ हफ्ते पहले का मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का एक दूसरा आदेश इसी तरह खबरों में आया था जिसमें जेल में बंद बलात्कार के एक आरोपी की जमानत के लिए जज ने शर्त रखी थी कि वह जाकर शिकायतकर्ता बलात्कार की शिकार से राखी बंधवाकर आए तब उसे जमानत मिलेगी। जजों का यह पूरा का पूरा सिलसिला ही इसलिए खतरनाक है कि यह हाईकोर्ट या उससे भी ऊपर की जजों को तानाशाह किस्म के अधिकार देता है, और जज बनने के लिए सामाजिक सरोकार, सामाजिक समझ इसकी अनिवार्यता नहीं रखता है।
दुनिया के सामने अदालतों और जजों को लेकर लोकतांत्रिक देशों में कई किस्म की मिसालें हैं, और देशों को एक-दूसरे से सीखना चाहिए। अमरीकी न्यायपालिका में सबसे बड़ी अदालत में अगर किसी जज की तैनाती होनी है, तो उससे वहां की संसद की कमेटी, या कमेटियां, लंबी पूछताछ करती हैं। यह सुनवाई सार्वजनिक होती है, और इसे बाकी लोग भी देख सकते हैं। जज बनने की कगार पर खड़े हुए लोगों से सांसद उनकी धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक सोच के बारे में लंबे सवाल-जवाब करते हैं, और उनकी जिंदगी के बारे में पता लगी किसी विवादास्पद बात के बारे में भी। जज बनने के पहले लोगों को अपना दिल-दिमाग सांसदों के सामने खोलकर रखना पड़ता है, वे गर्भपात जैसे विवादास्पद अमरीकी मुद्दे पर क्या सोचते हैं यह भी सामने रखना पड़ता है।
भारत में किसी का हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का जज बनना एक बड़ा रहस्यमय सिलसिला है। इस देश के सुप्रीम कोर्ट ने अपनी खुद की कॉलेजियम नाम की एक संस्था बना ली है जो निचली अदालतों के जजों, और बड़ी अदालतों के वकीलों में से हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज बनाने लायक नाम छांटती है। जिसके बाद ये नाम सरकार को भेजे जाते हैं, और सरकार इन नामों की छानबीन करके इनमें से कुछ को मंजूरी देती है, और कुछ नामों को ठोस आधार पर रोकती है। यह सिलसिला गोपनीय रहता है, और इसी नाते रहस्यमय भी रहता है। बीती कई सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के इस तानाशाह-एकाधिकार को तोडऩे की कोशिश भी की कि जज खुद ही जज नियुक्त न करें, और उसमें सरकार या संसद की भी भूमिका रहे। हम इसमें सरकार के दखल के तो हिमायती नहीं हैं क्योंकि भारत में आम समझ यह कहती है कि सरकार अदालत से अधिक भ्रष्ट है। लेकिन जजों की नियुक्ति न्यायपालिका का एकाधिकार रहे, यह बात भी ठीक नहीं है।
जिन दो फैसलों को लेकर हम आज इस मुद्दे पर लिख रहे हैं, वे दो फैसले महज नमूना हैं। वैसे और भी बहुत से मनमाने फैसले हैं, या जजों की कही गई ऐसी बातें हैं जो कि सामाजिक न्याय की उनकी बहुत कमजोर समझ का सुबूत भी हैं। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज बनाए जाने के पहले संसद की कमेटियां इनकी औपचारिक सुनवाई करें, और उनसे पूछे गए सवाल, उनके दिए गए जवाब रिकॉर्ड में लाए जाएं, उसके बाद ये दस्तावेज एक बार कॉलेजियम को भेजे जाएं, ताकि वह अपनी सिफारिशों पर फिर से गौर कर सके, और उसके बाद ही वे नाम सरकार को कमेटी की कार्रवाई के दस्तावेज सहित भेजे जाएं ताकि सरकार भी उन पर गौर करते हुए कमेटी की कार्रवाई को देख सके।
ऐसे किसी भी फेरबदल या सुधार के खिलाफ एक बड़ा तर्क खड़ा कर दिया जाता है कि देश के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों के सैकड़ों पद खाली पड़े हुए हैं, और उन्हें भरने में देर होने से मामलों के गट्ठे और बढ़ते चल रहे हैं। जजों की ये खाली कुर्सियां रातोंरात तो खाली हुई नहीं है, यह बरसों की लापरवाही और अनदेखी का नतीजा है। इन्हें भरते हुए कमजोर सामाजिक समझ के लोगों को जज बना देना कोई बहुत अच्छी बात भी नहीं रहेगी क्योंकि वैसे जज रिटायर होने तक बेइंसाफी करते रहेंगे। हमारी सलाह से यह पूरा सिलसिला कुछ महीने और लेट हो सकता है, लेकिन उससे बेहतर जज तैनात होंगे और देश में बेहतर इंसाफ होगा।
दिल्ली के लालकिले पर कुछ लोगों द्वारा किया गया हंगामा अब साफ होते चल रहा है, और गणतंत्र दिवस की शाम देश भर में फैलाई गई यह खबर पूरी तरह झूठी साबित हो चुकी है कि लालकिले पर तिरंगे झंडे को हटाकर उसकी जगह खालिस्तानी झंडा फहराया गया था, और यह काम किसानों ने किया था। अब यह जाहिर हो चुका है कि लालकिले पर सिक्ख पंथ का झंडा फहराने का फतवा भाजपा के प्रचारक रहे हुए एक पंजाबी फिल्म अभिनेता दीप सिद्धू ने दिया था, और तिरंगे झंडे को छुआ भी नहीं गया था। लेकिन इस साजिश के पीछे चाहे जिसकी बदनीयत रही हो, इसे अपना असर दिखा दिया, और किसान आंदोलन में फूट पड़ गई, वह कमजोर हो गया, कुछ संगठनों ने डेरा उठा लिया, और मौके की कमजोरी को भांपकर कुछ जगहों पर भाजपा की राज्य सरकारों ने आंदोलन खत्म करवाने के हिसाब से कार्रवाई शुरू कर दी। किसानों के एक मोर्चे पर बीती आधी रात से बिजली काट दी गई, और कुछ दूसरी जगहों पर दूसरी असुविधा खड़ी की गई। आज किसानों के बीच आपस में तू-तू-मैं-मैं शुरू हो गई कि लालकिले पर हुए हंगामे के बाद अब आंदोलन कैसे चलाया जाए?
हिन्दुस्तान में लंबे चलने वाले आंदोलनों को कमजोर करना सत्ता की पहली नीयत होती है। और यह बात किसी एक पार्टी की नहीं होती, बल्कि यहां जिसकी सरकार रहे, वहां उसकी यही नीयत होती है। पार्टियां तो आती-जाती रहती हैं लेकिन किसी भी सरकार में जो हमेशा बने रहते हैं वो अफसर रहते हैं। अफसरों का लोकतंत्र से वैसे भी बहुत कम लेना-देना होता है, और आमतौर पर वे सत्तारूढ़ पार्टी के वफादार बने रहते हैं, और इस नाते भी वे सरकार के लिए दिक्कत बने हुए किसी भी आंदोलन के खिलाफ रहते हैं। नेताओं के मुकाबले अफसरों को यह हुनर कुछ अधिक हासिल रहता है कि आंदोलन को कैसे तोड़ा जाए। सत्ता पर बैठे नेता अपनी खूबियों का इस्तेमाल करते हुए, और अफसर अपने तजुर्बे का इस्तेमाल करते हुए आंदोलन तुड़वाने में लगे रहते हैं, और आमतौर पर कामयाब भी होते हैं। फिर इस बार तो आंदोलनकारी किसानों के इतने सारे अलग-अलग संगठन एक ढीला-ढाला ढांचा बनाकर चल रहे थे जो कि अपने आपमेें बहुत मजबूत नहीं था। इन किसानों का आंदोलनों का लंबा इतिहास भी नहीं था, और न ही ये किसी संगठित मजदूर संगठन या राजनीतिक दल के मातहत थे। इनके बीच सिक्ख पंथ को सब कुछ मानने वाले कट्टर धार्मिक लोग भी थे, और लाल झंडे वाले कम्युनिस्ट नेता भी थे। परस्पर वैचारिक असहमति के बावजूद ये महीनों से कामयाबी सहित आंदोलन को चला रहे थे कि गणतंत्र दिवस पर टै्रक्टर रैली राह से भटक गई, या भटका दी गई, और लालकिले पर झंडे-डंडे लेकर एक फतवेबाज नेता की अगुवाई में यह आंदोलन, या इसके नाम पर साजिश कर रहे कुछ लोग टूट पड़े, और लालकिले को खबरों में ले आए। यह एक और बात है कि लालकिले पर हंगामे का जो सबसे बड़ा खलनायक रहा वह भाजपा के फिल्मी, और गैरफिल्मी नायकों के साथ अपनी तस्वीरें फैलने का मजा ले रहा है, और किसान नेताओं को सार्वजनिक रूप से धमका रहा है, लालकिले पर हमले या हंगामे का लीडर खुद होने का दावा भी खुद ही कर रहा है।
किसान आंदोलन को हिंसक और मुल्क का गद्दार साबित करने की जो मीडिया-मुहिम गणतंत्र दिवस के नाजुक मौके पर शुरू हुई, तो वह अब तक जारी है, और वे तमाम लोग जो अपनी हर किस्म की कमीनगी के साथ भागकर तिरंगे झंडे के पीछे छुपते आए हैं, आज तिरंगे झंडे के सबसे बड़े हमदर्द हो गए हैं, और उनकी भावनाएं इस तरह उबल रही है कि लालकिले के पत्थर गारे से नहीं जोड़े गए, इन्हीं लोगों के लहू से जोड़े गए थे। ऐसा करते हुए देश के झंडे के झूठे अपमान से लेकर सिक्ख पंथ के झंडे को खालिस्तानी झंडा बताने के सच्चे अपमान तक सब कुछ किया जा रहा है। यह सिलसिला एक आंदोलन को ऐसे बूटों से कुचलने का है जो कि दिख भी नहीं रहे हैं।
सैकड़ों मील के इलाकों में बिखरे हुए इस आंदोलन को राजधानी में बैठी सत्ता ने घेरकर मारा दिखता है। राजधानी उनका अपना इलाका है, वहां की पुलिस केन्द्र सरकार की अपनी है, और संगीनों के साए में रहने वाला लालकिला भी उनकी ही अपनी हिफाजत में था। ट्रैक्टरों को कहां रोका गया, और कहां से आगे बढऩे दिया गया, यह सब भी दिल्ली की पुलिस के हाथ था। इसलिए किसानों की इस तोहमत की जांच भी जरूरी है कि रैली के लिए जो सडक़ें तय की गई थीं, उन पर बैरियर लगे थे, और जिन सडक़ों पर नहीं जाना था, उन सडक़ों को खोलकर रखा गया था। अगर सच में ही ऐसा हुआ है, तो इसमें कुछ भी अविश्वसनीय नहीं है क्योंकि सत्ता का मिजाज किसी भी देश-प्रदेश में ऐसा ही होता है। नेताओं का भी, और अफसरों का भी।
हाल ही के बरसों में इस देश में जेएनयू से लेकर जामिया मिलिया तक, और शाहीन बाग तक बहुत से आंदोलनों की ऐसी भ्रूण हत्या देखी है। केन्द्र सरकार के खिलाफ यह एक सबसे मजबूत आंदोलन खड़ा हुआ था, और किसानों की दर्जनों शहादत के बाद भी डटा हुआ था। इसे खत्म करवाने के लिए लालकिले और तिरंगे झंडे का गणतंत्र दिवस पर जैसा इस्तेमाल किया गया है, वह बहुत ही खतरनाक तरीका रहा है, उसने देश के अमन-पसंद लोगों के हौसले को तोड़ दिया है। दिक्कत यह है कि लालकिले पर ऐसे हमले या हंगामे का खलनायक आज भी पूरे किसान आंदोलन को खुली सार्वजनिक धमकी देते हुए खुला घूम रहा है, और यह जाहिर भी है कि उसके ऐसा करने के पीछे ठोस वजहें हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली में कल गणतंत्र दिवस के मौके पर लाल किले पर जो अभूतपूर्व बल प्रदर्शन हुआ है उसने देश के एक सबसे मजबूत आंदोलन, किसान आंदोलन को कमजोर करने का काम किया है। यह समझने की जरूरत है कि सिख पंथ के झंडे को लाल किले के एक खंबे या किसी गुंबद पर फहरा कर किसका भला किया गया है? यह बहुत मासूम बल प्रदर्शन नहीं था। किसान तो महीनों से सबसे सर्द मौसम को खुले में झेलते हुए अपना आंदोलन चलाए हुए थे। गणतंत्र दिवस के मौके पर वह देश की राजधानी में एक ट्रैक्टर रैली निकालकर किसानों की ताकत का प्रदर्शन करना चाहते थे जो कि किसी भी लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण आंदोलन के प्रतीकात्मक तरीकों जैसा ही एक तरीका था। लेकिन ऐसे में किसानों के मोटे तौर पर शांत रहते हुए भी उनके बीच के कुछ लोग एक गैर किसान नेता की अगुवाई में जिस तरह लाल किले पर पहुंचे और वहां उन्होंने सिख पंथ का झंडा फहराया उससे देशभर में किसानों को धिक्कारने का दौर शुरू हो गया। यह समझने की जरूरत है कि बिना किसी हिंसा के जो किसान महीनों से सडक़ों पर बैठे हुए हैं और जिनमें से दर्जनों किसानों की शहादत इस आंदोलन में अब तक हो चुकी है, कल उनमें से कुछ लोग एकाएक ऐसे बल प्रदर्शन पर क्यों उतारू हो गए?
यह एक खुला तथ्य है कि कल लाल किले पर जो बल प्रदर्शन किया गया वह भाजपा से जुड़े हुए पंजाबी फिल्मों के एक अभिनेता की अगुवाई में हुआ और उसने कल शाम फेसबुक पर एक वीडियो पोस्ट करके लाल किले की कार्रवाई का जिम्मा भी लिया। दीप सिद्धू नाम का यह पंजाबी अभिनेता भाजपा के नेताओं से जुड़ा हुआ है, वह पिछले महीनों में कई बार ऐसी कोशिश कर चुका है कि उसे किसान आंदोलन में घुसपैठ करने मिले। किसानों ने औपचारिक रूप से दीप सिद्धू के दाखिले को रोका, उसे बार-बार कहा कि किसान आंदोलन में उसकी कोई जगह नहीं है। कल ट्रैक्टर रैली के चलते हुए वह एक पीछे के दरवाजे से इस आंदोलन में दाखिल हुआ, लाल किले पर हुई कार्रवाई की अगुवाई की, अपने खुद के वीडियो बनाए, सेल्फी ली, और उन्हें पोस्ट किया।
किसानों का जो आंदोलन महीनों से शांतिपूर्ण चल रहा था उसके बारे में कल मीडिया के एक हिस्से से लेकर सोशल मीडिया तक फर्जी तस्वीरों के साथ ऐसी जानकारी फैलाई गई कि किसानों ने लाल किले से तिरंगा झंडा निकालकर फेंक दिया और खालिस्तानी झंडा फहरा दिया। यह बात गणतंत्र दिवस के दिन लोगों को भडक़ाने के लिए काफी थी। दिक्कत यह थी कि अफवाहों की कुछ घंटों की जिंदगी के बाद यह सच सामने आना ही था कि तिरंगे झंडे को किसी ने छुआ नहीं था, और ना ही कोई खालिस्तानी झंडा लाल किले पर फहराया गया था। आंदोलनकारी किसानों के बीच कम्युनिस्टों के लाल झंडे से लेकर सिख पंथ के निशान साहब वाले झंडों की जगह बनी हुई थी, और उनमें से ही निशान साहब वाले सिख पंथ के कुछ झंडे कल लाल किले के कुछ खंभों पर, और कुछ गुंबद ऊपर फहराए गए। यह बात जब तक साफ हो पाती कि तिरंगे झंडे का किसी ने अपमान नहीं किया, और ना ही कोई खालिस्तानी झंडा फहराया गया, तब तक तो देश के लोगों ने किसान आंदोलन को ही धिक्कारना शुरू कर दिया था।
यह बात समझने की दिमागी हालत देश के लोगों की बची नहीं है कि जो आंदोलनकारी लाल किले तक पहुंचे भी थे उनमें से भी बहुत से लोग देश का तिरंगा झंडा न सिर्फ लहरा रहे थे बल्कि वे अपने बदन पर भी तिरंगे झंडे को लपेट कर रखे हुए थे। हिंदुस्तान में शक्ति प्रदर्शन का इतिहास नया नहीं है। 1996 में जब बाबरी मस्जिद को गिराया गया तब वह सोची-समझी साजिश थी, और उसके नेता सामने एक मंच पर इक_े होकर खुशियां मनाते हुए यह काम कर रहे थे। इसके बाद कई ऐसे मौके आए जब लोगों ने इस किस्म का बल प्रदर्शन किया। राजस्थान में एक मुस्लिम मजदूर को जिंदा जलाने वाले एक घोर सांप्रदायिक हत्यारे हिंदू को बचाने के लिए उदयपुर की जिला अदालत पर हिंसक लोगों की भीड़ ने हमला किया था और अदालत पर भगवा झंडा फहरा दिया था। देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को, कानून को चुनौती देते हुए जब भी कानून के राज को चुनौती दी जाती है तो वह कई दूसरी शक्लों में, कई दूसरी जगहों पर भी सामने आती है। लेकिन किसानों के महीनों से चले आ रहे शांतिपूर्ण आंदोलन को बदनाम करने के लिए उसे हिंसक, देशद्रोही बताने के लिए जो अभियान कल दोपहर शाम से ही शुरू हो गया है, वह भयानक है। देश के तिरंगे झंडे को निकालकर फेंक देने की अफवाह को जिस तरीके से फैलाया गया उससे यह जाहिर है कि यह हमला, यह शक्ति प्रदर्शन बहुत मासूम नहीं था। इसके पीछे इस आंदोलन को खत्म करने की एक साजिश भी थी। जिस दीप सिद्धू नाम के पंजाबी अभिनेता ने कल के इस हमले की अगुवाई की और दावा भी किया वह दीप सिद्धू लोकसभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवार सनी देओल का चुनाव एजेंट था और सनी देओल के साथ प्रधानमंत्री से उसकी मुलाकात की तस्वीरें कल से सामने आई है। इन तमाम बातों को अलग करके देखना मुमकिन नहीं है। किसानों के इस आंदोलन को हरियाणा सरकार के मंत्री कभी पाकिस्तानी बता रहे थे तो कभी चीनी, और खालिस्तानी तो बताया ही जा रहा था। यह सिलसिला भी जब किसानों को नहीं तोड़ पाया तो कल के उनके प्रतीकात्मक आंदोलन, ट्रैक्टर रैली बदनाम करने के लिए लाल किले पर यह हमला हुआ, और उसे देश के गौरव के प्रतीक तिरंगे झंडे से जोडक़र किसानों को बदनाम करने की एक और कोशिश हुई। आज केंद्र सरकार पर दिल्ली पुलिस की जिम्मेदारी भी है, वह केंद्र सरकार के मातहत ही काम करती है कम ऐसे में भाजपा से जुड़े एक नेता ने जब कल लाल किले पर हमले की जिम्मेदारी ली है, तो यह केंद्र सरकार का जिम्मा बनता है कि वह इस पर कार्रवाई करें। किसानों का यह आंदोलन ऐतिहासिक है, और इसे शांतिपूर्ण तरीके से जारी रहने देना चाहिए।
बाम्बे हाईकोर्ट का एक बहुत ही गलत फैसला आज सामने आया है जिसमें जिला अदालत द्वारा एक 12 बरस की नाबालिग के यौन शोषण के आरोपी की सजा को हाईकोर्ट ने पलट दिया है। हाईकोर्ट का तर्क है कि किसी लडक़ी के सीने को जबर्दस्ती छू लेने को ही यौन उत्पीडऩ नहीं कहा जा सकता। बाम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की जज पुष्पा गनेडीवाला ने लिखा है- सिर्फ वक्ष स्थल को जबरन छूना मात्र यौन उत्पीडऩ नहीं माना जाएगा इसके लिए यौन मंशा के साथ स्किन टू स्किन संपर्क होना जरूरी है। जिला अदालत ने इस आदमी को लालच देकर 12 बरस की लडक़ी को अपने घर बुलाने, और जबरन उसके सीने को छूने और उसके कपड़े उतारने की कोशिश का गुनहगार माना था और उसे धारा 354 के तहत एक साल की, और पॉस्को एक्ट के तहत तीन साल की कैद की सजा सुनाई थी, लेकिन हाईकोर्ट के फैसले के बाद तीन साल की सजा बेअसर हो गई है।
हाईकोर्ट का यह फैसला अगर कानून के पॉस्को एक्ट के शब्दों की सीमाओं में कैद है, तो यह शब्दों का गलत मतलब निकालना है। जितने खुलासे से इस मामले के यौन शोषण की जानकारी लिखी गई है, वह मंशा भी दिखाने के लिए काफी है, और बच्ची तो नाबालिग है ही इसलिए पॉस्को एक्ट भी लागू होता है। एक महिला जज का यह फैसला और हैरान करता है कि क्या यह कानून सचमुच ही इतना खराब लिखा गया है? और अगर कानून इतना खराब है तो उसे बदलने और खारिज करने की जरूरत है। फिलहाल तो कानून के जानकार लोग हाईकोर्ट के इस फैसले को पूरी तरह से गलत मान रहे हैं, और सुझा रहे हैं कि इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जानी चाहिए। कानून के एक जानकार ने कहा है कि पॉस्को एक्ट में कहीं भी कपड़े उतारने पर ही जुर्म मानने जैसी बात नहीं लिखी गई है, यह हाईकोर्ट ने अपनी तरफ से तर्क दिया है।
अब सवाल यह है कि कई बरस मुकदमेबाजी के बाद तो जिला अदालत से सजा मिलती है, वह अगर कई बरस चलने के बाद हाईकोर्ट से इस तरह खारिज हो जाए तो सुप्रीम कोर्ट में जाने और कितने बरस लगेंगे। ऐसी ही अदालती बेरूखी, और उसके भी पहले पुलिस की गैरजिम्मेदारी रहती है जिसके चलते शोषण की शिकार लड़कियां और महिलाएं कोई कार्रवाई न होने पर खुदकुशी करती हैं। बाम्बे हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सोशल मीडिया पर आज खूब जमकर लिखा जा रहा है, और लिखा भी जाना चाहिए। एक विकसित राज्य के हाईकोर्ट की महिला जज अगर यौन शोषण की शिकार एक लडक़ी के हक के बारे में सोचने के बजाय ऐसे दकियानूसी तरीके से बलात्कारी या यौन शोषण करने वाले के पक्ष में कानूनी प्रावधान की गलत व्याख्या कर रही है, तो निचली अदालत के जजों से क्या उम्मीद की जा सकती है?
बाम्बे हाईकोर्ट का यह फैसला इस मायने में भी बहुत खराब है कि जज उस आदमी का पॉस्को एक्ट के तहत गुनाह नहीं देख रही है जो कि एक नाबालिग बच्ची को बरगला कर घर ले गया, और कपड़ों के ऊपर से उसका सीना थाम रहा है, उसके कपड़े उतारने की कोशिश कर रहा है। अगर यह सब कुछ यौन उत्पीडऩ की श्रेणी में नहीं आता, तो फिर यौन उत्पीडऩ और होता क्या है? हाईकोर्ट की महिला जज ने इस एक्ट के तहत शरीर से शरीर के सीधे संपर्क की जो अनिवार्यता बताई है, उसे कानून के जानकारों ने खारिज किया है कि पॉस्को एक्ट में ऐसी कोई शर्त नहीं है। हमारा तो यह मानना है कि अगर एक्ट में ऐसी कोई नाजायज शर्त होती भी, तो भी हाईकोर्ट जज को उसकी व्याख्या करके उसके खिलाफ लिखने का हक हासिल है, लेकिन इस जज ने ऐसा कुछ भी नहीं किया।
हिन्दुस्तान में एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि लड़कियों और महिलाओं की शिकायत को, बच्चों की शिकायत को भरोसेमंद नहीं माना जाता, और उन्हें आसानी से खारिज कर दिया जाता है। हाईकोर्ट के इस फैसले के तहत अगर किसी बच्चे का यौन शोषण कपड़ों के ऊपर से हो रहा है, तो उसके खिलाफ कानून लागू ही नहीं होता। यह बच्चों का यौन शोषण करने वालों का हौसला बढ़ाने वाला फैसला है, और देश भर की अदालतों में जहां-जहां पॉस्को एक्ट के तहत ऐसी हालत वाले मामले रहेंगे, वहां-वहां इस फैसले का बेजा इस्तेमाल किया जाएगा। इसलिए इस फैसले के खिलाफ तुरंत ही सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी चाहिए, और सुप्रीम कोर्ट को इसे तुरंत सुनवाई के लिए लेना चाहिए इसके पहले कि देश भर के इस किस्म की बलात्कारी अपनी सुनवाई में इसका फायदा उठा सकें।
सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में फैसला देते हुए ऐसी सोच रखने वाली महिला जज को इस किस्म के अगले मामलों से परे भी रखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में डीजल करीब 90 रूपए लीटर तक पहुंच रहा है, और पेट्रोल कुछ जगहों पर 95 रूपए लीटर पार चुका है। राजस्थान के एक जिले में 97.23 रूपए लीटर का रेट पेट्रोल का हो गया है। एक खबर के मुताबिक प्रीमियम पेट्रोल की कीमत 100 रूपए पार हो चुकी है। दुनिया में कच्चे तेल की कीमत जब मिट्टी में भी मिली हुई थी, तब भी मोदी सरकार ने पिछले बरसों में लगातार तरह-तरह के टैक्स और ड्यूटी लगाकर पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान पर रखे, और उसका एक जुबानी तर्क यह है कि देश में सरकार को कई तरह के कामों के लिए रकम की जरूरत होती है, और अगर ऐसी टैक्स वसूली न हुई तो खर्च कहां से किया जा सकेगा। अब डीजल-पेट्रोल या रसोई गैस के दामों को लेकर बहुत बड़ा मुद्दा भी नहीं बनता है क्योंकि लोगों को यह मालूम है कि किसी तरह के विरोध का केन्द्र सरकार पर कोई असर नहीं होता है।
अब थोड़ी देर के लिए ईंधन की महंगाई के मुद्दे को छोड़ दें, और यह मान लें कि बीते छह बरसों की तरह अगले चार बरस भी मोदी सरकार इसी तरह पेट्रोल-डीजल से, रसोई गैस से, लोगों को निचोडऩा जारी रखेगी, तो भी सवाल यह उठता है कि इलाज क्या है?
आज हिन्दुस्तान में शहरी आबादी का एक बड़ा हिस्सा निजी गाडिय़ों पर चलता है। दोपहिए, चौपहिए सडक़ों पर पटे हुए हैं, दिन में शहर के व्यस्त इलाकों में पार्किंग की जगह नहीं रहती, और रात में रिहायशी इलाकों में एक-एक इंच पार्किंग भरी रहती है, सडक़ों के किनारे लबालब रहते हैं। फिर इस मंदी के बीच भी जो बाजार रौनक रहा, वह नई गाडिय़ों का है, और सडक़ों के किनारे पुरानी गाडिय़ों के बाजार भी लगे हुए हैं। कुल मिलाकर निजी गाडिय़ों की मोहताज रहने की लोगों की बेबसी घटना तो दूर, बढऩे में बढ़ोत्तरी भी घटती नहीं दिखती है। हर दिन राज्य सरकारों को नई गाडिय़ों के रजिस्ट्रेशन से भी खासा पैसा मिलता है, और पुरानी गाडिय़ों की दुबारा बिक्री से भी।
हिन्दुस्तान में कुछेक महानगरों को छोड़ दें, और उनसे थोड़े छोटे उपमहानगरों को छोड़ दें, तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट का ढांचा बहुत ही कमजोर है। यह एक अलग बात है कि मुम्बई की लोकल, दिल्ली की मेट्रो, कोलकाता और दूसरे शहरों की तरह-तरह की मेट्रो न होती तो आज उन पर जो भीड़ दिख रही है, वह पता नहीं कैसे लोकल सफर करती। अब हिन्दुस्तान में बहुत से राज्यों में राज्य सरकारें अपनी बसें चलाना बंद कर चुकी हैं, और यह काम निजी बस कंपनियों के लायक मान लिया गया है। कुछ ऐसा ही हाल शहरों के भीतर भी बस चलाने को लेकर हुआ है, और सरकारों ने एक योजनाबद्ध तरीके से शहरी यातायात की दिक्कत को सुलझाने का जिम्मा छोड़ दिया है। देश के दो दर्जन शहरों में एक-दो प्रमुख रास्तों पर मेट्रो बनाई गई हैं, लेकिन जब तक शहर के बाकी हिस्सों से इन मेट्रो स्टेशनों को जोडऩे का काम नहीं हो पाएगा, तब तक लोग निजी गाडिय़ों पर आश्रित रहेंगे ही। इसलिए अकेली मेट्रो से कुछ नहीं होना है, वहां से आगे लोगों को अपने घर-दफ्तर, या काम की जगह पर जाने के लिए जब तक सुविधाजनक इंतजाम नहीं मिलेगा, तब तक तमाम लोग मेट्रो पर ही निर्भर नहीं हो सकेंगे। कुछ लोग उस पर चलेंगे, और बाकी लोग अपनी निजी गाडिय़ों से चलेंगे।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर जैसे बहुत से ऐसे शहर हैं जहां अभी मेट्रो के बारे में सोचा भी नहीं गया है। यह नया राज्य बने 20 बरस हो गए हैं, और मौजूदा सरकार को आए भी दो बरस हो चुके हैं। लेकिन इन 20 बरसों में भी राजधानी के शहरी यातायात के बारे में कुछ सोचा भी नहीं गया। राजधानी में कुछ सडक़ें तो बनी हैं, लेकिन मेट्रो या शहरी बसों का कोई इंतजाम नहीं किया गया। गिने-चुने रास्तों पर गिनी-चुनी बसें चलती हैं, जिन पर कोई निर्भर नहीं रह सकते। नतीजा यह होता है कि हिन्दुस्तान के आम शहर की तरह इस शहर में भी निजी गाडिय़ां बढ़ते चल रही हैं, और उनका इस्तेमाल भी बढ़ते चल रहा है। जब इसे पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमतों से जोडक़र देखें, तो नौबत और भयानक दिखती है कि गरीब लोगों की कमाई का खासा हिस्सा पेट्रोल पर खर्च हो जा रहा है। अभी तक हमने पेट्रोल-डीजल के दाम और शहरी जिंदगी की मुश्किल को पर्यावरण के साथ जोडक़र चर्चा नहीं की है, जबकि हकीकत यह है कि निजी गाडिय़ों की भीड़ से इतना अधिक ईंधन जलता है कि वह धरती के शहरी हिस्सों का दम घोंट देता है। आज हिन्दुस्तानी शहरों को जरूरत है पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बहुत तेजी से बढ़ाने की। इसके लिए कहीं मेट्रो, कहीं फ्लाईओवर बनाना होगा, तो कहीं बसों का जाल बिछाना होगा। इस काम को सरकार या स्थानीय म्युनिसिपल के अलावा और कोई नहीं कर सकते। सडक़ों पर जिनका एकाधिकार है, जिम्मेदारी भी उन्हीं की है। जनता का पैसा और वक्त, सेहत और पर्यावरण, इन सबको इस रफ्तार से बर्बाद करना जारी रखना ठीक नहीं है। नौबत वैसे भी भयानक हो चुकी है, और अगले 25-50 बरस की जरूरतों को देखते हुए अगर अभी से योजना बनाकर अमल शुरू नहीं होगा, तो बहुत देर हो चुकी होगी। पर्यावरण के मुद्दे पर किसी की लिखी यह बात याद आती है कि इस अर्थ (धरती) की ऐसी ही अनदेखी की गई तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा। यही बात गरीबों और मध्यम वर्ग के लोगों की जेब पर भी लागू होती है, और शहरों में बसे लोगों के फेंफड़ों पर भी। यह राज्य सरकारों और स्थानीय म्युनिसिपलों का जिम्मा है कि वे अपने शहरों में सार्वजनिक परिवहन को अधिक से अधिक बढ़ाएं ताकि वहां के लोगों की जिंदगी भी बेहतर हो, और वहां पर कारोबार भी बढ़ सके। दुनिया के सभ्य और जिम्मेदार देशों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट को लोगों की जरूरत से अधिक धरती के पर्यावरण की जरूरत मानकर खासे घाटे में चलाया जाता है, या मुफ्त में भी चलाया जाता है ताकि लोग निजी गाडिय़ों का कम से कम इस्तेमाल करें। हिन्दुस्तान में इसे सिर्फ, और सिर्फ नफे-नुकसान से जोडक़र देखा जाता है, और धरती की अपनी कोई आवाज तो है नहीं कि वह अपने नुकसान के आंकड़े भी गिना सके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज जब देश भर में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती मनाई जा रही है, तब बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने एक नया मुद्दा उठाया है कि इतने बड़े हिन्दुस्तान में सिर्फ एक ही राजधानी क्यों होनी चाहिए? उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने पूरे देश पर कोलकाता से राज किया था, और आज भारत में चार राजधानियां रहनी चाहिए, सब कुछ दिल्ली में ही क्यों हो?
यह बड़ा दिलचस्प मुद्दा है, और यह बहुत मौलिक भी नहीं है। पिछले कई दशकों में कई बार यह बात उठी कि देश की एक उपराजधानी भी होनी चाहिए ताकि दिल्ली शहर पर से राजधानी होने का बोझ घट सके, और कुछ दूसरे प्रदेशों को भी देश की राजधानी के आसपास का कोई महत्व मिल सके। यह भी बात कुछ लोगों ने पहले की हुई है कि केन्द्र सरकार के सारे दफ्तर, और सारे आयोगों के दफ्तर दिल्ली में ही क्यों हों? एक वक्त जब दिल्ली में कांग्रेस की सरकार थी, और माधव राव सिंधिया इतने ताकतवर थे कि वे अपने दम पर मोतीलाल वोरा को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनवा चुके थे, तब भी यह बात छिड़ी थी कि दिल्ली के करीब ग्वालियर को उपराजधानी बनाया जाए ताकि दिल्ली से भीड़ घट सके।
दुनिया में कुछ देश ऐसे हैं भी जहां पर देश का सरकारी और अदालती काम अलग-अलग शहरों में बंट जाता है। दक्षिण अफ्रीका में वहां की अघोषित कारोबारी राजधानी एक शहर में है, सरकारी राजधानी एक दूसरे शहर में है, और वहां की संसद एक तीसरे शहर में बैठती है। हिन्दुस्तान में अभी जब राजधानी दिल्ली में नई संसद और केन्द्र सरकार की नई इमारतें 20 हजार करोड़ की लागत से बनने जा रही हैं, तो यह मौका देश को एक संतुलित व्यवस्था देने का भी हो सकता था, लेकिन ममता बैनर्जी की यह बात कुछ देर से आई है। ऐसा भी नहीं था कि केन्द्र सरकार ममता बैनर्जी की बात का कोई बहुत अधिक सम्मान करती, और पश्चिम बंगाल या कोलकाता को कुछ दफ्तर मिल जाते।
आज दिल्ली शहर, और उसके आसपास का एनसीआर कहा जाने वाला राजधानी क्षेत्र जिस तरह के ट्रैफिक जाम और वायु प्रदूषण का शिकार है, उसमें कोई भी कल्पनाशील केन्द्र सरकार पूरे देश को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग प्रदेशों में कुछ दफ्तरों को भेज सकती थी। आज दिल्ली में केन्द्र सरकार भी है, सुप्रीम कोर्ट भी है, दुनिया के बाकी तमाम देशों के दूतावास और उच्चायोग भी वहीं पर हैं। लेकिन इसके साथ-साथ देश का हर आयोग दिल्ली में है, केन्द्र सरकार से जुड़े तमाम संगठनों के दफ्तर वहीं पर हैं, सेना के मुख्यालय, पैरामिलिट्री के मुख्यालय जैसे सैकड़ों दफ्तर दिल्ली में ही हैं। इन सबका एक साथ रहना जरूरी नहीं है। राज्यों में बहुत सी जगहों पर प्रदेश की राजधानी एक शहर में रहती हैं, और वहां का हाईकोर्ट दूसरे शहर में। राज्य सरकारों के भी बहुत से प्रदेश स्तर के दफ्तर राजधानी से परे दूसरे शहरों में रहते हैं। यह बात केन्द्र सरकार के साथ भी हो सकती है। इससे देश के दूसरे हिस्सों में भी विकास हो सकेगा, केन्द्र सरकार की तरफ से अलग-अलग राज्यों को महत्व भी मिल सकेगा, और देश की राजधानी दिल्ली में लोग जिंदा भी रह सकेंगे। एक मामूली सी लिस्ट बनाई जाए तो भी केन्द्र सरकार के सैकड़ों ऐसे दफ्तर हैं जो लाखों कर्मचारियों के साथ अलग-अलग राज्यों में भेजे जा सकते हैं, और उनसे भारत की एकता को मजबूती ही मिलेगी। पिछले एक बरस में हिन्दुस्तान की सरकारों ने ऑनलाईन काम करने से भी आगे बढक़र घरों से ऑनलाईन काम किया है, खुद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने शायद अपने गृहनगर नागपुर से वीडियो कांफ्रेंस पर काम किया है, और लोगों का सशरीर किसी एक इमारत में बैठकर काम करना जरूरी नहीं रह गया है। ऐसे में देश के करीब ढाई दर्जन राज्यों में कई दफ्तरों को भेजा जा सकता है, और देश की राजधानी चाहे दिल्ली में बनी रहे, लेकिन राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों का महत्व अलग-अलग राज्यों को मिल सकता है।
ममता बैनर्जी ने चाहे जो बात की हो, लेकिन देश के शहरी विकास के विशेषज्ञों को इस बारे में जरूर सोचना चाहिए कि किस तरह दिल्ली पर हावी राष्ट्रीय स्तर के बोझ को घटाया जा सकता है, और बाकी राज्यों को राष्ट्रीय कामकाज के साथ जोड़ा जा सकता है। इसके लिए अधिकतर राज्य मुफ्त में जमीन देने को भी तैयार हो जाएंगे, और केन्द्र सरकार, उसके संगठन, देश के आयोग, ट्रिब्यूनल धीरे-धीरे अलग-अलग राज्यों में अपने ढांचे खड़े कर सकते हैं। अगर केन्द्र सरकार कल्पनाशीलता दिखाए तो यह भी हो सकता है कि दिल्ली में सरकार और ऐसे राष्ट्रीय स्तर के संगठनों की मौजूदा जमीन में से कुछ जमीनों को बेचकर भी अलग-अलग राज्यों में ढांचे खड़े करने का काम किया जा सके।
आज भी हिन्दुस्तान का शेयर बाजार देश की राजधानी में नहीं, बल्कि मुंबई में है। और शेयर बाजार का पूरा कामकाज देखें तो आज उसका 99 फीसदी काम तो ऑनलाईन ही होता है, और पूंजीनिवेशक या शेयर ब्रोकर किस शहर में है उससे क्या फर्क पड़ता है? सरकार से लेकर अदालतों तक, और कारोबार से लेकर आयोगों तक का काम ऑनलाईन चल रहा है, देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति राजधानी से बाहर निकले बिना महीनों से सरकार और देश चला ही रहे हैं। अलग-अलग राज्यों को भी केन्द्र सरकार के सामने अपने दावे पेश करने चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर के कौन से संस्थान उनके प्रदेश मेंं आएं, और ऐसा होने पर उन प्रदेशों में देश भर से लोगों की आवाजाही भी बढ़ेगी। आज दिल्ली ने जिस तरह राष्ट्रीय स्तर की तकरीबन हर चीज पर अपना एकाधिकार कब्जा बना रखा है, उससे दिल्ली में जीना मुश्किल हो चुका है। यह सही वक्त है कि केन्द्र और राज्य मिलकर राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों और दफ्तरों का नया डेरा तय करें, उसके लिए जमीन जुटाएं, और आने वाले बरसों में इन तमाम राज्यों में निर्माण कार्य बढ़ सकें, हवाई आवाजाही का ढांचा विकसित हो सके, और दिल्ली एक बार फिर बेहतर शहर बन सके। यह कल्पना देश के अलग-अलग हिस्सों को एक-दूसरे से भावनात्मक और भौतिक रूप से बेहतर तरीके से अधिक दूरी तक बांधकर भी रख सकेगी, और हर राज्य में इससे दसियों हजार रोजगार खड़े हो सकेंगे। देश के शहरी नियोजकों को इस बारे में सोचना चाहिए कि दिल्ली से किस तरह केन्द्र सरकार से जुड़े संगठनों के दफ्तरों की बाकी राज्यों की तरफ रवानगी हो सकती है, उसकी लागत कैसे निकल सकती है, और कैसे ऐसे किसी योजना पर अमल के साथ-साथ उसके लिए जरूरी हवाई सेवा जैसे ढांचे विकसित हो सकते हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कांग्रेस की सर्वोच्च अधिकार वाली कमेटी, कांग्रेस कार्यसमिति, ने आज यह तय किया बताया जाता है कि संगठन के चुनाव मई के महीने में होंगे। अगर शाम तक इसकी औपचारिक घोषणा होती भी है तो भी यह अभी चार महीने दूर की बात है। कांग्रेस संगठन के तौर-तरीकों को लेकर करीब दो दर्जन प्रमुख नेता पिछले कुछ महीनों से पार्टी की बिसात पर घोड़े की तरह ढाई घर चल रहे थे, उनको तो अगले चार महीने शांत रखने में यह फैसला असरदार हो सकता है, लेकिन जब तक संगठन के ईमानदार और पारदर्शी चुनाव न हो जाएं, तब तक यह कहना मुश्किल है कि आज पार्टी के भीतर रहकर आवाज उठाने वाले नेता संतुष्ट हो जाएंगे, या उनकी बात का असर होगा। अपने सौ बरस के अधिक के अस्तित्व में कांग्रेस ने बहुत से ऊंचे-नीचे दौर देखे हैं, लेकिन आज जितना बुरा वक्त तो उसने इमरजेंसी के बाद अपनी हार में भी नहीं देखा था क्योंकि उस वक्त उसके पास इंदिरा गांधी सरीखी जुझारू अध्यक्ष थीं। आज कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह जिस राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाए रखने, या बनाने पर आमादा है, वे अध्यक्ष बनना नहीं चाहते। पुरानी कहावत है कि घोड़े को पानी तक ले तो जा सकते हैं, लेकिन उसे पानी पिला नहीं सकते। पार्टी की अध्यक्षता के लिए राहुल को घेर-घारकर तैयार करने की कोशिश तो हो सकती है, लेकिन उससे वे एक जुझारू मुखिया बन जाएंगे यह मानना कुछ ज्यादती होगी।
भारतीय चुनावी राजनीति में पूरे देश की बात हो, या किसी प्रदेश की, किसी एक पार्टी और उसके लीडर की बात बिना दूसरी पार्टियों और उनके लीडरों को साथ रखे बिना नहीं की जा सकती। आज कांग्रेस और राहुल का मुकाबला अगर आराम की राजनीति करने वाले अखिलेश यादव, मायावती, सुखबीर बादल या उमर अब्दुल्ला जैसे लोगों से होता, तो भी चल जाता। दिक्कत यह है कि आज कांग्रेस और बाकी गैरएनडीए पार्टियों का मुकाबला नरेन्द्र मोदी से है जिन पर न परिवार का बोझ है, न जिनके कोई शौक उन्हें काम से परे ले जाते। कम से कम जनता के बीच की जानकारी तो यही बताती है कि वे साल के हर दिन काम करते हैं, दिन में दस-बारह घंटे से अधिक काम करते हैं, और पिछले बहुत बरसों में काम के अलावा उन्होंने और कुछ नहीं किया है। ऐसे में राहुल गांधी के खिलाफ वंशवाद से परे का एक बड़ा मुद्दा बार-बार उठ खड़ा होता है कि वे संघर्ष के हर मौके पर, देश में जलते-सुलगते किसी भी मुद्दे के चलते हुए भी निजी विदेशयात्रा पर चले जाते हैं। निजी यात्रा पर जाना हर किसी का अपना हक है, लेकिन जो पार्टी पिछले कुछ बरसों में कमजोर होते-होते आज खंडहर सरीखी हो चुकी है, जो उजाड़ होती दिख रही है, उस पार्टी का मुखिया क्या भारतीय राजनीति की असल जिंदगी में इतनी छुट्टियां मना सकता है?
न सिर्फ सार्वजनिक जीवन, बल्कि किसी भी किस्म के महत्वपूर्ण ओहदे पर बैठे हुए लोग महत्वहीन कुर्सियों पर बैठे हुए लोगों जितनी छुट्टियां नहीं ले सकते। सरकारी कामकाज में भी कोई कर्मचारी या अधिकारी किसी हाशिए पर बैठे हों, तो वे छुट्टियां ले पाते हैं, लेकिन किसी महत्वपूर्ण जगह पर बैठकर उन्हें कुर्सी की प्राथमिकता पहले देखनी होती है। हाल के बरसों में जिन्होंने राहुल गांधी को लगातार देखा है, उन्होंने राहुल को संघर्ष की इच्छा से परे पाया है। उन्होंने राहुल को जिम्मेदारी और जवाबदेही के नाजुक मौकों पर अघोषित विदेश अवकाश पर पाया है। अब केरल के एक सांसद की हैसियत से तो वे इतनी छुट्टियों पर शायद जा भी सकें, लेकिन कांग्रेस जैसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के विपक्ष के दिनों में कोई भी पार्टी अपने नेता को इतनी और ऐसी छुट्टियां मंजूर नहीं कर सकती।
इन बातों को देखते हुए यह समझने की जरूरत है कि कांग्रेस पार्टी क्या आज सचमुच ही एक पार्टटाईम अध्यक्ष के मातहत गुजारा कर सकती है, या उसे सोनिया-परिवार से परे भी पार्टी की संभावनाएं देखनी चाहिए? और फिर चाहे दिल से या फिर महज जुबान से, राहुल गांधी खुद भी लोकसभा चुनाव में बुरी शिकस्त के बाद दिए इस्तीफे के साथ इसी बात पर अड़े हुए हैं कि सोनिया-परिवार से परे किसी को अध्यक्ष बनाया जाए। इसे देखते हुए यह बात साफ है कि कांग्रेस अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी चुनौती के मौके पर अगर अपने इतिहास का सबसे अनमना अध्यक्ष एक बार फिर चुन लेती है, तो वह महज पार्टी दफ्तर की कुर्सी भर सकती है, संसद की अधिक कुर्सियां भरने की संभावना उसके हाथ से जाती रहेगी। आज भारत की राष्ट्रीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी ने तमाम पार्टटाईम नेताओं को अप्रासंगिक बना दिया है। साल के हर दिन राजनीति, चुनाव के पहले सरकार बनाने की राजनीति, और चुनाव हार जाने पर भी सरकार बनाने की राजनीति, इन सबने मोदी और उनकी पार्टी को अभूतपूर्व और बेमिसाल मेहनती बनाकर रखा है। हिन्दुस्तान की बातचीत में साम, दाम, दंड, भेद की जो बात कही जाती है, इन चारों का भरपूर इस्तेमाल नरेन्द्र मोदी और उनकी टीम सूरज उगने के पहले से आधी रात के बाद तक करते हैं। कांग्रेस पार्टी को भी एक परिवार का महत्व जारी रखने के लिए अपनी संभावनाओं को नकारना नहीं चाहिए। भारतीय लोकतंत्र में भाजपाविरोधी पार्टियां कांग्रेस की ओर देखती हैं। और अगर ऐसे में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष किसी अनजाने विदेश में होने की बात सुनते रहना पड़े, तो वह कांग्रेस की तमाम संभावनाओं से खारिज करने की बात होगी।
कांग्रेस के लोगों को यह तय करना होगा कि वे लीडर की कुर्सी पर सोनिया-परिवार की जीत चाहते हैं, या अगले आम चुनावों में पार्टी की जीत? रामचन्द्र गुहा जैसे घोषित भाजपाविरोधी लेखक ने राहुल गांधी की आलोचना करते हुए बहुत सी बातें हाल के महीनों में ही लिखी हैं। उन पर सबसे अधिक गौर सोनिया-परिवार को ही करना चाहिए क्योंकि पार्टी के बाकी अधिकतर नेता एक गुलाम-मानसिकता के शिकार दिखते हैं जो कि अपने लीडर-परिवार के मातहत ही अपने को महफूज पाते हैं। इस पार्टी को अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका देना चाहिए। राहुल गांधी आज जिन बातों पर अड़े हुए हैं, उन्हें उनका जुबानी जमा-खर्च हम तो नहीं मानते, और हम उनके शब्दों की ईमानदारी पर भरोसा करते हैं कि वे कांग्रेस अध्यक्ष नहीं रहना चाहते। यह पहला मौका है जब यह पार्टी इतने लंबे समय तक बिना अध्यक्ष के है, और अब इसे इस परिवार से परे किसी को अध्यक्ष चुनना चाहिए। यथास्थितिवाद से पार्टी के नेताओं को लग सकता है कि वह झगड़े-झंझटों, विवादों और विभाजन से बची रहेगी, लेकिन हाशिए पर प्रसंगहीन बनी बैठी ऐसी थोपी गई एकता किस काम की रहेगी? कांग्रेस को अपने हजारों नेताओं और लाखों-करोड़ों कार्यकर्ताओं की क्षमता को कम नहीं आंकना चाहिए, और किसी नए नेता की राह साफ करना चाहिए ताकि कम से कम पार्टी प्रासंगिक बनी रह सके। वरना भविष्य का इतिहास सोनिया-परिवार को ही कांग्रेस को इतिहास बनाकर छोडऩे की तोहमत देगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका में नई सरकार के काम सम्हालने के साथ हिन्दुस्तान के लोग भी बड़ी दिलचस्पी से इस देश को देख रहे हैं क्योंकि वहां उपराष्ट्रपति बनी कमला देवी हैरिस की मां भारत से अमरीका गई थीं। इसके अलावा भी नए राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपनी टीम में बहुत से भारतवंशियों को रखा है, हालांकि इसलिए नहीं रखा है कि वे भारत से वहां गए हैं, या उनके मां-बाप भारत से वहां गए थे, इसलिए रखा है कि वे काबिल हैं।
लेकिन अमरीकी राजनीति और सरकार की चर्चा के साथ-साथ जब लोग भारत की राजनीति और सरकार को देखते हैं, तो लगता है कि भारत के संसदीय लोकतंत्र को कई बातें सीखने की जरूरत है। इनमें से एक तो यह है कि किस तरह एक नंबर के पैसे से चुनाव जीतकर संसद में पहुंचा जाता है। अमरीकी राजनीति में सारा खर्च लोगों से बैंक खातों में मिले राजनीतिक-दान से चलता है, और राष्ट्रपति के चुनाव अभियान से लेकर सांसदों के चुनाव अभियान तक कहीं कालेधन की चर्चा सुनाई भी नहीं पड़ती है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में विधानसभाओं से लेकर संसद तक लोगों का संसदीय जीवन झूठे हलफनामे के साथ शुरू होता है कि उन्होंने चुनाव में चुनाव आयोग की तय की गई सीमा के भीतर खर्च किया है। वामपंथी दलों को छोड़ दें, तो शायद ही कोई दल ऐसे हों जिनके उम्मीदवार चुनावी खर्च सीमा के भीतर रहकर चुनाव जीत पाते हों। जीतना तो दूर रहा, हारने वाले एक से अधिक उम्मीदवार ऐसे रहते हैं जो कि खर्च सीमा के कई गुना खर्च के बाद भी हारते हैं। लोकसभा चुनाव से लेकर विधानसभा चुनाव तक और म्युनिसिपल-पंचायत चुनावों में वार्ड से लेकर गांव तक निर्धारित सीमा से कई गुना अधिक खर्च इतनी आम बात है उम्मीदवार और पार्टियां अपने खर्च के हिसाब-किताब को छुपाए रखने के लिए टैक्स के जानकार पेशेवर लोगों की मदद लेते हैं।
जहां राजनीति कालेधन की गंदगी से शुरू होती है, जहां टैक्स चोरी के पैसों के दलदल पर नेतागिरी की इमारत खड़ी होती है, वहां पर आगे सत्ता या विपक्ष की राजनीति में, सरकार में ईमानदारी कैसे निभ सकती है? कहने के लिए कभी-कभी राजनीतिक विश्लेषक वामपंथी दलों और भाजपा, दोनों को ही कैडर-आधारित पार्टियां बता देते हैं। लेकिन एक तरफ बंगाल की एक ही लोकसभा सीट से 9-9 बार चुनाव जीतने वाले अन्नान मोल्ला कभी भी चुनावी खर्च सीमा को छू भी नहीं सके क्योंकि न तो उनके पास उतना पैसा रहा, न ही उनकी पार्टी के ढांचे को उतने पैसे की जरूरत रही। यह हाल वामपंथियों जगह-जगह रहा, और शायद ही कहीं चुनाव आयोग की सीमा को तोड़ा गया हो। दूसरी तरफ बाकी तमाम राष्ट्रीय दलों से लेकर क्षेत्रीय पार्टियों तक को कालेधन पर आधारित राजनीति करते देखा जाता है, और इन पार्टियों को अंधाधुंध कालाधन जुटाते भी देखा जाता है।
अमरीकी चुनाव से भारत को कम से कम यह तो सीखना चाहिए कि किस तरह चुनावी राजनीति को कालेधन से दूर रखा जा सकता है, और पार्टियां या उम्मीदवार अपने खर्च को किस तरह पारदर्शी रख सकते हैं। आज हालत यह है कि हिन्दुस्तान में सत्ता में आने का भरोसा दिलाकर पार्टियां और उनके उम्मीदवार लोगों से पूंजीनिवेश के अंदाज में उगाही करते हैं, और सत्ता में आने पर अपने उन दोस्तों को मुनाफे सहित कमाई के रास्ते भी जुटाकर देते हैं। नतीजा यह निकलता है कि देश के अधिकतर राज्यों में, या केन्द्र सरकार में जो भी पार्टी, या जो भी गठबंधन जीतकर सरकार बनाते हैं, वे कालेधन के अहसानों से इतने लदे रहते हैं कि लोगों के नाजायज काम, गैरकानूनी काम, सरकार को नुकसान पहुंचाकर चंदादाताओं को फायदा पहुंचाने के काम करने पर मजबूर भी रहते हैं, और ऐसा करते हुए अपनी खुद की कमाई करना भी उन्हें मजे का काम लगता है। जब पार्टी की तरफ से भ्रष्टाचार की छूट मिलती है, तो फिर किसी और से चेहरा छुपाने की नौबत नहीं रह जाती, जरूरत नहीं रह जाती।
भारतीय चुनावी राजनीति में कालेधन के पूंजीनिवेश का यह सिलसिला खत्म करना चाहिए। हम इसके कोई आसान समाधान नहीं देखते क्योंकि बरसों से लोग सरकारी खर्च पर चुनाव की बात करते आए हैं, और उस पर कोई एक मत नहीं हो पाया है। फिर भी देश की कुछ एक कंपनियां ऐसी हैं जो कि चेक से राजनीतिक चंदा देती हैं। और दोनंबर की तमाम चर्चाओं के बीच भी पिछले बरसों में जिन पार्टियों को बैंक खातों में जितना दान मिला है, वह भी हक्का-बक्का करने वाला है। इसलिए भारत की राजनीति से इस बुनियादी गंदगी को खत्म करने का रास्ता ढूंढना चाहिए। जहां पर पार्टी की टिकट के लिए करोड़ों रूपए देने की चर्चा हो, जहां एक-एक संसदीय सीट जीतने के लिए दसियों करोड़ खर्च की चर्चा हो, और जहां पर जीते हुए सांसद या विधायकों को खरीदने के लिए दर्जनों करोड़ रेट की चर्चा हो, वहां पर लोकतंत्र की कोई गुंजाइश नहीं रहती है। आज ऐसे बिकने वाले लोकतंत्र से पारदर्शी लोकतंत्र की तरफ बढऩे की जरूरत है और अमरीकी चुनाव इसकी एक अच्छी मिसाल हिन्दुस्तान के सामने है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका चार बरस की गंदगी और हिंसा के बाद आज फिर इंसानियत के एक दौर में पांव रखने जा रहा है जब डोनल्ड टं्रप नाम का कलंक वहां के राष्ट्रपति भवन से आज किसी समय हट जाएगा, और दुनिया के बाकी देशों, बाकी नस्लों, बाकी रंगों, बाकी अल्पसंख्यकों के प्रति एक उदार भाव रखने वाले जो बाइडन और कमला हैरिस राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का काम संभालेंगे। अब से कुछ घंटों बाद, भारतीय समय के मुताबिक आधी रात के पहले अमरीका अपनी नई सरकार को शपथग्रहण करते देखेेगा, और यह समारोह पच्चीस हजार से अधिक सिपाहियों-सैनिकों के घेरे में होने जा रहा है क्योंकि चुनाव हारने के बाद जाते-जाते भी ट्रंप ने अपने हिंसक और नस्लभेदी समर्थकों से संसद भवन पर हमला करवा दिया था। ऐसा राष्ट्रपति अमरीका के इतिहास में कोई दूसरा नहीं हुआ था, और उम्मीद करनी चाहिए कि दुनिया के किसी भी देश को ऐसा हिंसक और नस्लभेदी मुखिया न देखना पड़े।
हिंदुस्तान सहित दुनिया के तमाम देशों को बात-बात पर जंग के सनकी फतवे देने वाले ट्रंप से छुटकारा पाकर राहत मिलेगी। जिस हिंदुस्तान में तमाम परंपराओं को तोडक़र इस ट्रंप की चुनावी-मेहमाननवाजी की, नमस्ते ट्रंप नाम का सबसे बड़ा चुनावी जलसा अहमदाबाद में कोरोना का खतरा उठते हुए भी किया, उसी मेहमान के नमस्ते के बढ़े हुए हाथ पर मानो इस ट्रंप ने थूक दिया था। अमरीका लौटते ही उसने अपने पर फिदा नेताओं वाले हिंदुस्तान को लेकर गंदे शब्द इस्तेमाल किए। दूसरी तरफ अपने पूरे कार्यकाल में ट्रंप ने अमरीका में, और अमरीका के लिए काम करने वाले हिंदुस्तानियों के पेट पर लात ही मारी। आज खबरें उबल रही हैं कि नए राष्ट्रपति जो बाइडन अपने पहले फैसलों में ही हिंदुस्तानी कामगारों को राहत पहुंचाने जा रहे हैं।
ट्रंप नाम की जो गंदगी आज अमरीकी सरकार से हट रही है, वह इस बात की एक बड़ी मिसाल रही कि किसी देश के प्रमुख को कैसा-कैसा नहीं होना चाहिए। बुरे लोग भी इस बात की अच्छी मिसाल हो सकते हैं कि उनके बाद कोई उनकी तरह के न हों। अमरीकी राजनीति हिंदुस्तान से इस मायने में बहुत अलग है कि वहां निर्वाचित शासनप्रमुख पर उसकी पार्टी का मानो कोई काबू ही नहीं रह जाता है। ट्रंप अपनी रिपब्लिकन पार्टी के नाम खासी शर्मिंदगी लिखकर जा रहे हैं, और इस संकीर्णतावादी पार्टी में वे, और उतने ही लोग ट्रंप के इतिहास से खुश रहेंगे जो कि नफरतजीवी हैं, नस्लोन्मादी हैं, जंगखोर हैं, महिला-विरोधी हैं, और गरीबों को मिटा देना चाहते हैं। ट्रंप की पार्टी में भी जो लोग थोड़ी सी बेहतर सोच रखते हैं, वे आज भी शर्मिंदा हैं और संसद पर हमला करवाने वाले ट्रंप के खिलाफ संसद के निचले सदन में वोट दे चुके हैं।
भारत के प्रति ट्रंप का रूख कैसा रहेगा इसे लेकर कई लोगों के मन में एक फिक्र भी है। इसकी एक वजह यह है कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ट्रंप के आखिरी कई महीनों में उसके चुनाव प्रचारक सरीखा काम किया था, और भारत सरकार अबकी बार ट्रंप सरकार का इश्तहार करते दिख रही थी। लेकिन बाइडन पिछले डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति बराक ओबामा की विरासत के साथ हैं। वे ओबामा के उपराष्ट्रपति भी थे, और उनकी पार्टी की अपनी सोच भी आप्रवासियों के लिए एकदम साफ है। इसलिए ट्रंप के साथ एक निहायत गैरजरूरी घरोबा कायम करके उसके चुनाव में हाथ बंटाकर भारत के प्रधानमंत्री ने नाजुक कूटनीतिक रिश्तों को खतरे में डालने का काम किया था, लेकिन नए अमरीकी राष्ट्रपति से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे भारत के साथ दीर्घकालीन व्यापक रिश्तों के हित में, और खुद अमरीका के हित में भारत के लोगों के साथ नरमी का रूख बरतेंगे। फिलहाल भारत के लोग इस बात को लेकर ही खुशियां मना सकते हैं कि ट्रंप की टीम में बहुत से लोग भारतवंशी हैं, और उनकी उपराष्ट्रपति कमला देवी हैरिस तो आधी भारतवंशी हैं ही। भारत को अपने तात्कालिक स्वार्थ से परे अमरीका को देखना चाहिए, और पिछले महीनों में रिश्तों की संभावनाओं पर जो आंच आई है, उसे सुधारने की कोशिश करनी चाहिए।
जिस तरह एक उन्मादी, आत्ममुग्ध, महत्वोन्मादी, नस्लवादी सिरफिरे का राज देश को बांटकर ही खत्म होता है, अमरीका आज बुरी तरह बंटा हुआ है। टं्रप के हिंसक और हथियारबंद समर्थकों की तरफ से वहां इतना बड़ा खतरा है कि आज राजधानी में शपथग्रहण के वक्त किसी हथियारबंद हमले से निपटने की भी तैयारी की गई है। नई सरकार को इस देश को फिर से एक करने पर बड़ी मेहनत करनी होगी और जैसा कि कुछ दिन पहले बराक ओबामा ने एक इंटरव्यू में कहा था कि अमरीकी समाज में इतना विभाजन कर दिया गया है कि उसे एक करना बहुत बड़ी चुनौती होगी।
बाइडन-प्रशासन में भारतवंशी चेहरों को लेकर भारत को और यहां के लोगों को गैरजरूरी खुशी का शिकार नहीं होना चाहिए। वे तमाम लोग अमरीकी हैं, भारत के नहीं। और अमरीका देश ही ऐसा है कि वहां दुनिया भर से पहुंचे हुए अलग-अलग नस्लों के लोग मिलकर ही उसे एक ताकतवर और कामयाब देश बनाते हैं। हर धर्म, हर नस्ल, हर राष्ट्रीयता के लोगों को मिलकर किस तरह एक देश दुनिया का सबसे कामयाब बनता है, इसकी मिसाल अमरीका में देखकर हिंदुस्तानी उससे अगर कुछ सीखें, तो वे अपने देश को बेहतर बना सकते हैं, जो कि आज बदतर बनने की राह पर है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज दो खबरें एक साथ आईं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन, डब्ल्यूएचओ, के प्रमुख ने कहा है कि दुनिया के गरीब देशों को अगर कोरोना वैक्सीन नहीं मिल पाएगी, तो बाकी दुनिया भी महफूज नहीं रहेगी। उन्होंने कहा है कि संपन्न और विपन्न देशों के बीच अगर वैक्सीन का जरूरत के मुताबिक बंटवारा नहीं हुआ तो यह महामारी धरती पर लंबे समय तक बनी रहेगी। उन्होंने एक महत्वपूर्ण बैठक की शुरूआत में यह चेतावनी दी है। उन्होंने कहा कि इस महामारी के जल्द खत्म होने की उम्मीदें खतरे में है क्योंकि संपन्न देश तमाम उपलब्ध टीके खरीदकर जमाखोरी कर रहे हैं, और गरीब देशों के लिए कुछ नहीं छोड़ रहे हैं। उन्होंने आंकड़े दिए हैं कि 49 संपन्न देशों में अब तक 3 करोड़ 90 लाख टीके लगाए जा चुके हैं, और एक गरीब देश ऐसा है जहां 25 हजार भी नहीं, कुल 25 टीके दिए गए हैं। उन्होंने कहा कि दुनिया एक बहुत बड़ी नैतिक नाकामयाबी के मुहाने पर खड़ी है, और संपन्न देशों के ऐसे स्वार्थ के दाम विपन्न देशों में गरीबों की जिंदगी से चुकाए जाएंगे। उनका यह मानना है कि संपन्न देशों की यह नीति खुद को शिकस्त देने की होगी कि गरीब देशों के अधिक जरूरतमंद लोगों की भी बारी टीकों के लिए बाद में आए।
दूसरी खबर भारत की है जिसमें अपने कुछ पड़ोसी देशों सहित कई दूसरे देशों को मुफ्त में टीका देने की घोषणा की है। भारत ने अफगानिस्तान, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और मारीशस को करीब एक करोड़ टीके तोहफे में देने की तैयारी की है जिसकी औपचारिक घोषणा अभी बाकी है। भारत अपनी इस कार्रवाई से पड़ोसी देशों और भारत से जुड़े हुए दूसरे छोटे देशों में एक सद्भावना पैदा कर सकता है, या बढ़ा सकता है। यह वक्त ऐसा है जब भारत की आधी सदी पहले की वैक्सीन-निर्माण की शुरूआत का फायदा आज इस बढ़ी हुई क्षमता की शक्ल में मिल रहा है। देश में इतने टीके बनाने की क्षमता है कि वह कई दूसरे देशों के भी काम आ सके।
लेकिन टीके की सप्लाई से जुड़ी कुछ और बातों पर भी गौर करने की जरूरत है। भारत की कम से कम एक टीका कंपनी ने यह घोषणा की है कि वह जल्द ही बाजार में भी कोरोना-वैक्सीन उपलब्ध कराएगी। ब्रिटेन में आजकल में ही निजी खरीदी के लिए दवा दुकानों में वैक्सीन पहुंच रही है। अब डब्ल्यूएचओ की चेतावनी देखें तो यह साफ है कि बहुत से देशों के गरीबों को, और बहुत से गरीब देशों को वैक्सीन खरीदना शायद नसीब न हो सके। ऐसे में दुनिया के हर किस्म के संगठनों को अपने सदस्यों के माध्यम से ऐसा अभियान छेडऩा चाहिए कि लोग अपने परिवारों के लिए जितनी वैक्सीन पा रहे हैं, सरकार से मुफ्त में या बाजार से खरीदकर पा रहे हैं, उतनी ही वैक्सीन वे गरीब लोगों को दान भी करें। कुछ विश्वसनीय अंतरराष्ट्रीय संगठनों को इस तरह के दान को बढ़ावा देने के लिए एक अभियान छेडऩा चाहिए और दान देने के भरोसेमंद अकाऊंट भी शुरू करने चाहिए। जिस हिन्दुस्तान में पांच दिनों में लोगों ने राम मंदिर के लिए सौ करोड़ रूपए दान कर दिए हैं, उस हिन्दुस्तान में टीके के लिए दान करने वाले लोग भी जुटाए जा सकते हैं, अगर दान जुटाने वाले संगठनों के तरीके पारदर्शी हों, और उनकी साख अच्छी हो। ऐसी रकम विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी संस्थाओं के रास्ते गरीब देशों तक भी जानी चाहिए। जिस तरह पोलियो के वायरस को पूरी धरती से खत्म करने के अभियान के बिना वह बेअसर था, और अब शायद एक या दो देशों में वह जरा सा बच गया है, बाकी खत्म हो चुका है, उसी तरह कोरोना को खत्म करने के लिए भी संपन्न देशों या संपन्न लोगों को विपन्न देशों और विपन्न लोगों का साथ देना होगा।
हमने पिछले एक बरस में यह देखा है कि महानगरों से घर लौटने वाले मजदूरों की मदद करने को सोनू सूद नाम के एक अभिनेता ने अकेले कितनी कोशिश की, और मजदूरों की मदद पूरी हो जाने के बाद किस तरह उसने अपनी क्षमता और ताकत का इस्तेमाल दूसरे जरूरतमंद बीमारों और बच्चों के लिए किया है। ऐसी मजबूत साख वाले लोगों को अपने-अपने दायरे में गरीबों की मदद करनी चाहिए, और गरीब देशों के अधिक जरूरतमंद स्वास्थ्य कर्मचारियों, फ्रंटलाईन वर्करों को टीके भेजने की नैतिक जिम्मेदारी भी उठानी चाहिए। भारत में अब कंपनियों को सीधे टीके बेचना शुरू होने वाला है ताकि वे अपने कर्मचारियों को पहले टीके लगवा सकें। कंपनियों को अपने सीएसआर बजट से सामाजिक सरोकार पूरा करते हुए आसपास के कुछ और लोगों को भी टीके लगवाना चाहिए ताकि सरकार पर बोझ कम हो सके। यह मौका अलग-अलग धर्मगुरूओं, आध्यात्मिक गुरूओं, सामाजिक और कारोबारी नेताओं के सामाजिक सरोकारों को तौलने का भी है कि वे अपने दायरे से परे बाकी लोगों के लिए क्या करने जा रहे हैं। यह महामारी आज तो दुनिया में कुछ काबू में आते दिख रही है, लेकिन लोगों को एक-दूसरे की मदद की आदत अगर पड़ेगी, तो वह आगे भी किसी दूसरे संक्रामक रोग या किसी प्राकृतिक विपदा के वक्त काम आएगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले दो-तीन दिनों में किसी की लिखी एक लाईन सोशल मीडिया पर सामने आई जिसमें शायद कोई संदर्भ नहीं था, लेकिन फिर भी बात सुहानी थी। लिखा था कि अपनी सेहत को ठीक रखना पूंजीवाद का एक किस्म का मुकाबला है। हो सकता है यह बात किसी और सोच के साथ लिखी गई हो, लेकिन इससे एक बात जो सूझती है, वह यह कि लोग सेहतमंद रहें, तो उन्हें पूंजीवादी इलाज और दवा कारोबार की जरूरत कम पड़ेगी। आज बहुत सी बीमारियां लोगों की अपनी लापरवाही की वजह से होती है, और इनसे बचा जा सकता है।
आज दुनिया में दवा कारोबार, मेडिकल-जांच का कारोबार, इलाज, और बदन के महंगे रखरखाव की कसरतें, ये तमाम बातें एक पूंजीवादी व्यवस्था खड़ी कर चुकी हैं। अलग-अलग देशों और समाजों में जो परंपरागत चिकित्सा पद्धति चलती थीं, वे सब कुछ तो अपने देश-प्रदेश की सरकारों की लापरवाही से खत्म होती चली गईं, और कुछ उन्हें गैरजिम्मेदार और मिलावटखोर कारोबारियों ने खत्म कर दिया। हजारों बरस पुरानी चिकित्सा पद्धतियां अपनी पकड़ और उपयोगिता खो बैठीं, और पश्चिम की एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति ने मानो एकाधिकार कायम कर लिया। इस फेरबदल का एक बड़ा शिकार हिन्दुस्तान जैसा देश भी रहा जहां हजारों बरस पुराना आयुर्वेद, और वैसा ही पुराना योग, सनसनीखेज बाबाओं के बाजारू दावों का शिकार होकर साख खो बैठे हैं। नतीजा यह है कि बीमारी से दूर रहने का जो चौकन्नापन भारतीय जीवनपद्धति में सुझाया गया था, वह धरे रह गया, और लोग अब जिंदगी के हर दिन योग करने के बजाय, पैसों की ताकत होने पर नौबत आने पर बाईपास सर्जरी को आसान विकल्प मानने लगे हैं।
कसरत से लेकर सेहत और जांच से लेकर इलाज तक का पूरा कारोबार एक बड़ी पूंजीवादी व्यवस्था है। और सावधान रहने वाले लोग बहुत हद तक इससे बचकर भी रह सकते हैं। मामूली घूमना, जरूरत के लायक धूप में रहना, सेहतमंद खानपान तक सीमित रहना, उठते-बैठते बदन का ख्याल रखना, सोते और बैठते हुए सही तरीके इस्तेमाल करना, नशे से बचना, खेलकूद, कसरत, योग-ध्यान से अपने को चुस्त-दुरूस्त रखना, ये तमाम ऐसी बातें हैं जो लोगों को बीमारी, जांच, इलाज जैसे कई खर्चों से दूर रखती हैं।
भारतीय जीवनपद्धति में ऐसी सावधानियों का हजारों बरस पुराना इतिहास है। आधुनिक जीवनशैली की वजह से, लापरवाही और गैरजिम्मेदारी की वजह से लोग अपने तन-मन तबाह कर बैठते हैं, और इसलिए उन्हें अपनी क्षमता से बाहर जाकर भी खर्च करना पड़ता है। और ऐसा भी नहीं कि हर बार खर्च करने पर गई हुई सेहत लौट भी आती है। इसलिए इस बात का ख्याल रखने की जरूरत है कि खर्च की औकात रहने पर भी हर बार गई हुई सेहत पूरी हद तक वापिस नहीं पाई जा सकती। इसलिए भी लोगों को संपन्नता रहने पर भी सावधान रहना चाहिए।
यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि सेहत को लेकर सतर्कता परिवार में एक साथ आ सके या न आ सके, लापरवाही जरूर सब पर एक साथ हावी हो जाती है। घर पर या दोस्तों की टोली में कोई एक सिगरेट-शराब पीने वाले हों, तो बाकी लोगों की धडक़ खुलने लगती है, आसपास के लोग या अगली पीढ़ी बिना हिचक, बिना झिझक इन्हें पीने लगते हैं। ऐसा ही हाल बाजार के बने हुए खतरनाक खान-पान को लेकर होता है, और घरों में बनने वाले सेहत के लिए नुकसानदेह खानपान को लेकर भी होता है। जरूरत न सिर्फ खुद सावधान रहने की होती है, बल्कि अपने आसपास भी इस सावधानी को फैलाने की रहती है। पूंजीवादी व्यवस्था को खराब सेहत, खराब बदन, मोटापा सब कुछ बहुत माकूल बैठता है। लोगों का वजन ऐसा बढ़ते चले कि उन्हें हर बरस बड़े आकार के कपड़े लगते रहें, यह बाजार की सेहत के लिए अच्छा रहता है। धीरे-धीरे कुछ बरसों में यह महंगे अस्पतालों की सेहत के लिए अच्छी बात हो जाती है। आज जिस रफ्तार से लोगों की सोशल मीडिया की जानकारी, बातचीत, और उनकी तकलीफें जिस तरह दुनिया के इंटरनेट-कारोबारी एक-दूसरे को बेच रहे हैं, उससे लोगों तक बीमारी की खबर, और उसके इलाज की बाजारू जानकारी हो सकता है कि साथ-साथ ही पहुंचने लगे।
जो लोग बहुत खतरनाक और नुकसानदेह वातावरण में जीते हैं, और काम करते हैं, उनकी बात अगर छोड़ दें तो अधिकतर आम लोग मामूली सावधानी से ही, और थोड़ी-बहुत मेहनत से ही कई किस्म की बीमारियों से बच सकते हैं, और पूंजीवादी व्यवस्था के हाथों निचुडऩे से भी।
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मुम्बई में एक महीने पहले पकड़ाया एक टीआरपी घोटाला एक नए नाटकीय मोड़ पर पहुंचा है। इस घोटाले में पुलिस को ऐसे सुबूत मिले थे जो बताते थे कि कुछ टीवी समाचार चैनल दर्शक संख्या बताने वाली एक संस्था, बार्क (ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल), के साथ मिलकर साजिश करके, रिश्वत देकर अपनी दर्शक संख्या बढ़वा लेते थे, और उसी आधार पर उन्हें सरकारी-गैरसरकारी इश्तहार अधिक मिलते थे, अधिक रेट पर मिलते थे। इस मामले में एक-दो कम चर्चित चैनलों के अलावा देश में सबसे ज्यादा चीखने वाले समाचार चैनल, रिपब्लिक, को भी इस साजिश में शामिल बताया गया था, यह एक और बात है कि इसके मुखिया अर्नब गोस्वामी को जब गिरफ्तारी से बचने की जरूरत पड़ी तो सुप्रीम कोर्ट जज ने रात बंगले पर उसका केस सुना, और अगली सुबह अदालत में उसे राहत मिल गई। इसी वक्त देश के दर्जन भर जलते-सुलगते गरीब-मुद्दे अदालत का दरवाजा खटखटा रहे थे जिनमें से किसी के लिए वह नहीं खुला था। खैर, इस बारे में अधिक लिखने से आज का मुद्दा किनारे धरे रह जाएगा जो एक अलग महत्व का है।
अब मुम्बई पुलिस ने टीआरपी घोटाले में एक और चार्जशीट पेश की है जिसमें 50 से अधिक पेज अर्नब गोस्वामी की वॉट्सऐप चैट के हैं। यह बातचीत मोटेतौर पर टीवी दर्शक संख्या तय करने वाली संस्था, बार्क, के मुखिया के साथ है और यह बातचीत दर्शक संख्या तोडऩे-मरोडऩे, गढऩे से कहीं आगे जाकर देश की सुरक्षा के बारे में कुछ नाजुक बातों वाली है।
दो दिन पहले जब यह दस्तावेज सामने आया कि मुम्बई पुलिस ने अर्नब गोस्वामी की चैट अदालत में दाखिल की है, तो हमने उस पर तुरंत नहीं लिखा और इंतजार किया कि सामने आए इन दस्तावेजों का कोई खंडन तो नहीं आता है। लेकिन अब तक अर्नब गोस्वामी की तरफ से इन दस्तावेजों को झूठा नहीं कहा गया, और अर्नब को चौबीसों घंटे चीखने के लिए अपना चैनल हासिल है, सोशल मीडिया हासिल है, देश के सबसे महंगे वकील हासिल हैं, और सुप्रीम कोर्ट हासिल है, फिर भी उन्होंने अपनी इस चैट को गलत, झूठा, या गढ़ा हुआ नहीं कहा, इसलिए अब इस पर लिखने का मौका है।
अर्नब की इस बातचीत में पाकिस्तान के बालाकोट पर भारतीय वायुसेना की बहुप्रचारित एयर स्ट्राईक का जिक्र है कि भारत-पाकिस्तान पर कुछ बड़ा करने जा रहा है, और वह आम एयर स्ट्राईक से बहुत बड़ा रहेगा। इस एयर स्ट्राईक को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद बताया था कि किस तरह इस हमले के पहले उनके घर पर फौज के प्रमुख लोगों की बैठक हुई थी, और उसमें उन्होंने यह सुझाव दिया था कि आज बादल छाए हुए हैं, और आज यह हमला कर देना चाहिए क्योंकि बादलों के ऊपर उड़ते हिन्दुस्तानी फौजी विमानों को पाकिस्तानी रडार नहीं पकड़ पाएंगे। अब फौजी हमले की ऐसी रणनीति की जानकारी अर्नब को कुछ दिन पहले कैसे थी? और इसी चैट में अर्नब कुछ केन्द्रीय मंत्रियों के बारे में हिकारत से, कुछ की तारीफ में बात करते दिखता है, और प्रधानमंत्री कार्यालय तक अपनी पहुंच की बात करता है, शायद कहीं पर पीएम से मिलने का भी जिक्र है। तो देश का इतना बड़ा फौजी रहस्य अर्नब को एडवांस में कैसे मालूम था? और उसे यह भी कैसे मालूम था कि यह मामूली एयर स्ट्राईक से बहुत बड़ी कार्रवाई होने जा रही है?
इसी चैट में एक दूसरी जगह कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकी हमले की तारीख से पहले की बातचीत भी है जिसमें सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हुए थे। इस हमले को इस चैट में अर्नब गोस्वामी अपनी शानदार जीत बताता है, और भारी खुशी और कामयाबी उसके शब्दों से झलकती है। लोगों को याद होगा कि कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह सहित देश के बहुत से लोगों ने पुलवामा हमले को लेकर बहुत से सवाल और बहुत से संदेह सामने रखे थे, और पाकिस्तानी गद्दार होने की गालियां खाई थीं। अब टीआरपी घोटाले की जांच के दौरान कानूनी रूप से जो चैट हासिल की गई, और अदालत में दाखिल की गई, वह अर्नब गोस्वामी की केन्द्र सरकार तक, प्रधानमंत्री कार्यालय तक, टीआरएआई जैसी संवैधानिक संस्था तक असाधारण पहुंच और पकड़ के उसके दावे दिखाती है।
देश के कुछ जिम्मेदार मीडिया ने इन बातों को प्रकाशित करने के पहले अर्नब गोस्वामी और केन्द्र सरकार दोनों से संपर्क करके इन पर उनका पक्ष हासिल करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। ऐसे में मुम्बई पुलिस की अदालत में दाखिल की गई चैट को झूठ मानने की कोई वजह नहीं है। अभी कुछ महीने पहले तक अर्नब गोस्वामी अपने चैनल पर एक अभिनेता की मौत की खबरों में उससे जुड़े हुए लोगों की कई किस्म की चैट चटखारे लेकर दिखाते आया है, इसलिए यह माना जाना चाहिए कि अदालत में दाखिल की गई चैट पर खबरें, और उन पर लिखना अर्नब के पैमानों से भी नाजायज नहीं होगा।
एक अमरीकी उपन्यासकार ने एक मीडिया मालिक की ताकत को लेकर एक रोमांचक उपन्यास लिखा था, और अर्नब गोस्वामी को देखकर, उसकी चैट पढक़र उस उपन्यास की याद आती है। इस उपन्यास में यह मीडिया-कारोबारी औरों को पछाडऩे के लिए भाड़े के हत्यारों या मुजरिमों से ऐसे बड़े-बड़े आतंकी हमले करवाता है जिनकी रिपोर्ट सबसे पहले उसी के अखबार में छपती है। मीडिया के अपने महत्व, और अपनी ताकत का मदमस्त महत्वोन्माद किस तरह सिर चढक़र बोलता है, और अपनी मिल्कियत से चीखता है, उसकी यह एक ऐसी मिसाल सामने आई है जिस पर केन्द्र सरकार को भी कुछ बोलने की जरूरत है।
पहले की घोषणा के मुताबिक हिन्दुस्तान में आज कोरोना-टीकाकरण शुरू हुआ। प्रधानमंत्री ने एक औपचारिक भाषण देकर इसकी शुरुआत की, और इस पहले दौर में करीब 3 करोड़ स्वास्थ्य कर्मचारियों, और कोरोनाग्रस्त लोगों से सामना होने वाले लोगों को ये टीके लगने जा रहे हैं। करीब महीने भर के फासले पर इन लोगों को इसी टीके का एक डोज और लगेगा, और उसके एक पखवाड़े बाद ऐसा अनुमान है कि इनके शरीर में कोरोना के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाएगी। यह मौका छोटी राहत का नहीं है, और आज दुनिया के जो हालात हैं उन्हें देखते हुए इस वैक्सीन के और अधिक बहुत लंबे नियंत्रित परीक्षणों को शायद सबसे अच्छा विकल्प मानना भी मुमकिन नहीं है। आज बीमारी के खतरे और वैक्सीन के खतरे के बीच किसी एक को अगर छांटना हो, तो मामूली समझ वैक्सीन का खतरा झेलने का सुझाव देगी क्योंकि अब तक के मानव परीक्षणों में वैक्सीन के खतरे सामने नहीं आए हैं, जबकि कोरोना से मौतें जारी ही हैं। फिर यह बात भी है कि शुरुआत के ये तीन करोड़ टीके देश के उस चुनिंदा लोगों को लगने जा रहे हैं जो कि कोरोना के मोर्चे पर डटे हुए जाने-पहचाने लोग हैं, स्वास्थ्य कर्मचारी हैं, और जिन पर टीके का कोई नकारात्मक असर हुआ, तो उसका पता लगाना आसान रहेगा। हालांकि आज ही आई एक दूसरी खबर को इसके साथ जोड़े बिना कोई अनुमान लगाना गलत होगा। योरप के एक सबसे विकसित देश नार्वे ने कहा है कि वहां अमरीका में बनी हुई फाइजर कंपनी की वैक्सीन लगवाने के बाद 23 मौतें हो चुकी हैं। ये सारे के सारे 80 बरस से ऊपर के लोग हैं, और वहां की सरकार का कहना है कि यह वैक्सीन बुजुर्गों और पहले से बीमार लोगों के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। वहां सरकार ने यह तय किया है कि गंभीर बीमार लोगों पर इस टीके का बहुत बुरा असर हो सकता है, लेकिन सरकार ने यह भी कहा है कि नौजवान और सेहतमंद लोगों को इस टीके से बचने की जरूरत नहीं है। इस देश के इस तजुर्बे को देखें तो भारत को इससे सीखने की जरूरत है और चूंकि हिन्दुस्तान की पूरी आबादी को तो अभी टीका लगने नहीं जा रहा है इसलिए नार्वे के इस तजुर्बे वाली उम्र के लोगों को हिन्दुस्तान में भी कुछ वक्त के लिए टीके से परे रखा जा सकता है।
अभी सरकार ने कोई ताजा अंदाज सामने नहीं रखा है, लेकिन कुछ हफ्ते पहले तक केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने जो कहा था उसके मुताबिक जून-जुलाई तक 25 करोड़ लोगों के टीकाकरण का अंदाज था। अभी सरकार ने जिन तबकों को इस टीके से बाहर रखा है, उनमें गर्भवती महिलाएं और बच्चे हैं। नार्वे की ताजा खबर को देखें तो 80 बरस से ऊपर के लोगों को या गंभीर बीमार लोगों को भी टीकाकरण से बाहर रख सकते हैं। इसके बाद बची आबादी के 30 करोड़ लोगों को अगर अगले 6 महीनों में टीके लगते हैं, तो आबादी का एक हिस्सा खतरे से काफी हद तक बच सकता है। भारत में अभी जिस टीके से शुरुआत की गई है, उससे शायद 70 फीसदी कामयाब होने की उम्मीद है। ऐसा होने पर भी देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा खतरे से काफी हद तक बचने जा रहा है। और जैसा कि किसी भी संक्रामक बीमारी के साथ होता है, जैसे-जैसे उससे संक्रमित लोग घटते हैं, आगे उसका संक्रमण भी घटता है।
टीकाकरण शुरू होने से देश के लोगों के बीच एक नया आत्मविश्वास देखने मिलेगा कि मानो कोरोना से जीत हो चुकी है। जबकि हिन्दुस्तान ऐसी नौबत से अभी खासे दूर भी है। कोरोना की दूसरी लहर और तीसरी लहर, और कोरोना की कोई नई किस्म, और टीके के बेअसर होने के खतरे, किसी और संक्रामक रोग के आने के खतरे, ऐसी कई बातों की आशंका अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। इसलिए कोरोना-टीकों से पैदा होने वाला आत्मविश्वास घमंड बनकर लोगों को लापरवाह न कर दे, यह भी देखना जरूरी है।
सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर बड़ा बवाल चल रहा है कि कोरोना-वैक्सीन की विश्वसनीयता को कायम करने के लिए पहले से देश के नेताओं को लगाया जाए, ताकि आम जनता में भी भरोसा पैदा हो सके। वैक्सीन के दो पहलू हैं, एक तो उसका मेडिकल असर, जिसकी वजह से पहले उसे कोरोना-खतरा अधिक झेल रहे स्वास्थ्य कर्मचारियों और जुड़ी हुई सेवाओं के लोगों को लगाया जा रहा है। लेकिन ऐसे तीन करोड़ लोगों के साथ अगर देश के कुछ लाख नेताओं, जजों, मंत्रियों और बड़े अफसरों को भी जोड़ा जाता है, तो यह बारी से पहले उन्हें टीका मिलने के बजाय टीकाकरण की विश्वसनीयता बनाने का काम होगा। और अगर ऐसा कोई फैसला होता भी है तो हम उसे कोई वीआईपी लिस्ट मानने के बजाय विश्वसनीयता-लिस्ट मानेंगे। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने अपने सदस्य दसियों हजार डॉक्टरों से कहा है कि लोगों के बीच भरोसा पैदा करने के लिए डॉक्टर आगे आकर यह वैक्सीन लगवाएं। अब अगर इन तीन करोड़ लोगों के साथ, या इनके बाद लाख-दो लाख महत्वपूर्ण ओहदों पर बैठे लोगों को यह टीका लगाया जाता है, तो उससे लोगों की आशंकाएं कम होंगी।
फिलहाल जैसा कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा है कि पहले दौर में यहां तीन करोड़ लोगों को टीके लग रहे हैं, और दुनिया में सौ से ज्यादा तो ऐसे देश हैं जिनकी आबादी ही तीन करोड़ से कम हैं। उन्होंने यह भी कहा कि दूसरे चरण में 30 करोड़ लोगों को टीके लगेंगे, और दुनिया में 30 करोड़ से अधिक की आबादी के कुल तीन ही देश हैं, भारत, चीन, और अमरीका। इन आंकड़ों को देखें तो लगता है कि यह सचमुच ही दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान तो है ही, खुद हिन्दुस्तान का यह एक अनोखा प्रयोग है, और हर हिन्दुस्तानी को इसकी कामयाबी में हाथ बंटाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)