सामान्य ज्ञान
आल्हखण्ड एक प्रसिद्ध लोक महाकाव्य है। आल्हखण्ड के रचयिता जगनिक माने गए हैं। जगनिक कालिंजर तथा महोबा के शासक परमाल (परमर्दिदेव) के दरबारी कवि थे। कुछ विद्वानों का मानना है कि जगनिक भाट थे तथा कुछ का मानना है कि जगनिक बन्दीजन थे। जगनिक का समय 1173 ई0 के आसपास रहा है। उन्होंने महोबा के दो ख्याति-लब्ध वीरों आल्हा और ऊदल के वीर चरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में किया था। जगनिक द्वारा लिखे गए आल्हखण्ड की कोई भी प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। इस काव्य का प्रचार प्रसार समस्त उत्तर भारत में है। उसके आधार पर प्रचलित गाथा हिन्दी भाषा भाषी प्रान्तों के गांव-गांव में सुनी जा सकती है। आल्हा लोकगाथा वर्षा ऋतु में विशेष रूप से गाई जाती है।
फर्रुखाबाद में 1865 ई. में वहां के तत्कालीन कलेक्टर सर चाल्र्स इलियट ने अनेक भाटों की सहायता से आल्हाखंड को लिखवाया था। सर जार्ज ग्रियर्सन ने बिहार में (इण्डियन) एण्टीक्वेरी और विसेंट स्मिथ ने बुन्देलखण्ड लिंग्विस्टिक सर्वे आव इण्डिया में भी आल्हखण्ड के कुछ भागों का संग्रह किया था। इलियट के अनुरोध पर डब्ल्यू वाटरफील्ड ने उनके द्वारा संग्रहीत आल्हखण्ड का अंग्रेजी अनुवाद किया था, जिसका सम्पादन ग्रियर्सन ने किया। वाटरफील्डकृत अनुवाद दि नाइन लाख चेन अथवा दि मेरी फ्यूड के नाम से कलकत्ता-रिव्यू में सन 1875-76 ई. में प्रकाशित हुआ था। इस रचना के आल्हखण्ड नाम से ऐसा आभास होता है कि आल्हा संबंधित ये वीरगीत जगनिककृत उस बड़े काव्य के एक खण्ड के अन्तर्गत थे जो चन्देलों की वीरता के वर्णन में लिखा गया था।
समय के साथ आल्हखण्ड के कथानक और भाषा में बहुत कुछ परिवर्तन हो गया है। आल्हा में अब तक अनेक नए हथियारों, देशों व जातियों के नाम भी सम्मिलित हो गए हैं जो जगनिक के समय अस्तित्व में ही नहीं थे। आल्हा में पुनरुक्ति की भरमार है। विभिन्न युद्धों में एक ही तरह के वर्णन मिलते हैं। आल्हखण्ड पृथ्वीराज रासो के महोबा-खण्ड की कथा से समानता रखते हुए भी एक स्वतंत्र रचना है। मौखिक परंपरा के कारण इसमें दोषों तथा परिवर्तनों का समावेश हो गया है।