सामान्य ज्ञान
ब्रिटिश सेनाओं और मराठा महासंघ के बीच हुए तीन युद्घ (1775-82,1803-05,1817-18) हुए हैं जिन्हें इतिहास में मराठा युद्ध के नाम से जाना जाता है। जिनका परिणाम था महासंघ का विनाश।
पहला युद्घ (1775-82) रघुनाथ राव द्वारा महासंघ के पेशवा पद (मुख्यमंत्री) के दावे को लेकर ब्रिटिश समर्थन से प्रारंभ हुआ। जनवरी 1779 में वडगांव में अंग्रेज पराजित हो गए, लेकिन उन्होंने मराठों के साथ सालबई की संधि (मई 1782) होने तक युद्घ जारी रखा। इसमें अंग्रेजों को बंबई (वर्तमान मुंबई) के पास सालसेत द्वीप पर कब्जे के रूप में एकमात्र लाभ मिला।
दूसरा युद्घ (1803-05) पेशवा बाजीराव द्वितीय के होल्करों (एक प्रमुख मराठा कुल) से हारने और दिसंबर, 1802 में बेसीन की संधि के तहत अंग्रेजों का संरक्षण स्वीकार करने से प्रारंभ हुआ। सिंधिया तथा भोंसले परिवारों ने इस समझौते का विरोध किया, लेकिन वे क्रमश: लसवाड़ी व दिल्ली में लॉर्ड लेक और असाय व अरगांव में सर आर्थर वेलेजली (जो बाद में वैलिंगटन के ड्यूक बने) के हाथों पराजित हुए। उसके बाद होल्कर परिवार में भी शामिल हो गया और मध्य भारत व राजस्थान के क्षेत्र में मराठा बिल्कुल आजाद हो गए।
तीसरा युद्घ (1817-18) ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्ज द्वारा पिंडारी दस्युओं के खिलाफ कार्यवाही करने के क्रम में मराठा क्षेत्र में अतिक्रमण से प्रारंभ हुआ। पेशवा की सेनाओं ने भोंसले और होल्कर के सहयोग से अंग्रेजों का मुकाबला किया (नवंबर 1817) लेकिन सिंधिया ने इसमें कोई भूमिका नहीं निभाई। बहुत जल्दी मराठे हार गए, जिसके बाद पेशवा को पेंशन देकर उनके क्षेत्र का ब्रिटिश राज्य में विलय कर लिया गया। इस तरह भारत में ब्रिटिश राज्य का आधिपत्य पूर्णरूप से स्थापित हो गया।