सामान्य ज्ञान
सांझी ब्रज प्रदेश की एक प्राचीन और पारंपरिक कला है। यह रंगोली और पेटिंग का मिला-जुला रूप है, मगर असल में इसका अलग ही महत्व है। क्ले सरफेस पर सूखे रंगों से बनाई जाने वाली सांझी पूरी तरह से ज्यामितीय डिजाइन पर बनाई जाती है।
सबसे पहले 6&6 या 9&9 का क्ले सरफेस तैयार किया जाता है। उस पर डिजाइन के लिए रेखाएं खींची जाती हैं, जिन पर बाकी की सांझी तैयार की जाती है। यह काम इतना बारीक है कि पहली नजर में लगता है कि ऑइल कलर्स से पेंटिंग बनाई गई है। मगर सांझी बनाने में सूखे रंग ही इस्तेमाल किए जाते हैं। कला में फूल, पत्तियां, गाय, बेलें और घास वगैरह सब सूखे रंगों से तैयार किए जाते हैं। हवा का हल्का सा झोंका भी पूरी मेहनत को मिट्टी में मिला सकता है। इसलिए सांझी बनाते समय बहुत सावधान रहना पड़ता है।
सांझी बनाने को एक तरह की साधना कहा जा सकता है। सांझी का नाता श्रीकृष्ण से है। ऐसे में सांझी में गाय न हो, ऐसा हो नहीं सकता। गाय, फूल, पत्तियों या बेलों वगैरह के लिए कुछ सांचों को इस्तेमाल किया जाता है। सांझी बनाने के लिए सूखे रंग इस्तेमाल किए जाते हैं। कोशिश रहती है कि ये रंग प्राकृतिक हों। सांझी के लिए बाजार से रंग खरीदना काफी खर्चीला होता है। दरअसल सांझी कुछ घंटों के लिए बनाई जाती है और उसके बाद उसे खंडित कर दिया जाता है। ऐसे में खर्च बढ़ जाता है।
सांझी के कई सारे रूप हैं। कुछ लोग गोबर से सांझी बनाते हैं, कुछ दीवारों पर, कुछ पानी की सतह के नीचे तो कुछ पानी के सरफेस पर भी सांझी बनाते हैं। जिस वक्त सांझी का निर्माण किया जा रहा होता है, कुछ पद गाए जाते हैं। इन पदों में सांझी से जुड़ी पौराणिक कहानियां और कई सारी बातें होती हैं। सांझी को तैयार करने में 10 से 12 घंटे तक लग जाते हैं। शाम को सांझी की पूजा भी की जाती है और फिर अगली ही सुबह इसे हटा दिया जाता है। सांझी के मुख्य में श्रीकृष्ण और श्रीराधा की पेटिंग की कटिंग रखी जाती है। अगले दिन जब सांझी को हटाए जाने से पहले इस पेपर कटिंग को हटा लिया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि भगवान की पेंटिंग खंडित न हो। वैसे तो और भी राज्यों में सांझी बनाई जाती है, लेकिन सभी का अपना महत्व है और सभी के उदय के पीछे की कथा अलग है।
ब्रज की सांझी श्रीकृष्ण और श्रीराधा के अटूट प्रेम को दर्शाने के लिए बनाई जाती है। इसे बनाने में लगने वाले समय और फिर अगले ही दिन हटा दिए जाने की वजह से लोगों की रुचि इसमें कम हो रही है। यह काम खर्चीला भी है, इसलिए इस विलुप्त हो रही कला को सीखने के लिए कोई आगे नहीं आ रहा। एक वक्त था जब सांझी ब्रज के घर-घर में बनाई जाती थी। फिर यह कला ब्रज के मंदिरों तक सिमटी और अब ब्रज के प्रसिद्ध सप्त देवालयों में से एक श्री राधा-रमण में ही यह कला बनाई जाती है।