विचार / लेख

लालू के भकचोन्हर शब्द की व्याख्या
03-Nov-2021 1:04 PM
लालू के भकचोन्हर शब्द की व्याख्या

-पुष्य मित्र

आज से ठीक नौ रोज पहले जब लालूजी ने इस शब्द का उपयोग बिहार कांग्रेस के प्रभारी भक्तचरण दास के लिए किया था, तब से इस शब्द की खूब व्याख्या हुई। लोगों ने बहुत रस लेकर इस शब्द का अर्थ समझाया और एक मित्र ने तो यहां तक कहा कि इस शब्द का अर्थ है, लालू इज बैक। मैंने अपने कई गंभीर मित्रों और जिम्मेदार लोगों को इस शब्द को अपने मुंह में लगभग चुभलाते हुए देखा और चुप रहा। क्योंकि मैं इस शब्द के मायने को समझता था और आज तक किसी भी इंसान के लिए इस शब्द का कभी इस्तेमाल नहीं किया। उस तरह तो बिल्कुल नहीं, जिस लहजे में लालू जी ने इस शब्द का इस्तेमाल किया था।

और सच यह है कि इस शब्द को उचारते हुए लालू जी के जिस अंदाज ने मेरे मित्रों को उत्साह से भर दिया था, उस लहजे को देखकर मैं अवाक रह गया था। मेरे मन में पहला रिएक्शन यही आया था, लालू अब भी नहीं बदले। वैसे के वैसे हैं। दुनिया बदल गयी, मगर वे उसी जमाने में जी रहे हैं।

पिछले दिनों लल्लनटॉप के कार्यक्रम नेतानगरी में मुझसे जब पूछा गया कि लालू जी की वापसी का बिहार की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा। तब भी मैंने यही कहा था कि लालू जी का आना राजद के लिए दोधारी तलवार की तरह है। यह फायदा भी दे सकता है, तो नुकसान भी कर सकता है। बैकफायर भी कर सकता है। क्योंकि मैंने कम से कम पिछले दस साल से नीतीश जी को अपने वोटरों को लालूजी के नाम पर डराकर चुनाव जीतते हुए देखा है। सुशील मोदी जी का तो पूरा राजनीतिक कैरियर है लालू विरोध पर टिका है। जब तक लालू हैं, नीतीश भी हैं और सुशील मोदी का राजनीतिक करियर भी है। बहरहाल यह अलग बात है।
सच यह है कि जब सभी लोग भकचोन्हर शब्द की व्याख्या कर रहे थे तो मैं चुप था। यह सोचकर कि अभी इस शब्द की व्याख्या करने का उचित समय नहीं है। मैं चुनाव में इस शब्द के असर को देखकर इसके असली अर्थ को समझना चाहता  था। और आज जब उपचुनाव की दोनों सीटों के नतीजे आ गए हैं, तो मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि राजद के लिए यह भकचोन्हर शब्द बैकफायर कर गया है। उसे उस पार्टी जदयू ने करारी शिकस्त दी, जिसके बारे में सब जानते हैं कि उसका कोई अपना कैडर वोटर नहीं है। न कोई जात, न जमात। वह चुनावी तौर पर पुछल्ली पार्टी है, जो जिस कैडर बेस पार्टी के पीछे लग जाती है, उसी का वोट हासिल करती है।

और यह भी तय है कि इस बार भाजपा ने जदयू की मदद के लिए अपनी कोई ताकत नहीं लगायी थी। इसके बावजूद अगर जदयू ने इस विपरीत हालत में दोनों सीटें जीत लीं तो वह इस भकचोन्हर शब्द का ही कमाल था। एक बार फिर लालू जी की पुरानी छवि और उनका पुराना दबंग अंदाज नीतीश के काम आया। अगर लालू जी ने बस उस एक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया होता तो शायद उनकी पार्टी दोनों सीटों पर जीत रही होती। देश भर में जो नतीजे सामने आये हैं, उसके हिसाब से तो यही लगता है।

कई लोगों को यह बात अतिश्योक्तिपूर्ण लग सकती है। मगर उन्होंने इस बात को कभी महसूस नहीं किया कि राजद का एग्रेसन ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। इसी एग्रेसन ने उसे पिछले साल के विधानसभा चुनाव में मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते सत्ता से दूर कर दिया था। आखिरी चरणों में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त राजद कार्यकर्ताओं ने जिस तरह का एग्रेसन दिखाया था, उसने न सिर्फ बिहार की सवर्ण बल्कि दलित और अति पिछड़ी जाति को भी सचेत कर दिया था। लालू राज वापस आ रहा है। क्योंकि लालू राज के आखिरी दिनों में राजद सिर्फ यादव और मुसलमानों की पार्टी रह गई थी और अतिपिछड़े और दलित उसके कार्यकर्ताओं से भय खाने लगे थे। ये वही लोग थे, जिन्हें लालूजी ने अपने पहले टर्म में बोलना और मुखर होना सिखाया था। जिसकी बात आज तक की जाती है। मगर अंत आते आते राजद कार्यकर्ता इन्हीं दबे-कुचले लोगों पर सामंती मिजाज के हमले करने लगे थे। इनके विधायकों ने अपने आवास में गरीब मेहनतकश लोगों के नाखून तक उखारे हैं। सीवान का तेजाब कांड भला कौन भूल सकता है।

राजद को पता है कि उसकी यही पहचान उसकी असल कमजोरी है। लंबे समय से पार्टी इस टैग से उबरने की कोशिश कर रही है। 2017 में राजद ने जब राजगीर में कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया था तो दो बातें विशेष रूप से कही गयी थी, पहली हमें गठबंधन के साथियों के साथ सम्मानजनक व्यवहार करना है, दूसरा हमें सभी दलित और पिछड़ी-अतिपिछड़ी जातियों के लिए उसी तरह बड़े  भाई की भूमिका निभानी है, जैसी भूमिका हमने 1990-95 के बीच निभायी थी।

पिछले साल के विधानसभा चुनाव में पोस्टरों से लालू जी की तस्वीर को हटाना, सामाजिक न्याय के बदले आर्थिक न्याय की बातें करना। मकसद एक ही था। राजद अपनी पिछली छवि से उबरना चाहती थी। ऐसा लगा था कि कम से कम लालू परिवार के स्तर पर अब लोग इस बात को लेकर सतर्क हैं कि हमें अपनी दबंग, भ्रष्ट और विवादित छवि से पीछा छुड़ाना है। ताकि यह कहा जा सके कि लालू जी ने जब दबंगई दिखायी तो वह उस वक्त के सामाजिक न्याय की जरूरत है। हम लोग स्वभाव से वैसे नहीं हैं।

मगर लालूजी कभी नहीं बदले। और यह उनके पहले ही बयान से जाहिर हो गया। भकचोन्हर शब्द के कई अर्थ लोगों ने बताये। मगर पहली बार सुनकर ही मुझे लग गया था कि यह शब्द अपमानित करने वाला शब्द है। यह सहज मजाक नहीं है, वैसा मजाक भी नहीं जैसा कपिल शर्मा अपने शो में करते हैं। यह विशुद्ध अवमानना है। इस शब्द को बोलने का उनका अंदाज विशुद्ध रूप से सामंती था।
यह सब मैंने अपने बचपन में देखा सुना है। गांव के बड़े किसान और भू-स्वामी अपने दरवाजे पर आने वाले मजदूर तबके के लोगों के साथ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। यह शब्द विशुद्ध रूप से किसी को नीचा दिखाने या उसका आत्मविश्वास कम करने के लिए बोला जाता है। लालू जी ने भक्त चरण दास के लिए इस शब्द का इसलिए सहजता से इस्तेमाल कर लिया, क्योंकि वे न सिर्फ एक दलित नेता थे, बल्कि उनकी निगाह में भक्तचरण दास की कोई औकात नहीं थी, क्योंकि उनकी बातचीत तो सीधे सोनिया गांधी से हुआ करती थी।

मगर दौर बदल गया है। अब गांवों में लोग खेतिहर मजदूरों को भी नुनू-बाबू कहकर बात करते हैं। शहर के दफ्तरों में भी बॉस अपना लहजा नियंत्रित रखते हैं और सबोर्डिनेट कर्मियों के साथ सम्मानजनक व्यवहार करते हैं। यह सच है कि बिहार के ग्रामीण इलाकों में सवर्णों के इस तरह के सामंती मिजाज को बदलने में लालू जी की बड़ी भूमिका रही है। मगर बड़े नेता बनने के बाद उन्होंने इस सामंती मिजाज को अपना लिया है, और वह उनसे छूटती नहीं है।

अगर लोगों से ठीक से बात की जाए, खासकर इन दोनों इलाकों की अति पिछड़ी आबादी से तो वे अब कहेंगे कि लालू जी की इस तरह की एंट्री ने उन्हें कितना डराया है। लालू जी और राजद नेताओं के ऐसे ही मिजाज के कारण कई मौके पर बिहार की अति पिछड़ी आबादी नीतीश के पीछे मजबूती से खड़ी हो जाती है। लालू जी के पास अपनी जाति के वोट हैं और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों की मजबूरी है, उनके पीछे खड़ा होना। मगर पिछले कई चुनावों से जाहिर है कि इन दोनों जात और जमात के भरोसे जीत हासिल करना उनके लिए नामुमकिन है। इसलिए उन्हें अपना दायरा बड़ा करना पड़ता है। गठबंधन बनाना पड़ता है।

उन्हें और राजद को इसकी कोई जरूरत नहीं पड़ती। उन्हें बस इतना करना था कि वे दलितों-अति पिछड़ों को यह भरोसा दिला पाते कि वे आज भी उसी तरह उनके लिए मजबूती से खड़े हैं, जैसे वे पिछली सदी के आखिरी दशक में थे। मगर कहते हैं न आदतें छूटती नहीं। और जिस सामंती मिजाज से लालू जी ने बिहार के सवर्णों को छुटकारा दिला दिया, वह मिजाज अब उनकी जिह्वा पर सवार है। वरना वे भकचोन्हर के बदले कुछ और भी कह सकते थे।

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