संपादकीय
वैसे तो हिन्दुस्तान देवियों की पूजा करने वाला देश है। पश्चिम से लेकर पूरब तक, और जम्मू से लेकर केरल तक सभी जगह देवियों की उपासना होती है, उनके न सिर्फ बड़े-बड़े मंदिर और तीर्थ हैं, बल्कि गुजरात की नवरात्रि में दुर्गा पूजा से लेकर बंगाल की दुर्गा पूजा तक, और दीवाली पर देश के अधिकतर हिस्से में कारोबार से लेकर सरकारी खजाने तक में होने वाली लक्ष्मी पूजा धर्म से आगे बढक़र सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा बन चुकी है। ऐसे देश में महिलाओं से अत्याचार का भी कोई अंत नहीं है।
आज एक प्रमुख समाचार वेबसाईट पर कुछ खबरों को कतार से देखते हुए इस मुद्दे पर लिखना सूझा जिसमें नया कुछ नहीं है लेकिन इन्हें एक साथ देखते हुए लगा कि देवियों की पूजा करने वाला यह देश किस तरह हर नामुमकिन तरीके से भी लड़कियों और महिलाओं पर जुल्म करता है। जुल्म की हकीकत है, और देवी पूजा के फसाने हैं! जब कभी हिन्दुस्तानी समाज के महिलाओं के प्रति हिंसक होने की बात कही जाए, भ्रूण हत्या से लेकर कन्या हत्या तक, और फिर दहेज हत्या से लेकर विधवाश्रम तक की कोई भी बात की जाए, तो हिन्दुस्तानी समाज बड़ी रफ्तार से अपने बचाव में देवी पूजा की परंपरा गिनाने लगता है। लोग यह गिनाना नहीं भूलते कि यहां कन्या पूजा करके छोटी-छोटी बच्चियों के भी पैर छूने की परंपरा है। मानो ये सारी परंपराएं हिन्दुस्तानी मर्दों ने लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ अपनी हिंसा के बचाव के सुबूत की तरह गढक़र रखी हैं।
अभी सोशल मीडिया पर एक जगह मां-बाप की विरासत में बेटों के अलावा बेटियों के भी हक की बात छिड़ी, तो पुत्रमोह के शिकार हिन्दुस्तानी, हिन्दू आदमियों के मन की महिलाविरोधी बातें फूट पड़ीं। लोग याद दिलाने लगे कि लड़कियों को न सिर्फ दहेज दिया जाता है, बल्कि बाद में भी जिंदगी भर भाई उनसे रिश्ता निभाते हैं, लेन-देन करते हैं, इसलिए मां-बाप की सम्पत्ति पर बेटियों का कोई हक नहीं होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट तक इस बारे में बिल्कुल साफ है कि मां-बाप की जायदाद का बंटवारा करते हुए बेटियों और बेटों में कोई फर्क नहीं किया जा सकता, लेकिन बहस में शामिल अधिकतर आदमी मानो इस कानूनी व्यवस्था से नावाकिफ रहकर बहन-बेटियों को कोई भी कानूनी हक देने के खिलाफ लिखते रहे। और तो और कोई-कोई महिला भी इस पुरूषवादी तर्क की हिमायती निकलीं कि बेटियों का हक बराबरी का होना चाहिए।
भारत में लैंगिक समानता एक बहुत ही काल्पनिक आदर्श सोच है जिसके उपजने और पनपने के लिए समाज में कोई जमीन नहीं है। और यह नौबत महज हिन्दुओं के बीच है ऐसा भी नहीं है, मुस्लिमों के बीच एक शाहबानो के हक को लेकर हिन्दुस्तान में मुस्लिम समाज के आदमियों ने इतना तनाव खड़ा किया था कि उस वक्त के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अल्पसंख्यक-वोटरों की दहशत में आकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था, और कांग्रेस के उस वक्त के संसदीय बाहुबल का बुलडोजर बूढ़ी शाहबानो पर चला दिया था। देश के जिन आदिवासी समाजों को सबसे कम पढ़ा-लिखा मानते हुए शहरी लोग जिन्हें जंगली कहते हैं, उन्हीं आदिवासी समाजों में महिलाओं को शहरी और सवर्ण तबकों की महिलाओं के मुकाबले अधिक बराबरी के हक मिलते हैं। शहरी, शिक्षित, सवर्ण महिलाओं को समाज में पुरूषों के मुकाबले जरा सी भी बराबरी का कोई हक अगर मिलता है तो वह उनके आर्थिक आत्मनिर्भर होने पर ही मिलता है, वरना वे गुलामों की सी जिंदगी जीती रह जाती हैं।
हर दिन कई ऐसी खबरें आती हैं कि हिन्दुस्तान में महिलाओं और लड़कियों पर किस किस्म के जुल्म हो रहे हैं। आज की ही खबर है कि हरियाणा में आठवीं की एक छात्रा ने अपने वकील के मार्फत पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई है कि उसकी मां ने अपने प्रेमी और उसकी पत्नी के साथ मिलकर उस लडक़ी की जबर्दस्ती शादी करवाई और जबर्दस्ती शारीरिक संबंध को मजबूर किया। हरियाणा की ही एक दूसरी खबर है कि वहां ट्यूशन पढ़ा रहा शिक्षक नाबालिग छात्रा से लगातार बलात्कार कर रहा था, और जब लडक़ी ने ट्यूशन पर जाना बंद कर दिया, तो मां-बाप ने उसकी डॉक्टरी जांच कराई और बलात्कार के इस सिलसिले की खबर हुई।
लड़कियों के लिए यह बहुत आम बात है कि किसी टीम में चुने जाने के लिए उन्हें खेल संघों के पदाधिकारी, खेल प्रशिक्षक, या चयनकर्ता के सामने अपना समर्पण करना पड़ता है, तो दूसरी किसी अधिक काबिल खिलाड़ी का हक मारकर उसे टीम में ले लिया जाता है। कई बार तो टीम में जगह तक नहीं मिलती, और अलग-अलग कई लोग लड़कियों का शोषण करते रहते हैं। विश्वविद्यालयों में शोधकार्य करने वाली लड़कियों का रिसर्च-गाईड द्वारा देहशोषण बहुत अनसुनी बात नहीं है, और ऐसा बहुत से मामलों में होता है, यह अलग बात रहती है कि पीएचडी पाने के मोह में और सामाजिक बदनामी-प्रताडऩा से बचने के लिए लड़कियां और महिलाएं यह जुल्म बर्दाश्त कर लेती हैं। देश के एक सबसे नामी-गिरामी संपादक रहे एम.जे.अकबर पर उनके सबसे कामयाबी के बरसों में अपनी मातहत महिला-पत्रकारों के यौन शोषण के दर्जन भर से अधिक आरोप लग चुके हैं, और इसी सिलसिले में एक आरोप के खिलाफ अकबर के दायर किए गए मुकदमे में अकबर की हार भी हो चुकी है। एम.जे. अकबर उसी बंगाल की राजधानी कोलकाता से अखबारनवीसी करते थे जहां देवियों की पूजा की लंबी परंपरा है। बंगाल में तो देवताओं की पूजा सुनाई भी नहीं पड़ती, और दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती और काली की ही पूजा होती है, और वहां की इस सामाजिक संस्कृति के बावजूद वहां के इस मशहूर संपादक का यह आम हाल और मिजाज था। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज 22 मार्च को दुनिया भर में विश्व जल दिवस मनाया जाता है। पानी इंसान की जिंदगी में सबसे जरूरी तीन चीजों में से एक है। हवा, खाना, और पानी, इनके बिना ब्रम्हांड के किसी और ग्रह पर भी जिंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती, और आज अंतरिक्ष में जहां-जहां इंसानों को बसाने की कल्पना की जा रही है, वहां इन तीन बुनियादी जरूरतों के बारे में संभावनाओं को सबसे पहले टटोला जा रहा है। इसलिए पानी का महत्व बहुत है, लेकिन लोगों को वह उसी वक्त समझ पड़ता है जब वह नहीं रहता। जब उसे पाने के लिए टैंकरों पर टूट पडऩा पड़ता है, जब मीलों दूर से पानी लाना पड़ता है, या गहरे कुओं में जान-जोखिम में डालकर उतरना पड़ता है। इसके बावजूद सारे वक्त पानी मिल ही जाता हो यह भी जरूरी नहीं है। महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में गर्मी के बाद गांवों के बाहर जानवरों की लाशों के कंकाल दिखते हैं जो कि पानी न मिलने की वजह से, और पानी न होने से चारा न मिलने की वजह से भूखे-प्यासे मर जाते हैं। अब तक इंसानों का प्यास से मरना शुरू नहीं हुआ है, और देशों के बीच या इंसानों के तबकों के बीच पानी को लेकर फौजी लड़ाईयां अभी तक शुरू नहीं हुई हैं इसलिए पानी लोगों का ध्यान नहीं खींच रहा है। लेकिन जिस दिन इसकी कमी लोगों का ध्यान खींचने लायक गंभीर हो जाएगी, उस दिन फिर पानी की वापिसी भी नहीं हो पाएगी। आज हवा के बाद सबसे मुफ्त मिलने वाला सामान पानी है, और मुफ्त में मिलने की वजह से उसकी कोई कद्र नहीं है।
दुनिया के जिन इलाकों में पानी है, और आसान पानी है, उसे धरती के भीतर से उलीचने के लिए आसान बिजली हासिल है, उन इलाकों में पानी के खर्च, फिजूलखर्च से समझदारी का कोई रिश्ता नहीं है। मिसाल के तौर पर छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को लें जहां खेती के लिए बिजली तकरीबन मुफ्त है, बिजली चौबीसों घंटे है, और जमीन के भीतर अब तक पानी बाकी है, तो फिर सरकारी खरीद वाली धान की आसान फसल से परे सोचने की जरूरत किसान को पड़ नहीं रही है। धान की फसल पेट भरने के काम आती है, लेकिन वह आसमान का जितना पानी लेती है, और धरती के भीतर का जितना पानी उसे दिया जाता है, क्या कोई ऐसा ऑडिट कृषि वैज्ञानिक और कृषि अर्थशास्त्री करते हैं कि दूसरे अनाजों की फसल में लगने वाले पानी के मुकाबले धान की फसल में पानी कितना अधिक लगता है? और इंसान के खाने के काम आने वाले अनाजों में किस फसल से कितने पानी के बाद कितनी कैलोरीज मिलती हैं?
एक तरफ तो सरकार और कृषि अर्थशास्त्री, कृषि वैज्ञानिक फसल पर खर्च होने वाले पानी को घटाने के बारे में पर्याप्त करते हुए नहीं दिख रहे हैं, दूसरी तरफ शहरों में लोगों के हर मकान में नलकूप खोदकर पंप लगाकर मनचाहा पानी निकालने की आजादी हासिल है। नतीजा यह होता है कि जो भूजल पूरी धरती की सामूहिक सम्पत्ति है, उसे गहरा नलकूप खुदवाने और अधिक ताकत का पंप लगवाने की लोगों की निजी ताकत पी जा रही है। पानी निजी सम्पत्ति है, या इसे सामूहिक सम्पत्ति रहना चाहिए, इसके इस्तेमाल की लागत कहां से निकलनी चाहिए इसे लेकर अब तक कोई कानून नहीं है इसलिए बोतलबंद पानी बनाने और बेचने वाली कंपनियां जमीन के भीतर से मनचाहा पानी निकालती हैं, और किसी के लिए जवाबदेह नहीं रहतीं। बाकी कारखानों और कारोबारी कामकाज के लिए भी भूजल नाम की सार्वजनिक सम्पत्ति ऐसे ही बेजा इस्तेमाल के लिए मौजूद है।
शहरी जीवन में लोग अपनी आर्थिक ताकत के अनुपात में पानी का बेजा इस्तेमाल करने को आसान हैं। संपन्न लोग अपने घर के लॉन को धान की फसल की तरह सींचते हैं, और सूरज को चुनौती देते हुए अपनी छत पर बागवानी करने के लिए बेतहाशा पानी का इस्तेमाल करते हैं। लोगों ने अपने घरों के बाहर अपनी कारों को धोने के लिए पंप और तेज रफ्तार पानी की धार का इंतजाम कर रखा है, और अधिक संपन्न लोग अपने बंगलों के सामने की सडक़ें तक धो लेते हैं। दूसरी तरफ इन्हीं शहरों की गरीब बस्तियों में लोगों की जिंदगी में हर दिन घंटे-दो घंटे का संघर्ष कुछ बाल्टी पानी जुटाने के लिए टैंकरों के इंतजार और धक्का-मुक्की में निकल जाता है। ऐसा लगता है कि लोगों के मकान की जितनी जमीन है उसके नीचे का हजार-पांच सौ फीट तक गहराई पर उनका हक है, और अपने तले से गुजरने वाली भूजल-धारा को वे जितना चाहे उतना उलीच सकते हैं। यह शहरी इस्तेमाल कम भयानक नहीं है, और देश-प्रदेश को यह चाहिए कि वे निजी नलकूपों पर भी पानी के मीटर लगाने का काम करें ताकि पानी के फिजूलखर्च पर काबू लग सके।
ये चर्चाएं पिछले कुछ दशकों में लगातार बढ़ती रही हैं कि एक दिन पानी के लिए देशों के बीच जंग होगी। आज भी भारत जैसा देश अपने दो-चार पड़ोसी देशों के साथ आर-पार आने-जाने वाले नदी-जल को लेकर तनाव झेलता ही है। यह तनाव किस दिन जंग में बदल जाए, किस दिन चीन में कोई बांध भारत में बाढ़ लाने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल होने लगे, इसका कोई ठिकाना तो है नहीं।
अब एक संभावना जो दिखती है वह ग्राउंडवॉटर री-चार्जिंग की। आसमान से पानी गिरता ही है, और वह नदियों के रास्ते समंदर में जाकर एक किस्म से इस्तेमाल के बाहर हो जाता है। यह पानी सबसे अधिक बारिश के दिनों में धरती के भीतर नहीं पहुंच पाता, नालों और नदियों में बाढ़ बनकर चारों तरफ बर्बादी भी करता है, और समंदर में पहुंचकर इस्तेमाल से बाहर हो जाता है। इसलिए राज्यों को बड़े पैमाने पर ऐसी योजना बनानी चाहिए जिससे बारिश के पानी का अधिक से अधिक इस्तेमाल हो सके। केन्द्र सरकार की मनरेगा योजना के तहत काफी बड़ा हिस्सा पानी पर खर्च करने का प्रावधान लोग इस योजना को महज ग्रामीण रोजगार की योजना समझते हैं, लेकिन यूपीए सरकार के वक्त 15 बरस पहले शुरू की गई यह योजना जलस्रोतों के विकास की, संरक्षण की देश की सबसे बड़ी योजना भी है। सेंटर फॉर साईंस एंड एनवॉयरनमेंट की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह मनरेगा में यह कानूनी बंदिश है कि उसकी 60 फीसदी हिस्से को पानी से जुड़े हुए ढांचों पर ही खर्च किया जाएगा। केन्द्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इसे 15 बरसों में भारत के गांवों में 3 करोड़ से अधिक जल संरक्षण काम इस योजना में हुए हैं यानी करीब 50 काम हर गांव में हुए हैं। जो लोग पानी के आंकड़ों को समझ सकें, वे यह अंदाज लगा सकते हैं कि इन जल संरक्षण कार्यों से 28 करोड़ 74 लाख क्यूबिक मीटर पानी का संरक्षण हो पाया है।
इन आंकड़ों से परे हम एक और गुंजाइश देखते हैं जिसके बारे में हम पहले भी लिख चुके हैं। मनरेगा के तहत काम उन्हीं इलाकों में हो सकता है जहां पर लोगों को रोजगार दिया जा सकता है। लेकिन प्रदेशों के भूगोल में बहुत से ऐसे बिना आबादी वाले इलाके रहते हैं जहां पर बारिश का पानी भरपूर बहता है, और नदियों में बाढ़ लाता है। आबादी से परे के ऐसे सुनसान इलाकों में बिना मजदूरों के भी मशीनों से ऐसे बड़े-बड़े तालाब बनाने चाहिए जो बारिश के अतिरिक्त पानी को नदियों में जाने से रोके, और भूजल को बढ़ाए। एक तरफ मनरेगा जैसी योजना रोजगार और आबादी के आसपास के जल संरक्षण का काम जारी रखे, और दूसरी तरफ निर्जन इलाकों में मशीनों से काम करवाके ऐसे बड़े-बड़े तालाब बनाए जाएं जिनका पानी धीरे-धीरे रिसकर धरती के भीतर उसके खाली हो रहे पेट को भर सके। इसी से जुड़ा हुआ एक और मामला है। आज बांधों से लेकर शहरों तक पानी को खुली नहरों से लाया जाता है जिनमें रिसाव से पानी जमीन में भी खत्म होता है, और धूप में सूखकर वह पानी उड़ता भी है। इसके आंकड़े हैरान कर देते हैं कि किसी शहर में कितना पानी लाने के लिए किसी बांध से उससे कितना अधिक पानी छोडऩा पड़ता है। हर प्रदेश को ऐसी योजना बनानी चाहिए कि बांधों से शहरी जरूरत का पानी लाने के लिए पाईप लाईन डले, जिससे जल प्रदूषण थमे, रिसाव और भाप बनकर पानी का खत्म होना भी थमे। आज हमें कम ही जगहों पर सरकारों में ऐसी कल्पनाशीलता दिख रही है। खासकर वे प्रदेश बेफिक्र हैं जहां आज पानी रेलगाडिय़ों से नहीं ले जाना पड़ रहा है।
आज विश्व जल दिवस पर हमारे कम कहे को अधिक माना जाए, और निजी जीवन से लेकर सरकारी योजनाओं तक अगले दस-बीस बरस बाद की फिक्र की जाए वरना यह लाईन तो बिना समझे लिखी और दुहराई ही जाती है- जल है, तो कल है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मुम्बई के पुलिस कमिश्नर रहे, प्रदेश के डीजीपी स्तर के अधिकारी परमबीर सिंह ने मुख्यमंत्री को लिखी एक चिट्ठी में राज्य के गृहमंत्री अनिल देशमुख पर आरोप लगाया है कि उन्होंने पुलिस अधिकारियों पर महीनों से यह दबाव बनाया हुआ था कि वे मुम्बई के बार, पब, और रेस्त्रां से उगाही करके उन्हें सौ करोड़ रूपए महीना दें। अपने आरोपों के सुबूत में उन्होंने कुछ दूसरे बड़े अधिकारियों के साथ फोन पर आए-गए संदेशों को भी लगाया है। बड़े रहस्यमय तरीके से यह चिट्ठी परमबीर सिंह के सरकारी ईमेल से न भेजकर किसी और ईमेल से सीएम को भेजी गई, और चिट्टी पर उनके दस्तखत नहीं थे। लेकिन मीडिया में इस बारे में सवाल उठने पर उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा है कि यह चिट्ठी उन्होंने ही भेजी है और उनके पास अपने आरोपों को साबित करने के लिए पर्याप्त सुबूत हैं। यह पूरा मामला इस अफसर को मुम्बई पुलिस कमिश्नर के पद से हटाने के बाद फूटा है, और हटाने के पीछे की वजह जाहिर तौर पर मुकेश अंबानी के घर के बाहर विस्फोटकों की एक गाड़ी के पकड़ाने से जुड़ी हुई है। वह एक अलग ही लंबी कहानी है जिसमें मुम्बई का एक बहुत ही कुख्यात सबइंस्पेक्टर एनआईए ने गिरफ्तार किया है जिसे इन विस्फोटकों से जोडक़र देखा जा रहा है, और विस्फोटकों की गाड़ी के मालिक की मौत से भी। लेकिन मुम्बई पुलिस के छोटे-बड़े अफसरों के इस साजिश और जुर्म से जुड़े रहने की जो जांच एनआईए कर रहा है, वह भी बड़े सनसनीखेज नतीजे पेश करती सुनाई पड़ रही है। लेकिन इस पूरे सिलसिले में मुम्बई पुलिस, या महाराष्ट्र के मंत्रियों का जो चरित्र सामने आ रहा है उस पर गौर करना जरूरी है।
न तो मुम्बई पुलिस देश की अकेली भ्रष्ट पुलिस है, और न ही वह देश में सबसे अधिक भ्रष्ट है। पुलिस का हाल अधिकतर प्रदेशों में नेताओं की मेहरबानी से गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है, और अगर प्रदेश यूपी सरीखा रहा, तो भ्रष्टाचार के साथ-साथ घोर साम्प्रदायिकता में भी डूबा हुआ है। महाराष्ट्र और मुम्बई में यह अकेला या पहला केस नहीं है जब मुठभेड़ में मारने के विशेषज्ञ कहे जाने वाले ऐसे किसी छोटे पुलिस अफसर के करोड़पति या अरबपति बनने की चर्चा आए। इसके पहले भी कई बार ऐसा हो चुका है, बहुत से दूसरे पहली नजर के हीरो बाद में विलेन साबित होते मिले हैं। मुम्बई पुलिस के कुछ लोगों पर दाऊद इब्राहिम सरीखे देश के सबसे खतरनाक मुजरिमों के साथ सांठ-गांठ होने की चर्चा भी कभी खत्म नहीं हुई है। और इस मुम्बई और महाराष्ट्र में पुलिस के विवादास्पद अफसर भूमाफिया बनते हुए भी दिखे हैं, और वे बरसों तक अपना एक माफियाराज भी चलाते रहने में कामयाब रहे हैं।
अब दूसरे प्रदेशों का हाल देखें, तो बाकी प्रदेशों को कोसने से पहले छत्तीसगढ़ को देख लेना ठीक है जहां पर समय-समय पर बहुत से आला पुलिस अफसर जमीनों के सौदागरों की तरह काम करते भी दिखते हैं, और भूमाफिया की तरह भी। लोगों को याद होगा कि इसी पुलिस के कई कुख्यात अफसरों की भूमाफियाई के खिलाफ एक वक्त भाजपा सरकार में गृहमंत्री रहे हुए ननकी राम कंवर ने लगातार अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री को इन अफसरों के नाम सहित शिकायत लिखी थी, और जो हाल आज मुम्बई में वसूली, उगाही, और भूमाफियाई का दिख रहा है, वही हाल छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में भी एक से अधिक पुलिस अफसरों ने बना रखा था। लेकिन जैसा कि पैसों की अपार ताकत का विशेषाधिकार होता है, इन भ्रष्ट अफसरों और इनको पालने वाले सत्तारूढ़ लोगों ने कभी कोई फंदा इनके गले तक नहीं पहुंचने दिया, कभी कोई हथकड़ी भी इनके हाथों तक नहीं पहुंचने दी। मुम्बई चूंकि अधिक चर्चित जगह है और सौ करोड़ रूपए महीने की उगाही का टारगेट बहुत बड़ा है, और केन्द्र सरकार का महाराष्ट्र सरकार से बड़ा टकराव चल रहा है, इसलिए यह मामला बड़ी खबर बना है। लेकिन कम कमाऊ प्रदेशों और शहरों में नेताओं और अफसरों के दिए हुए छोटे टारगेट भी करोड़ों के रहते हैं, और छत्तीसगढ़ में आईएएस, आईपीएस, और सत्तारूढ़ नेताओं के ऐसे भ्रष्टाचार को भरपूर देखा हुआ है। अफसोस महज यह है कि कानून के बहुत लंबे हाथ भी इन तक नहीं पहुंच पाते क्योंकि ऐसी भूमाफियाई को राज्य से लेकर केन्द्र तक कई किस्म का संरक्षण मिला रहता है।
मुम्बई के इस मामले में महज यह सोचने का मौका दिया है कि इस देश में पुलिस को सबसे ही भ्रष्ट नेताओं की सबसे ही बंधुआ मजदूरी से कैसे बचाया जा सकता है? इसे लेकर देश में समय-समय पर राष्ट्रीय स्तर के आयोगों और कमेटियों की सिफारिशें चौथाई सदी से दिल्ली में धूल और धक्के खा रही हैं, लेकिन उन्हें लागू करने का हौसला कोई पार्टी नहीं दिखाती है। हर पार्टी को अपनी सरकार रहते हुए यही ठीक लगता है कि राजनीति और जुर्म की बिसात पर पुलिस को प्यादों की तरह इस्तेमाल किया जाए, और जरूरत पडऩे पर अफसरों की बलि दे दी जाए। ऐसे में मुम्बई के एक अच्छे या बुरे बड़े अफसर ने सच्चे या गढ़े हुए जैसे भी सुबूतों के साथ गृहमंत्री पर इतनी बड़ी तोहमत लगाई है, तो उसकी जांच सरकार से परे किसी जज की अगुवाई में होनी चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि जज आज हिन्दुस्तान में एकदम पाक-साफ रह गए हैं, लेकिन ईमानदार जांच के लिए भारतीय लोकतंत्र के भीतर अपनी तंग सीमाएं और तंग संभावनाएं हैं, अब हिन्दुस्तान की जांच अमरीकी एफबीआई को तो दी नहीं जा सकती।
इस मामले में यह बात ठीक लगती है कि किसी आला अफसर ने दूसरे बड़े आईपीएस से हुई अपनी बातचीत फोन पर सम्हालकर रखी है। कोई इसे दगाबाजी कहे, या गद्दारी कहे, कोई आरोप लगाने वाले अफसर को ही भ्रष्ट कहे, हमारा तो यह मानना है कि ऐसे सुबूत जिस भी भ्रष्ट मंत्री या अफसर को निपटाने के काम आएं, गंदगी उतनी ही छंटेगी। महाराष्ट्र के इस मामले को देखते हुए देश के बाकी अफसरों को भी टेलीफोन की बातचीत और संदेश सम्हालकर रखने चाहिए क्योंकि वे बड़े सुबूत की तरह काम आ सकते हैं। यह लड़ाई कुछ ऐसी है कि विभीषण का साथ लेकर भी अगर रावण को निपटाया जा सके, तो उसे गद्दारी नहीं समाजसेवा मानना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जापान की सरकार और वहां के वैज्ञानिकों ने विज्ञान और नैतिकता को लेकर एक नई बहस का मौका खड़ा कर दिया है। वहां की सरकार ने शोधकर्ताओं को मानव शरीर की कोशिकाओं का उपयोग करके उसे जानवरों के शरीर में स्थापित करके मानव भ्रूण किस्म का एक विकास करने की इजाजत दी है। वैज्ञानिकों का तर्क यह है कि वे इस शोध से मानव भ्रूण विकसित नहीं कर रहे हैं, बल्कि ऐसी कोशिकाओं का प्रयोग कर रहे हैं जो कि भ्रूण के विकास में आगे काम आ सकती हैं। यह पूरा मामला बड़ा तकनीकी है, और नैतिक आपत्तियों से निपटने के लिए वैज्ञानिकों का तर्क यह है कि वे मानव जन्म का प्रयोग नहीं कर रहे हैं, बल्कि भ्रूण बनने के पहले की प्रक्रिया में कोशिकाओं का प्रयोग ही कर रहे हैं। लेकिन दुनिया के अधिकतर देश अब तक ऐसे प्रयोगों के खिलाफ कानूनी रोक लगाकर चल रहे हैं, ताकि इंसानी शरीर को प्रयोगशालाओं में तैयार करने के किसी भी शोध को भी रोका जा सके। यह एक अलग बात है कि प्रयोगशालाओं में जानवरों के नर और मादा के शरीरों से निकाले गए हिस्सों के बीच संबंध करवाकर उससे एम्ब्रियो बनाकर मादाओं के शरीर में स्थापित करना और फिर उससे बच्चों को जन्म दिलवाने का काम लंबे समय से चल रहा है। और तो और छत्तीसगढ़ में ही एक निजी पशु-प्रयोगशाला में चौथाई सदी के भी पहले यह नियमित रूप से हो रहा था। अब इस दुनिया में जहां कई देशों में तानाशाही है, और दुनिया के कई आत्ममुग्ध नेता और कारोबारी, या फौजी मुखिया अपने ही क्लोन तैयार करवाना चाहेंगे, तो उन्हें ऐसे वैज्ञानिक प्रयोगों से हसरत पूरी करने में बड़ी मदद ही मिलेगी।
विज्ञान कथाओं में शायद आधी-एक सदी पहले से क्लोनिंग पर आधारित कहानियां गढ़ी जाती रही हैं, और दुनिया का तजुर्बा यह भी है कि विज्ञान कथाएं वक्त लेकर हकीकत में तब्दील होती हैं। जो तकनीक जानवरों पर कारगर हो चुकी है, उस पर चाहे दुनिया के अधिकतर देश इंसानों पर इस्तेमाल पर कानूनी रोक क्यों न लगा दें, कोई ऐसी तानाशाही हो सकती है, या कोई ऐसा कारोबारी छोटा सा देश हो सकता है जो अतिमहत्वाकांक्षी वैज्ञानिकों को लेकर ऐसी सहूलियत बेच रहा हो। हो सकता है कि दुनिया के कई आत्ममुग्ध लोग अपने क्लोन बनवा चुके हों जो कि न सिर्फ हमशक्ल होंगे, बल्कि जिनका सारा डीएनए उन्हीं का होगा, और जो हर मामले में अपनी ही सरीखी संतान पैदा कर सकेंगे। यह बात तो जाहिर है कि दुनिया में लोग खुद अमर रहने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं, दूसरी तरफ संतान पाने के लिए भी बहुत से लोग हर किस्म के गैरकानूनी काम करने को तैयार हो जाते हैं, मानवबलि तक दे देते हैं। ऐसे लोगों को अगर उनकी अपार दौलत के सहारे अपना ही क्लोन बनवाने का मौका मिलेगा, तो वे पीछे हटेंगे, ऐसा सोचना मुश्किल है।
वैज्ञानिकों के सामाजिक सरोकार कम रहते हैं। वे किसी आविष्कार या किसी खोज की कामयाबी के नशे में अधिक रहते हैं। उनकी महत्वाकांक्षा प्रयोगशाला के भीतर की कामयाबी तक सीमित रहती है, और फिर अगर उनकी खोज बाहर की दुनिया के लिए खतरनाक या नुकसानदेह रहे, तो भी वे उसकी परवाह नहीं करते। हिरोशिमा और नागासाकी पर जो हाइड्रोजन बम गिराया गया था, उसे बनाने वाले वैज्ञानिकों को इस व्यापक मानवसंहार के खतरे ने किसी भी स्तर पर रोका नहीं था। दुनिया में जितने किस्म के हथियार बने हैं, उनमें से कोई भी फौजियों ने नहीं बनाए हैं, वे सारे के सारे वैज्ञानिकों के बनाए हुए हैं, जिनके काम में सामाजिक सरोकार कोई पहलू ही नहीं रहता है।
आज अगर दुनिया के तकरीबन तमाम विकसित और सभ्य देशों ने मानव भ्रूण को लेकर, मानव-क्लोनिंग को लेकर किसी शोध पर भी रोक लगा रखी है, तो इसके पीछे सिर्फ नैतिकता के मुद्दे नहीं हैं बल्कि मानव-क्लोनिंग से होने वाले और खतरों का अंदाज लगाकर सरकारों ने इसे रोक रखा है। आज दुनिया के अपराधों में फिंगर प्रिंट से लेकर चेहरे तक, और डीएनए तक की जितनी मदद जांच में मिलती है, वह पूरी की पूरी मानव-क्लोनिंग से खत्म हो सकती है, और क्लोनिंग के बाद भी दुनिया से निपटने की ताकत आज दुनिया की बाकी तकनीक, बाकी कानून के पास भी नहीं है।
जब तक खतरों से निपटने की ताकत न हो, तब तक उन्हें लेकर बहुत किस्म के शोध का दुस्साहस ठीक नहीं है। दुनिया ने देखा हुआ है कि बहुत से मामलों में सरकारों, फौजों, और कारोबारियों के करवाए हुए शोध के असली मकसद छुपाकर रखे जाते हैं, और जब उनसे खतरनाक ईजाद हो चुकी रहती है तब जाकर वे मकसद उजागर होते हैं। इसलिए मानव कोशिकाओं को लेकर जापान में जैसे प्रयोगों की इजाजत दी गई है, वह हमारी सीमित वैज्ञानिक समझ के मुताबिक एक गलत और बहुत खतरनाक इजाजत है। दुनिया के देशों को घोषित या अघोषित रूप से ऐसा करने का हक या सहूलियत हासिल तो हैं, लेकिन पूरी इंसानी नस्ल के लिए बेहतर यह है कि इससे बचा जाए। अगर किसी दिन दुनिया में बहुत सारे क्लोन बन जाएंगे, तो ऐसे क्लोन के आपसी देह-संबंधों का क्या नतीजा होगा यह भी अभी साफ नहीं है। यह दुनिया में ऐसे दानव, ऐसे खतरे खड़े करने का काम है जिससे तबाही का कोई अंदाज आज खुद विज्ञान के पास नहीं है। यही वजह है कि विज्ञान की असीमित संभावनाओं पर लोकतांत्रिक-जनकल्याणकारी सरकारों के पास रोक लगाने के अधिकार रहते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में आए दिन खबरें रहती हैं कि कौन सी सब्जी का कितना भाव हो गया है। पाकिस्तान में टमाटर दो सौ रूपए किलो एक बार हो गए, तो वहां से अधिक खबरें हिन्दुस्तान में बनीं, और हिन्दुस्तान के जो लोग टमाटर नहीं भी खाने वाले थे, वे यह सोचकर खाते रहे कि वे वह टमाटर खा रहे हैं जो कि पाकिस्तानी नहीं खा पा रहे हैं। लेकिन दूसरी तरफ बाजार में सब्जी की महंगाई की खबरों को अटपटा सा साबित करती हुई खबरें रहती हैं कि किस तरह किसानों ने दाम सही न मिलने पर सब्जी तुड़वाना महंगा पडऩे पर खेत में ट्रैक्टर चलाकर सब्जियां कुचल डालीं। आज भी आसपास चारों तरफ यही सुनाई पड़ता है कि खेतों से एक-दो रूपए किलो निकलने वाली सब्जियां चिल्हर बाजार में ग्राहकों को 25-50 रूपए किलो तक मिलती हैं। अब जब देश में संगठित किसानों की संगठित उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का एक बड़ा किसान आंदोलन सौ से अधिक दिनों से चल रहा है तो यह भी सोचने की जरूरत है कि सब्जी उगाने वाले किसानों के असंगठित सेक्टर को किस तरह जिंदा रखा जा सकता है? आज भी हिन्दुस्तान जैसे देश में अनाज और तिलहन-दलहन जैसी फसलों के तुरंत बाद सबसे अधिक रोजगार का जरिया सब्जियां और फल ही हैं। इनमें खेतों से लेकर घरों तक करोड़ों रोजगार हैं, लेकिन बीच के एक-दो व्यापारी तबकों के अलावा बाकी सबकी हालत मजदूर सरीखी ही है।
जिन प्रदेशों में दूध की संगठित और योजनाबद्ध खरीदी के लिए, उनके स्टोरेज के लिए, पैकेट बनाकर मार्केटिंग की सहूलियत नहीं है, वहां के दुग्ध उत्पादक कोई कमाई नहीं कर पाते। दूसरी तरफ जिन प्रदेशों में अमूल जैसे सहकारी आंदोलन कामयाब हैं, या राज्य के सरकारी संगठन कामयाब हैं, वहां पर डेयरी चलाकर लोग खासी कमाई कर लेते हैं। और तो और अगर किसी राज्य में निजी डेयरी बड़ा ब्रांड बनकर दूर तक मार्केटिंग कर पाती है, तो उस डेयरी के आसपास के सौ-दो सौ किलोमीटर के इलाके में भी छोटे-छोटे पशुपालक उसके भरोसे चल निकलते हैं। ऐसे में फलों और सब्जियों को लेकर अगर ट्रांसपोर्ट, स्टोरेज, प्रोसेसिंग, पैकिंग-बॉटलिंग और मार्केटिंग का इंतजाम हो जाए, तो इससे सब्जियों के खेतों को ट्रैक्टरों से कुचलने की नौबत नहीं आएगी। आज जब घर-घर में फ्रिज आ चुके हैं, तब उनकी सीमित जगह पर अधिक मात्रा में साफ की हुई सब्जियां रखने लायक पैकेट तैयार मिलें, तो सब्जियों का एक नया बाजार बन सकता है, और इसमें बहुत से रोजगार भी खड़े हो सकते हैं। किसी भी उत्साही राज्य सरकार को इस काम को बढ़ावा देना चाहिए जो कि किसानों की अनाज, दाल, तेल की मुख्य उपज के अलावा भी दूसरी उपज से किसान की कमाई बढ़ाने का काम कर सके।
हम इसी जगह कई बार इस बारे में लिखते हैं कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को जिंदा रखने और बढ़ाने के लिए खेती के साथ-साथ फल-सब्जी, डेयरी, मधुमक्खी पालन से लेकर लाख की खेती, रेशम के कीड़ों को पालना, जड़ी-बूटी की खेती जैसे दर्जनों दूसरे काम बढ़ाने चाहिए ताकि ग्रामीण और कुटीर अर्थव्यवस्था मजबूत हो सके। ये सारे के सारे काम बिना किसी बाहरी तकनीक के, बिना किसी बाहरी रसायनों के हो सकते हैं, और इनमें गांवों में मौजूद अतिरिक्त मानव शक्ति का भरपूर इस्तेमाल हो सकता है। हम यह कोई बड़ी कल्पनाशील बात नहीं कर रहे हैं, गांधी ने अपने वक्त से इसी किस्म के आत्मनिर्भर गांव सुझाए थे, और आज भी गांवों में उत्पादकता की अछूती संभावनाएं अपार हैं। जो बातें हमने ऊपर गिनाई हैं उनके अलावा पशुपालन, मछलीपालन, और पक्षीपालन जैसे काम हो सकते हैं जो कि गांवों में लोगों के खानपान में बेहतरी भी ला सकते हैं, और उनकी अच्छी खासी कमाई भी करवा सकते हैं।
आज जब खबरें बनती हैं कि बाजारों में सब्जियां 75-100 रूपए किलो बिक रही हैं, या बेंगलुरू के बाजार में अमरूद के दाम 250 रूपए किलो हैं, तो यह लगता है कि एक तरफ बाजार में दाम आसमान छू रहे हैं, दूसरी तरफ किसान अपने खेतों में पेड़ों से टंग रहे हैं। इन दोनों सिरों के बीच की कमाई जहां जा रही है, उसमें से किसान को अधिक हक मिलना जरूरी है, और बीच में एक-दो दलाल-व्यापारी जो मोटी कमाई कर रहे हैं, उसकी जगह सरकारों को मार्केटिंग का एक ढांचा लाना चाहिए। सरकारें अलग-अलग इलाकों में फल-सब्जियों को बढ़ावा देने के लिए कोल्ड स्टोरेज भी बना सकती हैं, और इनके प्रोसेसिंग प्लांट भी। इस सुझाव में भी कोई नई बात नहीं है, फर्क बस यह है कि यह बात अनदेखी या उपेक्षित रह जाती है।
एक तरफ देश की आम जनता सब्जी की महंगाई को रोए, और दूसरी तरफ किसान खुदकुशी करते रहें, यह नौबत बहुत खराब है, और इसे ठीक करने की ताकत और जिम्मेदारी दोनों ही सरकारों पर है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तराखंड के नए सीएम तीरथ सिंह रावत अपने एक बयान की वजह से एकाएक खबरों में आ गए हैं, और हिन्दुस्तान के जिन लोगों ने उनके मुख्यमंत्री बनने की खबर नहीं पढ़ी होगी, उन सबको एकाएक उनका नाम और चेहरा दिख गया, और याद रहेगा। उन्होंने घुटनों पर फटी हुई जींस पहनी एक महिला का जिक्र करते हुए कहा कि विमान में बगल में बैठी ऐसी महिला को देखकर हैरानी हुई कि उनके घुटने दिखते हैं, वे समाज के बीच में जाती हैं, बच्चे साथ में हैं, वे क्या संस्कार देंगी?
अब फटी हुई या फाड़ी हुई जींस को पहनना बरसों से पूरी दुनिया में चली आ रही एक ऐसी फैशन है जिसे पश्चिमी कहना भी गलत होगा क्योंकि 10-20 बरस से तो हिन्दुस्तान में भी उसका इतना चलन है कि लोगों की नजरें भी अब ऐसे घुटनों पर नहीं जाती। मुख्यमंत्री के इस बयान को लेकर जवाब में कुछ लोगों ने कटी हुई जींस से बना हाफ पेंट पहनी हुई उनकी बेटी के साथ उनकी तस्वीर पोस्ट की है, और भी कुछ दूसरे किस्म के उघड़े कपड़ों में उनकी बेटी उनके साथ खड़ी दिख रही है। हम इस बहस को उनके परिवार पर ले जाना नहीं चाहते क्योंकि उनकी सोच अलग हो सकती है, और उनकी बालिग बेटी की सोच उसकी उल्टी भी सकती है। हम किसी के बालिग बेटे-बेटियों पर उनकी सोच थोपने के खिलाफ हैं, इसीलिए हम उनके परिवार को इस बहस में घसीटना नहीं चाहते, बहस में घसीटने के लिए तीरथ सिंह रावत के खुद के शब्द काफी हैं।
सोशल मीडिया पर जिन लोगों ने उनके बयान की खिंचाई की है, वह भी पढऩे लायक है, और सीएम के बयान के बाद ऐसी फैशन करने वाली तमाम लड़कियों का यह हक भी बनता है कि वे उसका जवाब दे सकें। एक लडक़ी/महिला ने लिखा है- महिला को ऊपर से लेकर नीचे तक निहारने वाले ये खुद बड़े संस्कारी हैं? ऐसी घटिया बातें बोलकर भाजपाई क्यों अपने संस्कार प्रदर्शित करते हैं? विदेशों में जाकर ऐसे ही लोग औरतों को घूर-घूरकर देखते हैं।
एक दूसरी लडक़ी/महिला ने लिखा है- रिप्ड जींस पहनने वाली औरतें क्या संस्कार देंगी? क्या इसी वजह से शर्टलेस आदमी फेल होते हैं? एक दूसरी लडक़ी/महिला ने लिखा है- फटी जींस नहीं, फटी मानसिकता को सिलाई की जरूरत है। अमिताभ बच्चन की नातिन ने भी सोशल मीडिया पर लिखा है- हमारे कपड़े बदलने से पहले अपनी सोच बदलिए।
उत्तराखंड सीएम के इस बयान के खिलाफ दूसरे राजनीतिक दलों के लोगों ने भी लिखा है और ट्विटर-फेसबुक पर बहुत सी लड़कियों और महिलाओं ने रिप्ड जींस में अपनी तस्वीरें पोस्ट करने की मुहिम छेड़ दी है।
हिन्दुस्तानी वोटरों के जिस बड़े तबके को एक काल्पनिक भारतीय संस्कृति दिखाकर, उसे भारत का इतिहास बताकर जिस तरह की सांस्कृतिक शुद्धता से उसके गौरव को उत्तेजित किया जाता है, वह अभियान इस उत्तेजना को वोटों में तब्दील करने की पुरानी हरकत है। हिन्दुस्तान के इतिहास के जितने भी पन्नों को देखें, यहां की प्रतिमाओं से लेकर यहां की पुरानी तस्वीरों तक, और यहां के साहित्य में सौंदर्य के वर्णन तक महिलाएं बड़े ही दुस्साहसी किस्म के कपड़ों में दिखती थीं। हिन्दुस्तान के अनगिनत मंदिरों में न सिर्फ बेनाम सुंदरियों की प्रतिमाएं, बल्कि देवियों की प्रतिमाएं भी बहुत ही कम कपड़ों की दिखती हैं। संस्कृत साहित्य से लेकर भारत की लोकभाषाओं तक की साहित्य में सुंदरियों के शरीर और कपड़ों का जो ब्यौरा दिखता है, वह रिप्ड जींस से कहीं अधिक खुला हुआ रहता है। यह अलग बात है कि जींस एक पश्चिमी और ईसाई-बहुल देश अमरीका से निकलकर पूरी दुनिया में छाई है, और पूरी दुनिया की नौजवान पीढ़ी की सबसे लोकप्रिय अकेली पोशाक का एकाधिकार पा चुकी है। अब जींस से पश्चिम के नाते परहेज करें, या पश्चिम के ईसाईयों के नाते परहेज करें, उस जींस को फाडक़र पहनना दुनिया के तमाम देशों में एक फैशन बन चुका है जो कि लौटने वाला नहीं है। ऐसे में इस फैशन को कोसना भारतीय संस्कृति के झंडाबरदारों को खुश करने का काम तो हो सकता है, लेकिन यह हकीकत को नकारकर एक अस्तित्वहीन इतिहास की कल्पना को स्थापित करने के पाखंड के सिवाय कुछ नहीं है।
जैसा कि बहुत से लोगों ने अपने जवाब में लिखा भी है, कपड़ों पर पैबंद के बजाय अधिक जरूरत लोगों की फटी हुई सोच और उससे भी अधिक फटी हुई भाषा में पैबंद लगाने की है। आज जिन तथाकथित हिन्दुत्ववादियों या राष्ट्रवादियों का हमला लड़कियों की पोशाक पर होता है, उनके शाम तक बाहर रहने पर होता है, रात में किसी पार्टी में जाने पर होता है, उन्हें अपना हमला उन लडक़ों और आदमियों पर केन्द्रित करना चाहिए जिनसे इन लड़कियों और महिलाओं को खतरा होता है। दिक्कत यह है कि बलात्कारियों की आलोचना भी इस राष्ट्रवादी तबके से तब तक सुनाई नहीं पड़ती जब तक बलात्कारी कोई गैरहिन्दू न हो। अगर मंदिर में पुजारी सहित दर्जन भर लोग एक मुस्लिम बच्ची से बलात्कार कर रहे हैं, तो भी इन राष्ट्रवादियों को कोई दिक्कत नहीं है, वे बलात्कारियों को छुड़ाने के लिए जम्मू में देश का तिरंगा झंडा लेकर लंबी-लंबी रैलियां निकालते हैं, उस बच्ची की महिला वकील पर हमले करते हैं, उसका सामाजिक बहिष्कार करते हैं, लेकिन ऐसे लोगों का ईश्वर मंदिर में एक छोटी बच्ची से सामूहिक बलात्कार और उसके कत्ल से भी अपमानित नहीं होता है। इन लोगों की यह तथाकथित भारतीय संस्कृति लड़कियों के घुटने दिखने से घायल हो जाती है, अपमानित हो जाती है।
यह पूरा सिलसिला बहुत ही शर्मनाक है। जिन लोगों को भारतीय संस्कृति की फिक्र है, उन्हें भारत को दुनिया की बलात्कार-राजधानी बनने से रोकना चाहिए लेकिन जिनके जिम्मे देश की लड़कियों की हिफाजत है, वे बलात्कारियों की हिफाजत में लगे हैं, और लड़कियों के घुटनों को कुसूरवार ठहरा रहे हैं। सोच की यह शर्मनाक हालत बदलनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. संगीता श्रीवास्तव ने जिला प्रशासन को लिखकर भेजा है कि रोज सुबह करीब साढ़े 5 बजे मस्जिद के लाउडस्पीकर पर अजान की आवाज से उनकी नींद खराब होती है, और उसके बाद वे दुबारा सो नहीं पातीं, दिन भर सरदर्द बना रहता है। उन्होंने लिखा है कि वे किसी सम्प्रदाय, जाति, या वर्ग के खिलाफ नहीं हैं, अजान बिना लाउडस्पीकर भी हो सकती है ताकि दूसरों की दिनचर्या प्रभावित न हों। उन्होंने अपनी शिकायत में भारत के संविधान की पंथ निरपेक्षता का जिक्र भी किया है, और इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक आदेश का हवाला भी दिया है। इसके जवाब में अफसरों ने कहा है कि वे नियमानुसार कार्रवाई कर रहे हैं। दूसरी तरफ लखनऊ से शिया धर्मगुरू मौलाना सैफ अब्बास ने कहा है कि ऐसे में तो सुबह होने वाला कीर्तन भी गलत है। उन्होंने कहा- अजान तो दो-तीन मिनट की होती है, अधिक से अधिक पांच मिनट। अगर कुलपति ने सुबह की आरती और कीर्तन को लेकर भी शिकायत की होती तो भी मसला समझ में आता। लेकिन सिर्फ अजान को लेकर शिकायत करना ठीक नहीं है। उन्होंने याद दिलाया कि कुलपति जिस शहर की रहने वाली हैं वहां बड़ा कुंभ होता है, पूरे महीने लाउडस्पीकर की आवाजें उठती हैं, सडक़ें भी बंद होती हैं लेकिन किसी भी मुसलमान ने कोई चि_ी नहीं लिखी, न ही आपत्ति की।
दोनों ही बातें बड़ी जायज हैं। चूंकि कुलपति ने साफ किया है कि वो किसी सम्प्रदाय के खिलाफ नहीं हैं, इसलिए उन्हें इसमें कोई परहेज नहीं होना चाहिए कि वे अपनी शिकायत को सुधारकर उसमें सभी धर्मों के, सभी धर्मस्थलों के लाउडस्पीकरों को बंद करवाने की बात लिखें। अगर वे सिर्फ मस्जिद के लाउडस्पीकर की बात करती हैं, तो उसका तो एक खास मतलब निकलेगा ही निकलेगा, और वे तोहमतों से बच नहीं सकेंगी। चूंकि उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले को साथ में लगाया है, इसलिए देश की कई अदालतों के अलग-अलग वक्त के फैसलों को देखना जरूरी है जिनमें धार्मिक स्थलों के अवैध कब्जों, और उनके ध्वनि प्रदूषण के खिलाफ कार्रवाई की बात लिखी गई है।
यह बात बिल्कुल सही है कि मंदिर-मस्जिद, या गुरूद्वारों और दूसरे धर्मस्थलों के लाउडस्पीकर आसपास के लोगों का जीना हराम करते हैं। जो आस्थावान हैं, और जो उस धार्मिक प्रसारण को सुनना चाहते हैं, उनके लिए अपने घरों के भीतर दीवारों के बीच तक सीमित धार्मिक संगीत वे खुद बजा सकते हैं। लोगों को नमाज का वक्त याद दिलाने के लिए मस्जिद के लाउडस्पीकरों पर से अगर अजान दी जाती है, तो यह उस वक्त की बात थी जब लोगों के पास अलार्म घडिय़ां नहीं होती थीं, फोन नहीं होते थे। आज तो गरीब से गरीब मुसलमान के पास भी मोबाइल फोन हैं, और उन पर दिन में पांच वक्त का अलार्म भी लगाया जा सकता है। कुलपति की यह मांग बिल्कुल सही है, और इलाहाबाद के प्रशासन को इस पर कार्रवाई करनी चाहिए।
इसके साथ ही इलाहाबाद के प्रशासन और बाकी देश के भी शासन-प्रशासन को इन अदालती आदेशों पर कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए जिनमें धर्मस्थलों के ध्वनि प्रदूषण को रोकने की बात कही गई है। हम अपने आसपास दिन में कुछ बार कुछ-कुछ मिनटों के लिए मस्जिद के लाउडस्पीकरों का ध्वनि प्रदूषण झेलते हैं, और सुबह-शाम, पूरी-पूरी रात मंदिरों के कीर्तनों का उससे भी तेज ध्वनि प्रदूषण बर्दाश्त करते हैं। सरकार के अफसरों का हौसला इतना कम है कि रायपुर शहर के एक मंदिर के खिलाफ पड़ोस में रहने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार और मंदिरनिर्माता समाज के एक व्यक्ति हाईकोर्ट जाकर मंदिर के लाउडस्पीकर के खिलाफ स्थगन लेकर आए, तब कहीं जाकर उस मंदिर पर रोक लगी, लेकिन अफसरों ने बाकी शहर, प्रदेश के बाकी शहर-गांव कहीं भी कानून लागू करने की जहमत नहीं उठाई।
कोई वक्त ऐसा रहा होगा जब आबादी बिखरी हुई रहती होगी, कंस्ट्रक्शन बहुत कम रहे होंगे, और लोगों को न फोन पर काम करना पड़ता होगा, न ही रात-दिन देखे बिना पढ़ाई करनी पड़ती होगी, वैसे वक्त में धार्मिक लाउडस्पीकर खप जाते होंगे। लेकिन अब तो चारों तरफ घनी आबादी रहती है, लोग रात-दिन की शिफ्ट में काम करते हैं, और ऐसे में नींद पूरी कर रहे लोग, आराम कर रहे बीमार, पढ़ रहे बच्चे या कच्ची नींद सो रहे छोटे बच्चे, तमाम लोग लाउडस्पीकरों की प्रताडऩा सहते हैं क्योंकि इसका विरोध धर्म का विरोध करार दे दिया जाएगा।
तमाम धर्मस्थलों के साथ एक जैसा सुलूक करके सबसे लाउडस्पीकर हटा देने चाहिए, और सार्वजनिक जगहों पर धार्मिक अवैध कब्जे, अवैध निर्माण, सडक़ों पर अवैध धार्मिक आयोजन इन सबको बंद करवाना चाहिए। धर्म निरपेक्ष सरकार का मतलब हर धर्म की मनमानी और अराजकता को बर्दाश्त करना नहीं होता। धर्म निरपेक्ष का मतलब किसी भी धर्म की गुंडागर्दी न चलने देना भी होता है। सभी धर्मों की गुंडागर्दी रोकने में उत्तरप्रदेश के योगी राज को खासी दिक्कत आ सकती है क्योंकि बहुसंख्यक हिन्दू धर्म की अराजकता के खिलाफ वहां की पुलिस के हाथ उठेंगे कैसे? आज मस्जिदों के लाउडस्पीकर तो बंद करवाए जा सकते हैं, लेकिन क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मंदिरों पर भी बराबरी की कार्रवाई कर पाएंगे? ऐसा करना उनके अस्तित्व की आत्महत्या से परे कुछ नहीं होगा क्योंकि धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता ही उनकी सबसे बड़ी पहचान हैं।
देश में जिस रफ्तार से साम्प्रदायिकता बढ़ती चल रही है, धर्मान्धता बढ़ती चल रही है, उसे कुचलना जरूरी है। और धार्मिक आस्था के प्रतीकों के इस किस्म के सार्वजनिक प्रदर्शन पर रोक लगनी ही चाहिए जिससे बाकी लोगों का जीना हराम हो रहा है। अदालतों के आदेश किसी एक धर्म के खिलाफ नहीं हैं, राज्य सरकारों को इतनी हिम्मत दिखानी चाहिए कि वे अपने-अपने इलाकों में धर्म की मनमानी को खत्म करें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
राजस्थान में कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पार्टी के भीतर उनके प्रतिद्वंद्वी सचिन पायलट के बीच तनातनी को लेकर कांग्रेस विरोधी पार्टियों का खुश होना जायज ही है। पिछले बरस जब सचिन पायलट अपने समर्थक विधायकों को लेकर सरकार गिराने के लिए हरियाणा के रिसॉर्ट में जा बैठे थे, तब ऐसी भी चर्चा हुई थी कि उनके कब्जे से कांग्रेस विधायकों को खुद कांग्रेस पार्टी खरीदकर वापस लेकर आई थी, और सरकार बचाई थी। अब ऐसी खरीद-बिक्री पर कोई जीएसटी तो पटता नहीं है कि उसके बिल और रसीद पेश किए जा सकें, ये तमाम राजनीतिक कानाफूसियां ही रहती हैं। अब राजस्थान विधानसभा में सरकार ने एक साधारण सवाल का साधारण जवाब दिया है तो देश के मीडिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा उस साधारण को असाधारण खबर बनाकर पेश करने में लग गया है। एक विधायक ने सवाल पूछा कि क्या बीते दिनों में फोन टेप किए जाने के प्रकरण सामने आए हैं? यदि हां तो किस कानून के अंतर्गत, और किसके आदेश पर? इसके जवाब में गृहविभाग ने कहा कि लोगों की सुरक्षा और कानून व्यवस्था को खतरा होने पर सक्षम प्राधिकारी के अनुमति लेकर केन्द्र सरकार के बनाए कानून के तहत फोन टेप किए जाते हैं। राजस्थान पुलिस ने इसी तरह फोन टेप किए हैं, और निगरानी पर लिए गए फोनों की मुख्य सचिव के स्तर पर बनी समिति समीक्षा करती है, कर चुकी है।
अब यह साधारण सवाल देश के किसी भी राज्य में पूछा जा सकता है, और वहां की सरकार विधानसभा में ठीक ऐसा ही जवाब दे सकती है। इस सवाल-जवाब से कहीं भी यह नहीं निकलता कि कांग्रेस के बागी विधायकों के फोन टैप हुए हों। लेकिन मीडिया में सुर्खियां देखें तो दिखता है कि सचिन पायलट की बगावत के वक्त फोन टैप हुए थे, गहलोत सरकार ने पहली बार मंजूर किया। दर्जनों अखबारों, वेबसाईटों, और चैनलों ने ऐसी ही खबरें छापी हैं। न तो विधानसभा के सवाल में और न ही वहां के जवाब में पायलट का जिक्र है, या किसी विधायक के फोन का जिक्र है, और एक निहायत तकनीकी सवाल और तकनीकी जवाब को मीडिया ने अपना मनचाहा रंग देकर पेश कर दिया। बहुत पहले किसी ने ऐसी ही नौबत के लिए यह लिखा होगा- जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।
कल से लेकर अब तक तकरीबन चारों तरफ मीडिया में खबरें ऐसी तस्वीर पेश कर रही हैं कि गहलोत सरकार ने पायलट के फोन टैप करने की बात मंजूर कर ली हो। हैडिंग धोखा देती है, पूरे समाचार में विधानसभा के सवाल-जवाब को बहुत छोटे से हिस्से में बीच में दबा दिया गया है, और अपनी राजनीतिक अटकलों को सरकार के जवाब की तरह खबर बना दिया गया है। अब यह इतनी चटपटी और सनसनीखेज बात है कि अखबार, वेबसाईटें, और चैनल कोई एक-दूसरे से पीछे रहना नहीं चाहते क्योंकि विधानसभा के सवाल और जवाब तक खबर को सीमित रखा जाए तो उसे कोई नहीं पढ़ेंगे। सवाल और जवाब एक सार्वभौमिक सत्य की तरह हैं कि कानून क्या है, और सरकार ने उसका उसी तरह इस्तेमाल किया है। इसमें भला क्या खबर बनती?
हम पहले भी कई बार लिखते हैं कि लोग उतने ही समझदार बन सकते हैं जितने समझदार मीडिया का वे इस्तेमाल करते हैं। समझदार मीडिया, जिम्मेदार मीडिया, और सरोकारी मीडिया, इन खूबियों को अगर देखें तो ऐसा मीडिया कम ही बच गया है। मीडिया ने अपने पाठकों, दर्शकों, और श्रोताओं को जिम्मेदार-सोच के बोझ और उसकी मशक्कत की तकलीफ से बचाने की कोशिशों को लगातार जारी रखा है। अपने ग्राहकों को दिमाग पर जोर न डालना पड़ जाए इसकी पूरी कोशिश की जाती है। नतीजा यह होता है कि सजाकर पेश की गई एक सनसनीखेज तस्वीर के बाद उसके पाठक या दर्शक अपनी अक्ल का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं करते। इस तरह के मीडिया तक सीमित रहने वाले लोग इस किस्म की सनसनीखेज और अर्धसत्य से भी कमसत्य, या पूरी तरह असत्य जानकारी को सच मानकर चलते रहेंगे।
लोगों की जिंदगी में मीडिया के लिए वक्त बड़ा सीमित बचा है। लोगों को समाचार और विचार के अपने श्रोत बहुत सोच-समझकर तय करने चाहिए क्योंकि उनसे मिली जानकारी और सोच उनकी अपनी जिंदगी की कई बातें तय करती हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सोशल मीडिया इस मायने में बड़ा दिलचस्प है कि कई बरस पुरानी कोई कतरन निकालकर, उसके पुराने होने के जिक्र के बिना उसे पोस्ट कर दिया जाता है, और लोग उस पर टूट पड़ते हैं। कुछ लोग अनजाने में ऐसा कर बैठते हैं, और बहुत से लोग सोच-समझकर ऐसा करते हैं कि पेट्रोल और डीजल की महंगाई, रसोई गैस और तेल की महंगाई को लेकर यूपीए सरकार के वक्त एनडीए के नेताओं ने जितने प्रदर्शन किए थे, और डॉलर के महंगाई पर जितने भाषण दिए थे उनके वीडियो लोग पोस्ट करते हैं ताकि मनमोहन सरकार को जिन बातों के लिए मोदी सहित तमाम भाजपा नेता जितना कोसते थे, उन तर्कों को तो आज याद दिलाया जाए। ऐसी ही एक पुरानी कतरन आज सामने आई है जिसमें 2018 में इंदौर के किसी कार्यक्रम में आरएसएस के एक नेता इंद्रेश कुमार ने कहा था कि भीख मांगना भी हिन्दुस्तान में एक किस्म का रोजगार है। वहां पर ‘कलाम का भारत’ विषय पर आयोजित एक बैठक में इंद्रेश कुमार ने कहा था कि देश में 20 करोड़ लोगों का रोजगार भीख मांगना है, जिन्हें किसी ने रोजगार नहीं दिया उन्हें धर्म में रोजगार मिलता है। उन्होंने कहा जिस परिवार में पांच पैसे की कमाई भी न हो उस परिवार के कोई दिव्यांग या दूसरे सदस्य धार्मिक स्थलों पर भीख मांगकर परिवार का गुजारा करते हैं, और यह छोटा काम नहीं है।
अब यह बात किसने कही, कब कही, इसे अगर छोड़ भी दें, तो भी मुद्दे पर सोचने-विचारने की जरूरत है। यह बयान देश में मोदी सरकार के रहते हुए उनके एक सहयोगी संगठन आरएसएस की तरफ से न भी आया होता, तो भी यह हकीकत तो है कि हर धार्मिक जगह के बाहर बड़ी संख्या में लोग भीख मांगते बैठे दिखते हैं। जो लोग ईश्वर की जगह पर उसकी उपासना करने जाते हैं, उनके मन में जाहिर तौर पर स्वर्ग का लालच और नर्क का डर तो रहता ही है, और ऐसे में वे भिखारियों को कुछ सिक्के देकर अगर स्वर्ग के किसी बड़े मकान पर रूमाल बिछाना चाहते हैं, तो यह इंसान के लिए एक बिल्कुल आम मिजाज की बात है। अब ऐसे लोगों की वजह से अगर हिन्दुस्तान में 20 करोड़ लोगों के रोजगार का अंदाज है, तो इस देश में रोजगार की हालत के बारे में सोचने की जरूरत भी है। यह भी हो सकता है कि सौ-दो सौ रूपए रोजी का काम मिलने पर भी बहुत से भिखारी उसे करने को तैयार न होते हों क्योंकि उसमें कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, और किसी धर्मस्थान के बाहर भीख मांगने में कोई मेहनत नहीं लगती, और खाने-पीने को भी मिल जाता है। यह देश के लिए एक शर्मनाक बात हो सकती है कि आबादी का 10-20 फीसदी भीख मांगकर गुजारा कर रहा है, और इसमें दिव्यांग, बीमार, बूढ़े और बच्चे, ऐसे तमाम कमजोर तबकों की बहुतायत है। लेकिन शर्म भरे पेट आने वाली चीज होती है। जब पेट भरा होता है तभी किसी को शर्म आ सकती है। पेट जब खाली रहता है तो सिर्फ भूख आती है, भूखे के पास शर्म भी नहीं आती कि उसके पास आकर क्या भूखे मरना है? इसलिए शर्म तो इस देश के भरे पेट वाले लोगों को आनी चाहिए कि 20 करोड़ लोग भीख मांगकर जीने को मजबूर हैं, या उसे किसी रोजगार से बेहतर समझते हैं। पिछले दो-तीन बरस में देश की मोदी सरकार ने और कई किस्म के तबकों के लिए अच्छे दिन लाने की बात की थी, यह एक अलग बात है कि दूसरी पार्टियां छोडक़र भाजपा में आने वाले लोगों के अलावा और किसी तबके के लिए अच्छे दिन आए नहीं। लेकिन इस सरकार ने भी भिखारियों के लिए अच्छे दिन लाने की योजना नहीं बनाई। भाजपा के राज वाले मध्यप्रदेश के इंदौर में इतना जरूर हुआ कि शहर को साफ करने के लिए बुजुर्ग भिखारियों और बेघरों का इंसानी कचरा म्युनिसिपल की कचरा गाडिय़ों में लादकर शहर के बाहर ले जाकर फेंक दिया गया, लेकिन भाजपा राज ने खुद अपने इंद्रेश कुमार की इस बात पर गौर नहीं किया कि रोजगार तो धर्मस्थानों के बाहर भीख मांगकर चल रहा है, बेघर गरीब, बुजुर्ग शहर के बाहर सुनसान में भला कहां भीख और रोटी पाएंगे। लेकिन इंदौर की इस मिसाल से परे बाकी पूरे देश में खुद आरएसएस के नेता की कही इस कड़वी बात पर उसके बाद के दो-तीन बरसों में भी किसी भाजपा सरकार ने ऐसा अभियान नहीं चलाया कि भिखारियों को कोई बेहतर जिंदगी दी जा सके। और फिर भिखारी कोई जमीन के नीचे छिपे हुए तो हैं नहीं, वे तो गैरभाजपा राज्यों में भी सडक़ों पर दिखते हैं, ट्रैफिक की लालबत्तियों पर दिखते हैं, घरों के बाहर दर्दभरी आवाज लगाते सुनाई पड़ते हैं, और धर्मस्थलों के बाहर तो उनका खास डेरा रहता ही है। देश की किसी भी सरकार ने भिखारियों के पुनर्वास के लिए कुछ किया हो ऐसा दिखता नहीं है। और अगर सचमुच ही इनकी गिनती 20 करोड़ जैसी है, तो फिर हिन्दुस्तान की किसी एक राज्य सरकार की भी इतनी ताकत नहीं हो सकती कि अपने राज्य के सारे भिखारियों का एक साथ पुनर्वास कर सके।
एक पुरानी कतरन से आज इस मुद्दे पर लिखने की वजह पैदा हुई, और अब यह सोचना जरूरी लग रहा है कि कोई भी कल्याणकारी-लोकतांत्रिक सरकार किस तरह अपने इस सबसे कमजोर तबके के लिए क्या कर सकती है? इनके अनदेखा रहने की एक वजह शायद यह भी हो सकती है कि ये 20 करोड़ लोग पूरे हिन्दुस्तान में इस कदर बिखरे हुए, इस कदर बेघर गैरवोटर हैं कि इनका चुनाव में कोई इस्तेमाल ही नहीं है। और जिनकी चुनाव में कोई जरूरत नहीं है, उनकी फिक्र करने की भी कोई जरूरत नहीं है। यही भिखारी अगर संगठित होकर वोट डालने की हालत में रहते, तो राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े नेता इनके घर पहुंचकर फर्श पर बैठकर खाना खाकर आते, फिर चाहे वह खाना खुद के ही लोगों का पहुंचाया हुआ क्यों नहीं रहता।
जो प्रदेश या जो शहर अपने आपको गौरवशाली मानते हैं, उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि जब तक उनके इलाकों के ये सबसे कमजोर लोग जिंदा रहने लायक नहीं रहेंगे, लोगों की भीख के मोहताज बने रहेंगे, तब तक उनके इलाके की सरकारों का कोई गौरवगान नहीं हो सकता। भिखारियों में से शायद ही कोई हमारा लिखा पढ़ें, और शायद ही मीडिया को इस अधिक लिखने की जरूरत सूझती हो क्योंकि इस मुद्दे से विज्ञापनदाताओं का भला क्या लेना-देना? लेकिन समाज में सरोकार रखने वाले लोगों को इन बेजुबान भिखारियों के बारे में सोचना चाहिए कि क्या ये बाकी समाज के लिए बड़ी शर्मिंदगी की वजह नहीं बनते हैं? क्या बाकी समाज की इनके प्रति जिम्मेदारी नहीं बनती है? और यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के लिए अच्छे दिन आना इन्हीं लोगों से शुरू हो सकते हैं क्योंकि इनके अच्छे दिन सबसे ही सस्ते पड़ते हैं। बाकी लोगों की जिंदगी इनसे अधिक महंगी रहती है, और फिलहाल तो देश में ऐसे कमजोर तबकों के लिए सबसे सस्ते पडऩे वाले अच्छे दिनों के भी कोई आसार नहीं दिख रहे हैं। आरएसएस के इंद्रेश कुमार को 2018 के बाद के भिखारियों के आंकड़े अपडेट करना चाहिए जो कि अब तक कई लाख बढ़ चुके होंगे, और उनकी कही बात को भाजपा की सरकारें शायद अधिक ध्यान से सुनें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी हिन्दी की एक लेखिका को साहित्य का एक प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला तो उस पर कई किस्म की बहस चल रही है। अधिकतर लोग तो आम चलन के मुताबिक बधाईयां दे रहे हैं, और कुछ बड़े प्रतिष्ठित और विश्वसनीय संपादक रहे हुए पत्रकार उनकी खूबियां भी लिख रहे हैं इसलिए यह मानना ठीक ही होगा कि वे इस पुरस्कार की हकदार होंगी। लेकिन कोई भी बहस किसी मौके पर ही छिड़ती है। जजों का आचरण कैसा होना चाहिए इस पर बहस के लिए मुख्य न्यायाधीश की राह चलते हुए एक महंगी विदेशी मोटरसाइकिल पर बैठे हुए तस्वीर का सामने आना जरूरी था तब जजों के सार्वजनिक बर्ताव पर बात शुरू हुई। इसी तरह किसी न किसी पुरस्कार के मौके पर तो यह बहस छिडऩी ही थी कि साहित्य या किसी दूसरे किस्म के पुरस्कार लेना चाहिए या नहीं, और देना भी चाहिए या नहीं।
हमारा इस बारे में बड़ा साफ सोचना है। पुरस्कारों और सम्मानों में जो पत्रकारिता से संबंधित हैं, उनमें पुरस्कार रया सम्मान देने वाली संस्था का इसके पीछे का मकसद, उसकी अपनी साख, उसके निर्णायक मंडल की साख, और सम्मान या पुरस्कार के लिए नाम छांटने की एक बहुत ही पारदर्शी और निष्पक्ष प्रक्रिया। अगर इतनी तमाम बातें पूरी हो पाती हैं, तो वैसे पुरस्कार/सम्मान शायद थोड़े बहुत सम्मान के हकदार हो भी सकते हैं, और हो सकता है कि कुछ सचमुच ही इज्जतदार पत्रकार उन्हें लेना मंजूर कर सकें। लेकिन हिन्दुस्तान जितने बड़े देश में ऐसे दो-चार ही पत्रकारिता सम्मान होंगे जिनका खुद का कोई सम्मान होगा। बाकी तमाम सम्मान अपने लिए सम्मान तलाशते हुए दूसरों को सम्मान देते या बेचते हुए अपना अस्तित्व चलाते रहते हैं।
यह तो बात हुई पत्रकारिता के गैरसरकारी सम्मानों की। और फिर सम्मानों की बात करें तो छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में अस्तित्व में आते ही पहले बरस से पत्रकारिता, साहित्य, कला, समाजसेवा जैसे शायद एक-डेढ़ दर्जन सामाजिक क्षेत्रों के चुनिंदा लोगों के लिए जो सम्मान शुरू किए, वे अब सम्मान के पात्र लोगों को तरस रहे हैं। सम्मानजनक तो दूर, मामूली चर्चित लोग भी ये सम्मान पा-पाकर अघा चुके हैं, और किसी सम्मान का इससे अधिक अपमान शायद हो नहीं सकता, और हो सकता है कि इससे भी अधिक अपमान आने वाले बरसों में हो जाए। छत्तीसगढ़ के सरकारी सम्मानों में पत्रकारिता का सम्मान भी है, और सरकार से पता नहीं किस किस्म की पत्रकारिता सम्मानित हो सकती है! सरकार और पत्रकार ये दोनों तकरीबन आमने-सामने रहने वाले तबके हैं जिनके बीच अनिवार्य रूप से एक तनातनी निरंतर ही चलती रहनी चाहिए, ऐसे में ये तबके एक-दूसरे का सम्मान करने लगें, तो उससे जाहिर है कि ये अपनी खुद की पहचान खो बैठे हैं, या दूसरे की पहचान खत्म करना चाहते हैं।
दुनिया में पत्रकारिता के लिए दिया जाने वाला सबसे बड़ा सम्मान या पुरस्कार पुलित्जर है जिसे देने की एक बहुत पारदर्शी प्रक्रिया है, और यह आमतौर पर अमरीका की पत्रकारिता पर दिया जाता है। पुलित्जर एक बहुत कामयाब अखबार-प्रशासक थे, और इन पुरस्कारों को कोलंबिया विश्वविद्यालय स्वतंत्र रूप से तय करता है। इस पुरस्कार के लिए लोगों को दाखिला भेजना होता है, एक छोटी सी फीस भी देनी होती है, तब कहीं उनके काम पर विचार किया जाता है। इतने बरसों में यह पुरस्कार पत्रकारिता के सबसे अच्छे कामों के लिए दिया गया है, और कभी इसके बिकने या खरीदने जैसी बातें अफवाहों में भी नहीं आती। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में सौंदर्य से लेकर साहित्य तक और पत्रकारिता से लेकर समाजसेवा तक के नाम पर दिए जाने वाले अनगिनत ऐसे सम्मान हैं जिन्हें खुले रूप में खरीदा और बेचा जाता है।
अब हिन्दुस्तान में राष्ट्रीय स्तर के बहुत सारे पुरस्कार हैं जो कि फिल्मों से लेकर खेल तक, और समाजसेवा से लेकर लोककला तक दर्जनों दायरे में दिए जाते हैं। बहुत से सालाना पुरस्कार हैं और बहुत से राष्ट्रीय सम्मान हैं जिनमें पद्मश्री से लेकर भारतरत्न तक हैं। सरकार के दिए हुए पुरस्कार इस कदर फिजूल के रहते हैं कि नाम सामने आते ही पहले तो लोग आसानी से यह रिश्ता ढूंढ लेते हैं कि फलां को यह सम्मान क्यों दिया गया होगा और किसी चुनावी वर्ष में किसी प्रदेश के लोगों को सम्मान क्यों दिया जाता है। ऐसे अप्रिय विवादों के बीच में इन सम्मानों को लेना पता नहीं किन्हें अच्छा लगता है, लेकिन हम लगातार इस बात के खिलाफ लिखते आए हैं कि सरकार या सरकारी पैसों पर चलने वाली संस्थाओं से कोई सम्मान नहीं लेना चाहिए, और वह लोगों के अपने व्यक्तित्व का अपमान छोड़ और कुछ नहीं होता। फिर भी सम्मान की हवस में अपना जीवन परिचय लेकर लोगों के दरवाजों पर मत्था टेकते हुए लोगों को देखा जा सकता है जो पांच-दस बरस का मिशन बनाकर ऐसे अभियान में लगे रहते हैं।
बीच-बीच में जब कभी हम इस विषय पर लिखना चाहते हैं, तो हफ्ते-दो हफ्ते के भीतर ही हमारे दायरे के कोई न कोई पत्रकार-साहित्यकार ऐसा सम्मान/पुरस्कार पाए हुए रहते हैं, और ऐसा लगता है कि यह लिखना उन पर निजी हमला लगेगा, और यह लगेगा कि इस अखबार के संपादक को ऐसा कोई सम्मान या पुरस्कार नहीं मिला है, इसलिए खीझ उतारने के लिए यह लिखा जा रहा है। अब इस बात की सार्वजनिक घोषणा करना तो ठीक रहता नहीं कि इस अखबार के संपादक ने पिछले 25-30 बरस के सम्मान/पुरस्कार के हर प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया है कि वे सैद्धांतिक रूप से इसके खिलाफ हैं। और तो और सरकार के पत्रकारिता सम्मान के निर्णायक मंडल में रहने से भी मना कर दिया कि जिस सम्मान का हम सैद्धांतिक रूप से विरोध करते हैं उसे तय करने में शामिल होना तो बहुत अनैतिक होगा।
बिना किसी मौके के, बिना किसी नाम के, हम एक आम बात लिखना चाहते हैं कि किसी सरकार को कोई पुरस्कार या सम्मान नहीं देना चाहिए, और किसी सम्माननीय व्यक्ति को ऐसा कुछ लेना नहीं चाहिए। नोबल पुरस्कार कमेटी या पुलित्जर पुरस्कार कमेटी किस्म के पारदर्शी ट्रस्ट हों, जहां बड़ी साख वाला निर्णायक मंडल हो, और जहां दाखिले की खुली और पारदर्शी प्रक्रिया हो, वहां लोगों को यह सोचना चाहिए कि वे उससे मिलने वाले पुरस्कार/सम्मान के लिए मुकाबला करें या न करें।
इससे कम पारदर्शी और साख वाली किसी भी प्रक्रिया से तय होने वाले सम्मानों का अपने आपमें कोई सम्मान नहीं होता। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में कोरोना वैक्सीन लगाने का काम रफ्तार से चल रहा है। अलग-अलग राज्यों में रफ्तार कुछ कम या अधिक हो सकती है, लेकिन कुल मिलाकर करोड़ों लोगों को वैक्सीन लग चुकी है, और अधिक नाजुक या अधिक खतरे में जी रहे तबके इसे पहले पा रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी लोग वैक्सीन का इंजेक्शन लगवाते हुए अपनी तस्वीरें पोस्ट कर रहे हैं, जिनमें से कुछ का मतलब प्रसार हो सकता है, लेकिन कुछ का मकसद यह भी है कि वैक्सीन को लेकर जिन लोगों के मन में दहशत है वह दूर हो, और भरोसा कायम हो।
छत्तीसगढ़ सहित दूसरे बहुत से राज्यों के वैक्सीन लगाने के इंतजाम देखें तो उनमें एक बुनियादी चूक दिखाई पड़ रही है। अभी भी यह काम कागजों पर किया जा रहा है, एक ही जानकारी को अलग-अलग तीन-चार टेबिलों पर बताना पड़ रहा है, वक्त भी बर्बाद हो रहा है, और लोगों के लाए हुए कागज कम से कम तीन-चार कर्मचारी छू रहे हैं जिससे सभी लोगों पर खतरा बढ़ रहा है। एक तरफ तो हिन्दुस्तान डिजिटल कामकाज का दावा कर रहा है, अधिकतर राज्यों में काफी कुछ कामों में कम्प्यूटर का इस्तेमाल बढ़ा भी है, लेकिन जनता का सरकारी कामकाज से यह वास्ता कम्प्यूटरों पर एक अलग भरोसा पैदा कर सकता था, जो कि वह नहीं कर पाया। लोगों को वैक्सीन पर भरोसा हो गया, उसे लगाने की महीन सुई पर भरोसा हो गया, लेकिन लोग यह नहीं देख पाए कि कम्प्यूटर काम को आसान कैसे करता है। बहुत ही मामूली और गली-गली में उपलब्ध कम्प्यूटरों को तार से एक-दूसरे से जोड़ देने वाली लेन प्रणाली से टीकाकरण के पूरे इंतजाम को कागजमुक्त किया जा सकता था, लेकिन ऐसा किया नहीं गया। दरअसल जब वैक्सीन पाने और लगाने को ही बहुत बड़ी उपलब्धि मान लिया गया है, तो फिर उसे कागजमुक्त बनाकर भला और कौन सी कामयाबी पाई जा सकती थी?
लेकिन टीकाकरण जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रम आम लोगों के मन में सरकार के कम्प्यूटरीकृत इंतजाम के बारे में एक भरोसा पैदा हो सकता था, खासकर टीकाकरण के शुरुआती दौर में इस उम्र के आम लोगों को टीके लग रहे हैं, उन लोगों ने कम्प्यूटरों को अधिक देखा हुआ नहीं है। सरकार डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने की बात करती है, दावा करती है, लेकिन टीका लगाने जाने वाले को कई बार अपना नाम, पता, मोबाइल नंबर बताना पड़ रहा है, हर टेबिल पर बार-बार उसी जानकारी को दर्ज किया जा रहा है, टीकाकरण की क्षमता भी बर्बाद हो रही है, और एक-एक कागज को कई लोगों के छूने से संक्रमण का एक खतरा भी बढ़ रहा है। ऐसा भी नहीं है कि राज्य सरकारों ने इंतजाम में खर्च नहीं किया है, खर्च भी किया है लेकिन चार कम्प्यूटरों को आपस में जोडक़र पूरे काम को कागजमुक्त करने की कल्पना नहीं दिखाई है।
अब समय आ गया है कि सरकार को गैरजरूरी कागजी कार्रवाई का बोझ जनता पर से खत्म करना चाहिए। टीकाकरण से परे एक दूसरा मामला सरकारी कामकाज में गैरजरूरी कागजी कार्रवाई का है। आज लोग किसी भी सरकारी दफ्तर में मामूली सा काम लेकर जाते हैं तो उनसे ऐसे ढेर सारे कागज मांगे जाते हैं जो कि उस दफ्तर में पहले से जमा हैं। विश्वविद्यालय में नए इम्तिहान या दाखिले के लिए अर्जी लगाने पर उसी विश्वविद्यालय के पुराने नतीजों को मांगा जाता है। छोटे से छोटा सरकारी दफ्तर कागजों का अधिक से अधिक कचरा इक_ा करना चाहता है, मानो फोटोकॉपी की दुकानें उनके घरवाले चला रहे हों। दूसरी तरफ अमरीका जैसे विकसित और सभ्य सरकारों वाले देशों का यह हाल है कि वहां किसी भी सरकारी फॉर्म में मांगी जाने वाली हर जानकारी के बारे में यह तौला जाता है कि क्या उसे मांगना जरूरी है? हर सरकारी फॉर्म पर यह लिखना जरूरी होता है कि उसे भरने में करीब कितने मिनट लगेंगे? आज छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में बिजली का कोई मौजूदा ग्राहक घर पर एक एसी लगाने पर अगर खुद होकर स्वीकृत बिजली लोड को बढ़ाने की अर्जी दे, तो उससे वे सारे के सारे कागज फिर से मांगे जाते हैं जो उसने बिजली का कनेक्शन लेते हुए जमा किए थे। इससे ग्राहक के ऊपर कागजों को जुटाने का अंधाधुंध बोझ बढ़ता है, और खुद बिजली विभाग उन कागजों को दुबारा लेकर क्या कर लेगा जिनके आधार पर उसने पहला कनेक्शन दिया था?
कागजों को लेकर सरकारी व्यवस्था का मोह हैरान करता है। जब कभी पुराने कागजों के ग_े दीमकों के खाए हुए दिखते हैं, तब यह समझ नहीं आता कि इनका अधिक बड़ा शौक दीमक को है, या सरकार को? सरकारी दफ्तरों में जाकर देखें तो ऐसे गैरजरूरी मंगाए गए लोगों के दस्तावेज धूल खाते, पानी में भीगते, दीमक का इंतजार करते फर्श से छत तक भरे रहते हैं। इसके बावजूद सरकार अपनी आदत को सुधारना नहीं चाहती। आज टीकाकरण में कागजों के गैरजरूरी बेजा इस्तेमाल को देखते हुए इस पर लिखना सूझा, तो सरकारी दफ्तरों में कागजों का आम बेजा इस्तेमाल भी सूझ गया। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
खबरों की दुनिया में कभी सूखा नहीं रहता। दुनिया के किसी हिस्से में बाढ़ आई हुई रहती है, तो किसी दूसरे हिस्से में बर्फ इतनी जमती है कि बड़े-बड़े अमरीकी शहरों में पूरी कार पट जाती है। कहीं चुनाव चलते रहता है, तो कहीं जंग, कहीं हिंसा होती है, तो कहीं पर छोटी बच्चियां पढऩे के हक के लिए या पर्यावरण को बचाने के लिए बड़ी शहादत देते दिखती हैं। हिन्दुस्तान जैसा विविधताओं से भरा हुआ देश तो बारहमासी खबरदार रहता है, यानी खबरों से लबालब। ऐसे में चीन से एक बड़ी दिलचस्प खबर आई है।
चीन में बुद्ध की बहुत किस्म की प्रतिमाएं प्रचलन में हैं। इनमें से कुछ प्रतिमाओं के साथ कई किस्म के टोने-टोटके भी जुड़े रहते हैं। एक बहुत मोटे पेट वाले बड़े हॅंसते हुए बुजुर्ग की एक प्रतिमा लाफिंग बुद्धा नाम से जानी जाती है जिसके बारे में यह टोटका भी रहता है कि उसे अपने पैसों से नहीं खरीदा जाता, कोई दूसरा तोहफे में दे तो ही उस प्रतिमा को रखा जाता है। चीन के एक किस्म के वास्तुशास्त्र के मुताबिक इस प्रतिमा को किसी खास जगह या कोने पर रखकर उससे शुभ होने की उम्मीद भी की जाती है। ऐसे चीन में कल से एक नई प्रतिमा की खबर आई है जिसमें बुद्ध की मुद्रा में पिछले अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप बैठे दिख रहे हैं। वे अपने मिजाज के खिलाफ एक अभूतपूर्व शांत मुद्रा में दिख रहे हैं जो कि नामुमकिन किस्म की बात है, और उनकी ऐसी ही मुद्रा की वजह से यह प्रतिमा वहां दनादन बिक रही है। अब यह भी बुद्ध धर्म की एक उदारता है कि इस प्रतिमा को धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला नहीं माना जा रहा है, और चीनी लोग ट्रंप के तमाम चीन-विरोध के बावजूद इस प्रतिमा को खरीद रहे हैं। खरीदने के पीछे लोगों का कहना है कि वे महज दिल्लगी के लिए इसे खरीद रहे हैं क्योंकि ट्रंप कभी शांत दिखता नहीं था, और इस प्रतिमा में वह शांत दिख रहा है। कुछ लोगों का कहना है कि वे मजाक के तौर पर इस प्रतिमा को रखने वाले हैं ताकि यह याद पड़ता रहे कि इंसानों को कैसा नहीं बनना चाहिए।
किसी ने ऐसी कल्पना की होती कि चीनी एक वक्त इतनी रफ्तार से ट्रंप की प्रतिमा खरीदेंगे, तो हो सकता है कि लोग उस पर हॅंसे होते। लेकिन आज तो ऐसा हो रहा है, और अमरीका का रूख चीन के लिए नए राष्ट्रपति के तहत भी कोई बहुत नर्म नहीं हुआ है। यह बात बताती है कि लोग प्रतीकों का तरह-तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं। ट्रंप जैसे बदनाम और बेइंसाफ तानाशाह किस्म के आदमी को भी शांत बनाकर हास्य के रूप में या व्यंग्य के रूप में, सबक या सावधानी के रूप में सामने रखा जा सकता है। लोग खुले मन से, अपनी नफरत को परे रखकर ऐसे प्रतीकों का इस्तेमाल कर सकते हैं। और फिर यह भी याद रखने की जरूरत है कि यह चीन, फ्रांस की किसी पत्रिका की तरह, या योरप के दूसरे हिस्सों के मीडिया की तरह का अतिउदारवादी देश नहीं है, और वह वामपंथी विचारधारा के तहत चलने वाला, एक बहुत ही तंगदिल सरकार के तहत काम करने वाला देश है जहां पर राजनीतिक हॅंसी-मजाक की अधिक संभावना नहीं दिखती है। ऐसे देश में जब ट्रंप की प्रतिमा की शक्ल में यह नया हास्य-व्यंग्य चल रहा है, तो चीनी सरकार और चीनी जनता के इस बर्दाश्त पर गौर भी किया जाना चाहिए। साथ ही दुनिया भर में जहां-जहां धार्मिक भावनाओं के आहत होने की तोहमत लगाकर बड़े पैमाने पर हिंसा को जायज ठहराया जाता है, उन लोगों को भी यह सीखने की जरूरत है कि धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल सामाजिक हास्य-व्यंग्य के लिए भी किया जा सकता है, और किया जा रहा है। जिस चीन में मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय को अमानवीय हालात में रखकर उस नस्ल को खत्म करने की हर कोशिश हो रही है, उस चीन में यह नया सामाजिक कारोबारी-प्रयोग देखने लायक है क्योंकि चीन एक बौद्ध-बहुल देश है, और धर्म वहां योरप के कुछ देशों की तरह महत्वहीन नहीं हो गया है, वहां धर्म की अभी खासी भूमिका है। ट्रंप की इस प्रतिमा के, बुद्ध की तरह शांत बैठे हुए किरदार के सामाजिक इस्तेमाल के मायने सोचने की जरूरत है, हो सकता है दुनिया के दूसरे कट्टर और धर्मान्ध देश इससे कुछ सीख पाएं।
नेताओं की प्रतिमा की ही बात करें, तो योरप के बहुत से देशों में वहां के मौजूदा राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, या चांसलर जैसे लोगों के मखौल उड़ाते हुए बड़े-बड़े बुत बनाए जाते हैं, और उन्हें झांकी की तरह सडक़ों पर निकाला जाता है। खुद अमरीका में ट्रंप के राष्ट्रपति रहते हुए ट्रंप के ऐसे गुब्बारेनुमा पुतले बनाए जाते थे जिन्हें सडक़ों से निकालते हुए लोग पीछे दौडक़र जाते थे, और उसे लात मारकर आते थे। पश्चिम की एक अलग उदार संस्कृति है जिसमें लोगों को दूसरों के अपमान करने की पूरी छूट है, और लोग उसका इस्तेमाल भी खुलकर करते हैं, और ऐसा किसी ने नहीं सुना कि राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के पुतले को लात मारने वाले की गाड़ी का पुलिस ने चालान भी कर दिया हो। लेकिन चीन का हाल पश्चिम से बिल्कुल अलग है, वहां पर इस किस्म की प्रतिमा एक अलग मिजाज है, और अगर लोग उसे खरीदकर इसलिए सजाने वाले हैं कि उन्हें यह याद रहे कि उन्हें कैसा नहीं बनना है, तो यह एक नियंत्रित देश की फौलादी जकड़ के बीच व्यंग्य की एक नई अभिव्यक्ति है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी पर कल उन्हीं के राज में हमला हुआ और टूटे हुए पैर के साथ वे अस्पताल में हैं। भाजपा तो भाजपा, कांग्रेस भी इसे नौटंकी कह रही है क्योंकि इस चुनाव में भाजपा अपने आपमें एक खेमा है, और दूसरी तरफ कांग्रेस वामपंथियों के साथ मिलकर यह चुनाव लड़ रही है जिन्हें ममता बैनर्जी ने तीन दशक के राज के बाद बेदखल किया था। इसलिए इन सबका हक बनता है कि ममता बैनर्जी की अस्पताल की तस्वीरों को नौटंकी कहें। हम तब तक इस हमले की असलियत पर कुछ कहना नहीं चाहते जब तक कि ममता के विरोधी ऐसे सुबूत न रखें कि यह हमला उनका अपना करवाया हुआ था, और यह नौटंकी है। सार्वजनिक जीवन में जब तक किसी को बेईमान साबित न किया जाए, तब तक उसे ईमानदार मानने को ही हम ठीक समझते हैं। लेकिन यह हमला तो कैमरों से, अफसरों और आसपास के लोगों के बयानों से सच्चा या झूठा साबित हो जाएगा, इसके बाद से ममता बैनर्जी पर सोशल मीडिया में जिस दर्जे के हमले हो रहे हैं, वे बहुत हक्का-बक्का तो नहीं करते हैं, लेकिन यह सोचने पर मजबूर जरूर करते हैं कि जिन पार्टियों और जिन नेताओं के समर्थक और प्रशंसक ऐसे अश्लील और हिंसक पोस्ट कर रहे हैं, क्या उनके लिए उन पार्टियों के नेताओं के पास कहने को कुछ है? अभी दो दिन पहले ही अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर इन तमाम नेताओं ने बड़ी-बड़ी बातें कही थीं, महिलाओं के सम्मान की बड़ी-बड़ी बात की थी, लेकिन दो दिन के भीतर एक महिला के खिलाफ, उसके चाल-चलन के खिलाफ, उसके महिला होने पर जिस तरह की अश्लील गालियां दी जा रही हैं, वे आज के इस भयानक गंदे माहौल में भी हैरान करती हैं।
सोशल मीडिया पर ममता बैनर्जी को रंडी लिखते हुए, उनके शरीर के कुछ चुनिंदा हिस्सों का जिक्र करते हुए जिस जगह उनके नाम गालियां दी जा रही हैं, अश्लील फोटो चिपकाई जा रही है, सेक्स की कुछ हरकतें उन्हें सुझाई जा रही हैं, उसी जगह पर उसी तस्वीर के साथ जयश्रीराम की तस्वीरें भी लगी हुई हैं। सोशल मीडिया पर अभी चार दिन पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कोलकाता की आमसभा के दिन सैकड़ों लोगों ने एक ही ट्वीट को अपने नाम से अपने पर हुए तृणमूल-गुंडों के हमले की बात कहते हुए बार-बार दुहराया था। लोग हैरान हुए थे कि ये सैकड़ों लोग सारे के सारे हावड़ा के रहने वाले, सारे के सारे अपने पिता के साथ मोदी की सभा में जा रहे थे, और सारे के सारे लोगों पर तृणमूल के गुंडों ने हमला किया था, और सारे के सारे लोगों को सिर पर तीन-चार टांके आए थे, और सारे के सारे लोगों ने बिना एक पूर्णविराम या अल्पविराम के फर्क के एक सा ट्वीट किया था। कल ममता बैनर्जी पर हुए हमले के बाद से ममता बैनर्जी के चरित्र, ममता बैनर्जी के शरीर को लेकर, उन्हें तरह-तरह वीभत्स सेक्स सुझाते हुए जो बातें सोशल मीडिया पर लिखी जा रही हैं, वे बातें इन रामभक्तों के भगवान को पता नहीं कैसे बर्दाश्त होंगी, इनके नेताओं को तो बर्दाश्त हो ही रही हैं ऐसा दिखता है।
कई बार हमें लगता है कि सोशल मीडिया ने संगठित मीडिया में उपेक्षित लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी को एक अधिकार दिया है। संगठित मीडिया और नेताओं को भी सोशल मीडिया में लिखी बातों पर गौर करना पड़ता है। लेकिन जब हजारों लोग मानो भाड़े पर काम करते हुए किसी एक व्यक्ति के चाल-चलन पर ऐसे हमले करने को छोड़ दिए जाते हैं, तो मन में यह शक पैदा होता है कि हिन्दुस्तान जैसे बेअसर लोकतंत्र में क्या सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की यह कानूनविरोधी आजादी सचमुच ही अभिव्यक्ति की आजादी है? क्या यह सचमुच ही लोकतांत्रिक है? या यह लोगों के जीने के अधिकार के खिलाफ एक हिंसक हमला है जिस पर किसी भी लोकतांत्रिक देश को जमकर कार्रवाई करनी चाहिए थी? ममता बैनर्जी हों, या कोई अभिनेत्री हो, या नफरतजीवियों को नापसंद कोई महिला पत्रकार हो, किसी भी महिला के खिलाफ किसी एक हमलावर की दमित यौन-कुंठाएं अगर इस तरह बाहर निकलतीं तो भी समझ आता, लेकिन जब ट्रोल-आर्मी कही जाने वाली हजारों लोगों की यह फौज किसी एक के चाल-चलन, उसकी देह, सेक्स की उसकी काल्पनिक जरूरतों को लेकर उसे घेरकर पत्थर मार-मारकर मार डालने पर उतारू हो जाती है, तो यह भी सोचने की मजबूरी आ खड़ी होती है कि इस फौज के सेनापति कौन हैं, यह फौज आखिर किसके हाथ मजबूत करने के लिए तैनात की गई है? इस फौज का चाल-चलन किस धर्म और किस राष्ट्रवाद की संस्कृति के मुताबिक जायज है? जो लोग एक ही सांस में जयश्रीराम कहते हुए अगली ही सांस में औरत के कुछ अंगों और अपने कुछ अंगों का रिश्ता जोडऩे पर उतारू हो जाते हैं, वे अपने धर्म और अपनी संस्कृति का कितना सम्मान बढ़ाते हैं? और इस देश का जो कानून एक-एक ट्वीट को देशद्रोही करार देते हुए बेकसूरों को बरसों तक कैद रखने के लिए बदनाम हैं, वह कानून जब ऐसे भयानक जुर्म करने वालों को अनदेखा करके मजा पाते दिखता है, तो इस लोकतंत्र की तमाम संस्थाओं पर से भरोसा उठने लगता है। हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट जो कि प्रशांत भूषण की एक ट्वीट पर हफ्तों-महीनों तक सुनवाई करके उसे अपनी अवमानना मानकर सजा सुना सकता है, उस सुप्रीम कोर्ट को इस देश की बेकसूर महिलाओं पर छोड़ दी गई ऐसी बलात्कारी-हत्यारी फौज को अनदेखा करने में मजा आता दिखता है। जब सुप्रीम कोर्ट सोशल मीडिया पर अपने बारे में कही एक-एक बात को लेकर इस हद तक संवेदनशील है, तो इस देश की महिलाओं पर हो रहे ऐसे संगठित सेक्स-हमलों पर उसे कुछ भी करना जरूरी नहीं लगता? इस सुप्रीम कोर्ट ने आज तक ऐसी एक कमेटी बनाना भी जरूरी नहीं समझा जो सेक्स की धमकियां देने वाले ऐसे सोशल मीडिया अकाऊंट्स के पीछे की ताकतों को जेल भेजने का इंतजाम कर सके। सुप्रीम कोर्ट, संसद, सरकार, चुनाव आयोग, ये तमाम संवैधानिक संस्थाएं इस लोकतंत्र के भीतर ऐसे अलोकतांत्रिक, हिंसक और अश्लील हमलों को अनदेखा करने का मजा ले रहे हैं। हो सकता है कि इन संस्थाओं में बैठे कई लोगों को ममता बैनर्जी सरीखी नापसंद महिलाओं के अंगों के साथ किस्म-किस्म के सेक्स की बातें पढऩे में मजा भी आ रहा हो। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के लिए, हिन्दू धर्म के लिए, और तथाकथित गौरवशाली भारतीय संस्कृति के ठेकेदारों के लिए यह शर्म से डूब मरने की बात है कि आधुनिक टेक्नालॉजी का मुहैया कराया गया एक औजार इस तरह हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, और इसे रोकने में किसी की दिलचस्पी नहीं है। अगर बंगाल के इस चुनाव को ही लें, तो झूठे ट्वीट करने वाले, ममता बैनर्जी के खिलाफ सेक्स और हिंसा की सबसे गंदी बातें लिखने वाले दसियों हजार लोग अब तक गिरफ्तार हो जाने थे, दसियों हजार कम्प्यूटर और स्मार्टफोन जब्त हो जाने थे, लेकिन देश में ऐसी ताकतें हैं जो अपने को नापसंद इंसानों को जिंदा रहने का बुनियादी हक भी देना नहीं चाहतीं। क्या सचमुच ही यह लोकतंत्र गौरवशाली है?
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दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज कोलकाता से मुसाफिर विमान में दिल्ली आ रहे थे, और उन्हें मास्क ठीक से न लगाने वाले मुसाफिर दिखते ही रहे। अदालत में लौटने के बाद उन्होंने विमान कंपनियों और केंद्र सरकार को आदेश जारी किया है कि जो मुसाफिर मास्क ठीक से न लगाएं, उन्हें विमान से उतार दिया जाए, या चढऩे ही न दिया जाए। यह कार्रवाई एकदम मुनासिब है, लेकिन सवाल यह है कि गिने-चुने लोग हवाई सफर करते हैं, और 99 फीसदी से अधिक जनता ट्रेन, बस, या ऑटोरिक्शा में चलती है, और वहां तक दूसरे मुसाफिरों पर उसका कोई बस नहीं चलता। चारों तरफ भयानक दर्जे की लापरवाही दिख रही है, और जनता के हित में कोई ऐसी तरकीब निकलनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के जजों को आम बसों में या ट्रेन-ऑटो में सफर करवाया जाए ताकि गरीब और आम जनता की हिफाजत के लिए भी कोई आदेश जारी हो सके।
पता नहीं क्यों सफाई और सुरक्षा जैसी बुनियादी बातों पर भी पैसेवाले हवाई मुसाफिरों का हक माना जाता है और आम लोग मानो इसका हक ही नहीं रखते। आज भारत के बहुत से राज्यों में कोरोना पॉजिटिव बढ़ते चल रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ बड़ी-बड़ी राजनीतिक और चुनावी आमसभाएं हो रही हैं, लोगों को बसों और ट्रकों में बिना किसी सावधानी ढोया जा रहा है, भारी धक्का-मुक्की चल रही है, लेकिन मानो गरीब और आम जनता को कोरोना से कोई खतरा ही नहीं है, उसे जैसे चाहें वैसे झोंका जा सकता है। दरअसल बिना किसी दर्ज मुकदमे के खुद होकर हुक्म देने का हक महज हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को होता है जो कि हवाई सफर ही करते हैं, और सडक़ों पर भी चलते हैं तो सायरन वाली गाडिय़ों के काफिले में चलते हैं। इसलिए जिस तरह संसद और विधानसभाओं में लबालब लद गए करोड़पति जनप्रतिनिधि देश की गरीबी से अछूते हो चुके हंै, कमोबेश बड़ी अदालतों के जज भी उसी तरह आम जनता की तकलीफों से रूबरू नहीं रह गए हैं।
आज हिंदुस्तान में तमाम तबकों के बीच कोरोना से बचाव को लेकर परले दर्जे की लापरवाही चल रही है। लोग यह मान बैठे हैं कि टीका लगना शुरू होते ही मानो कोरोना चल बसा है। जबकि हकीकत यह है कि बचाव के टीकों की दोनों खुराक लग जाने के एक पखवाड़े बाद इनमें से करीब तीन चौथाई लोग कोरोना से बचाव की प्रतिरोधक क्षमता पा सकते हैं। देश की आबादी को कोरोना के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता पाने में एक पूरा बरस लग सकता है। जिस रफ्तार से टीका आया है उससे सौ गुना रफ्तार से लापरवाही आई है, और इसीलिए कई प्रदेशों में कोरोना के आंकड़े बढ़ते दिख रहे हैं। देश का चुनाव आयोग एक तरफ तो कड़े से कड़े नियम थोपने के लिए कुख्यात है, लेकिन कोरोना के बीच आम सभाओं को लेकर उसने अपनी आंखें बंद कर ली हैं, और यह मान लिया है कि नेताओं को सुनने पहुंचने वाले आम लोग मरने के ही लायक हैं। आम सभाओं की भीड़ देखें तो यह समझ नहीं पड़ता है कि एक-एक भाषण के बाद नेता कितने लाख लोगों को संक्रमण के खतरे में डालकर जाते हैं। अभी खासकर जिस बंगाल की बड़ी-बड़ी आमसभाओं के नजारे टीवी पर दिख रहे हैं, उन्हें देखकर किसी अदालत के जज ने, या चुनाव आयोग ने कुछ नहीं कहा है क्योंकि जज और आयोग के सदस्य कभी ऐसी भीड़ में नहीं जाते, हां वे हवाई सफर जरूर करते हैं जिसे लेकर वे बड़े फिक्रमंद हैं।
अब सवाल यह है कि गरीबों की फिक्र कौन करेंगे? देश के कानून को तो ऐसी फिक्र दिख नहीं रही है, और बड़े-बड़े जज बस अपने हमसफर संपन्न तबकों को महफूज रखना चाहते हैं ताकि अपने ऊपर कोई खतरा न आए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश की सबसे बड़ी पर्यावरण-संस्था सीएसई ने कल एक रिपोर्ट प्रकाशित की है कि खाने-पीने के सामानों के डिब्बे-बोतल या पैकेट पर पोषक तत्वों की जानकारी के अलावा यह भी लिखा रहना चाहिए कि उनमें कौन सी चीजें नुकसानदेह हैं। यह रिपोर्ट 4 मार्च के विश्व मोटापा दिवस के मौके पर हुए एक ग्लोबल वेबिनार में विशेषज्ञों के बीच हुई चर्चा के बाद सामने आई है। इस वेबिनार में खाने-पीने के फालतू के सामान, जंकफूड, को लेकर भारत सरकार को एक विशेषज्ञ कमेटी द्वारा सात साल पहले दिए गए सुझावों पर भी चर्चा हुई जिस पर केन्द्र सरकारें सोई हुई हैं। बाजार में खाने-पीने के सामान पेश करने वाली कंपनियां तमाम नुकसानदेह जानकारी को छुपाना चाहती हैं, और वे सरकार के नियमों को प्रभावित करने के लिए काफी कुछ खर्च करने की स्थिति में भी रहती हैं। इस ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि आईसीएमआर के 2017 के आंकड़ों के मुताबिक देश में गैरसंक्रामक रोगों से मौतें 38 फीसदी थीं जो कि बढक़र 62 फीसदी हो गई हैं। आबादी में 17 फीसदी पुरूष और 14 फीसदी महिलाएं डायबिटीज के शिकार हैं। ऐसे में अगर खाने-पीने के बाजारू सामान अपने भीतर नमक और शक्कर, घी-तेल के खतरनाक स्तर को छुपाना जारी रखेंगे, तो हिन्दुस्तान एक टाईम बम के ऊपर बैठा हुआ साबित होगा।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि करीब डेढ़ बरस पहले इसी मुद्दे पर हमने उस वक्त की सीएसई की एक दूसरी रिपोर्ट पर लिखा था। हिन्दुस्तान में पैकेटबंद मीठा-नमकीन किस्म के सामान किस कदर सेहत के खिलाफ हैं। ऐसे सामानों में शक्कर, नमक, या कुछ रसायन इतने अधिक हैं कि उनसे सेहत को नुकसान पहुंचना तय है। बाजार में अधिक चलने वाले कई ब्रांड के अधिक चलने वाले सामानों का रासायनिक विश्लेषण करके सीएसई ने एक चार्ट भी प्रकाशित किया है कि किस-किसमें कितना फीसदी नुकसानदेह सामान मिला हुआ है।
देश में खान-पान का हाल एक बहुत फिक्र की बात है। यह बात जरूर है कि यह अमरीका जैसे देश से बहुत बेहतर है क्योंकि वहां पर लगातार जंक कहे जाने वाले बहुत ही नुकसानदेह खानपान की वजह से आबादी का एक बड़ा हिस्सा इतने भारी मोटापे का शिकार हो चुका है कि वह एक किस्म का राष्ट्रीय खतरा माना जा रहा है। भारत में भी दिल्ली जैसे उत्तर भारतीय शहर में महंगे स्कूल-कॉलेज को देखें, महंगे बाजारों में घूमते लोगों को देखें, तो अंधाधुंध मोटे लोग सबसे नुकसानदेह चीजें खाते-पीते दिखते हैं। इस नौबत को सुधारने में लोगों की दिलचस्पी धीरे-धीरे इसलिए कम हो रही है कि उनकी खर्च की ताकत में हासिल महंगे इलाज पर उन्हें बहुत भरोसा है कि आखिर में जाकर बाईपास से सब ठीक हो जाएगा, खाओ-पिओ ऐश करो। देश में ऐसी सोच महज उसी पीढ़ी का नुकसान नहीं कर रही है, बल्कि वह इस पीढ़ी के डीएनए से आगे बढऩे वाली तमाम पीढिय़ों को दिक्कत वाले जींस देकर जा रही है। इसके साथ-साथ देश की सीमित स्वास्थ्य सुविधाओं पर ऐसे लोग इतना अधिक बोझ डाल रहे हैं कि कम आय वाले लोगों को ऊंचा इलाज पाने की कतार में जगह ही नहीं मिल रही है।
हम सेहत के बचाव और चुस्त-दुरूस्त रहने के बारे में हर बरस एक-दो बार लिखते हैं कि बीमारियों से बचाव ही एकमात्र इलाज है, और कोई तरीका नहीं है कि एक बार खो चुकी सेहत को दुबारा पाया जा सके। देश के जो सबसे महंगे अस्पताल लोगों को यह भरोसा हासिल कराते हैं कि उनके पास तमाम बड़ी बीमारियों का इलाज है, उनको भी मालूम है कि इलाज की उनकी सीमा है, मेडिकल साईंस की भी एक सीमा है, और बदन को पहुंचा हुआ हर नुकसान दूर नहीं किया जा सकता। ऐसे में केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को एक तरफ तो जनता को जागरूक करना चाहिए कि वे सेहत के लिए नुकसानदेह खान-पान से कैसे बचें। दूसरी तरफ उन्हें होटलों और बाकी खानपान के धंधों पर यह नियम भी लागू करना चाहिए कि वे हर सामान छोटी प्लेट में भी उपलब्ध कराएं ताकि लोगों को मजबूरी में अधिक खाना न पड़े, या प्लेट में जूठा न छोडऩा पड़े।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक फिट-इंडिया का नारा दिया है जो कि एक अच्छी जागरूकता हो सकता है अगर इसके साथ-साथ देश भर के शहरों में सैर के लिए बाग-बगीचे, और योग-ध्यान करने की जगह, उन्हें सीखने की सहूलियत उपलब्ध कराई जा सके। ये दोनों बातें मिलीजुली हैं, एक तरफ जागरूकता बढ़ाई जाए, सेहतमंद रहने की प्राकृतिक सहूलियत मुहैया कराई जाए, और दूसरी तरफ बाजार में खाने के लिए मजबूर लोगों को कम मात्रा में भी खरीदने की सुविधा रहे। छोटी प्लेट अनिवार्य करने की बात लंबे समय से चल रही है, लेकिन इस पर अमल हो नहीं पाया है। पता नहीं राज्य सरकारें अपने अधिकारों से अपने इलाकों में ऐसा कर सकती हैं या नहीं, लेकिन अगर ऐसे अधिकार हों तो जागरूक राज्यों को ऐसा करना ही चाहिए। फिर समाज के भीतर, परिवार के भीतर लोगों को तमाम डिब्बाबंद, पैकेट वाले, और टेलीफोन से ऑर्डर करके बुलाए जाने वाले खाने का इस्तेमाल कम से कम करना चाहिए। सबसे सेहतमंद खाना वह होता है जो घर पर बनता है, जिसमें घी-तेल का कम इस्तेमाल होता है, जिसमें चर्बी कम होती है, और जिसमें फल-सब्जी का अधिक से अधिक उपयोग होता है। इस जगह पर इससे ज्यादा खुलासे से चर्चा नहीं हो सकती, लेकिन लोगों को अस्पतालों से अधिक भरोसा अपनी जीवनशैली पर करना चाहिए कि अस्पतालों की नौबत ही न आए। यह जानकारी कोई परमाणु-रहस्य नहीं है, और कदम-कदम पर उपलब्ध है। जरूरत महज इतनी है कि अपनी जीभ पर काबू रखकर, उसे नाराज करके, बाकी बदन पर एहसान किया जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले दो-चार दिनों से हिन्दुस्तान का सोशल मीडिया आज, 8 मार्च के अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के हिसाब से लिख रहा था, और महिलाओं के त्याग-समर्पण से लेकर उनकी कामयाबी तक के वीडियो और फोटो पोस्ट कर रहा था। यह सिलसिला हर बरस चलता है, लेकिन आज का आधा दिन निकल जाने तक भी जो बात हवा में उठते नहीं दिख रही है, और जो सबसे अधिक मायने रखती है, उस बात पर चर्चा होनी चाहिए।
इस देश में बरसों से महिला आरक्षण कानून बनाने की बात ही बात हो रही है, और हाल के बरसों में तो उसके बारे में बात भी बंद हो चुकी है। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण उनकी आबादी के अनुपात में नहीं, बल्कि महज 30 फीसदी देने का विधेयक दशकों पहले से चले आ रहा है, लेकिन कई सरकारें आई-गईं, किसी ने उसे लागू करने की कोशिश नहीं की, और बड़ी-बड़ी पार्टियां बुनियादी रूप से ऐसे आरक्षण के खिलाफ बनी हुई हैं। महिला वोटरों को नाराज न करने के चौकन्नेपन में सोनिया गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस, मायावती की अगुवाई वाली बसपा, ममता बैनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस, मेहबूबा मुफ्ती की अगुवाई वाली पीडीपी, और जयललिता की पार्टी रही एआईएडीएमके, इनमें से कोई भी आज महिला आरक्षण की बात करते नहीं दिख रहे हैं। जिन पार्टियों ने अलग-अलग समय पर महिला आरक्षण की वकालत भी की थी, वे भी अब इस बारे में ठीक उसी तरह चुप बैठी हैं जिस तरह सामने सडक़ पर टक्कर हो जाने पर उठाने से बचने के लिए लोग मुंह मोड़ लेते हैं। तमाम पार्टियों और नेताओं ने मुंह मोड़ लिए हैं। और तो और पिछले 6 बरस में दो लोकसभा चुनाव, अनगिनत विधानसभा चुनाव हो चुके हैं, लेकिन किसी एक में भी महिला आरक्षण चुनावी मुद्दा भी नहीं बना।
सोशल मीडिया पर बहुत सी महिलाएं लिख रही हैं कि पुरूषों को कुछ जगह खाली करनी पड़ेगी, तभी महिलाओं को जगह मिल पाएगी, लेकिन ऐसी प्रमुख महिलाएं, जिनमें पत्रकार भी हैं, सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, और लेखक-कलाकार भी हैं, उन्हें भी महिला आरक्षण का मुद्दा भूल ही गया है। हम जरूर इसी जगह पर हर साल कम से कम एक बार महिला आरक्षण की जरूरत याद दिलाते हैं, लेकिन हमारे कहे और लिखे हुए की कोई गूंज नहीं होती क्योंकि पुरूष प्रधान भारतीय राजनीति को तो छोड़ भी दें, महिला प्रधान राजनीतिक दलों में भी अब महिला आरक्षण की चर्चा इतिहास बन चुकी है।
संसद और विधानसभाओं में 30 फीसदी महिला आरक्षण से आज के मुकाबले महिलाओं की सीटें दुगुनी या अधिक हो जाएंगी, और जितनी सीटें उनकी बढ़ेंगी, उतनी सीटें पुरूषों की कम हो जाएंगी। यह नौबत किसी नेता को आज मंजूर नहीं दिखती है, खुद महिला अध्यक्ष वाली पार्टियों को भी। हिन्दुस्तान में एक ऐसा झूठ फैलाया गया है और उसे मजबूती के साथ खड़ा किया गया है कि एक तिहाई सीटों पर विधायक या सांसद के लायक महिला प्रत्याशी मिलना मुश्किल होगा। महिलाओं की सीटें हार जाने के डर से पार्टियां महिला आरक्षण का साथ नहीं दे रही हैं, नहीं देना चाहती हैं, ऐसा झूठ फैलाया जाता है। हकीकत तो यह है कि जब कोई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएगी तो वहां से किसी भी पार्टी की उम्मीदवार महिला ही होगी, और निर्दलीय उम्मीदवार भी महिला होगी। अगर महिलाओं में लीडरशिप की इतनी कमी है कि जीतने लायक उम्मीदवार मिलना मुश्किल होगा, तो यह मुश्किल तो हर पार्टी पर लागू होगी। इससे अधिक झूठ और फरेब की कोई बात नहीं हो सकती कि महिला का जीतना मुश्किल होगा। आज देश भर में पंचायतों और म्युनिसिपलों में महिला आरक्षण लागू है। छत्तीसगढ़ शायद ऐसा पहला राज्य था, या कम से कम शुरूआती राज्यों में था जहां पंचायतों में 50 फीसदी महिला आरक्षण लागू किया गया था। जब एक-एक गांव में महिला उम्मीदवार मिल जाती है, और सामान्य वर्ग, दलित या आदिवासी वर्ग, और ओबीसी तबके से भी महिला उम्मीदवार मिल जाती हैं, वे जीतकर पंचायत चला रही हैं, जिला पंचायत चला रही हैं, शहरों में वार्ड चला रही हैं, तो वे विधानसभा और संसद की सीट का काम क्यों नहीं कर सकतीं? एक विधानसभा क्षेत्र के भीतर तो सैकड़ों महिला पंच-सरपंच, और पार्षद-महापौर रहती हैं। उन्हें लीडरशिप के ऐसे दौर से गुजरने का मौका भी मिलता है, तो फिर उनमें से कोई विधायक या सांसद बनने के लायक न हो, यह सोचना और कहना परले दर्जे की बेईमानी की बात है।
हमारा यह मानना है कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर महिलाओं को झुनझुना थमाना बंद होना चाहिए। देश के महिला संगठनों को हर पार्टी को घेरना चाहिए कि वे महिला आरक्षण विधेयक पास कराएं, तो ही दुबारा चेहरा दिखाएं। आज देश में जिस तरह एक मजबूत किसान आंदोलन चला है, उसी तरह पूरे देश में एक मजबूत महिला आंदोलन चलना चाहिए, और उसे अपनी आबादी के अनुपात में संसद और विधानसभाओं की आधी सीटों की मांग करनी चाहिए। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र अपने पर बड़ा फख्र करता है, लेकिन हकीकत यह है कि हिन्दुस्तानी संसद में महिलाओं की मौजूदगी दुनिया की ढेर सारी संसदों के मुकाबले बहुत ही कम है। देश के महिला आंदोलन को सबसे पहले तो संसद, और विधानसभाओं से आधी कुर्सियां अपने लिए खाली करानी चाहिए, और इस एक मांग के पूरे होने के पहले कोई समझौता नहीं करना चाहिए। आज महिला दिवस के मौके पर हमारी यही राय है कि इससे कम कुछ नहीं मांगना चाहिए, और इससे कम किसी बात पर मानना नहीं चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज दुनिया में किसी जानकारी के सबसे पहले देने और पाने का जरिया जो ट्विटर बन गया है, उसका पहला ट्वीट 18 करोड़ रूपए से अधिक में बिकने जा रहा है। ट्विटर की स्थापना करने वाले जैक डोर्सी ने 2006 में पहला ट्वीट किया था जिसमें महज इतना लिखा था कि वे अपना ट्विटर सेट कर रहे हैं, पांच शब्दों के इस ट्वीट को वे अब नीलाम कर रहे हैं, तो अब तक बोली 18 करोड़ रूपए से ऊपर जा चुकी है। ट्विटर के दुनिया में 33 करोड़ से अधिक इस्तेमाल करने वाले हैं, और वे अरबों-खरबों ट्वीट करते हैं। यह पूरा सिलसिला जैक डोर्सी की एक कल्पना से शुरू हुआ था, और आज करोड़ों लोग आंख खुलते ही सबसे पहले लोगों के ट्वीट पढ़ते हैं, अपनी पहली अंगड़ाई और पहली उबासी ट्वीट करते हैं।
लेकिन आज दुनिया की सबसे अधिक कमाने वाली, और जिंदगी को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली तमाम कंपनियां एक सोच के साथ शुरू हुईं। न तो उन्हें शुरू करने वाले लोग परंपरागत या कारोबारी-कुनबे के लोग थे, और न ही उन्होंने कोई सामान बनाकर बेचा। उन्होंने एक कल्पना की, उसे इस्तेमाल के लायक शक्ल में ढाला, ईमेल शुरू की, गूगल जैसा सर्च इंजन शुरू किया, फेसबुक या इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बनाए, वॉट्सऐप जैसी मैसेंजर सर्विस शुरू की, और दुनिया के लोगों की जिंदगी के एक हिस्से पर राज करना शुरू कर दिया। ऐसे तमाम लोग पहली पीढ़ी के कारोबारी थे, वे न रतन टाटा थे, न मुकेश अंबानी थे, और न ही फोर्ड कंपनी के मालिक के कुनबे के थे। वे तमाम लोग जींस और टी-शर्ट में जीने वाले, तकरीबन बेचेहरा और बेनाम लोग थे जिन्हें शायद खुद की इतनी संभावनाओं का भी अंदाज नहीं रहा होगा। इनके जितनी पढ़ाई वाले करोड़ों लोग रहे होंगे, इनके जितनी गरीबी वाले भी अरबों लोग रहे होंगे, लेकिन इनके जैसी मौलिक सोच वाले और नहीं थे, और यही वजह है कि उनकी कल्पना ने उन्हें आसमान से भी ऊपर अंतरिक्ष तक पहुंचा दिया। दिलचस्प बात यह है कि बिना सामान, बिना कारखाने, और शायद अपने एक मामूली कम्प्यूटर पर ही उन्होंने दुनिया का भविष्य मोड़ दिया, लोगों के जीने का तरीका बदल दिया और तय कर दिया।
इस बात को आज यहां लिखने की वजह यह है कि जो लोग अपनी जिंदगी से नाखुश हैं, बराबरी के मौके न मिलने की जिन्हें शिकायत है, उन्हें यह भी देखने और सोचने की जरूरत है कि अपनी खुद की संभावनाएं कैसे पैदा की जाती हैं, कैसे उन्हें हवा से तलाश लिया जाता है, और किस तरह कल्पनाओं को कामधेनु की तरह दुहा जा सकता है। यह भी जरूरी नहीं है कि हर कोई दुनिया की सबसे अनोखी सोच के साथ ही कामयाब हो सकें, लोग अपनी जिंदगी के दायरे में छोटी-छोटी सोच से भी कामयाब हो जाते हैं। सोशल मीडिया पर पाकिस्तान के इतिहास का एक वीडियो दिखता है जिसमें सर गंगाराम नाम के एक मशहूर इंजीनियर का गांव दिखता है। अंग्रेजों के वक्त के इस नामी इंजीनियर ने करीब के रेलवे स्टेशन से अपने गांव तक लोगों के आने -जाने के लिए पटरियां बिछाकर उस पर ऐसी घोड़ा-गाड़ी दौड़ाई जो कि दुनिया की एक अनोखी हॉर्स-ट्रेन बन गई। सर गंगाराम ने अपनी कमाई से जनकल्याण के ढेरों काम किए, और पाकिस्तान से लेकर हिन्दुस्तान तक उनके नाम के सर गंगाराम हॉस्पिटल है मशहूर हैं। इसी पाकिस्तान में मलाला नाम की बच्ची ने आतंक का सामना करते हुए भी, आतंकियों की गोलियां खाते हुए भी लड़कियों को पढऩे के हक लड़ाई लड़ी, और नोबल पुरस्कार तक पहुंची। इसी पाकिस्तान में इस देश या दुनिया की सबसे बड़ी एक ऐसी एम्बुलेंस सेवा है जिसे एक मामूली आदमी के बनाए हुए ट्रस्ट ने शुरू किया और चलाया। जिस पाकिस्तान में लोगों की तमाम किस्म की संभावनाओं को बड़ा सीमित माना जाता है, वहां पर अब्दुल सत्तार ईधी ने हजारों एम्बुलेंस का एक जाल बिछा दिया। यह काम कारोबार नहीं था, बल्कि समाजसेवा था, जो कि उनके गुजरने के बाद भी देश भर में कामयाबी से चल रहा है। अब्दुल सत्तार ईधी अंग्रेजों के वक्त आज के हिन्दुस्तानी हिस्से के गुजरात में पैदा हुए थे, और विभाजन के बाद परिवार पाकिस्तान चले गया, और ईधी की समाजसेवा बढ़ते-बढ़ते आसमान तक पहुंची। आज भी दुनिया में इस एम्बुलेंस सेवा का कोई मुकाबला नहीं है। भारत के दूसरी तरफ बांग्लादेश में मोहम्मद यूनुस ने कई दशक पहले ग्रामीण बैंक के माध्यम से ग्रामीण महिलाओं को अपने बहुत छोटे रोजगार-कारोबार के लिए माइक्रोफायनेंस करना शुरू किया था, उससे बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था में जमीन-आसमान जैसा फर्क आया, और मोहम्मद यूनुस को नोबल शांति पुरस्कार भी मिला। कुछ ऐसा ही हाल हिन्दुस्तान में अमूल ब्रांड के पीछे के सहकारी-प्रयोग का है जिसे वर्गीज कुरियन नाम के एक व्यक्ति ने अपनी कल्पना और मेहनत से आसमान तक पहुंचाया, और आज देश और दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियां भी उसका मुकाबला नहीं कर पा रही हैं।
यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि दुनिया में सबसे अधिक कामयाब होने के लिए न तो कुनबे की दौलत काम आती है, न आरक्षण से मिला हुआ दाखिला काम आता, और न आरक्षण से मिली हुई नौकरी काम आती है। दुनिया में सबसे बड़ी कामयाबियां लोगों के भीतर से निकलकर आईं, उन्होंने अपने आपको साबित किया, और अपने से अधिक बाकी दुनिया के भी काम आईं। हमने कारोबार के कुछ ब्रांड के नाम यहां पर गिनाए हैं, लेकिन उनसे परे भी बहुत से ऐसे ब्रांड हैं, घर के गैरेज में शुरू की गई एप्पल कंपनी, चीन में साम्यवादी सरकारी नियंत्रण के बीच भी दुनिया की सबसे बड़ी कारोबारी कंपनी अलीबाबा, अमरीका में कामयाब हुई अपने किस्म की अनोखी कंपनी अमेजान, ऐसे बहुत सारे मामले हैं जिनसे लोग हौसला पा सकते हैं। जब बात कल्पना से आगे बढऩे की आती है, तो न जाति के पैर काम आते, न कुनबे की दौलत के। इनके बिना भी कल्पना के पंखों से उडक़र लोग न महज खुद आसमान पर पहुंचते हैं, बल्कि दुनिया को भी अंतरिक्ष की सैर करा देते हैं। इसलिए कल्पना के महत्व को समझने की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट हाल के बरसों में लगातार ऐतिहासिक-लोकतांत्रिक महत्व की कसौटियों पर खरा न उतरने के बाद उतने पर नहीं थम रहा, उसके बड़े-बड़े जज बड़े-बड़े विवादों में घिरते आ रहे हैं। पिछले मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने जिस तरह अपनी मातहत कर्मचारी के लगाए गए सेक्स-शोषण के आरोपों में खुद जजों की बेंच का अगुवा बनना तय किया वह लोकतांत्रिक दुनिया के अदालती इतिहास में सबसे हक्का-बक्का करने वाला एक फैसला था। उसके बाद उन्होंने अपना कार्यकाल खत्म होने के पहले लगातार ऐसे फैसले लिए जो कि सरकार को सुहाने वाले थे, और/या सरकार की सहूलियत के थे। फिर मानो इन फैसलों को लेकर उनकी हो रही आलोचना काफी न हो, उन्होंने केन्द्र सरकार, सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से राज्यसभा की सदस्यता पा ली। और फिर इस सदस्यता के महत्व को मानो हिकारत से देखते हुए उन्होंने अपने एक बयान में कहा कि अगर उन्हें सरकार को सुहाते फैसले देकर एवज में कुछ लेना ही रहता, तो वह राज्यसभा सदस्यता जैसी छोटी चीज क्यों रहती। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के सबसे बड़े आलोचक और विरोधी नक्सलियों ने भी कभी राज्यसभा के बारे में इतनी हिकारत से भरा हुआ बयान नहीं दिया था।
अब मौजूदा मुख्य न्यायाधीश ने पहले तो सुबह की सैर पर राह चलते एक विदेशी और महंगी मोटरसाइकिल पर बैठकर देश के बहुत से लोगों की आलोचना पाई कि यह व्यवहार देश के मुख्य न्यायाधीश को नहीं सुहाता। इसे लेकर, और इसके बाद कुछ और मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के एक बड़े वकील प्रशांत भूषण पर अदालत की अवमानना का एक विवादास्पद मामला चला, और हमारा मानना है कि उससे अदालत की एक बड़ी अवमानना हुई। अब ताजा विवाद जस्टिस एस.ए.बोबड़े की वह अदालती टिप्पणी है जिसमें उन्होंने बलात्कार के एक मामले की सुनवाई करते हुए आरोपी से पूछा था कि क्या वह पीडि़ता के साथ शादी करने के लिए तैयार है? यह मामला महाराष्ट्र का था जहां पर एक सरकारी कर्मचारी ने शादी के झूठे वादे के बहाने एक नाबालिग लडक़ी से बलात्कार किया था। जस्टिस बोबड़े ने इस आरोपी से कहा था कि अगर वह पीडि़ता से शादी करना चाहता है तो अदालत उसकी मदद कर सकती है, अगर वह ऐसा नहीं करता है, तो उसकी नौकरी चली जाएगी, वह जेल चले जाएगा, क्योंकि उसने लडक़ी के साथ छेडख़ानी की और उसके साथ बलात्कार किया है।
अदालत की कार्रवाई के दौरान यह बात भी सामने आई कि बलात्कार की शिकार लडक़ी के पुलिस तक जाने पर आरोपी की मां ने उससे शादी करवाने की पेशकश की थी लेकिन पीडि़ता ने उससे इंकार कर दिया था। देश के मुख्य न्यायाधीश द्वारा बलात्कार के आरोपी को उसकी शिकार से शादी करने की पेशकश देश और लोकतंत्र को सदमा पहुंचाने वाली थी कि मानो शादी बलात्कार की भरपाई करती है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य बंृदा करात ने इसके खिलाफ जस्टिस बोबड़े को चिट्ठी लिखी है कि वे अपनी उस टिप्पणी को वापिस लें। उन्होंने लिखा है अदालतों को यह धारणा नहीं बनने देने चाहिए कि वे समाज को पुराने दौर में ले जाने वाले ऐसे नजरियों का समर्थन करती है। बृंदा के अलावा देश के करीब 3 हजार लोगों ने चीफ जस्टिस को चिट्ठी लिखकर मांग की है कि वे अपने बयान के लिए माफी मांगें, और पद से इस्तीफा दें। इन लोगों का कहना है कि एक बलात्कारी को पीडि़ता से शादी करने के बारे में पूछना बलात्कार की शिकार की पीड़ा को नजरअंदाज करने जैसा है। इस चिट्ठी में देश के नारीवादियों और महिला समूहों की तरफ से बड़ी कड़ी जुबान में पूछा गया है कि क्या आपने ऐसा कहने के पहले यह सोचा कि ऐसा करके आप पीडि़ता को उम्र भर के बलात्कार की सजा सुना रहे हैं? वह भी उसी जुल्मी के साथ जिसने उसे आत्महत्या करने के लिए बाध्य किया था। चिट्ठी में लिखा गया है कि भारत के हम लोग इस बात पर बहुत आहत महसूस कर रहे हैं कि हम औरतों को आज हमारे मुख्य न्यायाधीश को समझाना पड़ रहा है कि आकर्षण, बलात्कार, और शादी के बीच अंतर होता है, और यह भी उस मुख्य न्यायाधीश को जिन पर भारत के संविधान की व्याख्या करके लोगों को न्याय दिलाने की ताकत और जिम्मेदारी है।
इन चिट्ठियों में जस्टिस बोबड़े को एक दूसरे मामले में उनकी की गई एक टिप्पणी याद दिलाई गई है जिसमें उन्होंने पूछा था- यदि कोई पति-पत्नी की तरह रह रहे हों, तो पति क्रूर हो सकता है, लेकिन क्या किसी शादीशुदा जोड़े के बीच हुए सेक्स को बलात्कार का नाम दिया जा सकता है? जस्टिस बोबड़े की इस टिप्पणी की भी कड़ी आलोचना करते हुए इस चिट्ठी में लिखा गया है कि उनकी इस टिप्पणी से न सिर्फ पति की यौनिक, शारीरिक, और मानसिक हिंसा को वैधता मिलती है, बल्कि साथ ही औरतों पर सालों के अत्याचार और उन्हें न्याय न मिलने की प्रक्रिया को भी एक सामान्य बात होने का दर्जा मिल जाता है।
इस चिट्ठी में महाराष्ट्र के रेप केस में जिला अदालत द्वारा आरोपी को दी गई जमानत की निंदा करते हुए मुम्बई हाईकोर्ट के जज का कहा याद दिलाया गया है जिसमें जज ने लिखा था- जिला जज का यह नजरिया ऐसे गंभीर मामलों में उनकी संवेदनशीलता के अभाव को साफ-साफ दर्शाता है। देश के महिला समूहों ने चीफ जस्टिस को लिखा है कि यही बात आज आप पर भी लागू होती है, हालांकि उसका स्तर और भी अधिक तेज है। एक नाबालिग के साथ बलात्कार के अपराध पर आपने जब शादी के प्रस्ताव को एक सौहाद्र्रपूर्ण समाधान की तरह पेश किया तब यह न केवल अचेत और संवेदनहीन था, बल्कि यह पूरी तरह से भयावह, और पीडि़ता को न्याय मिलने के सारे दरवाजे बंद कर देने जैसा था।
इन समूहों ने जस्टिस बोबड़े को लिखा है- भारत में औरतों को तमाम सत्ताधारी लोगों की पितृसत्तात्मक सोच से जूझना पड़ता है, फिर चाहे वे पुलिस अधिकारी या जज ही क्यों न हों, जो बलात्कारी के साथ समझौता करने वाले समाधान का सुझाव देते हैं। आगे लिखा गया है कि हम लोग गवाह थे जब आपके पूर्ववर्ती (जस्टिस रंजन गोगोई) ने अपने पर लगे यौन उत्पीडऩ के आरोप की खुद सुनवाई की, और खुद ही फैसला सुना दिया, और शिकायतकर्ता और उसके परिवार पर मुख्य न्यायालय के पद का अपमान करने, और चरित्र हनन करने का आरोप लगाया। जस्टिस बोबड़े को याद दिलाया गया है कि उस वक्त आपने उस महिला की शिकायत की निष्पक्ष सुनवाई न करके, या एक जांच न करके उस गुनाह में भागीदारी की थी। किसी दूसरे मामले में एक बलात्कारी को दोषमुक्त करने के लिए आपने यह तर्क दिया कि औरत के धीमे स्वर में न का मतलब हां होता है। देश की महिलाओं ने जस्टिस बोबड़े को याद दिलाया है कि किसान आंदोलन पर उन्होंने यह कहा था कि आंदोलन में महिलाओं को क्यों रखा जा रहा है, और उन्हें वापिस घर भिजवाया जाए, इस बात का मतलब तो यह हुआ कि औरतों की अपनी न स्वायत्ता है और न ही उनकी कोई व्यक्तित्व है।
इस चिट्ठी में जस्टिस बोबड़े से कहा गया है कि उनके शब्द न्यायालय की गिरमा और अधिकार पर लांछन लगा रहे हैं। उनकी मुख्य न्यायाधीश के रूप में उपस्थिति देश की हर महिला के लिए एक खतरा है। इससे युवा लड़कियों को यह संदेश मिलता है कि उनकी गरिमा और आत्मनिर्भरता दान के लायक कोई चीज है। चिट्ठी में जस्टिस बोबड़े को कहा गया है कि आप उस चुप्पी को बढ़ावा दे रहे हैं जिसको तोडऩे के लिए महिलाओं और लड़कियों ने कई दशकों तक संघर्ष किया है। आपकी बातों से बलात्कारियों को यह संदेश जाता है कि शादी बलात्कार करने का लाइसेंस है और इससे बलात्कारी के सारे अपराध धोए जा सकते हैं। महिलाओं ने मांग की है कि मुख्य न्यायाधीश अपनी शर्मनाक टिप्पणियों को वापस लें, और देश की सभी महिलाओं से माफी मांगें, इसके साथ-साथ एक पल की भी देर किए बिना मुख्य न्यायाधीश के पद से इस्तीफा दें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बीती शाम पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने देश के नाम एक संदेश में कहा कि उनके 15-16 सांसद बिक गए हैं, और वे विपक्ष में बैठने को तैयार हैं। कल शनिवार को उन्हें संसद में अपना बहुमत साबित करना है, और उसके पहले देश के नाम प्रसारित इस संदेश के मायने साफ हैं। उन्होंने विपक्षी नेताओं को चोर बताते हुए यह भी कहा कि उन्हें ब्लैकमेल करने की कोशिश की जा रही थी। उन्होंने कहा- वे सोच रहे थे कि मेरे ऊपर नो कॉंफिडेंस की तलवार लटकाएंगे, और मुझे कुर्सी से प्यार है तो मैं इनके सारे केस खत्म कर दूंगा। उन्होंने कहा कि वे ऐसे दबने वाले नहीं हैं, और वे खुद होकर विश्वास मत लेने संसद जा रहे हैं, और विपक्ष में बैठने को तैयार हैं। उन्होंने विपक्ष के लोगों को मुल्क का गद्दार और डाकू जैसे कई तमगे भी दिए हैं, और कहा कि चुनाव आयोग ने उन लोगों को बचा लिया है जिन्होंने पैसे लेकर वोट दिए थे।
पाकिस्तान का हाल देखें तो हिन्दुस्तान में पिछले बरसों में सांसदों और विधायकों के संसद के भीतर और बाहर वोट या आत्मा बेचने की बात भी दिखाई देती है, और यह लगता है कि एक मजबूत कहा जाने वाला लोकतंत्र भारत, किस तरह एक कमजोर कहे जाने वाले लोकतंत्र पाकिस्तान से इस मामले में तो मिलता-जुलता दिख रहा है, कि किस तरह निर्वाचित जनप्रतिनिधि बिक रहे हैं। पाकिस्तान की हालत अधिक खराब है क्योंकि वहां लोकतंत्र की हालत अधिक खराब है, धर्म और धर्मान्धता बुरी तरह से हावी हैं, जिस तरफ हिन्दुस्तान बढ़ते चल रहा है। पाकिस्तान में कट्टरपंथ ने देश को खोखला कर दिया है, और हिन्दुस्तान कुछ उसी किस्म के कट्टरपंथ का शिकार है।
अब जिस ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को देखते हुए हिन्दुस्तान, और पाकिस्तान की संसदीय व्यवस्था बनाई गई थी, उस ब्रिटेन में सांसदों की इस तरह की खरीद-बिक्री सुनाई नहीं पड़ती है। पैसा वहां हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के मुकाबले बहुत अधिक है, लेकिन सांसदों को खरीदकर कोई सरकार गिरा दे, या बना ले, ऐसा सुनाई नहीं पड़ता। तो फिर उसी संसदीय व्यवस्था को देखते हुए जो व्यवस्था इन दो देशों में बनाई गई, वह चौपट क्यों हो गई? आज हिन्दुस्तान में जगह-जगह विधायक और सांसद पार्टियां छोड़ रहे हैं, दूसरी पार्टियों में जा रहे हैं, सदन की सदस्यता छोडक़र दूसरी पार्टी से चुनाव लड़ रहे हैं, सरकारों को गिरा रहे हैं, और नई सरकार बना रहे हैं, ऐसे तमाम सिलसिलों पर खरीद-बिक्री की खुली तोहमत लग रही है, और हिन्दुस्तान का शायद ही कोई वोटर यह मान रहा हो कि आत्माओं का ऐसा परकाया प्रवेश बिना पैसों के हो रहा है।
अब सवाल यह उठता है कि जब अधिकतर लोगों के बिकने की संभावना पूरी रहती है, बस उन्हें पूरा दाम मिलने की देर रहती है, तो ऐसे में लोकतंत्र का हाल क्या होने जा रहा है? अभी कुछ दिन पहले भी इस मुद्दे पर इसी जगह लिखते हुए हमने हिसाब लगाया था कि पूरे देश की विधानसभाओं पर कब्जे के लिए दो नंबर की पार्टी को महज कुछ हजार करोड़ रूपए लगेंगे, और फिर कमाई की गुंजाइश जिस तरह रहती है, उससे साफ है कि हर प्रदेश में हजारों करोड़ रूपए सत्तारूढ़ पार्टी कमा भी सकती है। अब यह बात साफ लगती है कि पाकिस्तान जैसे कमजोर लोकतंत्र को छोड़ भी दें जहां कि कल इमरान सरकार के गिरने का आसार दिख रहा है, तो भी हिन्दुस्तान जैसे मजबूत कहे जाने वाले, और दुनिया के सबसे विशाल कहलाने वाले लोकतंत्र में भी संसद और विधानसभाओं को किसी कड़े मुकाबले की नौबत में रूपयों से खरीदना मुश्किल नहीं है। यह संसदीय व्यवस्था मतदान की तकनीकी कामयाबी से परे बेअसर और नाकामयाब हो चुकी है। बिना हिंसा के वोट डल जाएं, और कम्प्यूटरों पर गिन लिए जाएं, यह महज तकनीक और प्रशासन की कामयाबी है। लेकिन मतदान के पहले और मतगणना के बाद का पूरा चुनाव और संसदीय कामकाज हिन्दुस्तान में भी बुरी तरह से नाकामयाब हो चुका है। जहां पर लोगों के पार्टियां बदल-बदलकर चुनाव लडऩे पर रोक न हो, अपनी सरकार गिराने और विरोधी पार्टी की सरकार बनाने के खुले खेल पर कोई रोक न हो, जहां संसद के भीतर बिना बहस तमाम काम करवा देने पर कोई रोक न हो, वहां पर देश को दुनिया का सबसे मजबूत लोकतंत्र कहना फिजूल की बात है।
हिन्दुस्तान में जिन लोगों को धर्म के राज की चाहत है, उन्हें देखना और समझना चाहिए कि पड़ोस के पाकिस्तान में धर्म और धर्मान्धता ने लोकतंत्र का क्या हाल कर दिया है। आज पाकिस्तानी प्रधानमंत्री अपने 15-16 सांसदों से बिक जाने की बात राष्ट्र के नाम संदेश में कर रहे हैं, हिन्दुस्तान की संसद की कल्पना करें कि किसी गठबंधन को 15-16 सांसदों की कमी हो, तो क्या आज उतनी खरीदी में कोई दिक्कत आएगी? यह पूरा सिलसिला बहुत खतरनाक अंत की ओर बढ़ रहा है, और कल पाकिस्तान में अगर इमरान-सरकार गिरती है, तो हिन्दुस्तान को उससे सबक लेना चाहिए। सत्ता के खेल में लगे लोगों को अपनी आत्मा को बेचना और थोक में बिकाऊ आत्माओं को खरीदना कभी बुरा नहीं लगेगा, और इस तरह बिकते-बिकते हिन्दुस्तानी लोकतंत्र और कमजोर ही होते जाएगा। पाकिस्तान में तानाशाही के जो दाम चुकाए हैं, और आज वह देश जिस तरह भुखमरी के कगार पर है, उस बात को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए। लोकतंत्र कमजोर होता है तो वह महज चुनाव को कमजोर नहीं करता, देश के हर पहलू को कमजोर करता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चीन की एक खबर वहां से बाहर भी दुनिया की बाकी देशों में एक चल रही बहस को बढ़ाने का काम कर सकती है। वहां की एक तलाक-अदालत ने एक आदमी को अपनी पूर्व पत्नी को शादीशुदा जिंदगी के दौरान घरेलू कामकाज करने के एवज में रकम भुगतान करने कहा है। अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि जब दोनों शादीशुदा थे, साथ रहते थे, तब घरेलू कामकाज महिला ही करती थी, इसलिए उसे उस अवैतनिक श्रम के एवज में भुगतान किया जाए। हालांकि अदालत ने यह रकम बहुत अधिक तय नहीं की है इसलिए सोशल मीडिया पर जमकर यह सवाल उठ रहा है कि मुआवजे का हिसाब किस पैमाने से किया गया है, और यह खासा अधिक होना चाहिए।
चीन के बाहर भी भारत और दूसरे तमाम देशों में महिलाओं के घरेलू कामकाज की उत्पादकता की कीमत का हिसाब लगाने की बात पिछले कुछ बरसों से चल रही है। जो महिला बाहर खुद कमाई का कोई काम नहीं करती है, और जो घर-बार देखने, बच्चों को जन्म देने, उन्हें बड़ा करने, बुजुर्गों की देखभाल करने जैसे बहुत से काम करती है, लेकिन जिसे कमाऊ नहीं गिना जाता। अब चीन की अदालत के इस फैसले की मिसाल दूसरे देशों में भी दी जा सकती है, या इसे एक नजीर की तरह पेश किया जा सकता है। दुनिया के मजदूर संगठन घरेलू महिला की मेहनत की उत्पादकता को रूपयों की शक्ल में भी गिनने लगे हैं, और लोगों को घर बैठे भी यह समझ पड़ सकता है कि घरेलू महिला का योगदान कितना है। यह बात घरों के भीतर एक दिलचस्प बहस भी बन सकती है। तमाम लोग पूरे परिवार सहित बैठकर यह हिसाब लगाएं कि एक गृहिणी के किए हुए कौन-कौन से काम लागत कितनी आई होती। गृहिणी के वैवाहिक जीवन के कई ऐसे काम हैं जिनके दाम गिनना अटपटा और आपत्तिजनक लगेगा, घरेलू महिला की उत्पादकता के हिसाब के इस हिस्से को हम पति-पत्नी के बीच बंद कमरे के लिए छोड़ देते हैं।
हिन्दुस्तान में बोलचाल में जब किसी महिला के बारे में पूछा जाता है कि वह क्या काम करती है, तो नौकरी, मजदूरी, या किसी और तरह की कमाई वाले काम को तो लोग गिनाते हैं, लेकिन अगर वह सिर्फ घर तक सीमित है, तो उसके बारे में कह दिया जाता है कि वह कोई काम नहीं करती, घर पर ही रहती है। यह बात आम हिन्दुस्तानी बोलचाल में इस अंदाज में बोली जाती है कि वह घर पर पैर पसारे आराम करती रहती है। जबकि आम घरेलू महिला को कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती है, पति की सारी रिश्तेदारियों की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। अंग्रेजी में जरूर हाल के बरसों में किसी घरेलू महिला को होममेकर कहा जाने लगा है।
जब देश के सकल राष्ट्रीय उत्पादन को गिना जाता है, कामकाजी लोगों की औसत या अलग-अलग कमाई गिनी जाती है, तो उस वक्त घरेलू महिला की पूरी जिंदगी की उत्पादकता को भी नगदी की शक्ल में गिनना अगर शुरू होगा, तो परिवार में उसका सम्मान भी बढ़ेगा। महिला अधिकारों और मजदूर अधिकारों के लिए काम करने वाले बहुत से संगठन ऐसे कई अध्ययन कर चुके हैं कि घरेलू महिलाओं का उत्पादक योगदान किस तरह और कितना गिना जा सकता है। ऐसे एक अध्ययन का कहना है कि घरों में ऐसे 33 किस्म के काम होते हैं जो कि आमतौर पर महिलाएं ही करती हैं। इन कामों के लिए अगर न्यूनतम से भी कम मजदूरी गिनी जाए, तो भारत की जीडीपी के 61 फीसदी के बराबर का आंकड़ा पहुंचता है। ये तमाम गंभीर अर्थशास्त्रीय अध्ययन है, जो महिलाओं की अदृश्य मेहनत, अदृश्य जिम्मेदारियों को ध्यान में रखकर किए गए हैं।
लोगों को परिवार के बीच यह दिलचस्प हिसाब-किताब करना चाहिए कि घर को साफ करना, घर के आसपास सफाई रखना, रोज बिस्तर ठीक करना या बिछाना, बर्तन और कपड़े धोना, कपड़ों पर आयरन करना, उन्हें तह करके जमाना, सब्जी लाना, काटना, खाना पकाना, और खिलाना, जहां बिजली न हो वहां मिट्टी तेल के लैम्प साफ करना, और उन्हें जलाना, घर के लिए जलाऊ लकड़ी लेकर आना, गोबर से छेना-कंडा बनाना, पानी भरकर लाना, पालतू जानवरों का ख्याल रखना, परिवार के कारोबार में मदद करना, खाने-पीने के कुछ सामान बनाकर बेचना, गर्भधारण, बच्चों को जन्म, और उनका पालन-पोषण करना, बीमारों की देखभाल करना, जीवन-साथी की देखभाल करना, बच्चों को पढ़ाना, और होमवर्क करवाना, बच्चों को स्कूल लाना-ले जाना, मेहमानों का ख्याल रखना, रिश्तेदारी निभाना, घरेलू हिसाब-किताब रखना, भुगतान करना, रोजमर्रा की चीजों को खरीदना, बीमारों को डॉक्टर के पास ले जाना वगैरह। परिवारों को चाहिए कि इन कामों पर कितना खर्च आता उसका हिसाब करें, और घरेलू कमाई में उसे महिला का योगदान मानें, और इसके लिए उसका पर्याप्त सम्मान भी करें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में कोरोना-वैक्सीन को लेकर लोगों के मन में तरह-तरह के शक भरे हुए हैं। दरअसल जिस आपाधापी में इन वैक्सीन को विकसित करने की खबरें आई हैं, उनकी वजह से भी बहुत से लोग इन्हें वैज्ञानिक पैमानों पर भरोसेमंद नहीं मान रहे हैं। फिर केन्द्र सरकार के तौर-तरीके भी अटपटे हैं। बड़े-बड़े केन्द्रीय मंत्री बाबा रामदेव की कोरोना की दवा पेश करने के लिए मौजूद रहते हैं जहां पर डब्ल्यूएचओ का भी नाम लिया जाता है, जिसका कि बाद में डब्ल्यूएचओ खंडन करता है। केन्द्र सरकार रामदेव को बढ़ावा देने के चक्कर में अपनी बहुत सी बातों की साख खो बैठी है। देश में अब तक विकसित दो कोरोना वैक्सीन में से एक ऐसी रही है जिसे लगवाने से दिल्ली के प्रतिष्ठित बड़े सरकारी अस्पताल, राममनोहर लोहिया हॉस्पिटल के डॉक्टरों ने मना कर दिया था। विपक्ष यह मांग करते आ रहा था कि प्रधानमंत्री और केन्द्रीय मंत्री टीका लगवाएं तो बाकी लोगों को भी टीके पर भरोसा हो। अब जब टीकाकरण शुरू हुए एक-डेढ़ महीना हो चुका है, तब प्रधानमंत्री ने टीका लगवाया है, और इसके पहले बहुत से लोगों ने पहले टीके के बाद उसका जरूरी दूसरा डोज भी नहीं लगवाया क्योंकि उनका भरोसा नहीं बैठा, या उठ गया। आज भी सोशल मीडिया पर बहुत से लोग लगातार इस टीके की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं, और छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री ने तो इन दो टीकों में से एक को राज्य में इस्तेमाल करने से मना करते हुए केन्द्र सरकार को लिखा है कि इसका पर्याप्त मानव-परीक्षण नहीं हुआ है, ऐसे में इसे लोगों को लगवाना ठीक नहीं है।
दुनिया भर में टीकों को लेकर लोगों के मन में संदेह रहता ही है। ऐसा संदेह कई बार किसी साजिश के तहत लोगों में फैलाया जाता है, और कई बार बिना किसी बदनीयत के भी लोग अधिक सावधान रहते हुए शुरूआती महीनों में ऐसे टीकों से परहेज करते हैं। आज भी सोशल मीडिया पर अच्छी साख वाले पत्रकार भी भारत के टीकों के खिलाफ लिख रहे हैं। उनका तर्क है कि टीके लगवाने के बाद भी कुछ मौतें हो रही हैं, मौतों से परे कई लोग टीकों के बाद भी कोरोना पॉजीटिव हो रहे हैं।
इस बारे में हम नसबंदी जैसे व्यापक जनकल्याण के ऑपरेशन, या किसी भी किस्म के टीकाकरण पर हड़बड़ी में शक करने के खिलाफ हैं। अब तक हिन्दुस्तान में कुछ करोड़ लोगों को टीके लगने को होंगे, और अगर इनमें से कुछ दर्जन लोग टीके लगने के बाद मरे हैं, तो गिनती में उतने लोग तो हर करोड़ आबादी पर महीने भर में मरते ही होंगे। इन मौतों को टीकों की वजह से हुआ मानने के बजाय यह समझने की जरूरत है कि ये टीके लगने के बाद हुई मौतें हैं, अब तक ऐसे कोई सुबूत नहीं मिले हैं कि ये टीकों की वजह से हुई हैं। इसलिए भारत सरकार की हड़बड़ी की कार्रवाई के बावजूद टीकाकरण पर ऐसे शक खड़े नहीं करने चाहिए कि इनकी वजह से लोग मर रहे हैं। भारत में कम से कम एक धर्म के लोगों ने इन टीकों पर शक किया है, और ये लोग पोलियो ड्रॉप्स पर भी ऐसा ही शक करके अपने ही धर्म के बच्चों का बड़ा नुकसान पहले कर चुके हैं। कोरोना का खतरा अभी खत्म नहीं हुआ है, और जो लोग उसकी वजह से बीमार होने के बाद ठीक भी हो गए हैं, उन लोगों की सेहत का भी कितना नुकसान हुआ है, यह अभी साफ नहीं है। दुनिया के कई देशों में कोरोना की लहर फिर से आई है, और खुद हिन्दुस्तान में महाराष्ट्र जैसा राज्य दोबारा लॉकडाऊन, दोबारा नाईट-कफ्र्यू देख रहा है। कुछ राज्यों में खुलने के बाद स्कूलें फिर से बंद करने की नौबत आई है। ऐसे में टीके की जरूरत को कम आंकना गलत है। जो लोग यह मान रहे हैं और लिख रहे हैं कि टीका लगने के बाद भी लोगों को कोरोना हो रहा है, उन्होंने ऐसी कोई जांच अभी नहीं की है कि ऐसे लोगों को कोरोना के टीके के दोनों डोज सही समय पर लगे हैं या नहीं, और उन्होंने टीकों के साथ जुड़ी सावधानी बरती है या नहीं, और दोनों टीके लगवाए उन्हें निर्धारित समय हो चुका है या नहीं। इस तरह के बहुत से पैमाने हैं जिनकी जांच के बाद ही इन टीकों को नाकामयाब कहना ठीक होगा, वैसे भी खुद चिकित्सा विज्ञान यह कह रहा है कि ये टीके सौ फीसदी लोगों पर कामयाब नहीं होंगे।
लेकिन दुनिया की कोई भी दवाई, कोई भी टीके सौ फीसदी लोगों पर कामयाब नहीं होते। और खासकर महामारी का टीका सारे लोगों को बीमारी से बचा ले वह बहुत जरूरी भी नहीं है। मेडिकल साईंस अपनी क्षमता के मुताबिक जितने फीसदी लोगों में भी कामयाब होगा, और कोरोना के खतरे से बचाएगा, वह दो हिसाब से काफी होगा, एक तो वे लोग खुद बचेंगे, दूसरी ओर वे लोग संक्रमण को आगे बढ़ाने वाले नहीं बनेंगे। इतनी कामयाबी भी कोई कम नहीं है। दुनिया के किसी भी विज्ञान के सौ फीसदी कामयाब होने पर भी उसका इस्तेमाल करने की शर्त दुनिया से विज्ञान को बाहर ही कर देगी। आम बीमारियों में भी कई दवाईयों का असर सौ फीसदी लोगों पर नहीं होता, तो क्या बहुत सी दवाईयों को बंद कर दिया जाए?
केन्द्र सरकार और उसे चला रही पार्टी की रीति-नीति से असहमत लोग आलोचना करते हुए भी यह ध्यान रखें कि इन टीकों से लोगों को इतना न डराया जाए कि महामारी पर काबू करना न हो सके। आज इसी किस्म के प्रचार की वजह से टीका लगवाने वाले लोगों में अधिक उत्साह नहीं दिख रहा है। यह नौबत अच्छी नहीं है। चूंकि भारत में कोरोना का टीका लगवाना अनिवार्यता नहीं है, और यह लोगों की मर्जी पर छोड़ दिया गया है। लेकिन संक्रामक रोगों के बारे में यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि जब तक सब सुरक्षित नहीं हैं, तब तक कोई सुरक्षित नहीं है। आज भी हिन्दुस्तान में इस टीके को लगवाने को लेकर कोई बंदिश नहीं है, लेकिन जितने डॉक्टरों से हम बात कर सकते थे, उनका मानना है कि सबको टीके लगवाने चाहिए, उन डॉक्टरों ने खुद भी टीके लगवाए हैं, और छत्तीसगढ़ के कुछ सबसे प्रमुख डॉक्टर ऐसे भी हैं जो राज्य के स्वास्थ्य मंत्री के इस फैसले से असहमत हैं कि दो में से एक टीका इस राज्य में न लगाया जाए। उनका मानना है कि यह जनता के हितों के खिलाफ है, और राज्य सरकार ऐसा विरोध नहीं करना चाहिए।
इतना जरूर है कि बाबा रामदेव को बढ़ावा देते-देते केन्द्र सरकार अपनी वैज्ञानिक-विश्वसनीयता खो बैठी है, और शायद यह एक बड़ी वजह है कि टीके लगवाने के प्रति लोग उदासीन हैं। लोग सिर्फ वैज्ञानिक पैमानों वाला टीका लगवाना तो चाहते, लेकिन लोग राजनीतिक नगदीकरण वाला टीका शक की नजर से ही देख रहे हैं। सरकार के राजनीतिक रूख ने एक वैज्ञानिक कामयाबी की साख खराब की है, और हिन्दुस्तान के लोग उसका दाम चुका रहे हैं।
अभी कुछ दिन पहले देश की राजधानी दिल्ली, जहां पर चौबीसों घंटे पुलिस तैनात रहती है, में एक तेज रफ्तार महंगी कार ने एक स्कूटर सवार बुजुर्ग को टक्कर मारी और वह मौके पर ही मर गया। कार चलाने वाला लडक़ा हीरे के कारोबारी का लंदन में पढ़ रहा 18 बरस का बेटा था। मरने वाला घरेलू नौकर था, नौकरी भी छूट चुकी थी, बीवी किसी और के घर काम करती थी, और वह उससे मिलने जा रहा था। पुलिस ने मामला दर्ज करके लडक़े को आनन-फानन जमानत पर छोड़ दिया।
यह मामला अपने आपमें अनोखा नहीं है, और देश के सबसे चर्चित फिल्म अभिनेताओं से लेकर देश के सबसे बड़े कारोबारियों की बिगड़ैल औलाद तक को सडक़ों पर नशे की हालत में गरीबों को कुचलते पाया जाता है। कल की ही खबर है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में देर रात नशा करके लौटते पैसे वाले परिवारों के लडक़े-लड़कियां पुलिस के रोकने पर उनके साथ बदसलूकी पर उतर आए। बहुत अधिक पैसे वालों की औलादें सडक़ पर कितना भी बड़ा हादसा करे, उनका बच निकलना तकरीबन तय रहता है।
ऐसे मामलों में हम कानून में एक सुधार सुझाते आए हैं, और उसे एक बार फिर दुहराने की जरूरत है। आज सडक़ों पर किसी भी हादसे के लिए जब गाड़ी चलाने वाले या गाड़ी पर कोई कार्रवाई होती है, तो वह दुपहिए और चौपहिए, निजी या कारोबारी किस्म से बंटी हुई रहती है। मोटरसाइकिल कम दाम की रहे, या अधिक दाम की, जुर्माना एक सरीखा लगता है। वैसे ही कार तीन लाख की रहे या तीन करोड़ की, जुर्माना एक सरीखा रहता है। हादसे में मरने वाला गरीब रहे या पैसे वाला, मारने वाला गरीब रहे या पैसे वाला, उससे जुर्माने पर कोई फर्क नहीं पड़ता। हम पहले भी कई बार इस बात को लिखते आए हैं कि किसी जुर्म या हादसे के लिए जिम्मेदार और उसके शिकार में जितना बड़ा आर्थिक फासला हो, जुर्माना उसी हिसाब से लगना चाहिए। एक करोड़पति की गाड़ी से दूसरे करोड़पति की मौत हो जाए, तो भी मरने वाले का परिवार शायद जिंदा रह ले। लेकिन जब एक करोड़पति की गाड़ी से एक मजदूर की मौत होती है, तो उस मजदूर का पूरा परिवार भी मर सकता है। इसलिए अगर जुर्म या हादसे के लिए जिम्मेदार व्यक्ति आर्थिक रूप से अधिक संपन्न हैं, तो उनकी संपन्नता से नुकसान पाने वाले व्यक्ति या मृतक के परिवार को बाकी जिंदगी के लिए एक पर्याप्त बड़ा मुआवजा देने का इंतजाम कानून में होना चाहिए।
दुनिया के कुछ देशों में तो एक बड़ा मुआवजा देकर कई किस्म के मामले अदालत के बाहर निपटाने का भी कानून है, लेकिन हम उसके खिलाफ इसलिए हैं कि उससे पैसे वाले लोग सजा से बच जाएंगे। हमारी आज की सलाह एक बराबरी की सजा के साथ-साथ मुजरिम के संपन्न होने पर एक मोटा मुआवजा उससे दिलवाने की बात जोडऩे के लिए है, किसी कैद को कम करने के लिए नहीं है। यह बात लोकतंत्र की मूलभावना के खिलाफ जाएगी, अगर लोग भुगतान करके अपनी कैद की माफी करवा सकेंगे, इसलिए वैसी कोई बात करनी नहीं चाहिए।
आज हिन्दुस्तान में जितने किस्म के ऐसे हादसे होते हैं उनमें से बहुतों के पीछे संपन्नता के बाहुबल का हाथ भी होता है। पैसा लोगों में बददिमागी भर देता है, और लोग अंधाधुंध बड़ी गाडिय़ों को नशे की हालत में भी अंधाधुंध रफ्तार से दौड़ाते हैं क्योंकि हादसा होने पर उन्हें पुलिस, गवाह, वकील, और अदालत में से एक या अधिक, या सबको खरीदने का पूरा भरोसा रहता है। इसलिए जिस पैसे पर उन्हें ऐसा घमंड है, उस पैसे से जुर्म और हादसों के शिकार लोगों को बड़ा मुआवजा दिलवाना चाहिए। कानून को ऐसा अंधा भी नहीं रहना चाहिए कि वह सबको एक बराबर कैद देकर उसे इंसाफ मान ले। इंसाफ तभी हो सकता है जब ऐसा एक भारी जुर्माना लगे जो किसी गरीब परिवार के लिए पर्याप्त मदद बन जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीकी राष्ट्रपति भवन में अभी दो दिन पहले एक ऐसा नजारा देखने मिला जिसकी किसी ने पिछली सरकार में कल्पना भी नहीं की थी। नए राष्ट्रपति जो बाइडन ने कश्मीरी मूल की एक मुस्लिम महिला, समीरा फ़ाज़ली को अपनी टीम में शामिल किया है, और उसने व्हाईट हाऊस में अपनी परंपरागत पोशाक, हिजाब पहने हुए मीडिया को संबोधित किया। हम भारत, और कश्मीर से इस महिला के परिवार के संबंधों को छोड़ भी दें, तो भी यह बात दिलचस्प थी कि व्हाईट हाऊस के मीडिया ब्रीफिंग रूम में हिजाब बांधी हुई एक मुस्लिम महिला बोल रही थी। लेकिन डेमोक्रेटिक पार्टी के इस राष्ट्रपति से ऐसी उम्मीद की भी जा रही थी क्योंकि वे चुनाव के पहले से ही अपनी टीम में हर धर्म, और हर नस्ल, देश से जुड़े हुए लोगों को रख रहे थे।
अब सोशल मीडिया पर इस बात ने एक अलग बहस छेड़ दी है कि इसे मुस्लिम महिला का सशक्तिकरण माना जाए, या फिर हिजाब लगाई हुई मुस्लिम महिला को उसके धर्म के रिवाज का गुलाम माना जाए? दोनों बातें अपने-अपने हिसाब से सही हैं, और सोचने का अलग-अलग नजरिया पेश करती हैं। कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखा कि कुछ मुस्लिम संगठन यह लिख रहे हैं कि अमरीकी राष्ट्रपति भवन में पहली बार एक हिजाबधारी मुस्लिम महिला ने बोलने का मौका पाकर एक इतिहास रचा है। इन लोगों का मानना है कि मुस्लिमों को अपने समाज की महिलाओं पर लादे गए हिजाब को ऐसे किसी गौरव के साथ जोडक़र नहीं देखना चाहिए क्योंकि यह रिवाज बुर्के की तरह मुस्लिम महिला पर एक बोझ और बंदिश है, उसके सिवाय कुछ नहीं। कुछ दूसरे लोगों का यह मानना है कि हिजाब और बुर्के का इस्तेमाल मुस्लिम महिला का विशेषाधिकार माना जाए, या उस पर बोझ माना जाए, यह एक अलग बहस का मुद्दा है। और आज अमरीकी राष्ट्रपति भवन में एक मुस्लिम महिला को, या कि एक मुस्लिम को जो महत्व मिला है, उस महत्व की खुशी मनाई जानी चाहिए, और बुर्के-हिजाब पर बहस पहले से चली आ रही है, और आगे भी चलती रहेगी।
कुछ मुद्दे जटिल होते हैं, उन्हें अलग-अलग काटकर देखना कुछ मुश्किल होता है। अगर मुस्लिम महिला को बुर्के या हिजाब से आजादी दिलानी है, तो हर किस्म की खबर में जब कहीं इनकी चर्चा हो, तो इन्हें बोझ या बंदिश साबित करना भी जरूरी है, क्योंकि इनकी चर्चा अलग से की जाएगी, तो उसमें कम लोगों की दिलचस्पी होगी। अमरीकी राष्ट्रपति भवन में यह मौका मिलने की वजह से हिजाबधारी मुस्लिम महिला के हिजाब वाले हिस्से पर चर्चा होने से अधिक संख्या में लोग उसके बारे में सोचेंगे क्योंकि राष्ट्रपति भवन का महत्व इससे जुड़ा हुआ है। अब सवाल यह उठता है कि कई पहलुओं वाले किसी मुद्दे के एक पहलू पर चर्चा जरूरी लग रही हो, तो यह जरूरी नहीं है कि बाकी तमाम लोगों को भी उसके दूसरे पहलुओं पर चर्चा कमजरूरी या गैरजरूरी लगे। मुस्लिम महिला को मिले मौके के साथ उस मौके की चर्चा में हिजाब का जिक्र हो जाना उन लोगों को नाजायज और गैरजरूरी लग रहा है जो कि ऐसे पुराने और दकियानूसी रिवाज के लिए मुस्लिम पोशाक लादने वालों की आलोचना करते हैं।
जटिल मामलों का विश्लेषण भी बहुत आसान नहीं होता है। फिजिक्स का कोई अच्छा प्रोफेसर अयोध्या में खड़े होकर मस्जिद गिरवाए तो उसके इस नफरतजीवी धर्मप्रेम की आलोचना करते हुए विज्ञान की उसकी समझ को अनदेखा किया जाए, या विज्ञान की चर्चा करते हुए उसकी इस साम्प्रदायिकता को अनदेखा किया जाए? हिटलर की चित्रकला की चर्चा करते हुए उसके किए हुए नस्लवादी जनसंहार को अनदेखा किया जाए या दुनिया के इस सबसे बड़े हत्यारे की कला को ही खारिज कर दिया जाए? जब रोम जल रहा था, और नीरो बांसुरी बजा रहा था, तो क्या उसके बांसुरीवादन की संगीत-समीक्षा की जाए, या उसके संगीत को ही खारिज कर दिया जाए? नरेन्द्र मोदी जब प्रधानमंत्री निवास में अपनी हथेली पर दाना रखे हुए मोर को दाना खिला रहे हैं, और उन्हीं की दिल्ली की सरहद पर महीनों के आंदोलन के बाद किसान मर रहे हैं, तो मोदी के पक्षीप्रेम की तारीफ की जाए, या किसान आंदोलन की उनकी अनदेखी को देखते हुए उनके पक्षीप्रेम को खारिज किया जाए?
इसी तरह की बात योरप में कई देशों में मुस्लिम महिलाओं की पोशाक को लेकर बनाए गए कानून को लेकर उठ रही है कि क्या बुर्के पर रोक मुस्लिम महिला के सशक्तिकरण का मामला है, या अपनी पोशाक तय करने के उसके अधिकार को कुचलना है? हमारा मानना यह है कि धार्मिक प्रतीकों से लदी हुई पोशाक किसी भी धर्म में, औरत या मर्द किसी पर भी एक बोझ अधिक रहती है, वह आजादी का सुबूत नहीं रहती। लेकिन अगर किसी धर्म के मानने वाले लोग उसके धार्मिक प्रतीकों को पहनकर या ढोकर चलना चाहते हैं, तो यह उनका व्यक्तिगत आजादी का दावा भी हो सकता है कि सरकार जिसे बोझ मानती है, मानवाधिकारों का हनन मानती है, वे उसे अपना हक मानते हैं। मुस्लिम महिलाओं में बहुत सी ऐसी हैं जो बुर्का पहनने की हिमायती रहती हैं, फिर चाहे वे योरप के सबसे विकसित देशों में क्यों न रह रही हों।
धार्मिक पोशाक की बात करें तो सिक्ख समाज में पुरूष पगड़ी पहनकर चलते हैं, और अगर वे अधिक हद तक धार्मिक रिवाज मानते हैं तो वे केश, कृपाण, कड़ा, कच्छा और कटार जैसे पांच प्रतीक पहनकर रहते हैं। अब दुनिया के किसी भी धर्म में अपने प्रतीकों को पहनकर चलने के मामले में अगर किसी धर्म के लोगों ने सबसे अधिक कानूनी संघर्ष किया है, तो वे सिक्ख हैं। दुनिया भर में उन्होंने दुपहिये चलाने पर भी हेलमेट न पहनने के लिए लंबे संघर्ष किए हैं, और धार्मिक आधार पर इसी एक समुदाय को हेलमेट से छूट मिली है। अब ऐसी छूट लोगों का भला करती है, या उन्हें खतरे में डालती है, यह एक अलग बहस का मुद्दा है। लेकिन अपने धार्मिक प्रतीकों की वजह से सिक्ख हेलमेट नहीं पहनते, यह उनके धार्मिक अधिकार का एक अलग मुद्दा है। मुस्लिम महिला पर हिजाब या बुर्के का बोझ भी धर्म से जुड़ी हुई पोशाक का मामला है, और चूंकि मुस्लिम समाज में महिलाओं पर ढेर सारे नाजायज प्रतिबंध लगाए जाते हैं, वहां महिलाएं दूसरे दर्जे की नागरिक रहती हैं, इसलिए ऐसी पोशाकों का विरोध दुनिया भर में अधिक होता है। बुर्के और हिजाब का कानूनी और सामाजिक विरोध चले ही आ रहा है, एक-एक करके कई यूरोपीय देशों ने इन पोशाकों पर कई किस्म की रोक लगाई हैं।
फिलहाल इस चर्चा के बाद हम दो दिन पहले अमरीकी राष्ट्रपति भवन की इस अभूतपूर्व घटना पर लौटना चाहते हैं कि एक मुस्लिम महिला को जो महत्व मिला है, वह हिजाब की उसकी अपनी पसंद के बावजूद मिला है, और हिजाब न उसमें आड़े आया, न उसमें काम आया। एक महिला होने की वजह से यह महत्वपूर्ण तो है, लेकिन अमरीका में तो आज उपराष्ट्रपति एक काली महिला है, ऐसे में मुस्लिम होने की वजह से समीरा फ़ाज़ली का वहां होना अधिक महत्वपूर्ण है, और उसी पर खुशी मनाने की जरूरत है। इस महिला को हिजाब की वजह से वहां पहुंचने का मौका नहीं मिला है, हिजाब को इस महिला की वजह से वहां पहुंचने का मौका मिला है, और यह मौका उस महिला पर चर्चा का है। अमरीकी दुनिया में जो महिला इतनी ऊंचाई पर पहुंची हुई है, और लंबे समय से वहां कामयाब है, बड़े ओहदों पर काम करते आई है, उस पर हिजाब कोई थोप नहीं सकता, यह उसकी अपनी पसंद की बात है। उसकी इस पसंद को इस मुद्दे में चर्चा में ऊपर रखना गलत होगा, उस महिला के अपने व्यक्तित्व को, उसकी कामयाबी को ही इस चर्चा में ऊपर रखना होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केन्द्र हो, या राज्य सरकार, या म्युनिसिपल, इन सबकी घोषणाओं को देखें तो समझ पड़ता है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि सब कुछ जानते हैं। वे वायुसेना के हमले की रणनीति की तकनीकी बारीकियां भी जानते हैं, वे उपग्रह टेक्नालॉजी भी जानते हैं, उन्हें यह भी मालूम रहता है कि अपने देश-प्रदेश के बच्चों को अचानक क्या पढ़ाना शुरू कर देना है, उन्हें शहरी विकास से लेकर ग्रामीण विकास तक की प्राथमिकताएं अकेले ही सब सूझ जाती हैं। शहरों के निर्वाचित प्रशासन को देखें तो किसी चौराहे का घेरा कितना बड़ा होना चाहिए, कहां पर डिवाइडर होना चाहिए, और कहां पर फुटपाथ होना चाहिए, इन तमाम बातों को निर्वाचित या मनोनीत नेता इस अंदाज में तय करते हैं, और उसकी मुनादी करते हैं कि मानो वे चक्रव्यूह भी तोडऩे की तरकीब सीखे हुए अभिमन्यु हों।
अब सवाल यह उठता है कि देश में कल तक जो योजना आयोग था, और राज्यों में जो योजना मंडल होता है, और म्युनिसिपलों में पार्षदों की अलग-अलग कमेटियां होती हैं, या मेयर की कोई काउंसिल होती है, उनके जिम्मे क्या है? देश में अलग-अलग विषयों के जो माहिर लोग हैं, जानकार हैं, जिन्होंने तकनीक विकसित की है, उनकी जरूरत क्या है अगर नेता ही सर्वज्ञ हैं? आज देश से लेकर प्रदेश और शहर तक पहले राजनीतिक घोषणा होती है, और फिर नेता की उस घोषणा के मुताबिक अफसर अपने दम पर ही उस बताई हुई मंजिल तक राह बिछाना शुरू कर देते हैं। हालत यह है कि अलग-अलग प्रदेशों में मुख्यमंत्री मंचों से सार्वजनिक घोषणा करते हैं कि स्कूल किताबों में कौन से पाठ जोड़े जाएंगे, या कौन से पाठ हटाए जाएंगे। अब सवाल यह है कि ऐसी घोषणा के बाद पाठ्यक्रम तय करने के लिए जानकारों और विशेषज्ञों की बनी हुई कमेटी की जरूरत क्या रह जाती है?
एक सवाल यह भी उठता है कि निर्वाचित नेता पर अपने पांच बरस के कार्यकाल के आखिर में एक चुनाव में अपनी सरकार की कामयाबी साबित करने की जिम्मेदारी भी रहती है। ऐसे में बिना किसी योजना के, अपनी मनमानी और अपनी निजी सोच से जनता की जिंदगी पर जनता के ही पैसों से इतना बड़ा फर्क डालने वाली योजना बनाने का इतना बड़ा दुस्साहस वे किस भरोसे से करते हैं? आज भारत की बैंक व्यवस्था को काबू करने वाले रिजर्व बैंक के गवर्नर की पढ़ाई-लिखाई महज एमए-इतिहास है, तो क्या भारत की बैंकिंग इतिहास का सामान बन चुकी है? क्या बैंकिंग और अर्थव्यवस्था, लोकतांत्रिक विकासशील शासन व्यवस्था की कोई समझ अब आरबीआई गवर्नर होने के लिए जरूरी नहीं रह गई है?
अपने आसपास सरकार हांकते लोगों को देखें तो यही समझ पड़ता है कि सत्ता पर काबिज लोगों को जानकारों और विशेषज्ञों से खासा परहेज रहता है, और ऐसा लगता है कि उनकी मौजूदगी में नेताओं के मन में हीनभावना आ जाती है क्योंकि वे उनके विषयों की समझ उनके मुकाबले जरा भी नहीं रखते हैं, या बहुत कम रखते हैं। ऐसे में ज्ञान और विशेषज्ञता से दहशत खाना स्वाभाविक है अगर निर्वाचित और मनोनीत नेता अपने आपको विशेषज्ञों के साथ एक मुकाबले में खड़ा कर लेते हैं। जबकि हकीकत यह रहती है कि देश-प्रदेश या शहर की सत्ता विशेषज्ञों को नहीं दी जाती है, निर्वाचित नेताओं को दी जाती है, और उनसे लोकतंत्र यह उम्मीद करता है कि वे जानकारों की राय लेकर, योजनाशास्त्रियों से योजनाएं बनवाकर, उसके बाद उन पर अपनी लोकतांत्रिक समझ और जनता के प्रति जवाबदेही को लागू करके व्यापक जनकल्याण के फैसले लें। लेकिन यह सिलसिला अब चलन से बाहर हो गया है। अब निर्वाचित या मनोनीत नेता भाग्यविधाता के अंदाज में अकेले यह तय करने लगे हैं कि जनहित में क्या है। वे मंच से इसकी घोषणा करने लगे हैं, और फिर मातहत अफसरों पर महज यह जिम्मा रहता है कि उन घोषणाओं को पूरा करने के लिए तरकीबें निकाल लें, बजट निकाल लें, योजनाएं बना लें, और उन्हें लागू करके नेता को उसका तमाम श्रेय दिलवाएं। यह पूरा सिलसिला देश के लिए बड़ा खतरनाक हो गया है। विशेषज्ञता से इतनी भारी-भरकम हिकारत जनता का पीढिय़ों तक का नुकसान कर रही है। लोग चुनाव जीतकर आने की अपनी क्षमता को तकनीकी विशेषज्ञता भी मान रहे हैं, योजना बनाने की क्षमता भी मान रहे हैं, और किसी महामारी की हालत में देश के लोगों के लिए दवा और टीके तय करने की काबिलीयत भी मान रहे हैं। यह सिलसिला बहुत ही खतरनाक है। यह देश की संभावनाओं को अधकचरे ज्ञान, विशालकाय अहंकार, मनमानी और जिद के हवाले कर देने के सिवाय और कुछ नहीं है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में लोगों ने राजनेताओं की जिद और सनक पर बहुत बर्बादी होते देखी है। शहर को खोदकर एक वक्त भूमिगत नाली योजना शुरू कर दी गई थी। बड़े ताकतवर नेताओं ने बिना तकनीकी सर्वे के शहर के बीच से इसे शुरू कर दिया था, और इस बात का हिसाब ही नहीं लगाया गया था कि कितने पखाने को बहने के लिए कितनी ढलान लगेगी, और कितने पानी की जरूरत होगी, उस वक्त शहर में पानी की कुल खपत और उपलब्धता कितनी थी, उस ढलान के चलते शहर के बाहर तक उस पानी को पहुंचते हुए कितनी गहराई लगेगी। ऐसे कई तकनीकी सवाल थे जिनको पूरी तरह अनदेखा और खारिज करते हुए ही नेताओं ने अपनी मर्जी से ऐसी बड़ी योजना शुरू कर दी थी, जो कि किसी किनारे नहीं पहुंच पाई। जनता के करोड़ों रूपए खर्च हो गए, बरसों की दिक्कत हो गई, और सारे पाईप दफन हो गए।
यह तो एक छोटी सी मिसाल है, हम तो अंतरिक्ष से लेकर आसमान तक, और पनडुब्बी से लेकर बुलेट टे्रन तक ऐसा ही रूख देख रहे हैं, ऐसा ही रूख अलग-अलग प्रदेशों में देखने मिलता है, अलग-अलग शहरों में देखने मिलता है। कुल मिलाकर एक लाईन में कहें तो निर्वाचित लोगों को ज्ञान से दहशत रहती है, और किसी बैठक में अपनी सोच पर लोग ज्ञानियों से कोई भी तर्क सुनना नहीं चाहते हैं, इसलिए तकनीकी विशेषज्ञों को खारिज करके ही निर्वाचित नेता हीनभावना से बच पाते हैं। लोगों को लगता है कि जनता के बीच से चुना जाना (!), या वोटों को खरीदकर आना ही दुनिया की सबसे बड़ी विशेषज्ञता है, दुनिया का सबसे बड़ा काम है।
पहली नजर में तस्वीर पर भरोसा नहीं हुआ। और यह वक्त ऐसा चल रहा है जिसमें तस्वीरें गढऩा बड़ा आसान है। इसलिए जब तक खासी तलाश करके सच्चाई तय न हो जाए तब तक अधिक चौंकाने वाली बातों को शक की नजर से देखना ही बेहतर और महफूज होता है। अभी एक राज्य के मुख्यमंत्री की ऐसी तस्वीर सोशल मीडिया पर आई जिसमें वे अफसरों से घिरे हुए लाल कालीन पर चल रहे हैं, और दोनों तरफ स्कूली बच्चे जमीन पर उकड़ू बैठे झुककर सिर जमीन में धंसाए हुए हैं, उनकी आंखें मुख्यमंत्री को देखने के बजाय अपने आपको देख रही हैं। यह तस्वीर मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह की है और उनके फेसबुक पेज पर भी ढेर से लोगों ने इस आलोचना के साथ इसे पोस्ट किया है कि मणिपुर को तानाशाह उत्तर कोरिया बना डाला है जहां गुलामों की तरह बच्चों को इस तरह जमीन में सिर धंसाकर बैठाया गया है।
लेकिन 21वीं सदी की इस तस्वीर को लेकर देश के एक मुख्यमंत्री को कोसना इसलिए ठीक नहीं है कि अपने-अपने वक्त पर सिंहासन के नशे में चूर बहुत से नेता इस किस्म की बहुत सी अलग-अलग हरकतें करते हैं। हिन्दुस्तान में यह एक आम बात है कि मुख्यमंत्री तो दूर, मंत्रियों के इंतजार में भी स्कूली बच्चों को कडक़ती ठंड या चिलचिलाती धूप में घंटों खड़ा कर दिया जाता है। हिन्दुस्तान के कागजों शेरों, मानवाधिकार आयोगों और बाल कल्याण परिषदों में ऐसे रिवाज के खिलाफ कई बार हवा में हुक्म दनदनाए हैं जो कागज के रॉकेट से भी कम नुकसान कर पाए हैं। सत्ता की बददिमागी ऐसे कागजी हुक्मों को अपनी कचरे की टोकरी में भी नहीं डालती कि कहीं इस पर गिरकर उनके थूक की बेइज्जती न हो जाए।
सत्ता की बददिमागी जब हैवानियत की हद तक पहुंच जाती है तो लोगों को हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में अदालत जाकर इसके खिलाफ हुक्म पाने की कोशिश करनी चाहिए। सत्ता एक किस्म से शर्मप्रूफ हो चुकी है, बाजार की धूर्त कानूनी जुबान का इस्तेमाल करें तो सत्ता पहले तो शर्मरेजिस्टेंट थी, अब वह शर्मप्रूफ हो गई है। किसी किस्म की आलोचना लोगों को छू भी नहीं पाती, और जैसा कि बाजार कई सामानों के बारे में कहता है, सत्ता पर बैठे लोगों की शर्म पर अब मानो टैफलॉन कोटिंग हो गई है, और उसे कुछ भी छू नहीं सकता। लोकतंत्र गौरवशाली परंपराओं के आगे बढऩे और बढ़ाने के हिसाब से बनाया गया तंत्र है, हिन्दुस्तान में यह नीचता और कलंकित कामों की परंपराओं को, उनकी मिसालों को आगे बढ़ाने, उन्हें मजबूत करने के हिसाब से ढल चुका है। अब यहां शर्म और झिझक लोहे के चक्कों वाली बैलगाडिय़ों की तरह इस्तेमाल से बाहर हो चुकी हैं, और एक राज्य का मुख्यमंत्री बच्चों के गुलाम सरीखे इस्तेमाल को अपने राज्य की गौरवशाली परंपरा करार देते हुए उसे देखकर अपना सीना गर्व से तन जाने की बात लिखता है। वो वक्त अब हवा हुआ जब देश का प्रधानमंत्री बच्चों को गोद में लेकर गर्व हासिल करता था, और उन्हें देश की तकदीर करार देता था।
हिन्दुस्तान अब लगातार, और तेज रफ्तार से बेशर्म होती जा रही राजनीतिक संस्कृति का लोकतंत्र हो गया है। तंत्र इतना बेशर्म हो गया है कि वह लोक को गुलामों सरीखे जमीन पर बिछाकर गौरवान्वित होता है। क्या सत्ता हर कहीं ऐसी ही संवेदनाशून्य हो जाती है? मणिपुर के कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर इस तस्वीर के साथ लिखा है कि अगर उन्हें ऐसे रिवाज पसंद हैं तो उन्हें थाईलैंड चले जाना चाहिए और वहां का राजा होना चाहिए जिससे मिलने के लिए लोगों को जमीन पर घिसटते हुए चलना पड़ता है। तेरह हजार से अधिक लोगों ने कड़ी आलोचना पोस्ट की है। लोगों को अभी कुछ बरस पहले के अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की वे तस्वीरें याद पड़ती हैं जिनमें वे राष्ट्रपति भवन पहुंचे हुए कुछ आम अमरीकी बच्चों में से जिद करते हुए फर्श पर लेट गए बच्चों के साथ फर्श पर लेटकर उन्हें खुश करने की कोशिश कर रहे हैं। लोगों को ओबामा की वे तस्वीरें भी याद पड़ती हैं जिनमें वे राष्ट्रपति भवन के गलियारों से गुजरते हुए वहां सफाई कर रहे कर्मचारियों की पीठ पर धौल जमाते हुए उनसे मजाक करते हुए, उनका हाल पूछते हुए निकल रहे हैं। दुनिया में जगह-जगह इंसानी कही जाने वाली खूबियों वाले ऐसे नेता भी होते हैं, और दूसरी तरफ ऐसे नेता भी होते हैं जो सिंहासन पर बैठते हैं तो उनका अंदाज हिंसासन पर बैठे सरीखा लगता है। उनकी बददिमागी उस ऊंचाई पर चलती है जिस ऊंचाई पर उनका पांच बरस का हेलीकॉप्टर भी नहीं पहुंच पाता।
यह सिलसिला हिन्दुस्तान की राजनीति, और हिन्दुस्तान के चुनावों के लिए जितना खराब है, उससे कहीं अधिक खराब उन बच्चों के लिए है जो राह चलते सत्ता की ऐसी हिंसा और बददिमागी देखते हैं, अलोकतांत्रिक मिजाज देखते हैं। बच्चों की यह नई पीढ़ी जिस तरह के राजनीतिक कुकर्म और राजनीतिक तानाशाही को देखते हुए बड़ी हो रही है, जिस तरह की हिंसक और अनैतिक बातों को सुनते हुए बड़ी हो रही है, यह सब कुछ इस पीढ़ी के साथ एक बड़ी मानसिक हिंसा है, लेकिन इसे कौन देखे? इसे देखने का जिम्मा जिन जजों पर हो सकता है, वे तो राज्यसभा के राजपथ पर चलने की इस शर्त पर पहले ही दस्तखत कर चुके हैं कि वे सत्ता की तरफ से आंखों पर पट्टी बांधे रखेंगे। इस देश का लोकतंत्र सत्ता और अदालत के सुधारे नहीं सुधरने वाला, इसके लिए जनता के बीच से मजबूत आंदोलन चलाकर जनमत पैदा करने की जरूरत है। जब सोशल मीडिया पर करोड़ों लोग एक साथ धिक्कारेंगे, तो हो सकता है कि बेशर्मी की चट्टान पर खरोंच तो आ ही जाए। फिलहाल तो गुलाम बनाए हुए बच्चों के बीच लाल कालीन पर चलते हुए निर्वाचित तानाशाह की ओर से कोई अफसोस भी अब तक सामने नहीं आया है।