विचार / लेख
-दिव्या आर्य
लिव-इन रिलेशनशिप, यानी शादी किए बगैर लंबे समय तक एक घर में साथ रहने पर बार-बार सवाल उठते रहे हैं। किसी की नजर में ये मूलभूत अधिकारों और निजी जिंदगी का मामला है, तो कुछ इसे सामाजिक और नैतिक मूल्यों के पैमाने पर तौलते हैं।
एक ताजा मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे दो व्यस्क जोड़ों की पुलिस सुरक्षा की मांग को जायज ठहराते हुए कहा है कि ये ‘संविधान के आर्टिकल 21 के तहत दिए राइट टू लाइफ’ की श्रेणी में आता है।
याचिकाकर्ताओं ने अदालत से कहा था कि दो साल से अपने पार्टनर के साथ अपनी मजऱ्ी से रहने के बावजूद, उनके परिवार उनकी जिंदगी में दखलअंदाजी कर रहे हैं और पुलिस उनकी मदद की अपील को सुन नहीं रही है।
कोर्ट ने अपने फैसले में साफ किया कि, ‘लिव-इन रिलेशनशिप को पर्सनल ऑटोनोमी (व्यक्तिगत स्वायत्तता) के चश्मे से देखने की जरूरत है, ना कि सामाजिक नैतिकता की धारणाओं से।’
भारत की संसद ने लिव-इन रिलेशनशिप पर कोई क़ानून तो नहीं बनाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसलों के ज़रिए ऐसे रिश्तों के क़ानूनी दर्जे को साफ़ किया है।
इसके बावजूद इस तरह के मामलों में अलग-अलग अदालतों ने अलग-अलग रुख़ अपनाया है और कई फैसलों में लिव-इन रिलेशनशिप को ‘अनैतिक’ और ‘गैर-कानूनी’ करार देकर पुलिस सुरक्षा जैसी मदद की याचिका को बर्खास्त किया है।
कानून की नजर में सही कब?
पंद्रह साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने साल 2006 के एक केस में फैसला देते हुए कहा था कि, ‘वयस्क होने के बाद व्यक्ति किसी के साथ रहने या शादी करने के लिए आजाद है।’
इस फैसले के साथ लिव-इन रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता मिल गई। अदालत ने कहा था कि कुछ लोगों की नजर में ‘अनैतिक’ माने जाने के बावजूद ऐसे रिश्ते में रहना कोई ‘अपराध नहीं है।’
सुप्रीम कोर्ट ने अपने इसी फैसले का हवाला साल 2010 में अभिनेत्री खुशबू के ‘प्री-मैरिटल सेक्स’ और ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ के संदर्भ और समर्थन में दिए बयान के मामले में दिया था।
खुशबू के बयान के बाद उनके खिलाफ दायर हुईं 23 आपराधिक शिकायतों को बर्खास्त करते हुए कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था, ‘इसमें कोई शक नहीं कि भारत के सामाजिक ढांचे में शादी अहम है, लेकिन कुछ लोग इससे इत्तेफाक नहीं रखते और प्री-मैरिटल सेक्स को सही मानते हैं। आपराधिक कानून का मकसद ये नहीं है कि लोगों को उनके अलोकप्रिय विचार व्यक्त करने पर सजा दे।’
लिव-इन रिलेशनशिप कब अपराध की श्रेणी में आ जाता है?
साल 2006 में भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के तहत ‘अडल्ट्री’ यानी व्याभिचार गैर-कानूनी था। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत मिली आज़ादी उन मामलों पर लागू नहीं थी जो शादी के बाहर संबंध यानी अडल्ट्री की श्रेणी में आते थे।
शादीशुदा व्यक्ति और अविवाहित व्यक्ति के बीच, या फिर दो शादीशुदा लोगों के बीच लिव-इन रिलेशनशिप कानून की नजऱ में मान्य नहीं था।
फिर साल 2018 में एक जनहित याचिका पर फ़ैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ‘अडल्ट्री’ कानून को ही रद्द कर दिया।
याचिका दर्ज करनेवाले वकील कालेश्वरम राज ने बीबीसी से बातचीत में इस फैसले के लिव-इन रिलेशनशिप पर असर के बारे में बताया।
उन्होंने कहा, ‘अब कोई लिव-इन रिलेशनशिप इस वजह से गैर-कानूनी नहीं करार दिया जा सकता कि वो ‘अडल्ट्री’ की परिभाषा में आता है। सुप्रीम कोर्ट के साल 2006 और 2018 के फैसले एकदम साफ है और संविधान के आर्टिकल 141 के तहत उतने ही मजबूत कानून हैं जैसे संसद या विधानसभा द्वारा पारित कानून।’
लेकिन देश की अदालतों में शादीशुदा व्यक्ति के बिना तलाक़ लिए लिव-इन रिलेशनशिप में होने की सूरत में कई बार उनके रिश्ते को अब भी गैर-कानूनी बताया जा रहा है।
हाई कोर्ट के अलग-अलग फैसले
इसी साल अगस्त में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पुलिस सुरक्षा की एक याचिका बर्खास्त कर दी और 5,000 रुपए जुर्माना लगाते हुए कहा कि, ‘ऐसे गैर-कानूनी रिश्तों के लिए पुलिस सुरक्षा देकर हम इन्हें इनडायरेक्ट्ली (अप्रत्यक्ष रूप में) मान्यता नहीं देना चाहेंगे।’
इसके फौरन बाद आए राजस्थान हाई कोर्ट के एक फैसले में भी ऐसे रिश्ते को ‘देश के सामाजिक ताने-बाने के खिलाफ’ बताया गया।
कालेश्वरम राज कहते हैं, ‘कानून की जानकारी और समझ का अभाव एक बड़ा मुद्दा है जो आम जनता, पुलिस सबके बीच व्याप्त है। 2018 के ‘अडल्ट्री’ के फैसले के एक साल बाद भी जब मैंने उत्सुकतावश भारतीय दंड संहिता पर बाज़ार में उपलब्ध कुछ किताबों पर नजर डाली तो पाया कि सेक्शन 497 को उनमें से हटाया नहीं गया था।’
कई निचली अदालतें सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के ध्यान में रखते हुए सुनवाई कर भी रही हैं।
इसी साल सितंबर में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के सामने एक अविवाहित महिला और एक शादीशुदा मर्द ने उनकी पत्नी और परिवार से पुलिस सुरक्षा की याचिका दाखिल की।
हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट के ‘अडल्ट्री’ को रद्द करनेवाले फैसले का हवाला देते हुए याचिकाकर्ताओं के हक में फैसला दिया और पुलिस को सुरक्षा मुहैया करने की हिदायत दी।
कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा, ‘शादीशुदा होने के बावजूद लिव-इन रिलेशनशिप में रहना कोई गुनाह नहीं है और इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि शादीशुदा व्यक्ति ने तलाक की कार्रवाई शुरू की है या नहीं।’ (bbc.com/hindi)