विचार / लेख
-रमेश अनुपम
‘बस्तर भूषण’ के दूसरे अध्याय में आदिवासियों के खेती के तरीके और बाहरी संसार से उनसे संपर्क पर प्रकाश डाला गया है। सन् 1900 के बाद बाहर के साहूकारों की बस्तर में दिलचस्पी बढऩे लगी थी। बस्तर व्यापार की दृष्टि से अच्छा था। व्यापारी अब तक बस्तर अंचल से बहुत दूर और बस्तर को लेकर सशंकित थे। आवागमन की दृष्टि से भी बस्तर उन दिनों दुरूह अंचल माना जाता था। पर अब इक्का-दुक्का साहूकार बस्तर आने लगे थे और अपने साथ कपड़े, शक्कर, मसाला आदि लाने लगे थे और इसके बदले यहां से धूप, मोम, तिखूर आदि वन उपज बाहर ले जाने भी लगे थे। इन साहूकारों के लिए बस्तर अब प्रचुर मुनाफा देने वाला अंचल साबित हो रहा था।
इसी अध्याय में बस्तर की तत्कालीन जमींदारियों की भी चर्चा केदार नाथ ठाकुर द्वारा विस्तारपूर्वक की गई है।
उस समय बस्तर में 8 जमींदारियां थीं। जिनमें
1.भोपालपटनम,
2.कुटरू , 3.सुकमा,
4. दंतेवाड़ा ,
5.चिंतलनार,
6.कोटापाल,
7.फोटकेल,
8.परलकोट प्रमुख थे।
‘बस्तर भूषण’ के तीसरे अध्याय में बस्तर स्टेट की चर्चा की गई है। इस अध्याय में यह भी बताया गया है कि महाराज दलपत के समय ही बस्तर स्थित राजधानी को जगदलपुर स्थांतरित किया गया था। इस तरह बस्तर की जगह जगदलपुर को महाराज दलपत ने अपनी राजधानी घोषित किया। यह जगदलपुर का भाग्योदय था। इससे बस्तर की जगह अब जगदलपुर व्यापार और प्रगति का केंद्र बनता चला गया।
केदार नाथ ठाकुर ने अपने इस ग्रंथ में बताया है कि सन 1896 में जे.एल. करनल फैगन पहले अंग्रेज थे, जो एडमिनिस्ट्रेटर होकर बस्तर आए थे। उनके पश्चात जी. डबल्यू गेयर पोलिस सुपरिंटेंडेंट बस्तर स्टेट के एडमिनिस्ट्रेटर बनाये गये।
‘बस्तर भूषण’ से ही यह जानकारी मिलती है कि सन 1897 में बस्तर में भूमि बंदोबस्त का काम पहली बार शासकीय स्तर पर प्रारंभ हुआ। मुंशी ज्वालाप्रसाद पहले सेटिलमेंट ऑफिसर के रूप में बस्तर में पदस्थ किए गए।
इसी अध्याय में केदार नाथ ठाकुर ने बस्तर दशहरा का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। दशहरा उस समय से ही बस्तर का एक लोकप्रिय उत्सव रहा है।
बस्तर दशहरा के बारे में लिखते हुए केदार नाथ ठाकुर ने कहा है कि-
‘दशहरा के समय में जगदलपुर मानो इंद्रपुरी बन जाता है। कलकत्ते में जिस प्रकार नवरात्रि की धूम-धाम घर-घर मच जाती है, उससे बढक़र बस्तर में होता है।’
अपने इस ग्रंथ की भूमिका में ही केदारनाथ ठाकुर ने इस ग्रंथ के विषय में अपना मंतव्य प्रकट करते हुए लिखा है कि-
‘जहां तक बना है, पुस्तक में राज्य के सभी हाल लिखने का प्रयत्न किया है जैसे- सीमा, नदी, पहाड़, जंगल, फल, फूल, जड़ी बूटी, जानवर, पक्षी, औषधि, आदिवासियों के गीत, पुरातन तथा नवीन इतिहास, मनुष्य गणना, राज्य प्रबंध इत्यादि।’
आगे अपने विषय में केदार नाथ ठाकुर ने यह लिखने से भी गुरेज नहीं किया है कि-
‘मैं कोई ग्रंथकार नहीं हूं, न मेरी चाह है कि कोई मेरी लेख प्रणाली को देख मेरी बड़ाई करे, जबकि हिंदी के महाधुरंधर लेखक भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र, राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद, प्रताप नारायण मिश्र तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी सरीखे विद्वानों के लेख पद्धति की भी बहुत लोग सराहना नहीं करते तो मैं किस खेत की मूली हूं।’
केदारनाथ ठाकुर जानते थे कि हर युग में अच्छे कामों के प्रशंसक और गुण गाहक कम ही होते हैं। हर युग में मीडियाकर और दोयम दर्जे के लोगों की पौ बारह रहती है पर यह भी उतना ही सच है कि ऐसे लोगों को समय बुहार कर फेंक देता है और प्रतिभाशाली सर्जक ही युगों-युगों तक अपनी कृतियों के माध्यम से जीवित रहते हैं।
‘बस्तर भूषण’ और उसके रचयिता केदारनाथ ठाकुर इसलिए आज भी याद किए जाते हैं।
‘बस्तर भूषण’ एक ऐसा आईना है जिसमें हम बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक के बस्तर की तस्वीर को साफ-साफ देख सकते हैं।
जाहिर है आज का बस्तर इन सौ वर्षों में बहुत बदल चुका है। जंगल, पहाड़ और नदियों को हमने आदिवासियों से छीन ही नहीं लिया है बल्कि उसे बड़े कॉरपोरेट के हवाले भी कर दिया है।
बस्तर में खनिज संसाधन के दोहन की जैसे होड़ सी लगी हुई है कि जितनी जल्दी हो सके सारे खनिज संसाधन पर अधिकार कर लिए जाएं।
पहाड़ और धरती का सीना चीर-चीर कर सारा लौह अयस्क निकाल लेने की होड़ मची हुई है। जंगल और वन्यपशु तो पहले ही नष्ट किए जा चुके हैं। आने वाले भविष्य के लिए शायद हम कुछ भी बचाकर नहीं रखना चाहते हैं।
बस्तर और बस्तर के आदिवासी किसी भी सरकार की प्राथमिकता में कभी शामिल नहीं रहे।
हां मुक्तांगन से लेकर जगह-जगह उनकी भीम काय मूर्ति बनाकर या तरह-तरह के शासकीय आयोजनों में उन्हें नचवा कर हमें लगता है कि हम आदिवासियों के सच्चे हितैषी हैं।
पर आज भी सुदूर अबूझमाड़ में या गोलापल्ली, आवापल्ली में बस्तर की असली और बदरंग तस्वीर विकास और प्रगति का मुंह चिढ़ाते हुए दिखाई देती है। विकास केवल कागजों में ही दिखाई देता है, हकीकत कुछ और ही कहानी बयां करती है।
आज भी पुलिस और नक्सलियों की बंदूक के बीच बस्तर के आदिवासी तय नहीं कर पा रहे हैं कि उनके मित्र कौन है और शत्रु कौन ?
(अगले हफ्ते महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव...)