विचार / लेख
-रवीश कुमार
आपने नहीं समझने की नई परंपरा कायम कर दी है। पटाखों के खिलाफ जिन-जिन लोगों ने समझाने की कोशिश की है, उन-उन लोगों से नहीं समझ कर आपने श्रेष्ठ कार्य किया है। आपके ही नहीं समझने का सुंदर परिणाम है कि बाहर कुछ भी सुंदर नहीं दिख रहा है। धुआँ है और उसके आगे धुआँ है। हवा साँस लेने लायक नहीं है। जहर हो गई है। क्या दिवाली से पहले हवा में जहर नहीं था? बिल्कुल था। आपके दिमाग में भी जहर था। जब आपने दिमाग का नहीं सोचा तो फेफड़े की क्यों सोचना।
जिन लोगों ने घरों की सफाई की, सजाया कि घर दूर से ही रौशन दिखेगा, मेहमान आएँगे तो कऱीब से भी सुंदर दिखेगा लेकिन आपने धुआँ-धुआँ कर नहीं समझने का जो परिचय दिया है वो शानदार है। पटाखे नहीं छोडऩे की बात हिन्दू परंपरा पर हमला है। जब आपने हिन्दू होने नाम पर नेता की किसी नाकामी को नहीं समझा, तो पटाखों से हानि को भी नहीं समझ कर राष्ट्रीय निरंतरता का परिचय दिया है। बल्कि निरंतरता का राष्ट्रीयकरण किया है। इससे पता चलता है कि एक तरह से नहीं समझने वाले लोगों की भरमार हो गई है। हिन्दू राष्ट्र में 110 रुपया लीटर पेट्रोल हो सकता है, प्रदूषण क्यों नहीं हो सकता?
जिन लोगों ने भी समझाया है उन्हें बकरीद के समय नालियों की तस्वीर खींच कर बताना कि अब प्रदूषण नहीं हो रहा है? इस वक्त ही प्रदूषण हो रहा है जो सभी लोग हुआं हुआं कर रहे हैं? जिन स्कूलों में पटाखों के न छोडऩे की सीख दी जाती है उन्हें बंद कराने की जरूरत है। ऐसे तो प्रदूषण ही ख़त्म हो जाएगा। आपने दिवाली के नाम पर हर हाल में प्रदूषण को बचाने का काम किया है। आगे भी कीजिए। कोई कुछ भी कहें नहीं समझा कीजिए।
पर्यावरण संकट पर सम्मेलन होते रहेंगे। वहाँ बड़ी बड़ी बातें कही जाती रहेंगी। मन की बात में तरह तरह के नैतिक संदेश देने वाले प्रधानमंत्री ने पटाखे न छोडऩे का कोई नैतिक संदेश न देकर शानदार काम किया। उन्हें पता है इतनी मुश्किल से नहीं समझने वाले तैयार हुए हैं, कहीं समझ गए तो पर्यावरण से ज़्यादा राजनीति का नुकसान हो जाएगा। नहीं समझने वाला यह जन आंदोलन कमजोर पड़ जाएगा। इसलिए मैंने भी पटाखे न छोडऩे की कोई अपील नहीं की।
मुझे उम्मीद है कि नहीं समझने वाले आप सभी लोग मिलकर एक प्रदूषण पर्व मनाएँगे। उस दिन केवल हवा ही नहीं पानी भी प्रदूषित कीजिए ताकि जीना मुश्किल हो जाए। नहीं समझने के राष्ट्रीय आंदोलन का एक मकसद तो यह भी है कि जीना आसान न हो। जिनके फेफड़े खऱाब होते हैं होते रहें।
मैं तो काफी खुश हूँ कि दिवाली के अगले और तीसरे दिन भी पटाखे छूटने की आवाज आ रही है। आप नहीं समझने वाले नहीं होते तो प्रदूषण कम हो जाता और यह अच्छा नहीं होता।
नहीं समझने वालों के दिमाग और फेफड़े नहीं होते वे इसके बिना भी होते हैं। वे प्रदूषण को ही पर्व में बदल देते हैं।
ग्रीन सलाम
नहीं समझने वालों का घोर समर्थक